________________
धर्मानुप्रेक्षा
१४३ अन्वयार्थः-[ देहमिलियं पि जीवं ] यह जीव देहसे मिल रहा है [णियणाणगुणेण जो भिण्णं मणदि ] तो भी अपना ज्ञानगुण है इसलिये अपनेको देहसे भिन्न ही जानता है [ जीव मिलियं पि देहं ] देह जीवसे मिल रहा है [ कंचुवसरिसं वियाणेई ] तो भी उसको कंचुक ( कपड़ेका जामा ) समान जानता है जैसे देहसे जामा भिन्न है वैसे जीवसे देह भिन्न है ऐसे जानता है।
णिज्जियदोसं देवं, सव्वजिवाणं दया वरं धम्मं ।
वज्जियगंथं च गुरु, जो मरणदि सो हु सद्दिट्ठी ॥३१७॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो जीव [ णिजियदोसं देवं ] दोषरहित को तो देव [ सव्वजिवाणं दया वरं धम्म ] सब जीवोंको दयाको श्रेष्ठ धर्म [ वजियगंथं च गुरुं] निर्ग्रन्थको गुरु [ मण्णदि ] मानता है [ सो हु सद्दिट्टो ] वह प्रगटरूपसे सम्यग्दृष्टि है ।
भावार्थ:--सर्वज्ञ वीतराग अठारह दोष रहित देवको माने, अन्य दोषसहित देवोंको संसारो जाने, वे मोक्षमार्गी नहीं हैं, ऐसा जानकर उनको वन्दना पूजा नहीं करे । अहिंसारूप धर्म जाने, जो यज्ञादि देवताओंके लिये पशुघात कर चढ़ानेको धर्म मानते हैं उसको पाप ही जानकर आप उसमें प्रवृत्ति नहीं करे । जो ग्रन्थ ( परिग्रह) सहित अनेक भेष अन्यमतवालोंके हैं तथा कालदोषसे जैनमतमें भी भेष होगये हैं उन सबको भेषी पाखंडी जाने, उनकी वन्दना पूजा नहीं करे । सब परिग्रहसे रहित हों उनही को गुरु मानकर वन्दना पूजा करे क्योंकि देव गुरु धर्मके आश्रयसे ही मिथ्या सम्यक् उपदेश प्रवर्तता है इसलिये कुदेव कुधर्म कुगुरुको वन्दना पूजना तो दूर हो रहो उनके संसर्गहीसे श्रद्धान बिगड़ता है इस कारण सम्यग्दृष्टि उनको संगति भो नहीं करता है । स्वामी समन्तभद्र आचार्यने रत्नकरन्ड श्रावकाचार में ऐसे कहा है कि "सम्यग्दृष्टि कुदेव कुत्सित आगम और कुलिंगी भेषोको भयसे आशासे तथा लोभसे भी प्रणाम और उनका विनय नहीं करता है" इनके संसर्गसे श्रद्धान बिगड़ता है, धर्म की प्राप्ति तो दूर ही रही, ऐसा जानना चाहिये ।
अब मिथ्यादृष्टि कैसा होता है सो कहते हैं
दोससहियं पि देवं, जीवहिंसाइसंजुदं धम्म । गंथासत्तं च गुरूं, जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥३१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org