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________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थः-चौथे गुणस्थानवर्ती तो जघन्य अन्तरात्मा, पांचवें छठे गुणस्थानवर्ती मध्यम अन्तरात्मा और सातवें गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक उत्कृष्ट अन्तरात्मा जानना चाहिये । अब परमात्माका स्वरूप कहते हैं स-सरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणियसयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्खसंपत्ता ॥१६८।। अन्वयार्थः- [ केवलणाणेण मुणियसयलत्था ] केवलज्ञानसे जान लिये हैं सकल पदार्थ जिन्होंने ऐसे [ ससरीरा अरहता ] शरीरसहित अरहन्त परमात्मा हैं [ सव्वुत्तम सुक्खसंपत्ता ] सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति जिनको हो गई है तथा [ णाणसरीरा सिद्धा ] ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे शरीररहित सिद्ध परमात्मा हैं । __ भावार्थः-तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती अरहन्त शरीर सहित परमात्मा हैं और सिद्ध परमेष्ठी शरीर रहित परमात्मा हैं । अब परा शब्दके अर्थको कहते हैंहिस्सेसकम्मणासे, अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए वि य, सा वि य पत्ती परा होदि ॥१६॥ अन्वयार्थः-[ जो णिस्से पकम्मणासे ] जो समस्त कर्मों के नाश होने पर [ अप्पसहावेण समुप्पत्ती ] अपने स्वभावसे उत्पन्न हो और [ कम्मनभावखए वि य ] जो कर्मोंसे उत्पन्न हुए औदयिक आदि भावोंका नाश होने पर उत्पन्न हो [ सा वि य पत्ती परा होदि ] वह भी परा कहलाती है । भावार्थ:-परा कहिये उत्कृष्ट और मा कहिये लक्ष्मी जिसके हो ऐसे आत्माको परमात्मा कहते हैं । समस्त कर्मोके नाशसे स्वभावरूप लक्ष्मीको प्राप्त हुए वे सिद्ध परमात्मा हैं और घातियाकर्मोके नाशसे अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मीको प्राप्त हुए वे अरहंत भी परमात्मा हैं तथा वे ही औदयिक आदि भावोंके नाशसे भी परमात्मा हए कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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