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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
संस्कारसे छेदन, भेदन, मारन, ताड़न, और कुम्भीपाक आदि करते हैं । वहांका दुःख उपमा रहित है ।
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आगे इसी दुःखको विशेष रूपसे कहते हैं—
छिनइ तिल तिलमित्तं, भिंदिजड़ तिल तिलंतरं सयलं । वजग्गिए कढिज्जइ, णिहिप्पए पूयकुडम्हि ॥ ३६ ॥
अन्वयार्थः - ( नरक में ) [ तिलतिलमित्तं छिजइ ] तिल तिलमात्र छेद देते हैं [ सयलं तिलतिलं भिंदिजइ ] शकल कहिये खण्डको भी तिल तिलमात्र भेद देते हैं [ वञ्जग्गिए कटिज ] वज्राग्निमें पकाते हैं [ पूयकुण्ड म्हि णिहिप्पए ] राधके कुण्ड में फेंक देते हैं ।
इच्चे माइ- दुक्खं, जं गरए सहदि एयसमयहि | तं सयलं वण्णेदु ं, ण सक्कदे सहज-जीहो वि ||३७|| अन्वयार्थः – [ इच्चेवमाइ जं दुक्खं ] इति कहिये ऐसे एवमादि कहिये पूर्व गाथा में कहे गए उनको आदि लेकर जो दुःख उनको [ णरए एयसमयम्हि सहदि ] नरकमें एकसमयमें जीव सहता है [ तं सयलं वण्णेदुं ] उन सबका वर्णन करने के लिये [ सहसजीहो वि ण सक्कदे ] हजार जीभवाला भी समर्थ नहीं होता है ।
भावार्थ:- : - इस गाथा में नरकके दुःख वचन द्वारा अवर्णनीय हैं ऐसा कहा है । अब कहते हैं कि नरकका क्षेत्र तथा नारकियोंके परिणाम दुःखमयी ही हैंसव्वं पि होदि रये, खित्तसहावेण दुक्खदं असुहं । कुविदा वि सव्वकालं अणोरणं होंति गेरइया ||३८||
अन्वयार्थः - [ णरये खित्तसहावेण सव्वं पि दुक्खदं अतुहं होदि ] नरक में क्षेत्रस्वभावसे सब ही कारण दुःखदायक तथा अशुभ हैं । [ खेरइया सव्वकालं अण्णोणं कुविदा होंति ] नारकी जीव सदा काल परस्पर में क्रोधित होते रहते हैं ।
भावार्थ:- क्षेत्र तो [ उपचार के ] स्वभाव से दुःखरूप है [ किन्तु तीव्र क्रोधादिवश नारकी जीव ही ] आपसमें क्रोधित होते हुए वह उसको मारता है, वह उसको मारता है इस तरह निरन्तर दुखी ही रहते हैं ।
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