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कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-हिंसक जीवोंका पालन तो निःप्रयोजन और पाप प्रसिद्ध ही है। बहुत हिंसाके कारण शस्त्र लोह लाख आदिका व्यापार करना देना लेना करने में भी फल अल्प और पाप बहुत है । इसलिये अनर्थदण्ड ही है इसमें प्रवृत्ति करनेसे व्रतभंग होता है, छोड़ने पर व्रतकी रक्षा होती है ।
अब दुःश्रुति नामक पाँचवें अनर्थदण्डको कहते हैं
जं सवणं सत्थाणं, भंडणवसियरणकामसत्थाणं ।
परदोसाणं च तहा, अणत्थदंडो हवे चरमो ॥३४८॥
अन्वयार्थः-[ जं सत्थाणं भंडणवसियरणकामसत्थाणं सवणं ] जो सर्वथा एकान्तमतवालोंके बनाये हुए कुशास्त्र तथा भांडक्रिया हास्य कौतूहल के कथनके शास्त्र, वशीकरण मंत्र प्रयोगके शास्त्र तथा स्त्रियोंकी चेष्टाके वर्णनरूप कामशास्त्र आदिका सुनना सुनाना पढना पढाना [ परदोसाणं च तहा ] दूसरे के दोषों को कथा करना सुनना [ चरमो अणत्थदंडो हवे ] दुःश्रुतिश्रवण नामक अन्तिम पाँचवाँ अनर्थदण्ड है।
भावार्थः-खोटे शास्त्र सुनने सुनाने पढ़ने बनानेसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, केवल पापही होता है और आजीविका निमित्त भी इनका व्यापार करना श्रावकको योग्य नहीं है । व्यापार आदिकी योग्य आजीविका ही श्रेष्ठ है। जिससे व्रतभंग होता हो सो क्यों करे ? व्रतकी रक्षा करना ही उचित है।
अब इस अनर्थदण्डके कथनका संकोच करते हैं
एवं पंचपयारं, अणत्थदंडं दुहावहं णिच्चं ।
जो परिहरेदि णाणी, गुणव्वदी सो हवे बिदिओ ॥३४६॥
अन्वयार्थः-[ जो णाणी ] जो ज्ञानी श्रावक [ एवं पंचपयारं अणत्थदंड दुहावहं णिच्चं परिहरेदि ] इसप्रकार पाँच प्रकारके अनर्थदण्डको निरन्तर दुःखोंका उत्पन्न करनेवाला जानकर छोड़ता है [ सो विदिओ गुणव्यदी हवे ] वह दूसरे गुणव्रत का धारक श्रावक होता है।
भावार्थ:-यह अनर्थदण्डत्याग नामक गुणवत अणुव्रतोंका बड़ा उपकारी है इसलिये श्रावकोंको अवश्य पालन करना योग्य है।
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