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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कोई, जीवोंको सर्वथा शुद्ध ही कहते हैं उनके मतका निषेध करते हैं
जइ पुण सुद्धसहावा, सव्वेजीवा अणाइकाले वि। तो तवचरणविहाणं, सव्वेसि णिप्फलं होदि ॥२००॥
अन्वयार्थः-[ जइ ] यदि [ सव्वे जीवा अणाइकाले वि ] सब जीव अनादिकालसे [ सुद्धसहावा ] शुद्धस्वभाव हैं [ तो सव्वेसि ] तो सबहीको [ तवचरणविहाणं ] तपश्चरण विधान [णिप्फलं होदि ] निष्फल होता है।
ता किह गिण्हदि देहं, णाणाकम्माणि ता कहं कुणदि । सुहिदा वि य दुहिदा वि य, णाणारूवा कहं होंति ॥२०१॥
अन्वयार्थः-जो जीव सर्वथा शुद्ध है [ ता किह गिण्हदि देहं ] तो देहको कैसे ग्रहण करता है ? [ णाणाकम्माणि ता कहं कुणदि ] नाना प्रकारके कर्मों को कैसे करता है ? [ सुहिदा वि य दुविहा वि य ] कोई सुखी है कोई दुःखी है [ णाणारूवा कहं होंति ] ऐसे नानारूप कैसे होते हैं ? इसलिये सर्वथा शुद्ध नहीं है ।
अब अशुद्धताका कारण कहते हैं
सव्वे कम्म-णिबद्धा, संसरमाणा अणाइ-काल म्हि । पच्छा तोडिय बंधं, सुद्धा सिद्धा धुवं होति ॥२०२॥
अन्वयार्थः- [ सव्वे ] सब ससारी जीव [ अणाइकालम्हि ] अनादिकालसे [ कम्माणबद्धा ] कर्मोंसे बँधे हुए हैं [ संसरमाणा ] इसलिये संसार में भ्रमण करते हैं [ पच्छा तोडिय बधं सिद्धा ] फिर कर्मोंके बन्धनको तोड़कर सिद्ध होते हैं [ सुद्धा धुवं होति ] तब शूद्ध और निश्चल होते हैं ।
अब जिस बंधसे जीव बँधते हैं उस बंधका स्वरूप कहते हैं
जो अण्णोएणपवेसो, जीवपएसाण कम्मखधाणं ।
सव्वबंधाण वि लो, सो बंधो होदि जीवस्स ॥२०३।।
अन्वयार्थः- [ जो ] जो [ जीवपएमाण कम्मखंधाणं ] जीवके प्रदेशोंका और कर्मोके स्कन्धका [ अण्णोण्णपवेसो ] परस्पर प्रवेश होना (एक क्षेत्ररूप सम्बन्ध होना)
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