SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मानुप्रेक्षा १४५ अन्वयार्थः- [ मदिदी एवं चिंतेड ] सम्यग्दृष्टि ऐसा विचार करता है कि [ जदि भनीए पुजमाणो वितरदेवो वि लच्छी देदि ] यदि भक्तिसे पूजा हुआ व्यन्तर देव हो लक्ष्मीको देता है [ तो धम्म कि कीरदि ] तो धर्म क्यों किया जाता है ? भावार्थ:-कार्य तो लक्ष्मोसे है सो व्यन्तर देव ही पूजा करनेसे लक्ष्मी दे देवे तो धर्म सेवन क्यों करना ? मोक्षमार्गके प्रकरण में संसारको लक्ष्मीका अधिकार भी नहीं है इसलिये सम्यग्दृष्टि तो मोक्षमार्गी है. संसारको लक्ष्मीको हेय जानता है, उसको बांछा ही नहीं करता है। यदि पुण्यके उदयसे मिले तो मिलो और न मिले तो मत मिलो, मोक्षसिद्धिको ही भावना करता है इसलिये संसारी देवादिकको पूजा वन्दना क्यों करे ? कभी भी पूजा वन्दना नहीं करता है । अब सम्यग्दृष्टि के विचार कहते हैं जं जस्स जम्मिदेसे,जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं, जम्मंवा अहव मरणं वा ॥३२१॥ तं तस्स तम्मि देसे, तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कदिवारेदु, इंदो वा तह जिणिंदो वा ॥३२२।। अन्वयार्थः-[ जं जस्म जम्मिदेसे ] जो जिस जीवके जिस देश में [ जम्मि कालम्मि ] जिस काल में [जेण विहाणेण ] जिस विधानसे [ जम्मं वा अहव मरणं वा ] जन्म तथा मरण उपलक्षणसे दुःख सुख रोग दारिद्रय आदि [ जिणेण ] सर्वज्ञ देवके द्वारा [ णादं ] जाना गया है [ णियदं ] वह वैसे ही नियमसे होगा [तं तस्स तम्मि देसे ] वह हो उस प्राणीके उस ही देश में [ तम्मि कालम्मि ] उस हो कालमें [ तेण विहाणेण ] उसही विधानसे नियमसे होता है [ इदो वा तह जिणिंदो वा को वारेदं सक्कदि ] उसका इन्द्र, जिनेन्द्र, तीर्थंकर देव कोई भी निवारण नहीं कर सकते । भावार्थः-सर्वज्ञदेव सब द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अवस्था जानते हैं इसलिये जो सर्वज्ञके ज्ञान में झलका है ( जाना गया है ) वह नियमसे होता है उसमें हीनादिक कुछ भी नहीं होता है, सम्यग्दृष्टि ऐसा विचारता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy