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________________ १८० कार्तिकेयानुप्रेक्षा प्राप्त कर मोक्ष गये, पाँचसौ मुनि दण्डक राजाकृत उपसर्ग जीत कर सिद्ध हुए, राजकुमारमुनिने पांशुलश्रेष्ठीकृत उपसर्ग जीतकर सिद्धि पाई, चाणक्य आदि पाँचसो मुनि मंत्रीकृत उपसर्गको जीतकर मोक्ष गये, सुकुमालमुनि स्यालिनीकृत उपसर्ग सहकर देव हुए, श्रेष्ठीके बाईस पुत्र नदीके प्रवाहमें पद्मासन शुभ ध्यानसे मरकर देव हुए, सुकौशल मुनि व्याघोकृत उपसर्ग जीतकर सर्वार्थसिद्धि गये और श्रीपणि कमुनि जलका उपसर्ग सहकर मोक्ष गये। इस तरह देव मनुष्य पशु अचेतन कृत उपसर्ग सहे और क्रोध नहीं किया उनके उत्तम क्षमा हुई । ऐसे उपसर्ग करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न नहीं होता है तब उत्तम क्षमा होती है। उससमय क्रोधका निमित्त आवे तो ऐसा चिन्तवन करे कि जो कोई मेरे दोष कहता है वे मेरे में विद्यमान हैं तो यह क्या मिथ्या कहता है ? ऐसा विचार कर क्षमा करना । यदि मेरेमें दोष नहीं हैं तो यह बिना जाने कहता है इसलिये अज्ञानी पर कैसा क्रोध ? ऐसा विचार कर क्षमा करना । अज्ञानीके बालस्वभाव चिन्तवन करना कि बालक तो प्रत्यक्ष भी कहता है यह तो परोक्ष ही कहता है, यह ही अच्छा है । यदि प्रत्यक्ष भी कुवचन कहे तो यह विचार करे कि बालक तो ताड़न भी करता है यह तो कुवचन ही कहता है, मारता नहीं है, यह ही अच्छा है । यदि ताड़न करे तो यह विचार करे कि बालक अज्ञानी तो प्राणघात भी करता है, यह तो ताड़ता ही है, प्राणघात तो नहीं करता है, यह ही अच्छा है । यदि प्राणघात करे तो यह विचार करे कि अज्ञानी तो धर्मका भी विध्वंस करता है यह तो प्राणघात ही करता है, धर्मका विध्वंस तो नहीं करता है और यह विचार करे कि मैंने पूर्वजन्ममें पापकर्म किये थे उनका यह दुर्वचनादिक उपसर्ग फल है, मेरा ही अपराध है पर तो निमित्तमात्र है इत्यादि चितवनसे उपसर्ग आदिकके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न नहीं होता है तब उत्तम क्षमाधर्म होता है । अब उत्तममार्दवधर्मको कहते हैं उत्तमणाणपहाणो, उत्तमतवयरणकरणसीलो वि । अप्पाणं जो हील दि, मद्दवरयणं भवे तस्स ॥३६५॥ अन्वयार्थः-[ उत्तमणाणपहाणो ] जो मुनि उत्तम ज्ञानसे तो प्रधान हो [ उत्तमतवयरणकरणसीलो वि ] उत्तम तपश्चरण करनेका जिसका स्वभाव हो [जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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