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लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ देहमिलिदो वि पिच्छदि ] जीव देहसे मिला हुआ ही आँखोंसे पदार्थोंको देखता है [ देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सदं ] देहसे मिला हुआ ही कानों से शब्दोंको सुनता है [ देहमिलिदो वि भुजदि ] देहसे मिला हुआ ही मुखसे खाता है जीभसे स्वाद लेता है [ देहमिलिदो वि गच्छेदि ] देहसे मिला हुआ ही पैरोंसे गमन करता है।
भावार्थ:-देहमें जीव न होय तो जड़रूप केवल देह ही के देखना, स्वाद लेना, सुनना, गमन करना ये क्रियायें नहीं होवें इसलिये जाना जाता है कि देहसे न्यारा जीव है और वह ही इन क्रियाओंको करता है ।
अब इस तरह जीवको मिला हुवा मानने वाले लोग भेदको नहीं जानते हैं ऐसा कहते हैं
राओ हं भिच्चो हं, सिट्ठी हं चेव दुव्वलो बलिओ। इदि एयत्ताविट्ठो दोण्हं भेयं ण बुज्झदि ॥१८॥
___ अन्वयार्थः-[ एयत्ताविट्ठो ] देह और जीवके एकत्वको मान्यता वाले लोग ऐसा मानते हैं कि [ राओ हं ] मैं राजा हूँ [भिच्चो हं ] मैं भृत्य ( नौकर ) हैं | सिदी हं ] मैं सेठ ( धनी ) हूँ [चेव दुव्वलो ] मैं दुर्बल हूँ, मैं दरिद्र हैं, मैं निर्बल हैं
बलिओ ] मैं बलवान हूँ [ इदि ] इसप्रकारसे [ दोण्ह भयं ण बुज्झदि ] देह और जीवके ( दोनोंके ) भेदको नहीं जानते हैं ।
अब जीवके कत्तत्व आदिको चार गाथाओंसे कहते है
जीवो हवेइ कत्ता, सव्वं कम्माणि कुव्वद जम्हा । कालाइलद्धिजुत्तो, संसारं कुणइ मोक्खं च ॥१८॥
अन्वयार्थः-[ जम्हा ] क्योंकि [ जीवो ] यह जीव [ सव्वं कम्माणि कुव्वदे ] सब कर्म नोकर्मों को करता हुआ अपना कर्त्तव्य मानता है इसलिये [ कत्ता हवेइ ] कर्ता
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