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________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ दव्वाणि ] द्रव्य [ परिणामसहावादो ] परिणामस्वभावी हैं इसलिये [ पडिसमयं ] प्रतिसमय [ परिणमंति ] परिणमते हैं [ तेसिं परिणामादो] उनके परिणमनके कारण [ लोयस्स वि परिणामं मुणह ] लोकको भी परिणामी जानो। भावार्थ:-द्रव्य हैं, वे परिणामी हैं । लोक है, सो-द्रव्योंका समुदाय है इसलिये द्रव्योंके परिणामी होनेके कारण लोक भी परिणामी हुआ । कोई पूछे परिणाम क्या ? उसका उत्तर-परिणाम नाम पर्यायका है । एक अवस्थारूप द्रव्यका पलट ( बदल ) कर दूसरी अवस्थारूप होना उसको पर्याय कहते हैं, जैसे-मिट्टी पिंड अवस्थारूप थी सो पलटकर घड़ा बनी। इस तरह परिणामका स्वरूप जानना चाहिये। लोकका आकार तो नित्य है और द्रव्योंकी पर्यायें पलटती हैं इस अपेक्षासे इसको परिणामी कहते हैं। अब लोकका विस्तार कहते हैं सत्तेक्क पंच इक्का, मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयन्ते रज्जूत्रो, पुवावरदो य वित्थारो ॥११८॥ अन्वयार्थः- [ पुव्वावरदो य ] लोकका पूर्व पश्चिम दिशामें [ मूले मज्झे ] मल ( नीचे ) और मध्य ( बीच ) में क्रमसे [ सत्तेक ] सात राजू और एक राजका विस्तार है [ तहेव बंभंते पंच इक्का लोयन्ते रज्जओ वित्थारो ] ऊपर ब्रह्मस्वर्गके अन्त में पाँच राजूका विस्तार है और लोकके अन्त में एक राजूका विस्तार है। भावार्थ:-लोक, पूर्व पश्चिम दिशामें नीचेके भागमें सात राजू चौड़ा है। वहांसे अनुक्रमसे घटता घटता मध्यलोकमें एक राजू रह जाता है । फिर ऊपर अनुक्रमसे बढ़ता २ ब्रह्मस्वर्गतक पाँच राजू चौड़ा हो जाता है । बादमें घटते घटते अन्त में एक राजू रह जाता है इस तरह होते हुए खड़े किये गये डेढ़ मृदंग की तरह लोकका आकार हुआ। अब दक्षिण उत्तरके विस्तार व ऊँचाईको कहते हैंदक्खिणउत्तरदो पुण, सत्त वि रज्ज हवेदि सव्वत्थ । उड्ढं चउदहरज्जू सत्त वि रज्जूघणो लोओ ॥११६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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