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________________ [ १२ ] १२६ गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या २८२ जो तत्त्वज्ञानी सब परिग्रहका त्यागी होता है वह स्त्री आदिके वशमें नहीं होता है १२५ २८३ लोकानुप्रेक्षाके चितवनका माहात्म्य १२६ बोधिदुलभानुप्रेक्षा १२७ २८४ निगोदसे निकलकर स्थावर होना दुर्लभ है १२७ २८५ स्थावरसे निकलकर त्रस होना दुर्लभ है १२७ २८६, २८७ त्रसमें भी पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ है १२८ २८८ क्रूर परिणामी नरकमें जाते हैं १२६ २८६ नरकसे निकलकर तिर्यंच हो दुःख सहते हैं २६० मनुष्य होना दुर्लभ है सो भी मिथ्यात्वी होकर पाप करता है १२६ २६१ से २९६ मनुष्य भी हो और आर्यखंडमें भी उत्पन्न हो तो भी उत्तम कुलादिका पाना अति दुर्लभ है १३० २६७ ऐसा मनुष्यत्व दुर्लभ है जिससे रत्नत्रयकी प्राप्ति हो १३१ २६८ ऐसा मनुष्यत्व पाकर शुभ परिणामोंसे देव हो जाता है तो वहाँ चारित्र नहीं पाता है १३१ २६६, ३०० मनुष्यगतिमें ही तपश्चरणादिक है ऐसा नियम है १३२ ३०१ मनुष्यगतिमें रत्नत्रयको पाकर बड़ा आदर करो १३२ धर्मानुप्रेक्षा३०२ धर्मका मूल सर्वज्ञ देव है ३०३, ३०४ सर्वज्ञको न माननेवालेके प्रति उक्ति १३४ ३०५, ३०६ गृहस्थधर्मके बारहभेदोंके नाम १३५ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यताका वर्णन १३५ ३०८ उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पत्ति कैसे है ? ३०९ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कैसे होता है ? औपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और अनंतानुबंधीका विसंयोजन तथा देशव्रत इनका पाना और छूट जाना १३७ ३११, ३१२ तत्त्वार्थश्रद्धान निरूपण १३७ ३१३ से ३१७ सम्यग्दृष्टिके परिणाम कैसे होते हैं ? १४१ ३१८ मिथ्यादृष्टि कैसा होता है ? १३३ ० mr mr m १३६ ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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