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________________ धर्मानुप्रेक्षा २०१ भावार्थ:- अनादिसंसारसे मिथ्यात्व द्वारा भ्रमित यह प्राणी पहिले तो धर्मको जानता ही नहीं है और किसी काललब्धिसे गुरुके संयोगसे ज्ञानावरणी के क्षयोपशमसे जान भी जाय तो उसका करना दुर्लभ है । अब धर्म ग्रहणका माहात्म्य दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं जह जीवो कुणइ रई, पुत्तकलत्तेसु कामभोगे । तह जड़ जिणिदधम्मे, तो लीलाए सुहं लहदि ॥ ४२६ ॥ अन्वयार्थः - [ जह जीवो पुत्तकलत्तेसु कामभोगेसु रई कुणइ ] जैसे यह जीव पुत्रकलत्र में तथा काम भोग में रति ( प्रीति ) करता है [ तह जड़ जिणिदधम्मे तो लीलाए सुहं हदि ] वैसे ही यदि जिनेन्द्र के वीतरागधर्म में करे तो लीलामात्र (शीघ्र काल) में ही सुखको प्राप्त हो जाता है । भावार्थ:- जैसी इस प्राणीके संसार में तथा इन्द्रियों के विषयों में प्रीति है वैसी यदि जिनेश्वर के दसलक्षण धर्म स्वरूप वीतराग धर्म में प्रीति होवे तो थोड़े ही समय में मोक्षको पावे | अब कहते हैं कि जो जीव लक्ष्मो चाहता है सो धर्म बिना कैसे हो ? लच्छि छेइ रो, व सुधम्मेसु प्रयरं कुणइ । बीएणविणा कत्थवि, किं दोसदि सस्सप्पित्ती ॥ ४२७ ॥ अन्वयार्थः – [ णरो लच्छि वंछेई ] यह जीव लक्ष्मीको चाहता है [ सुधम्मेसु आयरं व कुणइ ] और जिनभाषित मुनि श्रावक धर्म में आदर ( प्रीति ) नहीं करता है सो लक्ष्मीका कारण तो धर्म है, उसके बिना कैसे आवे ? [ बीएण विणा सरसनिष्पत्ती कत्थवि किं दीसदि ] जैसे बीजके बिना धान्यकी उत्पत्ति क्या कहीं दिखाई देती है ? नहीं दिखाई देती है | भावार्थ:- जैसे बीजके बिना धान्य नहीं होता है वैसे धर्मके बिना सम्पत्ति नहीं होती है यह प्रसिद्ध है । * स्वकालकी प्राप्ति से; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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