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कार्तिकेयानुप्रेक्षा जिस वचनसे परजीवका घात हो ऐसे हिंसाके वचन नहीं कहता है । जो बचन दूसरेको कटु लगते हों, सुनते हो क्रोधादिक उत्पन्न हो जाय ऐसे कर्कश वचन नहीं कहता है । दूसरेके उद्वेग उत्पन्न हो जाय, भय उत्पन्न हो जाय, शोक उत्पन्न हो जाय, कलह उत्पन्न हो जाय ऐसे निष्ठुर वचन नहीं कहता है । दूसरेके गुप्त मर्मका प्रकाश करने वाले वचन नहीं कहता है । उपलक्षणसे और भी ऐसे वचन जिनसे दूसरोंका बुरा होता हो ऐसे वचन नहीं कहता है । यदि कहता है तो हितमित वचन कहता है । सब जीवोंको सन्तोष उत्पन्न हो ऐसे वचन कहता है । जिनसे धर्मका प्रकाश हो ऐसे वचन कहता है। इसके अतीचार अन्य ग्रन्थोंमें मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार, साकारमंत्रभेद कहे हैं सो गाथामें विशेषण कहे उनमें सब गभित हो गये । यहाँ तात्पर्य यह है कि जिससे परजीवका बुरा हो जाय, अपने ऊपर आपत्ति आ जाय तथा वृथा प्रलापके वचनोंसे अपने प्रमाद बढ़े ऐसा स्थूल असत्यवचन अणुव्रती नहीं कहता है, दूसरेसे नहीं कहलाता है और कहने वालेको अच्छा नहीं मानता है उसके दूसरा अणुव्रत होता है ।
अब तीसरे अणुव्रत को कहते हैं
जो बहुमुल्लं वत्थु, अप्पमुल्लेण णेय गिरहेदि । वीसरियं पि ण गिणहदि, लाहे थोये वि तूसे दि ॥३३५॥ जो परदव्वं ण हरइ, मायालोहेण कोहमाणेण । दिढचित्तो सुद्धमई, अणुब्बई सो हवे तिदिओ ॥३३६॥
अन्वयार्थः-[ जो बहुमुल्ल वत्थु अप्पमुलेण णेय गिण्हेदि ] जो श्रावक बहुमूल्य वस्तुको अल्पमूल्यमें नहीं लेता है [ वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोये वि तूसेदि ] किसीकी भूलो हुई वस्तुको नहीं लेता है, व्यापार में थोड़े ही लाभसे सन्तोष करता है [ जो मायालोहेण कोहमाणेण परदव्यं ण हरइ ] जो कपटसे लोभसे क्रोधसे मानसे दूसरेके द्रव्यका हरण नहीं करता है [ दिढचित्तो ] जो दृढ़ चित्त है ( कारण पाकर प्रतिज्ञाका भंग नहीं करता है ) [सुद्धमई] शुद्ध बुद्धिवाला होता है [ सो तिदिओ अणुव्बई हवे] वह तीसरे अणुव्रतका धारक श्रावक होता है ।
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