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________________ १९४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा इसलिये पुण्यबन्धका कारण मन्दकषाय है [ वंछा ण हि ] वांछा पुण्यबन्धका कारण नहीं है। ___ भावार्थः-पुण्यबन्ध मन्दकषायसे होता है और इसकी वांछा है सो तीव्र कषाय है इसलिये वांछा नहीं करना चाहिये । निर्वांछक पुरुषके पुण्य बन्ध होता है। यह लोकमें भी प्रसिद्ध है कि जो चाह करता है उसको कुछ नहीं मिलता है, बिना चाहवालेको बहुत मिलता है इसलिये वांछाका तो निषेध ही है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अध्यात्म ग्रन्थों में तो पुण्यका निषेध बहुत किया और पुराणों में पुण्यहीका अधिकार है इसलिये हम तो यह जानते हैं कि संसारमें पुण्य ही बड़ा है, इसीसे तो यहाँ इन्द्रियोंके सुख मिलते हैं और इसीसे मनुष्य पर्याय, उत्तम संगति, उत्तम शरीर मोक्षसिद्धिके उपाय मिलते हैं, पापसे नरक निगोदमें जावे तब मोक्षका भी साधन कहाँ मिले ? इसलिये ऐसे पुण्यकी वांछा क्यों नहीं करना चाहिये ? इसका समाधान __ यह कहा सो तो सत्य है परन्तु भोगोंके लिये पुण्यकी वांछाका अत्यन्त निषेव है । जो भोगनेके लिये पुण्य की वांछा करता है उसके पहिले तो सातिशय पुण्यबन्ध ही नहीं होता है और यहाँ तपश्चरणादिकसे कुछ पुण्य बाँध कर भोग पाता है तो अति तृष्णासे भोगोंको भोगता है तब नरक निगोद ही पाता है । बन्ध मोक्षके स्वरूप साधने के लिये पुण्य पाता है उसका निषेध नहीं है । पुण्यसे मोक्ष साधनेकी सामग्री मिले ऐसा उपाय रक्खे तो परम्परासे मोक्षही की वांछा हुई, पुण्य की वांछा तो नहीं हई । जैसे कोई पुरुष भोजन करनेकी वांछासे रसोईकी सामग्री इकट्ठी करता है उनको वांछा पहिले होवे तो भोजन ही की वांछा कहना चाहिये और भोजनको वांछाके बिना केवल सामग्रीहीकी वांछा करे तो सामग्री मिलने पर भी प्रयास मात्र ही हुआ, कुछ फल तो नहीं हुआ ऐसा जानना चाहिये । पुराणों में पुण्यका अधिकार भी मोक्ष ही के लिये है संसारका तो वहां भी निषेध ही है । दशलक्षण धर्म दयाप्रधान है और दया सम्यक्त्वका मुख्य चिह्न है क्योंकि सम्यक्त्व जीव अजीव आश्रव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष इस तत्त्वार्थके ज्ञानपूर्वक श्रद्धान स्वरूप है । इसके यह होवे तब सब जीवोंको अपने समान ही जानता है, उनको दुःख होता है तो अपने समान जानता है तब उनकी करुणा होवे ही और अपना शुद्ध स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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