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धर्मानुप्रेक्षा
१७५ भावार्थः-जो अभ्यन्तर परिग्रहको छोड़ता है उसकी महिमा है । अभ्यन्तर परिग्रह सामान्यरूपसे ममत्व परिणाम है इसलिये जो इसका त्याग करता है वही परिग्रह त्यागी कहलाता है । इस तरह परिग्रहत्याग प्रतिमाका स्वरूप कहा । प्रतिमा नवमी है बारह भेदों में दशा भेद है ।
अब अनुमोदनविरति प्रतिमाको कहते हैंजो अणुमणणं ण कुणदि, गिहत्यकज्जेसु पावमूलेसु । भवियव्वं भावंतो, अणुमणविरओ हवे सो दु ॥३८॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो श्रावक [ पावमुलेसु ] पापके मूल [ गिहत्थकज्जेसु ] गृहस्थके कार्यों में [ भवियव्यं भावंतो ] 'जो भवितव्य है सो होता है' ऐसी भावना करता हुआ [ अणुमणणं ण कुणदि ] अनुमोदना नहीं करता है [ सो दु अणुमणविरओ हवे ] बह अनुमोदनविरति प्रतिमाधारी श्रावक है ।
भावार्थ:-गृहस्थके कार्य, आहारके निमित्त आरम्भादिककी भी अनुमोदना नहीं करता है। उदासीन होकर घरमें या बाहर चैत्यालय मठ मंडपमें रहता है । भोजनके लिये घरवाला या अन्य कोई श्रावक जो बुलाता है उसके भोजन कर आता है । ऐसा भी नहीं कहता है कि मेरे लिए अमुक पदार्थ तैयार करना । जो कुछ गृहस्थ जिमाता है ( खिलाता है ) बही जीम आता है सो दशमी प्रतिमाका धारी श्रावक होता है।
जो पुण चिंतदि कज्ज, सुहासुहं रायदोससंजुत्तो । उवओगेण विहीणं, स कुणदि पावं विणा कज्जं ॥३८६॥
अन्वयार्थः- [जो पुण ] जो [ उवओगेण विहीणं ] बिना प्रयोजन [रायदोससंजतो ] रागद्वेष संयुक्त हो [ सुहासुहं कज्जं चिंतदि ] शुभ अशुभ कार्यका चिन्तवन करता है [ स विणा कज्ज पावं कुणदि ] वह पुरुष बिना कार्य पाप उत्पन्न करता है।
___ भावार्थः-आप तो त्यागी हो गया फिर विना प्रयोजन गृहस्थके शुभकार्य पुत्रजन्मप्राप्ति, विवाहादिक और अशुभकार्य किसीको पीड़ा देना, मारना, बाँधना इत्यादि शुभाशुभ कार्योंका चितवन कर, रागद्वेष परिणाम करके निरर्थक पाप उपजाता है उसके दशमी प्रतिमा कैसे हो? इसलिये ऐसी बुद्धि रहनी चाहिए कि 'जैसा
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