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________________ संसार-अनुप्रेक्षा ३१ भावार्थ:-समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में यह जीव अनन्तबार तो उत्पन्न हुआ और अनन्तबार ही मरणको प्राप्त हुआ। ऐसा प्रदेश रहा ही नहीं जिसमें उत्पन्न नहीं हुआ हो और मरा भी न हो । लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं। उसके मध्यके आठ प्रदेशोंको बीचमें देकर, सूक्ष्मनिगोदलब्धिअपर्याप्तक जघन्य अवगाहनका धारी वहां उत्पन्न होता है। उसकी अवगाहना भी असंख्यात प्रदेश है इस तरह जितने प्रदेश उतनी बार तो वह ही अवगाहना वहां ही पाता है। मध्यमें और जगह अन्य अवगाहनासे उत्पन्न होता है उसकी तो गिनती ही नहीं है। बादमें एक एक प्रदेश क्रमसे बढ़ती हुई अवगाहना पाता है सो गिनतीमें है, इस तरह महामच्छ तकको उत्कृष्ट अवगाहनाको पूरी करता है। वैसे ही क्रमसे लोकाकाशके प्रदेशोंका स्पर्श करता है तब एक क्षेत्र परावर्तन होता है। अब काल परिवर्तनको कहते हैं उवसप्पिणिअवसप्पिणि, पढमसमयादिचरमसमयंतं । जीवो कमेण जम्मदि, मरदि य सव्वेसु कालेसु ॥६६॥ अन्वयार्थः-[ उवसप्पिणिअवसप्पिणि ] उत्सर्पिणी अवपिणी कालके [ पढमसमयादिचरमसमयंतं ] पहिले समयसे लगाकार अन्तके समय तक [ जीवो कमेण ] यह जीव अनुक्रमसे [ सव्वेसु कालेसु ] सबही कालोंमें [ जम्मदि य मरदि ] उत्पन्न होता है तथा मरता है। भावार्थः-कोई जीव दस कोडाकोड़ी सागरके उत्सर्पिणी कालके पहिले समयमें जन्म पावे, बादमें दूसरे उत्सर्पिणोके दूसरे समयमें जन्म पावे, इसी तरह तीसरेके तीसरे समयमें जन्म पावे, ऐसे ही अनुक्रमसे अन्तके समयतक जन्म पाता रहे, बीचबीचमें अन्यसमयोंमें बिना अनुक्रमके जन्म पावे सो गिनती में नहीं है। इसी तरह अवसर्पिणीके दस कोड़ाकोड़ी सागरके समय पूरे करे तथा ऐसे ही मरे । इस तरह यह अनन्तकाल होता है उसको एक कालपरावर्त्तन कहते हैंअब भव परिवर्तनको कहते हैं-- णेरइयादिगदीणं, अवर-ट्ठिदो वरट्ठिदी जाव । सव्वढिदिसु वि जम्मदि, जीवो गेवेज्जपज्जतं ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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