________________
कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-हे भव्य ! जो [ अप्पसरूवं वत्थु ] आत्मस्वरूप वस्तु है उसका [चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं ] रागादि दोषोंसे रहित [सज्झाणम्मि णिलीणं ] धर्म शुक्ल ध्यानमें लीन होना है [तं ] उसको [ उत्तम चरणं] तू उत्तम चारित्र [ जाणसु] जान ।
अब कहते हैं कि जो ऐसे संवरका आचरण नहीं करता है वह संसार में भटकता है
एदे संवरहेदु, वियारमाणो वि जो ण आयरइ ।
सो भमइ चिरं कालं, संसारे दुक्खसंतत्तो ॥१०॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ एदे ] इन ( पहिले कहे अनुसार ) [ संवरहेk ] संवरके कारणोंको [ वियारमाणो वि ] विचारता हुआ भी [ण आयरइ ] आचरण नहीं करता है [ सो ] वह [ दुक्खसंततो ] दुःखोंसे तप्तायमान होकर [चि कालं] बहुत समय तक [ संसारे ] संसार में [ भमइ ] भ्रमण करता है । अब कहते हैं कि संवर कैसे पुरुषके होता है--
जो पुण विसय विरत्तो, अप्पाणं सव्वदा वि संवरइ ।
मणहरविसएहितो तस्स फुडं संवरो होदि ॥१०१॥
अन्वयार्थः-[ जो] जो मुनि [ विसयविरत्तो ] इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ [ मणहरविसएहितो ] मनको प्रिय लगनेवाले विषयोंसे [ अप्पाणं ] आत्माको [ सबदा] सदाकाल ( हमेशा ) [ संवरइ ] संवररूप करता है [ तस्स फुडं संवरो होदि ] उसके प्रगटरूपसे संवर होता है ।
भावार्थ:-* इन्द्रिय तथा मनको विषयोंसे रोके और अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करावे उसके सवर होता है।
* [ स्वाश्रय के बल द्वारा सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्ति ही संवर है । ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org