________________
* श्री परमात्मने नमः * श्रीमत् स्वामि कार्तिकेय प्रणीत
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
( भाषानुवाद सहित ) भाषाकार का मंगलाचरण
* दोहा के प्रथम ऋषभ जिन धर्मकर, सनमति चरम जिनेश । विधनहरन मंगलकरन, भवतमदुरितदिनेश ॥१॥ चानी जिनमुख खिरी, परी गणाधिप कान । अक्षरपदमय विस्तरी, करहि सकल कल्यान ।।२।। गुरु गणधर गुणधर सकल, प्रचुर परम्पर और । व्रततपधर तनुनगनतर, बंदौं वृष शिरमौर ।।३।। स्वामिकार्चिकेय मुनी, बारह भावन भाय । कियो कथन विस्तार करि, प्राकृतछंद बनाय ॥४॥ ताकी टीका संस्कृत, करी सु-धर शुभचन्द्र । सुगमदेशभाषामयी, करू नाम जयचन्द्र ॥ पढहु पढावहु भव्यजन, यथाज्ञान मनधारि । करहु निर्जरा कर्मकी, बार बार सुविचारि ॥६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org