________________
धर्मानुप्रेक्षा
१६७
( संवररूप ) परिणाम सहित होता हुआ पर्यायको छोड़ता है तो स्वर्गके सुखों को पाता है, वहाँ भी यह वांछा रहती है कि मनुष्य होकर व्रतोंका पालन करूं । इस तरह अनुक्रम से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है ।
एक पि वयं विमलं, सद्दिट्ठी जइ कुणेदि दिढचित्तो । तो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए यिमा ॥ ३७० ॥ अन्वयार्थः–[ सद्दिड्डी ] सम्यग्दृष्टि जीव [ दिढचित्तो ] दृढ़चित्त होकर [ज] यदि [ एक पि वयं विमलं कुणेदि ] एक भी व्रतका अतिचाररहित निर्मल पालन करता है [ तो विहिरिद्धिजुरां इंदरां णियमा पावए ] तो अनेक प्रकारकी ऋद्धियों सहित इन्द्रपदको नियमसे पाता है ।
भावार्थ:- यहाँ एक भी व्रत अतिचाररहित पालन करनेका फल इन्द्रपद नियमसे कहा है । सो ऐसा आशय सूचित होता है कि व्रतोंके पालनेके परिणाम सबके समानजाति के हैं । जहाँ एक व्रतको दृढ़चित्तसे पालता है वहाँ अन्य उसके समानजातीय व्रत पालने के लिये अविनाभावीपना है इसलिये सब हो व्रत पाले हुए कहलाते हैं । ऐसा भी है कि एक आखड़ी ( त्याग ) को अन्तसमय दृढ़चित्तसे पकड़ उसमें लीन परिणाम होते हुए पर्याय छूटती है तो उस समय अन्य उपयोगके अभाव से बड़े धर्मध्यान सहित परगतिको गमन होता है तब उच्चगति ही पाता है, यह नियम है । ऐसे आशय से एक व्रतका ऐमा माहात्म्य कहा है । यहाँ ऐसा नहीं जानना चाहिये कि 'एक व्रतका तो पालन करे और अन्य पाप सेवन किया करे, उसका भी ऊँचा फल होता है' इस तरह तो चोरी छोड़ दे और परस्त्री सेवन किया करे, हिंसादिक करता रहे उसका भी उच्च फल हो, सो ऐसा नहीं । इस तरह दूसरी व्रत प्रतिमाका वर्णन किया । बारह भेदोंकी अपेक्षा यह तीसरा भेद हुआ । अब तीसरी सामायिक प्रतिमाका निरूपण करते हैंजो कुदि काउसग्गं, वारसप्रावत्तसंजदो धीरो । मणदुगं पि कुतो, चदुप्पणामो पसण्णप्पा ||३७१ ॥ चिंततो सरूवं, जिणबिंबं हव अक्खरं परमं । ज्झायदि कम्मविवार्य, तस्स वयं होदि सामइयं || ३७२ ||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org