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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
तीव्र तृष्णा और लोभरूपी मलके समूहको [ धोवदि ] धोवे ( नाश करे ) [ भोयणगिद्धविहीण ] भोजनकी गृद्धि ( अति चाह ) से रहित हो [ तस्स सउच्च त्रिमलं हवे ] उस मुनिका चित्त निर्मल होता है अतः उसके उत्तम शौच धर्म होता है ।
भावार्थ::- समभाव ( तृण कंचनको समान जानना ) और सन्तोष ( संतुष्टपना, तृप्तिभाव, अपने स्वरूप ही में सुख मानना ) भावरूप जलसे तृष्णा ( आगामी मिलनेकी चाह ) और लोभ पाए हुए द्रव्यादिक में अति लिप्त रहना, उसके त्यागमें अति खेद करना ) रूप मलके धोनेसे मन पवित्र होता है । मुनिके अन्य त्याग तो होता ही है केवल आहारका ग्रहण है उसमें भी तीव्र चाह नहीं रखता है, लाभ अलाभ सरस नीरस में समबुद्धि रहता है, तब उत्तम शौच धर्म होता है । लोभकी चार प्रकारकी प्रवृत्ति है— जीवितका लोभ, आरोग्य रहनेका लोभ, इन्द्रिय बनी रहने का लोभ, उपयोगका लोभ । ये चारों अपने और अपने सम्बन्धी स्वजन मित्र आदिके दोनोंके चाहने से आठ भेदरूप प्रवृत्ति है इसलिये जहाँ सबहीका लोभ नहीं होता है वहीं शौचधर्म है ।
अब उत्तम सत्यधर्मको कहते हैं
जिवयमेव भासदि, तं पालेदु असकमाणोवि ।
ववहारेण वि अलियं, ण वददि जो सच्चवाई सो ॥ ३६८ ॥ अन्वयार्थ - [ जिणत्रयणमेव भासदि ] जो मुनि जिनसूत्रही के वचनको कहे [ तं पाले असकमाणो वि ] उसमें जो आचार आदि कहा गया है उसका पालन करने में असमर्थ हो तो भी अन्यथा नहीं कहे [ जो ववहारेण वि अलियं ण वददि ] और जो व्यवहारसे भी अलीक ( असत्य ) नहीं कहे [ सो सच्चाई ] वह मुनि सत्यवादी है, उसके उत्तम सत्यधर्म होता है ।
भावार्थ:- जो जिनसिद्धान्त में आचार आदिका जैसा स्वरूप कहा हो वैसा ही कहे । ऐसा नहीं कि जब आपसे पालन न किया जाय तब अन्यप्रकार कहे, यथावत् न कहे, अपना अपमान हो इसलिये जैसे तैसे कहे । व्यवहार जो भोजन आदिका व्यापार तथा पूजा प्रभावना आदिका व्यवहार उसमें भी जिनसूत्र के अनुसार वचन कहे, अपनी इच्छासे जैसे तैसे न कहे । यहाँ दस प्रकारके सत्यका वर्णन है नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीत्यसत्य, संवृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य भावसत्य,
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