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संसार- अनुप्रेक्षा
पुरुषके [ विसया विदुहावहा हुँति ] अन्य विषय बहुत भी होवें तो भी वे उसको दुःखदाई ही दिखते हैं ।
भावार्थ:- मानसिक चिन्ता होती है तब सब ही सामग्री दुःखरूप दिखाई
देती है ।
देवापि य सुक्खं, मणहरविसएहिं कीरदे जदि ही । विषयवसं जं सुक्खं, दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥ ६१ ॥
अन्वयार्थः - [ जदि ही देवाणं पिय मणहर विसएहिं सुक्खं कीरदे ] यदि देवोंके मनोहर विषयोंसे सुख समझा जावे तो सुख नहीं है [ जं विषयवसं सुक्खं ] जो विषयोंके आधीन सुख है [ तं पि दुक्खस्स वि कारणं ] वह दुःखहीका कारण है ।
भावार्थ:- अन्य निमित्तसे सुख मानते हैं सो भ्रम है, जिस वस्तुको सुखका कारण मानते हैं वह ही वस्तु कालान्तर में ( कुछ समय बाद ) दुःखका कारण हो जाती है ।
अब कहते हैं कि इस तरह विचार करने पर कहीं भी सुख नहीं हैएवं सुट्ठ-असारे, संसारे दुक्खसारे घोरे |
किं कथविथ सुहं, वियारमाणं सुणिच्चयदो ॥ ६२ ॥
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अन्वयार्थः – [ एवं सुट्ठ-असारे ] इस तरह सब प्रकार से असार [ दुक्खसायरे घोरे संसारे ] दुःख के सागर भयानक संसार में [ सुणिच्चयदो वियारमाणं ] निश्चयसे विचार किया जाय तो [ किं कत्थ वि सुहं अस्थि ] क्या कहीं भी कुछ सुख है ? अर्थात् नहीं है ।
भावार्थ:- चारगतिरूप संसार है और चारों ही गतियां दुःखरूप हैं तब सुख
कहां ?
अब कहते हैं कि यह जीव पर्यायबुद्धि है जिस योनिमें उत्पन्न होता है वहीं सुख मान लेता है-
दुक्कियकम्मवसादो, राया वि य असुइकीडओ होदि । तत्थेव य कुणइ रई, पेक्खद मोहस्स माहप्पं ॥ ६३ ॥
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