________________
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
भावार्थ:- जो मुनि शास्त्र अभ्यास अल्प भी करता है और अपनी आत्माका रूप ज्ञायक - देखने जानने वाला, इस अशुचि शरीरसे भिन्न, शुद्ध उपयोगरूप होकर जानता है वह सबही शास्त्र जानता है । अपना स्वरूप न जाना और बहुत शास्त्र पढ़े तो क्या साध्य है ?
२१८
जो वि जादि अप्पं, पाणसरूवं सरीरदो भिरणं । सो वि जादि सत्थं, आगमपाढं कुणंतो वि ॥ ४६४ ॥
अन्वयार्थः - [ जो अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं णवि जाणदि ] जो मुनि अपनी आत्माको ज्ञानस्वरूपी, शरीर से भिन्न नहीं जानता है [ सो आगमपाढं कुणंतो वि सत्थं वि जाणदि ] सो आगमका पाठ करे तो भी शास्त्रको नहीं जानता है ।
भावार्थ:- - जो मुनि शरीरसे भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्माको नहीं जानता है वह बहुत शास्त्र पढ़ता है तो भी बिना पढ़ा ही है । शास्त्र के पढ़नेका सार तो अपना स्वरूप जानकर रागद्वेष रहित होना था सो पढ़कर भी ऐसा नहीं हुआ तो क्या पढ़ा ? अपना स्वरूप जानकर उसमें स्थिर होना सो निश्चय - स्वाध्यायतप है । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ऐसे पाँच प्रकारका व्यवहारस्वाध्याय है सो यह व्यवहार निश्चयके लिये हो तो वह व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चयके व्यवहार सारहीन ( थोथा ) है |
अब व्युत्सर्ग तपको कहते हैं
जल्ल मल लित्तगत्तो, दुस्सहवाहीसु गिप्पडीयारो । मुद्दधोरणादिविरो, भोयणसेज्जादिणिरवेक्खो ॥४६५ ॥ ससरूवचिंतणो, दुज्जणसुयाण जो हु मज्झत्थो । देहे विम्मित्तो, काओसग्गो तवो तस्स ॥४६६ ॥ अन्वयार्थः:- [ जो जल्ल मल लित्तगतो ] जो मुनि जल्ल ( प सेव ) और मलसे तो लिप्त शरीर हो [ दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो ] असह्य तीव्र रोग आने पर भी उसका प्रतीकार ( इलाज ) न करता हो [ मुहधोवणादिविरओ ] मुँह धोना आदि शरीर के संस्कारसे विरक्त हो [ भोयणसेजादिणिरवेक्खो ] भोजन और शय्या
आदिकी वांछा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org