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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ एयक्खचउक्कदेहपरिमाणं ] एकेन्द्रिय चतुष्क ( पृथ्वी, अप, तेज, वायुकायके ) जीवोंकी अवगाहना [ उक्कसयं ] जघन्य तथा उत्कृष्ट [ अंगुलअसंखभागो ] घन अंगुलके असंख्यातवें भाग [ जाण ] जानो ( यहां सूक्ष्म तथा वादर पर्याप्तक अपर्याप्तकका शरीर छोटा बड़ा है तो भी घनांगुलके असंख्यातवें भाग ही सामान्यरूपसे कहा है । विशेष गोम्मटसारसे जानना चाहिये और अंगल उत्सेधअंगल आठ यव प्रमाण लेना, प्रमाणांगुल न लेना ) [जोयणसहस्सम हियं पउमं] प्रत्येक वनस्पति कायमें उत्कृष्ट अवगाहनायुक्त कमल है उसकी अवगाहना कुछ अधिक हजार योजन है।
बायसजोयण संखो, कोसतियं गोब्भिया समुद्दिट्टा । भमरो जोयणमेगं, सहस्स सम्मुच्छिमो मच्छो ॥१६७॥
अन्वयार्थ:-[ वायसजोयण संखो ] द्वीन्द्रियोंमें शंख बड़ा है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन लम्बी है [ कोसतियं गोब्भिया समुदिट्ठा ] त्रीन्द्रियोंमें गोभिका ( कानखिजूरा ) बड़ा है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस लम्बी है [ भमरो जोयणमेगं ] चतुरिन्द्रियों में बड़ा भ्रमर है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन लम्बी है [ सहस्स सम्मुच्छिमो मच्छो ] पंचेन्द्रियों में बड़ा मच्छ है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लम्बी है ( ये जीव अन्तके स्वयंभूरमण द्वीप तथा समुद्र में जानने )।
अब नारकियोंकी उत्कृष्ट अवगाहना कहते हैं:पंचसयाधणुछेहा, सत्तमणरए हवंति णारइया ।
तत्तो उस्सेहेण य, अद्धद्धा होंति उवरुवरि ॥१६८।।
अन्वयार्थः-[ सत्तमणरए ] सातवें नरकमें [णारइया ] नारकी जीवोंका शरीर [पंचसयाधणुछेहा ] पाँचसौ धनुष ऊँचा [ हवंति ] है [ ततो उस्सेहेण य उवरुवरि अद्वद्धा होंति ] उसके ऊपर शरीरकी ऊँचाई आधी आधी है ( छठ्ठ में दोसौ पचास धनुष, पांचवेंमें एकसौ पञ्चीस धनुष, चौथेमें साढ़े बासठ धनुष, तीसरेमें सवा इकतीस धनुष, दूसरे में पन्द्रह धनुष दस आना, पहिले में सात धनुष तेरह आना इस तरह जानना चाहिये । इनमें गुणचास पटल है उनमें न्यारी न्यारी ( भिन्न भिन्न ) विशेष अवगाहना त्रिलोकसारसे जानना चाहिये ) ।
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