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लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ आहारसरीरिंदियणिस्सासुस्सासभासमणसाणं ] आहार, शरीर, इन्द्रिय, स्वासोस्वास, भाषा और मन [ परिणइ वावारेसु य जाओ छच्चेव सत्तीओ ] इनकी परिणमनकी प्रवृत्तिमें सामर्थ्य सो छह प्रकारकी पर्याप्ति है।
भावार्थ:-आत्माके यथायोग्य कर्मका उदय होनेपर आहारादिक ग्रहणकी शक्तिका होना सो शक्तिरूप पर्याप्ति है वह छह प्रकारको है ।
अब शक्तिका कार्य कहते हैं
तस्सेव कारणाणं, पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पत्ति ।
सा पज्जत्ती भरणदि, छब्भेया जिणवरिंदेहिं ॥१३५॥
अन्वयार्थः-[ तस्सेव कारणाणं ] उस शक्ति प्रवृत्तिको पूर्णताको कारण जो [ पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पचि ] पुद्गल स्कन्धों की निष्पत्ति ( पूर्णता होना ) [ सा ] वह [ जिणवरिंदेहिं ] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा [ छब्भेया ] छह भेद वाली [ पजत्ती ] पर्याप्ति [ भण्णदि ] कही गई है।
अब पर्याप्त नित्यपर्याप्तके काल को कहते हैं
पज्जत्तिं गिह्नतो, मणुपज्जत्तिं ण जाव समणोदि । ता णिव्वत्ति अपुण्णो, मणपुगणो भएणदे पुण्णो ॥१३६॥
*पज्जत्तस्स य उदये, णिय णिय पज्जत्ति णिविदो होदि ।
जाव सरीरमपुण्णं, णिव्वत्तियपुण्णगो ताव ॥१॥ अन्वयार्थः-[ पज्जत्तस्स य उदये ] पर्याप्ति नामक नामकर्मके उदयसे [ णिय णिय पज्जत्ति गिट्टिदो होदि ] अपनी अपनी पर्याप्ति बनाता है [ जाव सरीरमपुण्णं ] जबतक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है [ ताव णिव्वत्तियपुण्णगो ] तबतक निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाता है ।
भावार्थ:-जो पर्याप्ति कर्मके उदय होनेसे लब्धि ( शक्ति ) की अपेक्षासे पर्याप्त है किन्तु निर्वृत्ति ( शरीरपर्याप्ति बनने ) की अपेक्षा पूर्ण नहीं है वह निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाता है ।
तिण्णसया छत्तीसा, छावठ्ठीसहस्सगाणि मरणानि । अन्तोमुहुत्तकाले, तावदिया चेव खुद्दभवा ।।२।।
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