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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
तथा दिन दिन प्रति कालकी मर्यादा लेकर करे, इसका प्रयोजन यह है कि अन्तरंग में तो लोभ कषाय और काम ( इच्छा ) के शमन करने ( घटाने ) के लिये [ सावज - जण तस्स चत्थं वयं होदि ] तथा बाह्य में पाप हिंसादिकके वर्जने ( रोकने ) लिये करता है उस श्रावकके चौथा देशावकाशिक नामका शिक्षाव्रत होता है ।
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भावार्थ:- पहिले दिग्व्रतमें मर्यादा की थी वह तो नियमरूप थी । अब यहाँ उसमें भी कालकी मर्यादा लेकर घर हाट ( बाजार ) गाँव आदि तककी गमनागमनकी मर्यादा करे तथा भोगोपभोगव्रत में यमरूप इन्द्रियविषयोंकी मर्यादा की थी उसमें भी कालकी मर्यादा लेकर नियम करे इस व्रत में सत्रह नियम कहे गये हैं उनका पालन करना चाहिये । प्रतिदिन मर्यादा करते रहना चाहिये । इससे लोभका तथा तृष्णा ( वांछा ) का संकोच होता है बाह्यमें हिंसादि पापोंकी हानि होती है । ऐसे चार शिक्षाव्रतों का वर्णन किया । ये चारों ही श्रावकको अणुव्रत यत्न से पालनेकी तथा महाव्रत के पालने की शिक्षारूप हैं ।
अब अंतसल्लेखनाको संक्षेपसे कहते हैं—
वारसवएहिं जुत्तो, जो संलेहणं करेदि उसंतो । सो सुरसोक्खं पाविय, कमेण सोक्खं परं लहदि ॥ ३६६ ॥
अन्वयार्थः - [ जो ] जो श्रावक [ वारसवएहिं जुतो ] बारह व्रत सहित [ उवसंतो संलेहणं करेदि ] अन्त समय में उपशम भावोंसे युक्त होकर सल्लेखना करता है [ सो सुरसोक्खं पाविय ] वह स्वर्गके सुख पाकर [कमेण परं सोक्खं लहदि] अनुक्रमसे उत्कृष्ट सुख ( मोक्ष ) को पाता है ।
भावार्थ:- सल्लेखना नाम कषायोंको और कायको क्षीण करनेका है | श्रावक बारह व्रतों का पालन करे और मरणका समय जाने तब सावधान हो सब वस्तुओं से ममत्व छोड़ कषायोंको क्षीण कर उपशमभाव ( मन्द कषाय ) रूप होकर रहे और कायको अनुक्रमसे ऊनोदर नीरस आदि तपोंसे क्षीण करे । इस तरह कायको क्षीण करने से शरीर में मलमूत्रके निमित्तसे जो रोग होते हैं वे रोग उत्पन्न नहीं होते हैं । अन्त समय असावधान नहीं होता है । ऐसे सल्लेखना करे, अन्त समय सावधान हो अपने स्वरूप में तथा अरहन्त सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूपके चितवनमें लोन हो और व्रतरूप
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