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________________ १२६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष तत्त्वका स्वरूप जानकर [ अब्भंतर बाहिरं सव्वं गंथं ण य गिण्हदि ] बाह्य और अभ्यन्तर सब परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है [ सो ण वसो इत्थिजणे ] वह पुरुष स्त्रीजनके वशमें नहीं होता है [ सो ण जियो इंदिएहिं मोहेण ] वह ही पुरुष इन्द्रियोंसे और मोह ( मिथ्यात्व ) कर्मसे पराजित नहीं होता है । भावार्थ:-संसारका बन्धन परिग्रह है । इसलिये जो सब परिग्रहको छोड़ता है वह ही स्त्री इद्रिय कषायादिकके वशीभूत नहीं होता है । सर्वत्यागी होकर शरीरका ममत्व नहीं रखता है तब निजस्वरूपमें ही लीन होता है । अब लोकानुप्रेक्षाके चितवनका माहात्म्य प्रगट करते हैं एवं लोयसहावं, जो भायदि उवसमेक्कसब्भाओ। सो खविय कम्मपुज, तस्सेव सिहामणी होदि ॥२८३॥ अन्वयार्थ:-[जो] जो पुरुष [एवं लोयसहावं ] इसप्रकार लोकके स्वरूपको [उसमेकसब्भावो ] उपशमसे एक स्वभावरूप होता हुआ [ झायदि ] ध्याता हैचितवन करता है [ सो कम्मपुंज खविय ] वह पुरुष कर्मसमूहका नाश करके [ तस्सेव सिहामणी होदि ] उस ही लोकका शिखामणि होता है। भावार्थ:-इस तरह जो पुरुष साम्यभावसे लोकानुप्रेक्षाका चितवन करता है वह पुरुष कर्मोंका नाश करके लोकशिखर पर जा विराजमाक हो जाता है । वहाँ अनन्त. अनुपम, बाधारहित, स्वाधीन, ज्ञानानन्दस्वरूप सुखको भोगता है । यहाँ लोकभावनाका कथन विस्तारसे करनेका आशय यह है कि जो अन्यमतवाले लोकका स्वरूप, जीवका स्वरूप तथा हिताहितका स्वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा असत्यार्थ प्रमाणविरुद्ध कहते हैं सो कोई जीव तो सुनकर विपरीत श्रद्धा करते हैं, कोई संशयरूप होते हैं और कोई अनध्यवसायरूप होते हैं उनके विपरीतश्रद्धासे चित्त स्थिरताको नहीं पाता है और चित्त स्थिर ( निश्चित ) हुए बिना यथार्थ ध्यानको सिद्धि नहीं होती है । ध्यान के बिना कर्मोंका नाश नहीं होता है इसलिये विपरीत श्रद्धानको दूर करनेके लिए यथार्थ लोकका तथा जीवादि पदार्थोंका स्वरूप जाननेके लिए विस्तारसे कथन किया है, उसको जानकर, जीवादिकका स्वरूप पहचानकर, अपने स्वरूपमें निश्चल चित्त कर, कर्मकलंकका नाश कर भव्यजीव मोक्षको प्राप्त होओ, ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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