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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
और भी इस शरीरको अशुचि दिखाते हैं
मणुयाणं असुइमयं, विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेसिं विरमण- कज्जे, ते पुण तत्थेव अगुरता ॥८५॥
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अन्वयार्थ :- हे भव्य ! [ मणुयाणं यह मनुष्यों का [ देहं ] देह कर्मके द्वारा [ असुइमयं ] अशुचि [ विणिम्मियं जाण ] रचा गया जान । उत्प्रेक्षा ( सम्भावना ) करते हैं कि [ तेसिं विरमणकज्जे ] यह देह इन वैराग्य उत्पन्न होनेके लिये ही ऐसा बनाया है [ ते पुण तत्थेव अणुरचा मनुष्य उसमें भी अनुरागी होते हैं सो यह अज्ञान है ।
]
और भी इसी अर्थको दृढ़ करते हैं—
एवं विहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं । सेवंति आयरेण य, अलद्धपुत्रं त्ति मराणंता ॥ ८६ ॥
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अन्वयार्थः [ एवं विहं पि देहं ] इस तरह पहिले कहे अनुसार अशुचि शरीरको [ पिच्छंता वि य ] प्रत्यक्ष देखता हुआ भी यह मनुष्य उसमें [ अणुरायं ] अनुराग [ कुणंति ] करता है [ अलद्धपुव्वं त्ति मण्णंता ] जैसे ऐसा शरीर कभी पहिले न पाया हो ऐसा मानता हुआ [ आयरेण य सेवंति ] आदरपूर्वक इसकी सेवा करता है सो यह बड़ा अज्ञान है ।
विहिणा ]
यहाँ ऐसी मनुष्यों को परन्तु ये
अब कहते हैं कि इस शरीर से विरक्त होनेवाले के अशुचिभावना सफल है
जो परदेहविरत्तो, णिय देहे ग य करेदि अणुरायं । अप्पसरूव सुरतो, असुइत्ते भावणा तस्स ||७||
अन्वयार्थः - [ जो ] जो भव्य [ परदेहविरतो ] परदेह ( स्त्री आदिककी देह) से विरक्त होकर [ णियदेहे ] अपने शरीर में [ अणुरायं ] अनुराग [ ण य करेदि ] नहीं करता है [ अप्पसरूव सरतो ] अपने आत्मस्वरूपसे अनुरक्त रहता है [ तस्स ] उसके [ असुइत्ते भावणा ] अशुचि भावना सफल है ।
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