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कार्तिकेयानुप्रेक्षा ____ अन्वयार्थः-[जो ] जो पुरुष [ णाणी ] ज्ञानी [ धम्मे एयग्गमणो ] धर्म में एकाग्र मन हो प्रवर्ते [ पचहा विसयं ण वि वेदेदि ] पाँचों इन्द्रियोंके विषयों को नहीं वेदै [ वेरग्गमओ] और वैराग्यमयी हो [ तस्स धम्मज्झाणं हवे ] उस ज्ञानीके धर्मध्यान होता है ।
भावार्थ:-ध्यानका स्वरूप एक ज्ञेयमें ज्ञानका एकाग्र होना है । जो पुरुष धर्ममें एकाग्रचित्त करता है उस काल इन्द्रियविषयोंको नहीं वेदता है उसके धर्मध्यान होता है। इसका मूल कारण संसारदेहभोगसे वैराग्य है, बिना वैराग्यके धर्म में चित्त रुकता नहीं है।
सुविसुद्धरायदोसो, बाहिरसंकप्पवज्जिो धीरो ।
एयग्गमणो संतो, जं चिंतइ तं पि सुहज्झाणं ॥४७८॥
अन्वयार्थः-[ सुविसुद्धरायदोसो] जो पुरुष रागद्व पसे रहित होता हआ [बाहिरसंकप्पवजिओ धीरो ] बाह्य के संकल्पसे वर्जित होकर, धीरचित्त, [ एयग्गमणो [ संतो जं चिंतइ ] एकाग्रमन होता हुवा जो चिन्तवन करे [ तं पि सुहज्झाणं ] वह भो शुभ ध्यान है।
भावार्थ:-जो रागद्वेषमयी या वस्तुसम्बन्धी संकल्प छोड़ एकाग्रचित्त हो ( किसीसे चलायमान करने पर चलायमान न हो ) चिन्तवन करता है सो भी शुभध्यान है।
ससरूवसमुभासो, गट्टममत्तो जिदि दिओ संतो।
अप्पाणं चिंतंतो, सुहज्झाणरओ हवे साहू ॥४७६॥
अन्वयार्थः-[ ससरूवसमुभासो] जिस साधुको अपने स्वरूपका समुद्भास ( प्रकट होना ) हो गया हो [ णट्ठममचो ] परद्रव्यमें ममत्वभाव जिसका नष्ट हो गया हो [ जिदिदिओ संतो] जितेन्द्रिय हो [ अप्पाणं चिंतंतो ] और अपनी आत्माका चिन्तवन करता हुवा प्रवतता हो [ साहू सुहज्झाणरओ हवे ] वह साधु शुभ ध्यानमें लीन होता है।
___ भावार्थ:-जिसको अपने स्वरूपका तो प्रतिभास हो गया हो तथा परद्रव्य में ममत्व नहीं करता हो और इन्द्रियोंको वश में रखता हो इस तरहसे आत्माका चिन्तवन करने वाला साधु शुभध्यानमें लीन होता है, दूसरेके शुभध्यान नहीं होता है ।
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