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धर्मानुप्रेक्षा
१८३ समयसत्य । मुनियोंका मुनियोंसे तथा श्रावकोंसे वचनालापका व्यवहार है। यदि बहुत भी वचनालाप हो तब भी सूत्रसिद्धान्त अनुसार इस दस प्रकारके सत्यरूप वचनकी प्रवृत्ति होती है। १-अर्थ और गुणके न होने पर भी वक्ताकी इच्छासे किसी वस्तुका नाम ( संज्ञा ) रक्खा जाय सो नाम सत्य है । २-जो रूपमात्रसे कहा जाय जैसे चित्र में किसोका रूप लिख कर कहे कि यह सफेद रंगका अमुक व्यक्ति है सो रूप सत्य है । ३-किसी प्रयोजनके लिये किसीकी मूर्ति स्थापित कर कहे सो स्थापना सत्य है । ४-किसो प्रतीतिके लिये किसीको आश्रय करके कहना सो प्रतीतिसत्य है, जैसे ताल-यह परिमाण विशेष है उसको आश्रय करके कहे 'यह पुरुषताल है' अथवा लम्बा कहे तो छोटेको प्रतीत्य ( आश्रय ) कर कहे । ५-लोकव्यवहारके आश्रयसे कहे सो संवृतिसत्य है, जैसे कमलके उत्पन्न होने में अनेक कारण हैं तो भी पंकमें हुआ इसलिये पंकज कहते हैं । ६-वस्तुओंको अनुक्रमसे ( क्रमपूर्वक ) स्थापित करने का वचन कहे सो संयोजना सत्य है, जैसे दशलक्षण का मण्डल बनावे उसमें अनुक्रमसे चूर्णके कोठे करे और कहे कि यह उत्तम क्षमाका है, इत्यादि जोडरूप नाम कहे, अथवा दूसरा उदाहरण-जैसे जौहरी मोतियोंकी लड़ियाँ करता है उनमें मोतियोंकी संज्ञा स्थापित कर रक्खो है सो जहाँ जो चाहिये उसही अनुक्रमसे मोती पिरोता है । ७-जिस देशमें जैसी भाषा हो वैसी कहे सो जनपदसत्य है । ८-ग्राम नगर आदिका उपदेशक वचन सो देशसत्य है जैसे, जिसके चारों तरफ बाड़ हो उसको ग्राम कहना । - छद्मस्थके ज्ञान अगोचर और संयमादिक पालने के लिये जो वचन सो भावसत्य है जैसे किसी वस्तुमें छद्मस्थके ज्ञानके अगोचर जीव हों तो भी अपनी दृष्टि में जीव न देखकर आगमके अनुसार कहे कि यह प्रासुक है । १०-जो आगमगोचर वस्तु है उसको आगमके वचनानुसार कहना सो समयसत्य है जैसे पल्य सागर इत्यादि कहना । दसप्रकारके सत्यका कथन गोम्मटसारमें है वहाँ सात नाम तो ये ही हैं और तीनके नाम यहाँ तो देश, संयोजना, समय हैं और वहाँ सम्भावना, व्यवहार, उपमा ये हैं । उदाहरण अन्य प्रकार हैं सो विवक्षाका भेद जानना विरोध नहीं है । ऐसे सत्य की प्रवृत्ति होती है सो जिनसूत्रानुसार वचन प्रवृत्ति करे उसके सत्य धर्म होता है ।
अब उत्तम संयमधर्मको कहते हैं
जो जीवरक्खणपरो, गमणागमणादिसव्वकज्जेसु । तणछेदं पि ण इच्छदि, संजमधम्मो हवे तस्स ॥३६६।।
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