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________________ १९८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो धम्मादो चलमाणं अण्णं धम्मम्मि संठवेदि ] जो धर्मसे चलायमान होते हुए दूसरेको धर्ममें स्थापित करता है [ अप्पाणं सुदिढयदि ] और अपने आत्माको भी चलायमान होनेसे दृढ़ करता है [ तस्सेव ठिदिकरणं होदि ] उसके निश्चयसे स्थितिकरण गुण होता है । भावार्थ:-धर्मसे चिगने ( चलायमान होने ) के अनेक कारण हैं इसलिये निश्चय व्यवहाररूप धर्मसे दूसरेको तथा अपनेको चलायमान होता जानकर उपदेशसे तथा जैसे बने वैसे दृढ़ करे उसके स्थितिकरण गुण होता है । अब वात्सल्य गुणको कहते हैं जो धम्मिएसु भत्तो, अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए । पियवयणं जंपतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥४२०॥ अन्वयार्थः-[जो धम्मिएसु भत्तो ] जो सम्यग्दृष्टि जीव धार्मिक अर्थात् सम्यग्दृष्टि श्रावकों तथा मुनियों में भक्तिवान् हो [अणुचरणं कुणदि ] उनके अनुसार प्रवृत्ति करता हो [ परमसद्धाए पियवयणं जपतो] परम श्रद्धासे प्रिय वचन बोलता हो [ तस्स भव्वस्स वच्छल्ल] उस भव्यके वात्सल्य गुण होता है । भावार्थ:-वात्सल्य गुणमें धर्मानुराग प्रधान है, विशेषकर धर्मात्मा पुरुषोंसे जिसके भक्ति अनुराग हो, उनसे प्रिय वचन सहित बोले, उनका भोजन गमन आगमन आदिकी क्रिया में अनुचर होकर प्रवृत्ति करे, गाय बछड़ेकासा प्रेम रक्खे उसके वात्सल्य गुण होता है । अब प्रभावना गुणको कहते हैं जो दसभेयं धम्म, भव्वजणाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि, णाणेण पहावणा तस्स ॥४२१॥ अन्वयार्थः- [जो दसभेयं धम्म भव्वजणाणं ] जो सम्यग्दृष्टि दसभेदरूप धर्मको भव्यजीवोंके निकट [णाणेण ] अपने ज्ञानसे [ विमलं पयासदे] निर्मल प्रगट करे [ अप्पाणं पि पयासदि ] तथा अपनी आत्माको दसप्रकारके धर्म से प्रकाशित करे [ तस्स पहावणा ] उसके प्रभावना गुण होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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