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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः - [ जो ] जो मुनि [ समसोक्खणिलीणो ] वीतराग भावरूपसाम्यरूप - सुख में लीन ( तन्मय ) होकर [ वारंवारं अप्पाणं सरेइ ] बार बार आत्माका स्मरण ( ध्यान ) करता है [ इंदियकसायविजई ] तथा इन्द्रिय और कषायोंको जीतता है [ तस्स परमाणिञ्जरा हवे ] उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है । भावार्थ: - * जो इन्द्रियोंका और कषायोंका निग्रह करके परम वीतराग भावरूप आत्मध्यानमें लीन होता है उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है । * दोहा * ५२ पूरब बांधे कर्म जे, क्षरें तपोबल पाय । सो निर्जरा कहा है, धारें ते शिव जाय ॥९॥ इति निर्जरानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ॥ 業 लोकानुप्रेक्षा अब लोकानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं । पहिले लोकका आकारादिक कहेंगे । यहां कुछ गणित प्रयोजनकारी जानकर संक्षेपसे कहते हैं । - भावार्थ : – गणितको अन्य ग्रन्थों के अनुसार लिखते हैं । पहिले तो परिकर्माष्टक है उसमें संकलन ( जोड़ देना ) जैसे आठमें सात जोड़ देने से पन्द्रह होते हैं । व्यवकलन ( बाकी काढ़ना ) - जैसे आठमेंसे तीन घटाने पर पाँच रहते हैं । गुणाकार - जैसे आठको सातसे गुणा करने पर छप्पन होते हैं । भागाकार- -जैसे आठ में दोका भाग देनेसे चार आते हैं । वर्ग – दो समान राशियोंको गुणा करने पर जितने आते हैं उसको वर्ग कहते हैं जैसे आठका वर्ग चौसठ होता है । वर्गमूल -- जैसे चौसठका वर्गमूल आठ होता है । घन - तीन समान राशियोंके गुणा करने पर जो आवे सो घन कहलाता है जैसे आठका घन पांच सौ बारह | घनमूल -- जैसे पांच सौ बारहका घनमूल आठ । इस तरह परिकर्माष्टक जानना चाहिये । * [ अपने त्रैकालिक भूतार्थ ज्ञायकस्वरूपके परिग्रहण द्वारा ही ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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