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धर्मानुप्रेक्षा जाने, कषायोंको अपराध ( दुःख ) रूप जाने इनसे अपना घात जाने तब अपनी दया कषाय भावके अभावको मानता है इस तरह अहिंसाको धर्म जानता है हिंसाको अधर्म जानता है ऐसा श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। उसके निःशंकित आदि आठ अंग हैं, उनको जीवदया हो पर लगाकर कहते हैं, पहिले निःशंकित अंगको कहते हैं
किं जीवदया धम्मो, जगणे हिंसा वि होदि किं धम्मो। इच्चेवमादिसंका, तदकरणं जाण णिस्संका ॥४१३॥
अन्वयार्थः-[ किं जीवदया धम्मो ] यह विचार करना कि क्या जीवदया धर्म है ? [ जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो ] अथवा यज्ञमें पशुओंके वधरूप हिंसा होती है सो धर्म है ? [ इच्चेवमादिसंका ] इत्यादि धर्ममें संशय होना सो शंका है [ तदकरणं णिस्संका जाण ] इसका नहीं करना सो निःशंका है ऐसा जान ।
भावार्थ:-यहाँ आदि शब्दसे क्या दिगम्बर यतीश्वरोंको ही मोक्ष है अथवा तापस पंचाग्नि आदि तप करते हैं उनको भी है । क्या दिगम्बरको ही मोक्ष है या श्वेताम्बरको भी है ? केवली कवलाहार करते हैं या नहीं करते हैं ? स्त्रियोंको मोक्ष है या नहीं ? जिनदेवने वस्तुको अनेकान्त कहा है सो सत्य है या असत्य है ? ऐसी आशंकाएं नहीं करना सो निःशंकित अंग है।
दयभावो वि य धम्मो, हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो । इदि संदेहाभावो, णिस्संका णिम्मला होदि ॥४१४॥
अन्वयार्थः-[ दयभावो वि य धम्मो ] निश्चयसे दया भाव ही धर्म है [हिंसाभावो धम्मो ण भण्णदे ] हिंसाभाव धर्म नहीं कहलाता है [ इदि ] ऐसा निश्चय होने पर [ संदेहाभावो ] सन्देहका अभाव होता है [णिम्मला णिस्संका होदि ] वह ही निर्मल निःशंकित गुण है ।
___ भावार्थः-अन्यमतवालोंके माने हुए देव धर्म गुरु तथा तत्त्वके विपरीत स्वरूपका सर्वथा निषेध करके जैनमतमें कहे हुएका श्रद्धान करना सो निःशंकित गुण है, जबतक शंका रहती है तबतक श्रद्धान निर्मल नहीं होता है ।
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