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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थान्तरभूत ( अपनेसे प्रदेशरूप जुदा ) [णाणेण ण सो हवै णाणी ] ज्ञान से ज्ञानी नहीं है।
भावार्थ:-नैयायिक आदि, जीव और ज्ञानको प्रदेशभेद मानकर कहते हैं कि आत्मासे ज्ञान भिन्न है परन्तु समवाय तथा संसर्गसे एक हो गया है इसलिये ज्ञानी कहलाता है जैसे कि धनसे धनी कहलाता है । ऐसा मानना असत्य है। जैसे अग्नि और उष्णताके अभेदभाव है वैसे हो आत्मा और ज्ञानके तादात्म्यभाव है ।
अब भिन्न मानने में दूषण दिखाते हैं
जदि जीवादो भिरणं, सव्वपयारेण हवदि तं णाणं । गुणगुणिभावो य तदा, दूरेण प्पणस्सदे दुण्हं ॥१७६।।
अन्वयार्थः- [जदि जीवादो भिण्णं सव्वपयारेण हवदि तं गाणं ] यदि जीवसे ज्ञान सर्वथा भिन्न ही माना जाय तो [गुणगुणिभावो य तदा दुरेण प्पणस्सदे दुण्हं ] उन दोनोंके गुणगुणिभाव दूरसे ही नष्ट हो जावें ।
भावार्थ:-यह जीव द्रव्य है, यह इसका ज्ञान गुण है ऐसा भाव नहीं रहे ।
अब कोई पूछे कि गुण और गुणीके भेद बिना दो नाम कैसे कहे जाते हैं उसका समाधा
जीवस्स वि णाणस्स वि, गुणगुणिभावेण कीरए भेो। जं जाणदि तं णाणं, एवं भेो कहं होदि ।।१८०॥
अन्वयार्थ:-[ जीवस्स वि णाणस्स वि ] जीव और ज्ञानके [गुणगुणिभावेण ] गुणगुणिभावसे [ भेओ ] कथंचित् भेद [ कीरए ] किया जाता है [ जं जाणदि णाणं ] 'जो जानता है वह ही आत्माका ज्ञान है' [ एवं भेओ कहं होदि ] ऐसा भेद कैसे होता है।
मावार्थ:-सर्वथा भेद होवे तो 'जो जानता है वह ज्ञान है' ऐसा अभेद कैसे कहा जाता है इसलिये कथंचित् गुणगुणीभावसे भेद कहा जाता है, प्रदेशभेद नहीं है ।
इस तरह कई अन्यमती गुणगुणी में सर्वथा भेद मानकर जीव और ज्ञानके सर्वथा अर्थान्तर भेद मानते हैं उनके मतका निषेध किया।
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