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कार्तिकैयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ अण्णइरूवं दव्वं ] जीवादिक वस्तु अन्वयरूपसे द्रव्य है [विसेसरूवो पज्जाओ हवे ] वह ही विशेषरूपसे पर्याय है [ विसेसेण हि दव्यं पि सददं उप्पजदि णस्सदे ] और विशेषरूपसे द्रव्य भी निरन्तर उत्पन्न व नष्ट होता है ।
भावार्थः-अन्वयरूप पर्यायोंमें नित्य सामान्य भावको द्रव्य कहते हैं और जो अनित्य विशेष भाव हैं वे पर्यायें हैं । सो विशेषरूपसे द्रव्य भी उत्पादव्ययस्वरूप कहा जाता है । किन्तु ऐसा नहीं कि पर्याय द्रव्यसे भिन्न हो उत्पन्न व नष्ट होती है किन्तु अभेदविवक्षासे द्रव्य ही उत्पन्न व नष्ट होता है । भेदविवक्षासे भिन्न भी कहा जाता है।
अब गुणका स्वरूप कहते हैंसरिसो जो परिणामो, अणाइणिहणो हवे गुणो सो हि । सो सामण्णसरूवो, उप्पज्जदि णस्सदे णेय ॥२४१॥
अन्वयार्थः- [जो परिणामो सरिसो अणाइणिहणो सो हि गुणो हवे ] जो द्रव्यका परिणाम सदृश ( पूर्व उत्तर सब पर्यायों में समान ) होता है अनादिनिधन होता है वह ही गुण है [ सो सामण्णसरूवो उप्पञ्जदि णस्सदे णेय ] वह सामान्यस्वरूपसे उत्पन्न व नष्ट भी नहीं होता है ।
भावार्थ:-जैसे जीवद्रव्यका चैतन्य गुण सब पर्यायों में विद्यमान है, अनारिदनिधन है,वह सामान्यस्वरूपसे उत्पन्न व नष्ट नहीं होता है, विशेषरूपसे पर्यायों में व्यक्तरूप होता ही है, ऐसा गुण है । ऐसा ही अपने अपने साधारण असाधारण गुण सब द्रव्यों में जानना चाहिये।
अब कहते हैं कि गुणाभास विशेषस्वरूपसे उत्पन्न व नष्ट होता है, गुणपर्यायोंका एकत्व है सो ही द्रव्य है
सो वि विणस्सदि जायदि, विसेसरूवेण सव्वदव्वेसु । दव्वगुणपज्जयाणं, एयत्तं वत्थु परमत्थं ॥२४२।।
अन्वयार्थः- [ सो वि सव्वदव्वेसु विसेसरूवैण विणस्सदि जायदि ] गुण भी द्रव्योंमें विशेषरूपसे उत्पन्न व नष्ट होता है [ दव्यगुणपजयाणं एयचं ] इस तरहसे द्रव्यगुणपर्यायोंका एकत्व है [ परमत्थं वत्थु ] वह हो परमार्थभूत वस्तु है ।
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