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कार्तिकेयानुप्रेक्षा __ अन्वयार्थः-[ दक्खिणउत्तरदो पुण सव्वत्थ सत्त वि रज्जू हवेदि ] लोकका दक्षिण उत्तर दिशामें सब ऊँचाई पर्यन्त सात राजूका विस्तार है । [ उदं चउदहरज्जू] ऊँचा चौदह राजू है [ सत्त वि रज्जघणो लोओ ] और सात राजूका घनप्रमाण है ।
भावार्थ:-दक्षिण उत्तर में सब जगह सात राजू चौड़ा है । ऊँचा चौदह राजू है । इस तरह लोकका घनफल करने पर तीनसो तियालीस ( ३४३ ) राजू होता है । समान क्षेत्र खण्ड कर एक राजू चौड़ा, लम्बा, ऊँचा खण्ड करनेको घनफल कहते हैं।
अब ऊँचाईके भेद कहते हैमेरुस्त हिट्ठभाये, सत्त वि रज्जू हवेइ अहलोओ।
उद्बुम्हि, उढलोओ, मेस्समो मज्झिमो लोभो ॥१२०॥
अन्वयार्थः- [ मेरुस्स हिट्ठभाये ] मेरुके नीचेके भागमें [ सत्त वि रज्ज ] सात राजू [ अहलोओ ] अधोलोक [हवेइ ] है [ उढ्ढम्हि उढ्ढलोओ ] ऊपर सात राजू ऊर्ध्वलोक है । [ मेरुसमो मनिझमो लोगो] मेरु समान मध्य लोक है ।
___ भावार्थ:- मेरुके नीचे सात राजू अधोलोक है । ऊपर सात राजू ऊर्ध्वलोक है । बीच में मेरु समान लाख योजनका मध्य लोक है। इस तरह तोन लोकका विभाग जानना चाहिये।
अब लोक शब्द का अर्थ कहते हैंदंसंति जत्थ अस्था, जीवादीया स भएणदे लोश्रो ।
तस्स सिहरम्मि सिद्धा, अंतविहीणा विरायते ॥१२१॥
अन्वयार्थ:-[ जत्थ ] जहाँ [ जीवादीया ] जीवादिक [ अत्था ] पदार्थ [ दंगंति ] देखे जाते हैं [ स लोओ भण्णदे ] वह लोक कहलाता है [ तस्स सिहरम्हि ] उसके शिखर पर [ अंतविहीणा ] अन्तरहित ( अनन्त ) [ सिद्धा ] सिद्ध [ विरागते ] विराजमान हैं।
भावार्थ:-'लोक-दर्शने' व्याकरणमें धातु है उसके आश्रयार्थ में अकार प्रत्ययसे लोक शब्द बनता है । इसलिये जिसमें जीवादिक द्रव्य देखे जाते हैं उसको लोक कहते हैं। उसके ऊपर अन्त में कर्मरहित*शुद्धजीव अपने अनन्त गुण सहित अविनाशी अनन्त सुखमय सदा विराजमान हैं।
* [ संख्या अपेक्षा अनन्त ] ।
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