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________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थ:-जैस जलको पात्रमें भरकर उसमें भस्म डालते हैं सो समा जाती है, उसमें मिश्री डालते हैं तो वह भी समा जाती है और उसमें सूई घुसाई जाती है तो वह भी समा जाती है वैसे अवगाहन शक्तिको जानना चाहिये । यहां कोई प्रश्न करता है कि सब ही द्रव्यों में अवगाहनशक्ति है तो आकाशका असाधारण गुण कैसे है ? उसका उत्तर जो परस्पर तो अवगाह सब ही देते हैं तथापि आकाशद्रव्य सबसे बड़ा है। इसलिये इसमें सब ही समाते हैं यह असाधारणता है। जदि ण हवदि सा सत्ती, सहावभूदा हि सव्वदव्वाणं । एक्केकास पएसे, कह ता सव्वाणि वति ॥२१५॥ अन्वयार्थः-[ जदि ] यदि [सम्बदव्याणं ] सब द्रव्योंके [ सहावभूदा ] स्वभावभूत [ सा सत्ती ] वह अवगाहनशक्ति [ण हवदि ] न होवे तो [एक्केकासपएसे एक एक आकाशके प्रदेशमें [ कह ता सव्वाणि वट्ठति ] सब द्रव्य कैसे रहते हैं । भावार्थ:-एक आकाशके प्रदेशमें अनन्त पुद्गलके परमाणु द्रव्य रहते हैं । एक जीवका प्रदेश, एक धर्मद्रव्यका प्रदेश, एक अधर्मद्रव्यका प्रदेश. एक कालाणुद्रव्य ऐसे सब रहते हैं, वह आकाशका प्रदेश एक पुद्गलके परमाणु बराबर है, यदि अवगाहनशक्ति न होवे तो कैसे रहे ?* *[ तीनों कालके समयोंसे अलोकाकाशके प्रदेश अनन्तानन्त गुणे हैं, सब दिशाओंमें चारों ओर अमर्यादित अनन्तप्रदेशी आकाशको सर्वज्ञ भगवान भी अनन्तप्रदेशी ही जानता है । वृद्ध विद्वानोंसे सुना है कि 'सुदर्शन मेरुके बराबर एक लाख योजन लम्बा, चौड़ा, लोहेका गोला वह प्रत्येक समयमें एक राजूकी गति अनुसार यदि पतन करे तो भी पूर्ण भविष्य कालके अनन्तानन्त समयोंमें भी अलोकाकाशके तल तक नहीं पहुंच पायगा । इस दृष्टान्तको सुनकर अब निर्णीत दृष्टान्तको यों समझियेकि जम्बूद्वीपके बराबर गढ लिया गया लोहेका गोला प्रतिसमय यदि अनन्त राजू भी पतन करे अथव एक समय में अनन्त राज चलकर दूसरे समयमें उस अनन्तसे अनन्तगुणे अनन्तानन्त राजू गमन करे, यों तीसरे आदि समयोंमें पूर्व पूर्वसे अनन्तगुणा चलता जाय फिर भी भविष्यकालके अनन्तानन्त समयोंमें अलोकाकाशकी सड़क ( एक श्रेणीको भी ) पूरा नहीं कर सकेगा, कारणकि "तिबिह जहण्णाणंतं पगासला दलबिदी सगादि पदं। जीवो पोग्गलकाला सेढी आगास तप्पदरम् "नि० सारकी इस गाथा अनुसार कालके समय राशिसे तो अनन्त स्थान ऊपर जाकर आकाश श्रेणिके अर्धच्छेद निकलते हैं । उनसे अनन्त स्थान ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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