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धर्मानुप्रेक्षा
१५१ हणजत्तो ] निंदा और गहरे सहित है । ( व्यापारादि कार्यों में हिंसा होती है उसकी अपने मन में ( अपनी ) निंदा करता है, गुरुओंके पास अपने पापोंको कहता है सो गर्हा सहित है, जो पाप लगते हैं उनकी गुरुओंकी आज्ञाप्रमाण आलोचना प्रतिक्रमण आदि प्रायश्चित्त लेता है ) [ महारंभे परिहरमाणो ] जिनमें त्रस हिंसा बहुत होती हो ऐसे बड़े व्यापार आदिके कार्य महारम्भोंको छोड़ता हुआ प्रवृत्ति करता है ।
भावार्थ:-वस घात स्वयं नहीं करता है. दूसरेसे नहीं कराता है, करते हुएको अच्छा नहीं मानता है। पर जीवोंको अपने समान जाने तब परघात नहीं करे । बड़े आरम्भ जिनमें सघात बहुत हो उनको छोड़े और अल्प आरम्भमें त्रसघात हो उससे अपनी निन्दा गर्दा करे, आलोचन प्रतिक्रमणादि प्रायश्चित करे । इनके अतिचार अन्य ग्रन्थों में कहे हैं उनको टाले ( न लगने दे ) इस गाथा में अन्य जीवको अपने समान जानना कहा है उसमें अतिचार टालना भी आ गया । परके वध बंधन अतिभारारोपण अन्नपाननिरोधमें दुःख होता है सो आप समान परको जाने तब क्यों करे ।
अब दूसरे अणुव्रतको कहते हैंहिंसावयणं ण वयदि, ककसवयणं पि जो ण भासेदि । णिठुरवयणं पि तहा, ण भासदे गुज्झवयणं पि ॥३३३॥ हिदमिदवयणं भासदि, संतोसकरं तु सव्वजीवाणं ।
धम्मपयासणवयणं, अणुव्वदि होदि सो बिदिओ ॥३३४॥
अन्वयार्थः- [ जो हिंसावयणं ण वयदि ] जो हिंसाके वचन नहीं कहता है [ कक्कसवयणं पि ण भासेदि ] कर्कश वचन भी नहीं कहता है [णिठुरवयणं पि तहा ] तथा निष्ठुर वचन भी नहीं कहता है [ गुज्झवयणं पि ण भासदे ] और परका गुह्य ( गुप्त ) वचन भी नहीं कहता है । तो कैसे वचन कहे ? [ हिदमिदवयणं भासदि ] परके हित रूप तथा प्रमाणरूप वचन कहता है [ तु सव्वजीवाणं संतोसकर ] सब जीवोंको सन्तोष करनेवाले वचन कहता है [ धम्मपयासणवयणं ] धर्मका प्रकाश करनेवाले वचन कहता है [ सो बिदिओ अणुव्वदि होदि ] वह पुरुष दूसरे अणुव्रतका धारी होता है।
भावार्थः-असत्य वचन अनेक प्रकार का है उनका पूर्ण त्याग तो सकल चारित्रके धारक मुनियोंके ही होता है और अणुव्रतोंमें तो स्थूलका हो त्याग है इसलिये
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