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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा इसप्रकार देव शास्त्र गुरुको नमस्काररूप मंगलाचरण पूर्वक प्रतिज्ञा करके स्वामिकातिके यानुप्रेक्षा नामक ग्रन्थकी देशभाषामय वचनिका की जाती है । सो संस्कृत टीकाके अनुसार मेरी बुद्धि माफिक गाथाका संक्षेप अर्थ लिखूगा उसमें कहीं भूल हो जाय तो विशेष बुद्धिमान् ठीक कर लेवें। श्रीमत्स्वामिकात्तिकेय नामक आचार्य, अपने ज्ञानवैराग्यकी वृद्धि होना, नवीन श्रोताओंके ज्ञानवैराग्यका उत्पन्न होना तथा विशुद्धता होनेसे पापकर्मकी निर्जरा, पूण्यका उत्पन्न होना, शिष्टाचारका पालना, विघ्नरहित शास्त्रकी समाप्ति होना इत्यादि अनेक अच्छे फलोंको चाहते हुए अपने इष्ट देवको नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा कर गाथा कहते हैं--- तिहुवणतिलयं देवं, वंदित्ता तिहुवर्णिदपरिपुज्जं । वोच्छं अणुपेहाओ, भवियजणाणंदजणणीओ ॥१॥ अन्वयार्थः-[ तिहवणतिलयं ] तीन भुवनका तिलक [तिहुवणिंदपरिपुज्ज । तीन भुवनके इन्द्रोंसे पूज्य (ऐसे) [ देवं ] देवको ( मैं अर्थात् स्वामि कात्तिकेय ) [वंदिता] नमस्कार करके [ भवियजणाणंदजणणीओ ] भव्य जीवोंको आनन्द उत्पन्न करने वाली [ अणुपेहाओ ] अनुप्रेक्षायें [ वोच्छं ] कहूंगा। भावार्थ:-यहां 'देव' ऐसी सामान्य संज्ञा है सो क्रीड़ा, रति, विजिगीषा, द्य ति, स्तुति, प्रमोद, गति, कान्ति इत्यादि क्रियायें करे उसको देव कहते हैं, सो सामान्यतया तो चार प्रकारके देव वा कल्पित देव भी गिने जाते हैं. उनसे भिन्नता दिखाने के लिये 'तिहुवणतिलयं (त्रिभुवनतिलक)' ऐसा विशेषण दिया इससे अन्य देवका व्यवच्छेद ' (निराकरण) हुआ, परन्तु तीन भुवनके तिलक इन्द्र भी हैं, उनसे भिन्नता दिखाने के लिए 'तिहुअणिदपरिपुज्जं (त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यं)' ऐसा विशेषण दिया, जिससे तीन भुवनके इन्द्रों द्वारा भी पूज्य ऐसा जो देव है उसको नमस्कार किया। यहां इसप्रकार समझना कि ऊपर कहे अनुसार देवपना अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंचपरमेष्ठियोंमें ही पाया जाता है, क्योंकि परम स्वात्मजनित ॐ इस जगह भाषानुवादक स्वर्गीय पण्डित जयचन्द्रजीने समस्त ग्रन्थकी पीठिका ( कथनकी संक्षिप्त विषय सूची ) लिखी है सो हमने उसको यहां न रखकर आधुनिक प्रथानुसार प्रारम्भमें विस्तृत विषय सूचीके रूपमें लिख दी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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