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________________ धर्मानुप्रेक्षा भावार्थः-सात व्यसनोंके त्याग में चोरीका त्याग तो होता ही है उसमें यहाँ इतनी विशेषता है कि बहुमूल्य वस्तुको अल्प मूल्यमें लेनेसे झगड़ा उत्पन्न होता है न मालुम किस कारणसे दूसरा ( देनेवाला ) अल्पमूल्य में देता है । दूसरेको भूली हुई वस्तृको तथा मार्ग में पड़ी हुई वस्तुको भी नहीं लेता है यह नहीं सोचता है कि दूसरा नहीं जानता है इसलिये किसका डर है ? व्यापारमें थोड़े ही लाभ पर सन्तोष करता है, बहुत लोभसे अनर्थ उत्पन्न होते हैं । कपटपूर्वक किसीका धन नहीं लेता है । किसोने अपने पास रक्खा हो तो उसको न देनेके भाव नहीं रखता है । लोभ तथा क्रोधसे दूसरेके धनको बलात् ( जबरदस्ती ) नहीं लेता है और घमण्ड में आकर यह भी नहीं कहता है कि हम बहादुर हैं हमने लिया तो लिया, हमारा कोई क्या कर सकता है आदि । इस तरह दूसरोंका धन स्वयं नहीं लेता है, न दूसरोंके द्वारा लिवाता है और इस तरह लेने वालोंको अच्छा भी नहीं मानता है । अन्य ग्रन्थों में इस व्रतके पाँच अतिचार कहे गये हैं, चोरको चोरीके लिये प्रेरणा करना, उसका लाया हुआ धन लेना, राज्यविरुद्ध कार्य करना, व्यापारके तोल बाट हीनाधिक रखना, अल्पमूल्यकी वस्तुको बहुमूल्य वाली वस्तु बताकर व्यापार करना ये पाँच अतिचार हैं सो गाथा में दिये गये विशेषणों में गभित हैं । इस तरह निरतिचार स्तेयत्यागवतका पालन करता है वह तीसरे अणुव्रतका धारक श्रावक होता है। अब ब्रह्मचर्यव्रतका स्वरूप कहते हैं असुइमयं दुग्गंधं, महिलादेहं विरच्चमाणो जो । रूवं लावणणं पि य, मणमोहणकारणं मुणइ ॥३३७॥ जो मण्णदि परमहिलं, जणणीबहिणीसुप्राइसारिच्छं । मणवयणे कायेण वि, बंभवई सो हवे थूलो ॥३३८॥ अन्वयार्थः-[ जो महिलादेहं असुइमयं दुग्गंधं ] जो श्रावक स्त्रीके शरीरको अशुचिमयो दुर्गन्धयुक्त जानता हुआ [ रूवं लावण्णं पि य मणमोहणकारणं मुणइ ] उसके रूप तथा लावण्यको भी मनमें मोह उत्पन्न करनेका कारण जानता है [ विरच्चमाणो] इसलिये विरक्त होता हुआ प्रवर्तता है [ जो परमहिलं जणण बहिणीसुआइसारिच्छं मणवयणे कायेण विमण्णदि ] जोपरस्त्रोको, बड़ीको माताके समान, बराबरकीको बहिनके समान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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