SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकानुप्रेक्षा १०६ भावार्थ:- गुणका स्वरूप वस्तुसे भिन्न ही नहीं है, नित्य रूप सदा रहता है, गुणगुणीके कथंचित् अभेदपना है इसलिये जो पर्यायें उत्पन्न व नष्ट होती हैं वे गुणगुणी विकार हैं इसलिये गुण उत्पन्न होते हैं व नष्ट होते हैं ऐसा भी कहा जाता है । इस तरह ही नित्यानित्यात्मक वस्तुका स्वरूप है, ऐसे द्रव्यपर्यायों की एकता ही परमार्थरूप वस्तु है । अब आशंका उत्पन्न होती है कि द्रव्यों में पर्यायें विद्यमान उत्पन्न होती हैं या अविद्यमान उत्पन्न होती हैं ? ऐसी आशंकाको दूर करते हैं— जदि दब्वे पज्जाया, वि विज्जमाणा सिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती विहला, पडिपिहिदे देवदत्तेव्व ॥ २४३ ॥ अन्वयार्थः - [ जदि दब्वे पञ्जाया ] जो द्रव्यों में पर्यायें हैं वे [ वि विजमाणा तिरोहिदा संति ] विद्यमान और तिरोहित ढकी हुई हैं ऐसा माना जाय ता उप्पत्ती बिहला ] तो उत्पत्ति कहना विफल है [ पडिपिहिदे देवदत्शेव्व ] जैसे देवदत्त कपड़े से ढका हुआ था, कपड़े को हटा देने पर यह कहा जाय कि यह उत्पन्न हुआ इस तरह से उत्पत्ति कहना परमार्थ ( सत्य ) नहीं, विफल है । इसी तरह ढकी हुई द्रव्यपर्यायके प्रगट होने पर उसकी उत्पत्ति कहना परमार्थ नहीं है इसलिये अविद्यमान पर्यायकी ही उत्पत्ति कही जाती है । सव्वाण पज्जया, अविज्जमारणाण होदि उत्पत्ती । कालाईलदीए, अणाइहिणम्मि दव्वम्मि ॥ २४४ ॥ अन्वयार्थः– [ अणाइणिहणम्मि दव्वम्मि ] अनादिनिधन द्रव्यों में [ कालाईaate ] कालादि लब्धि से [ सव्वाण ] सब [ अविजमाणाण ] अविद्यमान [ पजयाणं ] पर्यायोंकी [ उत्पत्ती ] उत्पत्ति [ होदि ] होती है । भावार्थ:- अनादिनिधन द्रव्यमें काल आदि लब्धिसे पर्यायें अविद्यमान उत्पन्न होती हैं, ऐसा नहीं है कि सब पर्यायें एक ही समय में विद्यमान हो और वे ढकती जाती हैं, समय समय क्रमसे नवीन नवीन ही उत्पन्न होती हैं । द्रव्य त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंका समुदाय है, कालभेदसे क्रमसे पर्यायें होती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy