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________________ १२८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ तत्थ वि बायरसुहमेसु असंखकालं परियत्तं कुणइ ] वहाँ पृथिवीकाय आदिमें सूक्ष्म तथा बादरोंमें असंख्यात काल तक भ्रमण करता है [ तमत्तण चिंतामणि व्व कट्ठण दुलह लहदि वहांसे निकलकर सपर्याय पाना चिंतामणि रत्नके समान बड़े कष्टसे दुर्लभ है। भावार्थ:--पृथिवी आदि स्थावरकायसे निकलकर चिन्तामणि रत्नके समान असपर्याय पाना दुर्लभ है। अब कहते हैं कि त्रसों में भी पंचेन्द्रियपना दुर्लभ हैवियलिदिए जायदि, तत्थ वि अच्छेदि पुवकोडीओ। तत्तो णीसरिदूणं, कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥२८६॥ अन्वयार्थः-[ वियलिदिएसु जायदि ] स्थावरसे निकल कर त्रस होय तब बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय. चौइन्द्रिय शरीर पाता है [ तत्थ वि पुव्वोकोडियो अच्छेदि ] वहाँ भी कोटिपूर्व समय तक रहता है [ ततो णीसरिदणं कहमवि पंचिंदिओ होदि ] वहाँसे भी निकल कर पंचेन्द्रिय शरीर पाना बड़े कष्ट से दुर्लभ है । भावार्थ:-विकलत्रयसे पंचेन्द्रियपना पाना दुर्लभ है। यदि विकलत्रयसे फिर स्थावर कायमें जा उत्पन्न हो तो फिर बहुत काल बिताता है, इसलिये पंचेन्द्रियपना पाना अत्यन्त दुर्लभ है। सो वि मणेण विहीणो, ण य अप्पाणं परं पिजाणेदि । अह मणसहिदोहोदि हु, तह वि तिरिक्खो हवे रु हो ॥२८७॥ अन्वयार्थः-[सो वि मणेण विहीणो] विकलत्रयसे निकलकर पंचेन्द्रिय भी होवे तो असैनी ( मन रहित ) होता है [ अप्पाणं परं पि ण य जाणेदि ] आप और परका भेद नहीं जानता है [ अह मणसहिदो होदि हु ] यदि मनसहित ( सैनी ) भी होवे तो [ तह वि तिरिक्खो हवे ] तिर्यंच होता है [रुद्दो] रौद्र र परिणामी बिलाव, घूघू ( उल्लू ) सर्प, सिंह, मच्छ आदि होता है । ___भावार्थ -कदाचित् पंचेन्द्रिय भी होवे तो असैनो होता है, सैनी होना दुर्लभ है । यदि सैनी भी हो जाय तो क्रूर तिर्यंच होवे जिसके परिणाम निरन्तर पापरूप ही रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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