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________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थ:-* जैसे घड़े आदिमें मिट्टी उपादान कारण है और चाक दण्डादि निमित्तकारण हैं । वैसे ही सब द्रव्य अपनी पर्यायोंको उपादान कारण हैं। तब कालद्रव्य तो निमित्तमात्र कारण है । अब कहते हैं कि सब ही द्रव्योंके परस्पर उपकार है सो सहकारी निमित्तमात्र कारणभावसे है सव्वाणं दव्वाणं, जो उवयारो हवेइ अण्णोणं । सो चिय कारणभावो, हवदि हु सहयारिभावेण ॥२१८॥ अन्वयार्थः-[ सव्वाणं दव्याणं जो ] सब ही द्रव्योंके जो [ अण्णोणं ] परस्पर [ उवयारो हवेइ ] उपकार है [ सो चिय ] वह [ सहयारिभावेण ] सहकारीभावसे [ कारणभावो हवदि हु ] कारणभाव होता है, यह प्रगट है । अब द्रव्योंके स्वभावभूत अनेक शक्तियाँ हैं उनका निषेध कौन कर सकता है ऐसा कहते हैं कालाइलद्धिजुत्ता, णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं, ण सक्कदे को वि वारेदु ॥२१६॥ अन्वयार्थः-[ अत्था ] सब ही पदार्थ [ कालाइलद्धिजत्ता] काल: आदि लब्धि सहित [ णाणासचीहि संजुदा ] अनेक प्रकारकी शक्ति सहित हैं [हि सयं परिणममाणा ] स्वयं परिणमन करते हैं [ को वि वारेदुं ण सक्कदे ] उनको परिणमन करते हुए कोई निवारण करने में समर्थ नहीं है। भावार्थः- सब द्रव्य अपने अपने परिणामरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल सामग्रीको पाकर आप ही भावरूप परिणमन करते हैं। उनका कोई निवारण नहीं कर सकता है। * [ जो स्वयं कार्य रूप परिणमन करे वह उपादान कारण है ] | काल आदि लब्धि=काल लब्धिका अर्थ 'स्वकाल' की प्राप्ति होना है यही आचार्यश्रीने यहाँ स्पष्ट किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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