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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अब नि:कांक्षित गुणको कहते हैं
जो सग्गसुहणिमित्तं, धम्मं णायरदि दूसद्दतवेहिं । मोक्खं समीक्षमाणो, णिक्खंखा जायदे तस्स ॥ ४१५ ॥
अन्वयार्थः–[ जो ] जो सम्यग्दृष्टि [ दूसहतवेर्हि ] दुद्धर तपसे भो [ मोक्खं समहमाण ] मोक्ष की ही वांछा करता हुआ [ सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि] स्वर्गसुख के लिये धर्मका आचरण नहीं करता है [ तस्स णिक्खखा जायदे ] उसके निःकांक्षित गुण होता है ।
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भावार्थः – जो धर्मका आचरण तथा दुद्धर तप मोक्षही के लिये करता है, स्वर्गादिके सुख नहीं चाहता है उसके निःकांक्षित गुण होता है । अब निर्विचिकित्सा गुणको कहते हैं
दह विहधम्मजदाणं, सहावदुग्गंध असुइदेहेसु ।
जं गिंदणं ण कीरइ, णिब्वि दिगिंडा गुणो सो हु ॥ ४१६॥
अन्वयार्थः– [ दहविहधम्मजुदाणं ] दस प्रकारके धर्म सहित [ सहावदुग्गंधअसुदे ] मुनिराजका शरीर पहिले तो जो स्वभावसे ही दुर्गन्धित और अशुचि है और स्नानादि संस्कारके अभाव से बाह्य में विशेष अशुचि और दुर्गन्धित दिखाई देता है उसकी [ जं निंदणं ण कीरइ ] जो निन्दा ( अवज्ञा ) नहीं करना [ सो हु विदिगिळा गुणो ] सो निर्विचिकित्सा गुण है ।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि पुरुषकी प्रधान दृष्टि सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र गुणों पर पड़ती है, देह तो स्वभाव ही से अशुचि और दुर्गन्धित है इसलिये मुनिराजकी देहकी तरफ क्या देखे ? उनके रत्नत्रयकी तरफ देखे तब ग्लानि क्यों आवे ? ऐसी ग्लानिका उत्पन्न न होना ही निर्विचिकित्सा गुण है । जिसके सम्यक्त्व गुण प्रधान नहीं होता है उसकी दृष्टि पहिले देह पर पड़ती है तब ग्लानि उत्पन्न होती है वहाँ यह गुण नहीं होता है ।
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अब अमूढदृष्टि गुणको कहते हैं
भयलज्जालाहादो, हिंसारं भो ण मरणदे धम्मो । जो जिरवणे लीणो, अमूढदिट्ठी हवे सो दु ॥४१७॥
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