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निर्जरानुप्रेक्षा
अब इस वृद्धिके स्थानोंको बतलाते हैं—
मिच्छादो सद्दिट्ठी, असंखगुणकम्मणिज्जरा हादि । तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई गाणी ॥ १०६ ॥ पढमकसायचउराहं, विनोजओ तह य खवयसीलोय । दंसणमोहतियस्स य, तत्तो उवसमग चत्तारि ॥ १०७॥ खवगो य खीणमोहों, सजोइगाहो तहा अजोईया । एदे उवरिं उवरिं, असंखगुणकम्म णिज्जरया ॥ १०८ ॥
अन्वयार्थः --- [ मिच्छादो ] प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें करणत्रयवर्ती विशुद्ध परिणामयुक्त मिथ्यादृष्टिसे [सद्दिट्ठी ] असंयत सम्यग्दृष्टिके [असंखगुणकम्मणिञ्जरा होदि ] असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है [ तत्तो अणुवयधारी ] उससे देशव्रती श्रावकके असंख्यात गुणी होती है [ तत्तो य महव्वई णाणी ] उससे महाव्रती मुनियोंके असंख्यात गुणी होती है [ पढमकसायचउन्हं विजोजओ ] उससे अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन ( अप्रत्याख्यानादिकरूप परिणमाना ) करनेवालेके असंख्यात गुणी होती
य दंसणमोहतियस्स य खवयसीलो ] उससे दर्शनमोहके क्षय करनेवालेके असंख्यात गुणी होती है [ तत्तो उवसमगचचारि ] उससे उपशम श्रेणीवाले तीन गुणस्थानों में असंख्यातगुणी होती है [ खवगो य ] उससे उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थानवाले के असंख्यातगुणी होती है, उससे क्षपकश्रेणीवाले तीन गुणस्थानों में असंख्यात गुणी होती है [ खीणमोहो ] उससे क्षीणमोह बारहवें गुणस्थानमें असंख्यातगुणी होती है [ सजोइणाहो ] उससे सयोगकेवलीके असंख्यात गुणी होती है [ तहा अजोईया ] उससे अयोगकेवलीके असंख्यात गुणी होती है [ एदे उवरिं उवरिं असंखगुणकम्मणिञ्जरया ] ये ऊपर ऊपर असंख्यात गुणाकार हैं इसलिये इनको गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं ।
अब गुणाकाररहित अधिकरूप निर्जरा जिससे होय सो कहते हैंजो विसहृदि दुव्वयणं, साहम्मिय-हीलणं च उवसगं । जिऊण कसायरिडं, तस्स हवे णिज्जरा विउला ॥ १०६ ॥
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