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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा रयणत्तयसंजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तरइ जदो रयणत्तयदिव्वणावाए ॥१६१॥ अन्वयार्थः- [जदो ] जब यह जीव [ रयणत्तयदिव्वणावाए ] रत्नत्रयरूप सुन्दर नावके द्वारा [ संसारं तरइ ] संसारसे तिरता है पार होता है तब [ जीवो वि ] यह ही जीव [ रयणचयसंजुचो ] रत्नत्रय सहित होता हुवा [ उत्तमं तित्थं हवेइ ] उत्तम तीर्थ है। भावार्थः-जो तैरता है तथा जिससे तैरा जाता है उसको तीर्थ कहते हैं। यह जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र अर्थात् रत्नत्रयरूपी नावके द्वारा तैरता है तथा दूसरोंके तैरनेको निमित्त है इसलिये यह जीव ही तीर्थ है। अब अन्य प्रकार जीवके भेद कहते हैंजीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अन्तरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ॥१६२।। अन्वयार्थः- [ जीवा बहिरप्पा तहय अन्तरप्पा य परमप्पा तिविहा हवंति ] जीव बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इस तरह तीन प्रकारके होते हैं [ परमप्पा वि य दुविहा अरहता तह य सिद्धा य ] और परमात्मा भी अरहन्त तथा सिद्ध इस तरह दो प्रकारके होते हैं। अब इनका स्वरूप कहेंगे । पहिले बहिरात्मा कैसा है सो कहते हैंमिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुटु आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥१६३॥ जो विपरीत है अर्थात् सम्यक्त्व रहित; व्रतरहित जीव नियमसे पाप जीव जानना, वे अनन्तानन्त हैं। सब संसार राशिमेंसे अन्य गुणस्थान वालोंका प्रमाण कम करने पर मिथ्या दृष्टिओंका प्रमाण आता है, सासादन गुणस्थान वाले जीव भी पापजीव हैं कारण कि अनन्तानुबन्धी चार कषायोंमेंसे किसी एक कषायका इसके उदय हो रहा है अतः यह भी मिथ्यात्व गुणको प्राप्त होता है। और वह पल्यके असंख्यभाग प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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