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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अन्वयार्थ :- [ सुयणो ] स्वजन ( कुटुम्बी ) भी ( जब यह जीव दुःख में फंस जाता है तब उसको ) [ पिच्छंतो वि हु] देखता हुआ भी [ दुक्खले संपि] दुःखका लेश भी [गहिंदु ] ग्रहण करनेको [ ण सक्कदे] समर्थ नहीं होता है [ एवं जाणंतो वि हु ] इस तरह प्रत्यक्षरूपसे जानता हुआ भी [ ममचं ण छंडेई ] कुटुम्बसे ममत्व नहीं छोड़ता है ।
भावार्थ:
:- अपना दुःख आप ही भोगता है, कोई बटा नहीं सकता है, यह जीव ऐसा अज्ञानी है कि दुःख सहता हुआ भी परके ममत्वको नहीं छोड़ता है । अब कहते हैं कि इस जीवके निश्चयसे धर्म ही स्वजन है
जीवस्स च्चियादो, धम्मो दहलक्खणी हवे सुयणो । सोइ देवलोए, सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ||७८ ||
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अन्वयार्थ : - [ जीवस ] इस जीवके [ यणो ] अपना हितू [ णिच्चयादो ] निश्चयसे [ दहलक्खणो ] एक उत्तम क्षमादि दशलक्षण [ धम्मो ] धर्म ही [हवे ] है [ सो ] क्योंकि वह धर्म हो [ देवलोए ] देवलोक ( स्वर्ग ) में [ ई ] ले जाता है [ सो चिय ] वह धर्म ही [ दुक्खक्खयं कुणइ ] दुःखों का क्षय (मोक्ष) करता है ।
भावार्थ:- धर्म के सिवाय और कोई भी हितू नहीं है ।
अब कहते हैं कि इस तरहसे अकेले जीवको शरीर से भिन्न जानना चाहिये -- सव्वायरेण जाणह, इक्कं जीवं सरीरदो भिरणं । जहि दु मुणिदे जीवो, होदि असेसं खणे हेयं ॥ ७६ ॥
अन्वयार्थः - हे भव्यजीवों ! [ इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं ] अकेले जीवको शरीर से भिन्न ( अलग ) [ सव्वायरेण जाणह ] सब प्रकारके प्रयत्न करके जानो [ जहि दु जीवो मुणिदे] जिस जीवके जान लेने पर [ असेसं खणे हेयं होदि ] अवशेष ( बाकी बचे ) सब परद्रव्य क्षणमात्रमें त्यागने योग्य होते हैं ।
भावार्थ:- जब जीव अपने + स्वरूपको जानता है तब ही परद्रव्य हेय ही भासते हैं, इसलिये अपने स्वरूपहीके जाननेका महान् उपदेश है ।
* [ स्व को समझता नहीं और ]
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