Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा- एक यशस्वी दशक श्री जैन विद्यालय, हावड़ा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा : एक यशस्वी दशक सम्पादक मंडल भूपराज जैन डॉ० गोपालजी दबे. ओल्गा घोष रिधकरण बोथरा, पदमचन्द नाहटा, ललित कांकरिया राधेश्याम मिश्र, लक्ष्मीशंकर मिश्र संयोजन भूपराज जैन ORIOUSD NAGLO EDUCATION STARATI S चार DECADE STA RIISHE HED. 1992 श्री जैन विद्यालय, हावड़ा (श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा द्वारा संचालित) २५/१, बन बिहारी बोस रोड, हावड़ा-७११ १०१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री जैन विद्यालय २५/१, बन बिहारी बोस रोड, हावड़ा-७११ १०१ फोन : ६६०-१३१९,६५०-२२१०,६६०-४४१४ आवरण चित्र : गंगानगर (राज.) जिले के पल्लूग्राम की खुदाई से प्राप्त श्री जैन सरस्वती की प्रतिमा का छायांकन श्री ललित नाहटा (दिल्ली) के सौजन्य से दिल्ली म्युजियम से प्राप्त मूल्य रु. ५००/ आवृति : ३३०० मई २००२ मुद्रक ओसवाल प्रिन्टर्स ४, जगमोहन मल्लिक लेन, कोलकाता-७०० ००७ फोन : २३८-४७५५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. सम्पादकीय : का वर्षा जब कृषि सुखाने शुभाशंसा सभा खण्ड १. २. ३. ४. श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा श्री जैन विद्यालय, कलकत्ता विहंगम दृष्टि में Dream has come into the reality Education 2002 शिक्षण संस्थाओं में अग्रणी अहम् का विसर्जन ५. ६. ७. ८. ९. १०. जे आचरहि नर न पनेरे ११. शिक्षा का स्वरूप १२. हम होंगे कामयाब एक दिन १३. उल्लेखनीय प्रगति १. २. ३. ४. A Glorious Decade श्री जैन विद्यालय और आज का विद्यार्थी णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं विद्यालय खण्ड श्री जैन विद्यालय, वड़ा अर्थ सहयोगी जय गणेश, वीणा वादिनी जय हे श्री जैन विद्यालय, हावड़ा के बढ़ते कदम जहाँ चाह, वहाँ राह स्वी शिक्षा अनिवार्यता : चरित्र निर्माण का केन्द्र हावड़ावासियों के लिए वरदान ५. ६. ७. ८. ९. १०. श्रावणे, (बंगला) ११. Peace Where Art Thou १२. Pilgrim's Process १३. गरीबों का देश भारत १४. छोटी-छोटी पर आवश्यक बातें Value Education १५. The Value of Education १६. मानवता और आतंकवाद १७. अमरकंटक परिदर्शन १८. खीर खाता है कि डंदा १९. गज की जगह थान हार गया २०. चाणक्य : तप व सेवा की सजीव मूर्ति २१. लालची भाई अनुक्रमणिका भूपराज जैन S. R. Singhvi R. D. Bhansali बच्छराज अभाणी रिधकरण बोधरा Vinod Minni मोहनलाल भंसाली किशनलाल बोधरा श्रीचन्द नाहटा अशोक बोथरा पारसमल भूरट भँवरलाल दस्सानी माणकचन्द रामपुरिया सरदारमल कांकरिया सुन्दरलाल दुगड़ पन्नालाल कोचर सुरेन्द्रकुमार बाँठिया महेन्द्र कर्णावट Dr. G. J. Dubey त्रिसिटा चटर्जी Mrs. Olga Ghosh S. C. Pathak रामअधीन सिंह अजय डागा Mousumi Ghosal गोपालकृष्ण रामपुकार शर्मा रंजन राठी राहुल अग्रवाल सन्तोषकुमार तिवारी अमित यादव ava & ∞ ∞ ~ ~ x Br १० ११ १२ १३ १४ १५ or mu ३ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १४ १५ १६ १७ १९ २२ २४ २६ २९ ३० ३२ ३४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल प्रसाद जायसवाल अभिषेक कुमार उपाध्याय काशीप्रसाद मिश्र दिग्विजय प्रताप सिंह अमर साही प्रतीक रतावा गौरव पाठक प्रियंका दुगड़ नेहा अग्रवाल Shibani Mitra Sarbani Chakraborty Shampa Ghosh बी. के. हर्ष A. K. Tiwari अमरकुमार शाही गोविन्द सिंघी आशुतोष शुक्ला ज्योति श्रीमाल अमर चौधरी सच्चिदानन्द दूबे २२. गुरू का महत्व २३. भिखारी २४. गंगा २५. प्यार करते हैं २६. माँ तुम तो हो महान २७. आई परीक्षा २८. मेरी नजर में, जरा सोचिये २९. दाँतों का सेट एक ३०. मुझको फेल न करना ३१. My Dear Friends ३२. Some Aspects of Pastoral Adaptation 33. An Experience ३४. संघर्षमय दशक की उपलब्धि ३५. Home and Education ३६. पैसों की माया ३७. जंगल में वन डे ३८. साक्षरता ३९. अहंकार का परिणाम ४०. इतिहास के आईने में भगवान महावीर ४१. गुरू शिक्षक ४२. बच्चों! देश भक्त बन जाना ४३. चुटकुले ४४. पन्द्रह अगस्त, दु:ख ४५. अनुसुइया की ओर ४६. Beautiful One Liner ४७. पानी एक चमत्कारिक औषधि ४८. काम का बंटवारा ४९. मन व कर्म ५०. कामदेव श्रावक ५१. सत्य ५२. यत्ना, विनय से तत्व की सिद्धि ५३. सुदर्शन सेठ 48. Communication and Computer विद्वत खण्ड १. मंगल मंत्र णमोकार २. ब्रह्मचर्य ३. धर्म का अन्तर्हदय ४. आदमी नहीं था - कविता नव तत्व शिक्षा का भारतीय आदर्श ७. अहिंसा की सार्वभौमिकता सन्दीप शर्मा, आशीष, अंकित मिन्की अग्रवाल प्रणवेश मिश्र Sunbeam Manuel रुचि मिश्र सत्येन्द्र मिश्र प्रशान्त मिश्र राजन मिश्र विकास मिश्र धीरज शुक्ला क्षमा मिश्र Saikat Ghosh डॉ० नेमीचन्द शास्त्री आचार्य जवाहरलालजी म.सा० उपा० कविरत्न श्री अमर मुनि बनेचन्द मालू आर्या रत्न हेमप्रभा श्रीजी प्रो० विष्णुकान्त शास्त्री प्रो० सागरमल जैन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ९. अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं लोक माध्यम जन शिक्षण और चुनौतियाँ १०. बदलते परिवेश में शिक्षा और शिक्षक ११. शिक्षा प्रेमियों के नाम एक पैगाम १२. भूल- कविता १३. बोझ मत बनाओ शिक्षा को १४. मेरे पापा कविता १५. जैन धर्म से अनुप्रेरित शासक १६. भारतीय दर्शनों में आत्मवाद १७. आचारांग सूत्र में समता का स्वरूप १८. और फिर १९. जैन शास्त्रों में वर्णित शिक्षा सूत्र 1: २०. पर्यावरण संरक्षण और जैन धर्म - २१. आगम साहित्य में वनस्पति विज्ञान २२. मैं पढ़ाता क्यों २३. पिता की छाया में २४. शिक्षा - सृष्टि - जैन दृष्टि २५. दो प्रेरक प्रसंग २६. Embryo Transfer २७ घुमक्कड़ शास्त्री राहुल २८. दिशा २९. भिक्षा ३०. भारतीय शिक्षा ३१. शिक्षा के उद्देश्य ३२. प्रार्थना ३३. बाहुबल ३४. Money Leaving Behind the Shadows full of Darkness ३५. Oswals and Other Jains of Rajasthan ३६. आज का लाडला बच्चा कविता ३७. आयुर्वेद द्वारा जटिल रोगों की चिकित्सा ३८. शिक्षा और संस्कार ३९. जीवन जीने की कला ४०. इन्द्रभूति गौतम ४१. सम्यक् चारित्र ४२. पंचमकाल ४३. सुख सम्बन्धी विचार ४४. सद्गुरू तत्व ४५. Morning Walk ४६. Honour the Time ४७. कालजयी श्री भंवरलाल नाहटा ४८. दो आदर्श ४९. अक्षय पुण्यात्मा श्रीमती तारादेवी कांकरिया : डॉ० किरण सिपानी डॉ० महेन्द्र भानावत डॉ० शिवनाथ पांडे पुष्करलाल केडिया अलका धाड़ीवाल प्रमोद नवलकर अलका धाडीवाल इन्द्रकुमार कठोतिया डॉ० सुषुमा सिंघवी मानमल कुदाल जतनलाल रामपुरिया डॉ० सुरेश सिसोदिया डॉ० प्रेमसुमन जैन डॉ० रचना जैन पीटर जी. बीडलर एलेन गुडमेन ओंकार श्री जानकीनारायण श्रीमाली Mangilal Bhutoria डॉ० प्रेमशंकर त्रिपाठी डॉ० मंजु रानी सिंह पदमचन्द नाहटा जानकीनारायण श्रीमाली कन्हैयालाल डुंगरवाल प्राचार्य निलचन्द जैन संकलित Nirupam Kedia Col. (Retd.) D. S. Baya बनेचन्द मालू डॉ० डी. के. शर्मा केशरीचन्द सेठिया रत्ना ओस्तवाल महोपाध्याय विनयसागर गीतिका बोथरा श्रीमद् राजचन्द्र श्रीमद् राजचन्द्र श्रीमद् राजचन्द्र B. B. Das Jatanlal Rampuria संकलित राधेश्याम मिश्र ३२ ३६ ४३ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५७ ५९ ६३ ६५ ६८ ७४ ७७ ७९ ८१ ८२ ८३ ८७ ९० ९४ ९६ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०५ १०६ १०८ १०९ १११ १२५ १२८ १२९ १३० १३१ १३३ १३५ १४० १४१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय का वर्षा जब कृषि सुखाने 'किं किं न साधयति कल्पलतैव विद्या', 'सा विद्याया विमुक्तये', 'विद्या ददाति विनयं' ऐसी अनेक पौराणिक उक्तियाँ हैं जिनका गाहे-बगाहे हम प्रयोग करते आ रहे हैं। विद्या कल्पलता, कल्पवृक्ष के समान है जिससे सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, साधा जा सकता है। विद्या मुक्ति प्रदाता है, स्वावलम्बन और आत्म-निर्भरता की जननी है और विद्या प्राप्त कर व्यक्ति विनयी बन जाता है, गर्व एवं अहंकार उसको छू भी नहीं पाते लेकिन आज तो सब कुछ इसके विपरीत दृष्टिगत हो रहा है।। जिन अर्थों में विद्या अथवा इस प्रकार की उक्तियों का प्रयोग किया जा रहा है, वह सत्य से नितान्त परे हैं। विद्या को शिक्षा का पर्याय मानने की भूल विगत काफी अर्से से की जा रही है। वस्तुत: विद्या एवं शिक्षा में काफी भिन्नता है। विद्या प्राप्त व्यक्ति कुशल, निष्णात समय में गुरू के सान्निध्य में रहकर जो बालक विद्या प्राप्त कर आश्रम से विदा होता था, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में निर्द्वन्द्व विचरण करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ता रहता था। इसके प्रतिकूल एक शिक्षित व्यक्ति दर-दर भटकने के लिए मजबूर है। वह परमुखापेक्षी बनकर व्यक्तिगत स्वार्थ लिप्सा में सर्वथा स्वारथरत दिखाई देता है। जो विद्या विनय का आधार थी, वह अहंकार एवं अहम्मन्यता का कारण बन गई है। बात-बात में गर्वोक्ति एवं दर्पोक्ति के विष बुझे बाणों से किसी को आहत कर संतोष की अनुभूति करना आम बात प्रतीत होती है। शिक्षा के क्षेत्र में फैलती मूल्यहीनता सुरक्षा की भाँति अराजकता की सतत वृद्धि का कारण है। शिक्षा आज एक व्यवसाय हो गई है, शुद्ध व्यवसाय। व्यवसाय में तो पूंजी निवेश आवश्यक है लेकिन शिक्षा में तो बहुत कम पूंजी से भी काम चलाया जा सकता है और कई गुना लाभ प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा के नाम पर चलाये जानेवाले ऐसे स्कूल बदनुमादाग हैं। दूसरी तरफ पाँच सितारा होटलों की तरह ऐसे तकनीकी स्कूल कॉलेज हैं जहाँ लाखों रुपये का 'डोनेशन' लेकर प्रवेश दिया जाता है। इस डोनेशन के बारे में क्या कहा जाय, सूर्य के प्रकाश की तरह शिक्षा के क्षेत्र में फैली यह अराजकता सवींवदित है। शिक्षा प्रेमी के नाम पर शिक्षाविद् एवं शिक्षाशास्त्री कहलानेवाले व्यक्ति जिस तरह अबोध बालकों एवं शिक्षार्थियों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं वे भी इस अराजकता के उतने ही दोषी हैं जितने अन्य लोग। आत्म प्रशंसा, यश:शिखर पर पहुँचने की प्रबल उत्कंठा एवं बच्चों के प्रति भेड़ बकरियों का व्यवहार भी भीषण जुगुप्सा का कारण है। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के प्रति हर सरकार का सदैव उपेक्षा भाव रहा है। केवल आयोगों के गठन की घोषणा में सरकार ने अपने कर्तव्य की इति श्री मान ली। गठित आयोगों ने शिक्षा में परिवर्तन के जो सझाव दिये वे फाइलों की ही शोभा बढ़ा रहे हैं। उन पर अमल करने की फुरसत सरकार के पास नहीं थी, नहीं है और संभवत: रहेगी भी नहीं। आज कहीं शिक्षा के भगवाकरण के आरोप लग रहे हैं तो कहीं साम्यवादीकरण के। शिक्षा की इस दुर्दशा का परिणाम भोगना पड़ रहा है नई पीढ़ी को बिना किसी अपराध के। युवा पीढ़ी में इस समय व्याप्त आक्रोश, निराशा और भय भी इसी अराजकता की उपज है। नक्सलवाद की जड़ में भी यह असमानता और विद्वेष की भावना रही है। युवा पीढ़ी पर दिशाहीनता, कर्तव्य की उपेक्षा और परावलंबिता के आरोप चाहे जितने लगाये जायं, उन्हें प्रमादी, कामचोर एवं सदाचारहीन कितना ही कहा जाय लेकिन इसका दायित्व किसका है? क्यों ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है? यह सोचना आवश्यक है। ऐसे आरोपों को लगाते समय हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना होगा कि कहीं हमारी स्वार्थपरता, यशैषणा, महत्वाकांक्षा और बड़बोलापन तो इसकी जड़ में नहीं है। मीडिया, संचार साधनों की द्वतता, वैश्वीकरण की प्रक्रिया, उपभोक्तावाद, फैशनपरस्ती, बाजारवाद एवं अपसंस्कृति की तीव्र आँधी में इस समय सब कुछ बहा जा रहा है। अंधी होड़ा होड़-प्रतियोगिता और बिना किसी श्रम के करोड़पति बनने के वात्याचक्र में निरीह व्यक्ति Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वस्तु बनकर रह गया है, अस्तित्वहीन हो गया है। अत: यह स्थिति और भयावह हो उससे पूर्व ही इसमें परिवर्तन आवश्यक है अन्यथा 'का वर्षा जब कृषि सुखाने, समय चूकि पछताने' की तरह हाथ मलते रह जाना होगा। भावी पीढ़ी के भविष्य, इस देश की सभ्यता, संस्कृति एवं भूमि की आवश्यकता को ध्यान में रखकर शिक्षा में परिवर्तन नितान्त अपेक्षित है। 'जब जागे तभी सबेरा' मानकर शिक्षा में व्याप्त अराजकता की समाप्ति के उद्देश्य से कटिबद्ध होकर लगना आज समय की पहली आवश्यकता है। यदि बीज को सयम पर शुद्ध खाद, पानी और पोषण मिलेगा तो वृक्ष के अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित होकर इच्छित फल देने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगा। समाज एवं राष्ट्र को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र्य से संपन्न बनाने के लक्ष्य से प्रेरित शिक्षा, सेवा और साधना के क्षेत्र में विगत साढ़े सात दशक से कार्यरत श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा तथा उसके द्वारा संचालित श्री जैन विद्यालय, हावड़ा की एक दशकीय शैक्षणिक यात्रा की सम्पूर्ति के उपलक्ष्य में शिक्षा : एक यशस्वी दशक' स्मारिका के प्रकाशन का निश्चय किया गया था एवं इसके संपादन तथा संयोजन का दायित्व मुझे दिया गया था। पूर्व की भाँति संग्रहणीय एवं पठनीय स्मारिका प्रकाशन किसी एक के बूते की बात नहीं हो सकती। अत: साथी संपादकों के अथक अध्यवसाय, लगन तथा सुरुचि के कारण ही यह संभव हो सका है। मैं अपने सम्पादन सहयोगियों के प्रति हार्दिक आभार एवं प्रभूत कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। इसे संग्रहणीय तथा बालकों को सुरुचि तथा जैनत्व के संस्कारों से संपन्न बनाने की दृष्टि से श्री रिधकरणजी बोथरा, संयोजक समारोह समिति ने केवल दिशादर्शन ही नहीं किया अपितु तत्संबंधी सामग्री का चयन कर स्मारिका में प्रकाशित करने का जो स्पष्ट कर्तव्य बोध एवं बल प्रदान किया तदर्थ उनके प्रति आभार प्रकट करना तो मात्र शाब्दिक दायित्व का निर्वाह ही माना जायेगा। ऐसे आलेखों- नवकार मंत्र, नवतत्व, इन्द्रभूति गौतम आदि को न केवल पढ़कर बल्कि उसके अनुरूप आचरित करना ही उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना सही तरीका होगा। भाई श्री पद्मचन्द नाहटा ने इसे सर्वांग सुन्दर एवं आकर्षक ढंग से सन्जित करने का अभूतपूर्व कार्य किया, उसे भी मैं शाब्दिक कृतज्ञता से परे की बात मानता हूँ। __ स्मारिका के मुखपृष्ठ पर मुद्रित सरस्वती का चित्र बीकानेर (राज.) के गंगानगर के निकट पल्लू ग्राम की खुदाई से प्राप्त ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी की प्रतिमा का छायांकन है जो दिल्ली म्यूजियम से भाई श्री ललितजी नाहटा, नई दिल्ली के सौजन्य से प्राप्त हुआ है, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन मेरा कर्तव्य है। मैं यहाँ यह स्मरण दिला दूं कि श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा एवं उसके द्वारा संचालित विभिन्न प्रवृत्तियों की स्मारिकाओं के मुख पृष्ठ पर विभिन्न ऐतिहासिक स्थानों से प्राप्त पुरातात्विक महत्व को जैन सरस्वती की प्रतिमा के छायांकनों का मुद्रण ही किया गया है। . ओसवाल प्रिन्टर्स एवं अल्टीमम लेजरग्राफिक्स के कार्यकर्तायों का भी आभारी हूँ जिन्होने अपने अनर्निश श्रम द्वारा इसे समय पर तैयार कर दिया। इस स्मारिका मे सभा खण्ड, विद्यालय खण्ड एवं विद्वत खण्ड का समायोजन किया है। सभा खण्ड एवं विद्यालय खण्ड में संस्थान से संबंधित पदाधिकारियों, शिक्षकों एवं छात्रों के आलेखों का प्रकाशन किया गया है। विद्वत खण्ड में मान्य विद्वानों से आमंत्रित आलेखों का प्रकाशन किया गया है। विद्वानों, मनीषियों एवं चिन्तकों ने पूर्व की भाँति हमारे अनुरोध एवं आग्रह पर आलेख भेजकर हमें न केवल अनुगृहीत किया है बल्कि स्मारिका को संग्रहणीय एवं पठनीय कलेवर प्रदान करने में जो स्नेह, सहयोग एवं सौजन्य प्रदान किया है तदर्थ राशि-राशि कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। इस खण्ड में शिक्षा सम्बन्धी ऐसे अनेक आलेख हैं जो न केवल शिक्षा जगत में व्याप्त अराजकता पर प्रकाश डालते हैं अपितु उसमें मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देते हैं। मैं सुधी पाठकों को उन्हें पढ़ने का अवश्य अनुरोध करूंगा। इस स्मारिका में सभा एवं उसकी प्रवृत्तियों के परिचय के साथ विभिन्न समारोहों, क्रिया-कलापों एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं के बहुरंगी चित्र भी प्रकाशित किये हैं जो इन प्रवृत्तियों द्वारा शिक्षा, सेवा और साधना के क्षेत्र में किये गये कार्यों का ऐसा लेखा-जोखा है जो काल के भाल पर लिखा गया अमिट लेख है। ये चित्र इसलिये प्रकाशित किये हैं कि भावी पीढ़ी को सत्संस्कार, प्रेरणा और उत्साह प्रदान करे एवं सेवा के मार्ग में प्रवृत्त कर सके। यह स्मारिका अब आपके हाथ में है, यह कैसी है और आपको कैसी लगी है, यह तो आप जैसे सुधी पाठकों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगा। त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयामि। यह स्मारिका आपकी है और यह आपको ही समर्पित है। किमधिकम! धन्यवाद भूपराज जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशंसा श्री जैन विद्यालय, हावड़ा अपनी स्थापना का एक दशक पूर्ण कर रहा है। यह दशक हावड़ा के शिक्षा-इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज है जिसका ऐतिहासिक महत्व निर्विवाद है। इसकी स्थापना का श्रेय श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा, कोलकाता का है जिसने कोलकाता, हावड़ा आदि में शिक्षा के लिए नूतन प्रकल्प और आयाम प्रस्तुत किए हैं और लोकोपकार के साथ राष्ट्र की भावी पीढ़ी के व्यक्तित्व के सम्यक् विकास का परम श्रेय प्राप्त किया है। किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके युवावर्ग पर निर्भर करता है। आज के मूल्यहीन और . नेतृत्वहीन के परिवेश में जब व्यक्ति, समाज और और राष्ट्र तीनों अप संस्कृति से अभिशप्त रहे हैं। आशा है शिक्षा के पुनर्मूल्यांकन की ऐसी भूमिका प्रस्तुत करे जिससे भूमण्डलीकरण, उपभोक्तावाद और तकनीकी सभ्यता के कृत्रिम मोहजाल से मुक्त कर उच्च मानवीय आदर्शों के साथ-साथ हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के नवोत्थान में सक्रिय सहभागिता करे। हावड़ा क्षेत्र में यह श्री जैन विद्यालय कर रहा है और मैं उसके विकास, उत्थान और उन्नयन को देखकर मुग्ध हुआ हूँ। एक दशक इसका प्रमाण है। मुझे विश्वास है कि वह भविष्य में भी उत्तरोत्तर विकास प्राप्त कर अपना महत्वपूर्ण योगदान देता रहेगा। इन्हीं शुभेच्छाओं के साथ कल्याणमल लोढ़ा २ए, देशप्रिय पार्क (ईस्ट), कोलकाता-२९ श्री जैन विद्यालय हावड़ा 'शिक्षा : एक यशस्वी दशक' के शुभावसर पर स्मारिका के प्रकाशन का मांगलिक समाचार जानकर उल्लसित हुआ। श्री जैन विद्यालय हावड़ा, भारत के भावी भाग्यविधाताओं के सुगठित जीवन निर्माण में बाल्यकाल से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विधिवत् शिक्षा देकर उनकी नींव सुदृढ़ करते हुए शिक्षा का एक यशस्वी दशक पूरा कर रहा है। बालकों की सहज-स्वाभाविक शिक्षा और सद्वृत्तियों का उन्नयन और समुचित विकास ही शिक्षा का मेरुदण्ड है। सशिक्षा से सुविवेक जगता है और विवेक से ही जीवन जागृति और राष्ट्रोन्नति के कार्यों को करने से ही मानव सौरभमय तथा साफल्य मंडित होता है। इसी मूल के सिंचन में लगे संस्थान से जुड़े सभी लोगों को समवेत भाव से अपनी शुभ कामनायें प्रेषित करता हूँ। माणकचन्द रामपुरिया रामपुरिया भवन, रामपरिया मार्ग, बीकानेर अत्यन्त गर्व और गौरव की बात है कि श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा का यह अमृत महोत्सव वर्ष है एवं श्री जैन विद्यालय, हावड़ा एक दशक की मंगलमय यात्रा भी परिपूर्ण कर आगे प्रगति के पथ पर अग्रसर है। मंगलक.मना है कि विद्यालय परिवार के प्रति जिन्होंने श्रद्धा और समर्पण के साथ सभा के तीन महत्वपूर्ण संकल्पों साधना, शिक्षा और सेवा को बढ़ाने में पूर्ण योगदान दिया, भावी यात्रा भी मंगलमय हो और शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श सरस्वती मंदिर का रूप जन-जन के लिए प्रेरणादायी हो। साक्षरता अभियान में सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि करते हुए एक पारिवारिक परिवेश में छात्र एवं छात्राओं के प्रति अपने दायित्व को निभाने के संकल्प को हम सब दोहरायें, यही मेरी शुभकामना है। रिखबदास भंसाली ट्रस्टी- श्री वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्यालय की शैक्षणिक उपलब्धियाँ कोलकाता वासियों के लिए ही नहीं, बहुत सुदूर बैठे हमारे लिए भी गौरवदायिनी है। यहाँ के छात्र केवल शिक्षा ही ग्रहण नहीं कर रहे हैं, सात्विक एवं संस्कारी जीवन जीने की दीक्षा में भी पारंगत हो रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है जबकि सब ओर शिक्षा व्यवसाय और डिग्री प्राप्त करने का माध्यम रह गई है। ऐसे मे शिक्षा और शिक्षक दोनों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि शिक्षार्थी को जीवन मूल्यों से कैसे किस प्रकार जोड़ा जाय। , श्री जैन विद्यालय, हावड़ा का 'शिक्षा एक यशस्वी दशक' समारोह का आयोजन एवं स्मारिका का प्रकाशन यह समाचार प्रेरक और सुखद है। भगवान महावीर के २६०० वें कल्याण वर्ष में यह पुनीत कार्य अत्यन्त ही उपयोगी हो यही मेरी कामना है। विद्यालय बालकों को सुसंस्कारों से ओतप्रोत कर समाज एवं राष्ट्र की बहुआयामी अमूल्य सेवा कर रहे हैं। देश के नौनिहालों को जितने अच्छे संस्कार विद्यालयों में मिल सकते हैं, उतने संस्कार अन्यत्र न मिल सकते हैं। इसी दिशा में श्री जैन विद्यालय देश व समाज के उन्नयन में अपना अमूल्य योगदान देता हुआ कार्य में अधिक से अधिक गुणवत्ता लाने के लिये सक्रिय रहे। इसी प्रशस्त भावना के साथ। स्मारिका के सफल प्रकाशन की कामना करता हूँ। डॉ० महेन्द्र भानावत सम्पादक : रंगयोग त्रैमासिक श्री जैन विद्यालय, हावड़ा के शिक्षा : यशस्वी एक दशकीय कालचक्र की सम्पूर्णता पर स्मारिका के प्रकाशन के उपलक्ष में मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ स्वीकार करें। पूर्व की भांति भविष्य में भी इसकी यशस्वी कर्ममय शैक्षणिक यात्रा में चार चाँद लगे, यही शासनदेव से करबद्ध प्रार्थना है। शान्तिलाल सांड पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ केशरीचंद गोलछा कोषाध्यक्ष : श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा (संस्थापित सन् १९२८) १८ - डी, सुकियस लेन, कोलकाता ७००००१ (सोसायटी एक्ट १९६० के अन्तर्गत पंजीकृत) १. शिक्षा : क. श्री जैन विद्यालय (संस्थापित सन् १९३४) १८ डी, सुकियस लेन, कोलकाता ७००००१ (उच्च माध्यमिक विद्यालय, पश्चिम बंग माध्यमिक शिक्षा परिषद एवं पश्चिम बंग उच्चतर माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा मान्यता प्राप्त, संप्रति ३००० छात्र अध्ययनरत ) ख. श्री जैन विद्यालय (सन् १९९२) लड़कों के लिए २५/१, बन बिहारी बोस रोड, हावड़ा- ७११ १०१ (उच्च माध्यमिक विद्यालय, पश्चिम बंग माध्यमिक शिक्षा परिषद एवं पश्चिम बंग उच्चतर माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा मान्यता प्राप्त) संप्रति २१०० छात्र अध्ययनरत श्री जैन विद्यालय (सन् १९९२) लड़कियों के लिए (पश्चिम बंग माध्यमिक शिक्षा परिषद एवं पश्चिम बंग उच्चतर माध्यमिक शिक्षा परिषद् द्वारा मान्यता प्राप्त) संप्रति २००० छात्राएँ अध्ययनरत हावड़ा में लड़कियों के लिए प्रस्तावित स्नातकीय महाविद्यालय श्री जैन शिल्प शिक्षा केन्द्र (१९८६-८७ ) १८- डी, सुकियस लेन, कोलकाता - ७००००१ (राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय कक्षा १० एवं कक्षा १२ लड़कियों के लिए) मानव विकास एवं संसाधन मंत्रालय के नेशनल ओपन स्कूल के अन्तर्गत सम्प्रति १५० छात्राएँ अध्ययनरत हरखचंद कांकरिया जैन विद्यालय, जगदल कक्षा ९, ६०० छात्र-छात्राएँ अध्ययनरत सागर माधोपुर में तारादेवी कांकरिया प्राथमिक विद्यालय की स्थापना ग. घ. ङ. च. छ. झ. गुजरात के भूकम्प प्रभावित क्षेत्र कच्छ भुज में माँ आशापुरा इगलिश मिडियम प्राइमरी स्कूल का दिनांक ६ जनवरी २०० को उद्घाटन । श्री वीरायतन द्वारा निर्माणाधीन विद्यालय में ६ कमरों के एक प्रखंड हेतु आधिक सहयोग । अशोक नगर (पश्चिम बंगाल) में प्राथमिक विद्यालय की स्थापना। ञ. सभा खण्ड/ १ २. महिला उत्थान एवं विकास क. क. ३. ग्रामांचल विकास (बुक बैंक योजना) : श्री जैन बुक बैंक योजना (१९७९) १८- डी, सुकियस लेन, कोलकाता ७००००१ ख. निःशुल्क पाठ्य-पुस्तकों का वितरण ग. ग्रामांचलों में विद्यालयों का निर्माण एवं जर्जर विद्यालयों का पुननिर्माण ( सम्मति दो ग्रामों के कार्यारम्भ) घ. स्वरोजगार योजना के अन्तर्गत ग्रामांचलों में पेड़पौधे लगाने एवं कृषि कार्य के लिए ऋण विभिन्न ग्रामीण विद्यालयों में कम्प्यूटर सेन्टर, लायब्रेरी, विज्ञान प्रत्येक शाखाओं की स्थापना ४. मानव सेवा प्रकल्प : ङ.. : स्वावलम्बन योजना के अन्तर्गत महिलाओं को सिलाई मशीनों का वितरण क. निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर ख. ग. उच्च माध्यमिक, स्नातकीय एवं उच्चतर स्नातकीय छात्रों को संदर्भ ग्रन्थ एवं पाठ्य-पुस्तकों का निःशुल्क - वितरण प्रति वर्ष दो हजार छात्र-छात्राओं को । विकलांगों के लिए निःशुल्क कृत्रिम अंग वितरण शिविर एवं चार पहिए वाली साइकल का वितरण सूती, ऊनी तैयार वस्त्र एवं कम्बलों का ग्रामांचलों में निःशुल्क वितरण रक्तदान शिविर का आयोजन अस्पतालों में फलों का वितरण निःशुल्क औषधि वितरण ज. प्रत्येक माह में एक सौ नितान्त असहाय गरीब एवं विकलांग व्यक्तियों को दो बार निःशुल्क राशन वितरण ग्रामीण महिलाओं को स्वरोजगार हेतु व्याज मुक्त ऋण ५. श्री जैन हास्पीटल एवं रिसर्च सेन्टर, हावड़ा ४९३/बी/ १२, जी.टी. रोड (दक्षिण) हावड़ा- ७१११०२ सात करोड़ रुपये की लागत से २२० (बेड) शय्याओं एवं अधुनातन संसाधनों तथा संयंत्रों से युक्त साठ हजार वर्ग फीट पर निर्मित आधुनिक चिकित्सा एवं निदान केन्द्र । १५ अगस्त, १९९७ को स्वतंत्रता दिवस की स्वर्ण जयन्ती के पावन प्रसंग पर आउटडोर विभाग का उद्घाटन सम्पन्न। दिसम्बर, १९९७ में इन्डोर विभाग का प्रारम्भ । शिक्षा-एक यशस्वी दशक घ. ङ. च. छ. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE SHWETAMBER STHANAKWASI JAIN SABHA 18/D, Sukeas Lane, Kolkata-700 001 LIST OF OFFICE BEARERS OF THE SABHA Trustees Sri Manak Chand Rampuria Sri Sardarmull Kankaria Sri Rikhabdas Bhansah Sri Balchand Bhura President Sri Bachhraj Abhani Vice President Sri Ridhkaran Bothra Secretary Sri Vinod Minni Permanent Invitees Sri Jaichandlal Rampuria Sri Sohanlal Golchha Sri Bhanwarlal Baid Sri Chandmal Abhani Sri Gopal Chand Bothra Sri Kundanmal Baid Sri Kharag Singh Baid Sri Manik Chand Gelra Sri Kamal Singh Kothari Sri Kamal Singh Bhansali Sri Tansukh Raj Daga Sri Hastimal Jain Sri Gautam Chand Kankaria Sri Jawaharlal Karnawat Sri Kanwarlal Maloo Sri Binod Chand Kankaria Sri Suresh Kumar Minni Sri Ajay Kumar Bothra Sri Surendra Kumar Sethia Sri Gopal Chand Bhura Sri Ajay Kumar Daga Sri Rajendra Kumar Bucha Sri Surendra Daftry Sri Kamal Karnawat Sri Sushil Kumar Gelra Joint Secretaries Sri Ashok Kumar Bothra Sri Kishore Kumar Kothari Treasurer Sri Parasmal Bhurat Working Committee Member Sri Jaichandlal Minni Sri Brianwarlal Dasani Sri Phagma: Abhani Sri Sohanraj Singhvi Sri Mohanlal Bhansali Sri Kishaniali Bothra Sri Pannalal Kochar Sri Shantilal Daga Sri Surendra Kumar Banthia Sri Subhash Chand Kankaria Sri Shantilal Kothari Sri Sunderlal Dugar Sri Rajendra Kumar Nahata Sri Chandra Prakash Daga Sri Lalit Kumar Kankaria Sri Ashok Minni Sri Subhash Bachhawat Sri Mahendra Kumar Karnawat Sri Arun Kumar Malo Sri Nischal Kankaria Sri Pankaj Bachhawat OFFICE Office Secretary Sri Hanuman Nahata Note : The President and the Secretary of Shree Shwetamber Sthanakwasi Jain Sabha will be the Ex-officio members over all the Committees and Sub-committees Governed by the Sabha. शिक्षा-एक यशस्वी दशक सभा खण्ड/२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA - KOLKATA 18-D, Sukeas Lane, Kolkata-700 001 Phone : 2/2-4958, Telefax : 210-4139 SHREE JAIN BOOK BANK PROJECT COMMITTEE Convenor Sri Subhash Bachhawat President Sri Sohanraj Singhvi Vice President Sri Vinod Minni Co-convenor Sri Ajay Bothra Sri Ajay Daga Sri Surendra Daftary Secretary Sri Binod Chand Kankaria Principal Sri Sharad Chanura Pathak HARAKH CHAND KANKARIA JAIN VIDYALAYA - JAGATDAL Auckland Jute Mill Compound Post-Jagatdal, Dist. 24 Parganas (N) Jagatdal-743 125, Phone : 581-7925 Member Sri Chandra Prakash Daga Sri Surendra Kumar Sethia Sri Chandra Kumar Bachhawat Sri Bhagi Chand Daga Sri Mahavir Lunawat Sri Padam Bachhawat Sri Vijay Kumar Anchalia Sri Ajit Parekh Sri Pankaj Bachhawat Sri Tarak Nath Das Sri Radhey Shyam Dutta Sri Ujjai Nandi Sri Gautam Kumar Bose Sri Shyam Sunder Nayak Sri Sankar Mahapatra Ms. Tripti Biswas Presient Sri Harakh Chand Kankaria Vice President Sri Su.endra Kumar Banthia Secretary Sri Sardarmull Kankaria Principal Sri Bal Krishna Harsh SHREE JAIN DHARMA SABHA SAMITY SHREE JAIN SHILPA SHIKSHA KENDRA (National Open School) 18/D, Sukeas Lane, Kolkata-700 001 Phone : 242-6369 Convenor Sri Kewal Chand Patwa Co-convenor Sri Kewal Chand Kankaria Sri Jawaharlal Karnawat Secretary Sri Lalit Kankaria Joint Secretary Smt. Geetika Bottıra Member Sri Sohanlal Golchha Sri Gopal Chand Bothra Sri Shantilal Daga Sri Kundanmal Falodia Sri Kanwarla! Sethia Sri Ajay Kumar Daga Sri Bhagi Chand Daga Sri Nirmal Kumar Baid Principal Sri Arun Kumar Tewari Co-ordinator Sri Radheyshyam Misira सभा खण्ड/३ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LEGAL COMMITTEE Convenor Sri Ashok Minni Co-convenor Sri Lalit Kankaria MAHILA UTTHAN AND VIKAS SAMITY Convenor Smt. Leela Dev Bothra Sri Pannala Kochar Sri Padam Chand Nahata Sri Devendra Kochar Sri Panmal Maloo Sri Radhey Shyam Mishra Sri Binod Bhai Shah Sri Tara Chand Surana Sri Ashok Bothra Sri Kanmal Sethia Sri Phagmal Abhani Sri Chandra Prakash Daga Sri Ajay Kumar Daga Sri Rajendra Kumar Bucha Sri Ashwini Bhai Desai Sri Thanmal Bothra Sri Surendra Kumar Sethia Sri Shanti Lal Kothari Sri Kishor Kothari Sri Pankaj Bachhawat Sri Rajendra Kumar Nahata Sri Kanwarlal Maloo Sri Sushil Daga Smt. Chandrakala Bang Co-convenor Smt. Prabha Bhansali Smt. Kiran Hirawat SHREE JAIN HOSPTIAL AND RESEARCH CENTRE - HOWRAH 493B/12, G. T. Road (South), Howrah-711 101 Phone : 6502066/3067/7502/0795, Telefax : 6503068 President Sri Harakh Chand Kankaria Vice President Sri Srichand Nahata Sri Shyam Sundar Kejriwal SHREE JAIN VIDYALAYA/COLLEGE NEW PROJECT COMMITTEE Secretary Sri Sardarmull Kankaria Convenor Sri Sardarmull Kankaria Joint Secretaries Dr. Narendra Sethia Sri Ahok Minni Co-convenor Sri Surendra Banthia Member Sri Ridh Karan Bothra Sri Sohanraj Singhvi Sri Sunderlal Dugar Sri Binod Chand Kankaria Sri Shantilal Kothari Treasurer Sri Ridh Karan Bothra Medical Superintendent Dr. Arunava Chatterjee Managing Committee Members Sri Rikhab Das 3nansali Sri Sohan Raj Singhvi Sri Bhanwarlal Dasani Sri Mohanlal Bhansali Sri Surendra Kumar Banthia Sri Kishanlal Bothra Sri Shantilal Daga Sri Subhas Bachhawat शिक्षा-एक यशस्वी दशक सभा खण्ड/४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE A Brief Progress Report Situated: 493 B-12, G. T. Road, Howrah (S)- 711 102 on total 63 cathas of land constructed area 65000 sq. ft. approximately. Ground plus four floor, 220 bedded Charitable Hospital with the following facilities: Outdoor Departinent inaugurated on 15-8-97 by Hon'ble Mayor, Howrah Municipal Corporation- Sri Sowdesh Chakraborty, Hon'ble Minister InchargeSports. Transport Minister-Incharge Smail Scale & Cottage Industries Govt. of West Bengai- Sri Pralay Talukdar and other dignitories. At present approximately 150 patients are visiting outdoor daily. * COMPUTERISED EYE CHECKUP * PHYSIOTHERAPY * FREE ARTIFICIAL LIMB & CALIPER UNIT * AUDIOMETRY INTENSIVE CARE UNIT (ICU) INTENSIVE CARDIAC CARE UNIT (ICCU) NEONATAL INTENSIVE CARE UNIT (NICU) ENDOSCOPY SPIROMETERY * 24 HRS. AMBULANCE MEDICINE SHOP * SPECIAL WING LAPAROSCOPY UNIT UROLOGY DEPT. NEPHROLOGY DEPT. C-ARM * PAEDIATRIC SURGERY * RESPIRATORY MEDICINE * PERMANENT PALEMAKER * IMPLANTATION FACILITY * DIALYSIS UNIT * DIALYSIS PAY CLINIC Indoor Department started practically in the 3rd week of Dec. '97. At present following facilities are available in the Hospital : 24 HRS. EMERGENCY * COMPUTERISED PATHOLOGY X-RAY ULTRASONOGRAPHY ECHO-CARDIOGRAPHY TMT DENTAL सभा खण्ड/५ f97817–– T ich Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन विद्यालय, कलकत्ता १९९४ में छ: दशकीय शैक्षणिक यात्रा पूर्ण : हीरक जयन्ती वर्ष हीरक जयन्ती वर्ष में माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विहंगम दृष्टि में परीक्षाफल एक कीर्तिमान। माध्यमिक में १८९ छात्रों में ९५ • श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा द्वारा सन् १९३४ मे छात्र प्रथण श्रेणी में शेष द्वितीय श्रेणी में। उच्च माध्यमिक में संस्थापन ४२४ छात्रों में १८२ छात्र प्रथम श्रेणी में, शेष द्वितीय श्रेणी में। पांचागली के एक कमरे में प्रारम्भ गणित में १० छात्रों को स्टार मार्क (विशेष योग्यता) प्रथम प्रधानाध्यापक श्री बच्चन सिंह अनेक प्रतियोगिताएँ, अखिल भारतीय मुद्रा एवं स्टाम्प प्रदर्शनी, विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि पर मोहनलाल गली में सन् विज्ञान एवं कला प्रदर्शनी, संगीत संध्या आदि का आयोजन १९४५ में स्थानान्तरण . १७ दिसम्बर, १९९४ को कलकत्ता मिन्ट के डिप्टी जनरल मोहनलाल गली में कक्षा ५ तक अध्यापन मैनेजर डॉ० श्री दत्ता द्वारा जैनपेक्स एवं हीरक जयन्ती विशेष विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रख नवीन भवन मुद्रा का अनावरण एवं कलकत्ता उच्च न्यायलय के मुख्य निर्माण का संकल्प न्यायाधीश श्री के० सी० अग्रवाल को भेंट सुकियसलेन में जमीन क्रय एवं सन् १९५६ में भवन निर्माण १७ दिसम्बर, १९९४ को जी० पी० ओ० फिलटेलिक प्रारम्भ विभाग द्वारा विद्यालय प्रांगण में स्काउट मेल एवं प्रथम दिवसीय सन् १९५८ में १८-डी, सुकियस लेन में विद्यालय स्थानान्तरित आवरण जारी एवं अतिथियों को भेंट श्री रामानन्द तिवारी प्रधानाध्यापक नियुक्त २३ दिसम्बर, १९९४ को जनरल मैनेजर श्री डी० एम० पश्चिम बंग माध्यमिक शिक्षा परिषद द्वारा १९६० में मान्यता सरकार, कलकत्ता मिन्ट, भारत सरकार की अध्यक्षता में सम्पन्न एवं हाई स्कूल की कक्षाएँ प्रारम्भ समारोह में श्री सुभाष चक्रवर्ती, क्रीड़ा एवं युवा कल्याण मंत्री, सन् १९६० बहुद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के रूप में पश्चिम बंग के कर-कमलों से कबूतर डाक सेवा का उद्घाटन मान्यता एवं कक्षाएँ प्रारम्भ दिनांक २५ दिसम्बर, १९९४ को नेताजी इन्डोर स्टेडियम में कार्यकारिणी अध्यक्ष श्री फूसराज बच्छावत, मंत्री श्री सरदारमल समापन समारोह। प्रधान अतिथि श्री टी० एन० शेषन, मुख्य कांकरिया, संयुक्त मंत्री एवं प्रधानाचार्य श्री रामानन्त तिवारी चुनाव आयुक्त, भारत सरकार सन् १९७६ में पश्चिम बंग उच्च माध्यमिक परिषद द्वारा • १०-७-९४ को श्रीमती विमला मिन्नी कम्प्यूटर सेन्टर का मान्यता एवं १०+२ का अध्यापन प्रारम्भ उद्घाटन। कक्षा ५ से कक्षा १२ तक के छात्रों के लिए सन् १९७८ में विद्यार्थियों का प्रथम दल उच्च माध्यमिक कम्प्यूटर शिक्षा अनिवार्य परीक्षा में सम्मिलित सन् १९९६ में मल्टी-मीडिया कम्प्यूटर एवं इन्टरनेट सर्विस विज्ञान एवं वाणिज्य की कक्षाएँ का उद्घाटन, इ-मेल की सुविधा से सम्पन्न विगत दो दशक से परीक्षा परिणाम शत-प्रतिशत सन् १९९८ से परीक्षाफल में नया कीर्तिमान विज्ञान एवं वाणिज्य के कई विषयों में छात्रो को विशेष योग्यता ' विद्यालयी गतिविधियों की परिचायिका - पदमासिक 'आभास' सन् १९८४ में विद्यालय की अष्ट दिवसीय स्वर्ण जयन्ती का प्रकाशन २००१ से प्रारम्भ १५ जनवरी, १९८४ को नेताजी इन्डोर स्टेडियम में दस गाइड यूनिट की स्थापना हजार दर्शकों की उपस्थिति में स्वर्ण जयन्ती का प्रधान समारोह श्रेष्ठ स्काउट एवं गाइड को पुष्करलाल केडिया पदक (समग्र विशिष्ट प्रतिभा पुरस्कार- विभिन्न क्षेत्रों में कीर्तिमान बनाने वाले कलकत्ता जिला) छात्रों का सम्मान श्रेष्ठ छात्र को डॉ. महेश गोयनका के पिताश्री की स्मृति में विज्ञान की समृद्ध आधुनिक प्रयोगशालाएँ एवं पुस्तकालय - चार हजार रुपये की वार्षिक छात्रवृत्ति सन् २००१ से प्रारम्भ बीस हजार पुस्तकें पूर्व छात्र डॉ० ओम टांटिया की ओर से विज्ञान के श्रेष्ठ छात्र ज्ञान-विज्ञान के आधुनिक संसाधन - जेनरेटर, सभी कक्षाओं में को २०००) वार्षिक छात्रवृत्ति सन् २००२ से प्रारम्भ ध्वनि-विस्तारक यंत्र, लिफ्ट आदि स्कोप एवं विद्यालय के तत्वावधान में कम्प्यूटर प्रशिक्षण बालचर, कराटे, संगीत एवं कला प्रशिक्षण, नैतिक एवं प्रारंभ, सभी के लिए शारीरिक प्रशिक्षण जरूरतमंद प्रतिभा सम्पन्न छात्र को स्व० भीखमचंद भंसाली की कम्प्यूटर शिक्षण कक्षा ५ से अनिवार्य स्मृति में भंसाली परिवार की ओर से चार हजार रुपये की • सम्पति २४०० विद्यार्थी छात्रवृत्ति शिक्षा-एक यशस्वी दशक सभा खण्ड/६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. D. Bhansali Education 2002 The concept or education is very old. The momen it was conceived thai man is rational animal sources for education were discovered. Primitive Sources were nature, old legends ethics, Spiritual Sermons. Gurukul. As science developed the system was changed. Apart from moral education one must achieve materials knowledge also to preserve himself mentally and physically fit. Moral virtues are the means and not the end to achieve the goal. When we think of education in 2002, a lot of changes are required With the existing School syllabi extra curricular projects should be evolved In this manner of education learning will be an enjoyable experience. There must not be stereo type of education. The school must create suitable work environment. A child's potentiality has to be tapped he should be kept abreast of latest technologies so that conventional methods of education are more interesting and meaningful. This will naturally lead towards polishing their hidden abilities and help in reducing examination stress and offer career counselling. Schools must take initiative. Emphasis should be on projects, organised tours to achieve pressure fire environment. The aim should be on how to learn ratter than what to learn. This will enable them to adjust to the mainstream of education. It is must to infuse in students keenness for art and culture and a strong environmental awareness along with regular curriculum. Students usually spend ten to twelve years of their prime time of life in class rooms burdened with school syllabi homework and preparing for terminal exams, weekly tests. It is pity that they do not enjoy the process of education, through audio and visual methods, Which can provide a graphic memory to students. To impart fair education the school must organise counseling, debates, seminars, exhibitions, conference, talks, etc. These activities enable students in choosing a सभा खण्ड/ ७ career- an extra ordinary one-which emerge from a most unique, sophisticated and advance academic and technical knowledge with total personality development leading to inner strength of both mind and soul because faith in moral virtues make a person a super human. Respect for riders. teachers;, society and faith in God are all concerned with moral virtues. Each one will become a success story. futures will be bright and life will have enormous joy and satisfaction. Then alone, he will lean towards humility. compassion, and understanding for others. This quality will maintain positive relationship with others. The teacher is not a fountain of wisdom as has been traditionally held but is a facilitator and guide of the modem era. For everybody learning should be exciting and fun. This also will insist each one to move on right track with open eyes and clear perception. S. R. Singhvi Trustee Shree S S. Jain Sabha Dream has come into the reality Ten years ago Shree Jain Vidyalaya, Howrah was a dream project. When the site was visited some of us had reservations because of location and approach. Today the dream has come into the reality much more than expectations. The six-storey construction with a lot of open space and large approach has give the school a distinctive place in Howrah. In course of 10 years the Vidyalaya has sealed new heighs and has emerged as a leading educational institute in Howrah. The objects of education is complete development of ail faculties and by numerous activities social, cultural, sports etc. It has helped students to be proud of belonging to Shree Jain Vidyalays. In the present times all education is incomplete without computer courses. In addition to this facility speaks the outlook of the management. A very cordial relation exists among the management, staff members, students and Shree Shwetambar Sthanakwasi Jain Sabha. This team spirit is the main contributor of fast progress and better result of the students. I send my hearty congratulations and share with the School the joy for celebrating its 10th anniversary. My all the best wishes for further development and hope the management will be successful in giving value based education to the students. President, Shree Jain Vidyalaya 180, Sukeas Lane, Kolkata शिक्षा- एक यशस्वी दशक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDITORIAL BOARD Bhupraj Jain Dr. Gopalji Dubey Smt. Olga Ghosh Lalit Kankaria Padamchand Nahata Ridhkaran Bothra Lakshmi Shankar Mishra Radheyshyam Mishra For Private & Personal use only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN HOSPITAL RESEARCH CENTRE Shres Join Hospital & Research Centre SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE Jain Education Interational 74 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 बच्छराज अभानी रिसर्च सेन्टर, हावड़ा है जिसमें सभी समाज व सम्प्रदाय के लोगों ने सहर्ष तन-मन-धन से सहयोग दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में तो विद्यालय एवं सभा ने सिर्फ जैन समाज की शिक्षण संस्थाओं में ही नहीं वरन् कलकत्ते की सभी शिक्षण संस्थाओं में अपनी साख जमाई है। स्कूल के विद्यार्थियों का अनुशासन सराहनीय रहा है। विद्यालय के माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक परीक्षाओं के शत्प्रतिशत् परिणाम ने एक कीर्तिमान स्थापित किया है। यह विद्यार्थियों की पढ़ने में लगन, रुचि एवं परिश्रम के साथ अध्यापकों की भी दिल से पढ़ाने की तन्मयता एवं आशीर्वाद का फल है। सम्पूर्ण समाज की शुभकामनाओं और सहयोग से एवं स्थानकवासी सदस्यों की सभा के प्रति समर्पण भावना से पदाधिकारियों को भी नि:स्वार्थ भाव से संस्था को सेवा देने की शक्ति और प्रेरणा मिलती रही है और मिलते रहने की अपेक्षा है ताकि सभा द्वारा संचालित सभी शिक्षा और सेवा संस्थान दिनप्रतिदिन प्रगति और उन्नयन के मार्ग पर बढ़ते रहें। इसी आशा और विश्वास के साथ - समारोह की सफलता की शुभ कामना करता हूँ। अध्यक्ष- श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा शिक्षण संस्थाओं में अग्रणी अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि हमारी सभा की प्लेटिनम जुबिली वर्ष के प्रथम आयोजन के रूप में श्री जैन विद्यालय हावड़ा की यशस्वी शैक्षणिक यात्रा की दशवीं वार्षिकी १२ मई २००२ को नेताजी इन्डोर स्टेडियम में मनाने जा रहे हैं। गत् ७५ वर्षों से संस्था साधना, शिक्षा और सेवा के कार्यों में निरन्तर बढ़ती जा रही है। इसका मूल श्रेय सिर्फ पदाधिकारियों को ही नहीं वरन् सभा के सभी सदस्यों का सभा के प्रति पूर्ण समर्पण और सहयोग की भावना सभा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं गौरवशाली बात तो यह है कि सभा के पदाधिकारियों एवं कार्यकारिणी समिति व सदस्यों आदि का चुनाव सर्वसम्मति से होता है न कि पद के लिये किसी प्रकार की प्रतिद्वन्द्विता से। इसके प्रतिकूल सुयोग्य व्यक्तियों की पहचान कर उन्हें पद सम्भालने के लिये सभी सदस्य विशेष अनुरोध करते हैं एवं प्रभाव डालते हैं। सभा के सभी सदस्य पदाधिकारियों को सर्वदा हार्दिक सहयोग देते रहते हैं। __पदाधिकारियों ने भी सभी समाज के प्रति शुभकामना एवं समन्वय तथा एकता की भावना रखते हुए साम्प्रदायिकता के अहम् की लहर में न बहते हुए सिर्फ स्थानकवासी समाज ही नहीं वरन् समस्त जैन समाज के लोगों के हृदय को जीता है जिसका जीता जागता प्रमाण श्री जैन विद्यालय, हावड़ा एवं श्री जैन हॉस्पीटल एण्ड शिक्षा-एक यशस्वी दशक सभा खण्ड/८ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vinod Minni अहम् का विसर्जन श्री जैन विद्यालय, हावड़ा, १२ मई को नेताजी स्टेडियम में अपना यशस्वी एक दशक कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है, आनन्द का विषय है। हमारे लिये ऐसे आयोजन सिर्फ आनन्द के लिये ही नहीं होते हैं वरन् हमारे कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा के । स्रोत होते हैं, उन्हें नये मंगलमय सामाजिक कार्य करने का उत्साह देते हैं। श्री जिनेश्वर देव से यही प्रार्थना है कि यह विद्यालय के.जी. कक्षा से कॉलेज तक का हो व हमारे कार्यकर्ता, सभा, विद्यालय परिवार, अपने अहम् का विसर्जन कर एकजुट हो, एक परिवार की तरह कार्य करे। इस विद्यालय के निर्माण के लिये जिन सज्जनों का प्रत्यक्ष व परोक्ष में हमें सहयोग मिला है हम उन्हें नमन करते हैं व प्रभु से उनके आनन्द व मंगलमय जीवन की कामना करते हैं। A Glorious Decade Shri R. K. Bothraji, At first my due respect to you, Sir as you are one of the pillars of this institution. It is a matter of great happiness to celebrate this achievement. As far as I know this place of land was procured by Shri Sundarlalji Dugar for developing but the moment he came to know we were planning to set up a School he surrendered this deal in our favour & contributed generously for the development of the project. The role played by Shri Sardarmalji Kankaria in nursing & grooming this institution reveals his dedication. He is the captain of our team supported by dedicated Shri Rikhabdasji Bhansali & yourself. We cannot forget the active role played by late Bhawarlalji Karnawat. I pray God & with that in future the School would smoothly reach exciting heights with improvement in quality of education. I wish the function all success. Definitely the credit of glorious decade also goes to the Principal. Teachers & Members of the staff who have played key role in the development of this institution. As you are the convener of this Glorious Decade function I wish you all success. Best regards, रिधकरण बोथरा उपाध्यक्ष - श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा Secretary Shree S. S. Jain Sabha सभा खण्ड/९ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनलाल भंसाली वर्तमान काल में विद्या का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। विज्ञान के विकास के साथ-साथ इस सम्पूर्ण जगत का विकास हो रहा है। चारों ओर विज्ञान एवं विद्या का ही बोलबाला है। विद्या एवं विज्ञान के निर्माण से लेकर विकास तक, प्रचार से लेकर प्रसार तक 'आज के विद्यार्थी' का अभूतपूर्व योगदान रहा है। आज मानव जाति के विकास के उपरांत / पश्चात् भी किसी विद्यार्थी के लिए विद्या ग्रहण करना आसान नहीं अपितु अधिक जटिल एवं दुर्गम से गया है। आज के विद्यार्थी का जीवन कठिन हो गया है। उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी प्राप्त करना बहुत मुश्किल हो गया है। विद्यार्थियों की इन्हीं कठिनाइयों को मद्देनजर रखते हुये आज से करीब ७० वर्ष पूर्व श्री जैन विद्यालय, कोलकाता जैसे अनुपम शिक्षा संस्थान की स्थापना हुई थी। यह संस्थान अपने आप में अनूठा, सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ है। श्री जैन विद्यालय, कोलकाता में विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ अनुशासन का अमूल्य पाठ भी पढ़ते हैं। इस विद्यालय के शिक्षक, प्राध्यापक आदि उच्च श्रेणी के हैं। विद्यार्थियों को पढ़ाने में निष्णात शिक्षक अनुशासन प्रिय हैं। इन्हीं के लगन एवं मेहनत की वजह से इस विद्यालय का वार्षिक परीक्षाफल पिछले दो दशक शिक्षा - एक यशस्वी दशक श्री जैन विद्यालय और आज का विद्यार्थी से शत प्रतिशत रहा है जिसका मीठा फल इनसे विद्या ग्रहण करने वाले विद्यार्थी पाते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के निरन्तर बढ़ते विकास को देखते हुये इस संस्थान में कम्प्यूटर आदि जैसे नये उपकरणों की स्थापना भी मेरे अध्यक्षकाल में कराई गई इस वक्त यह संस्था नवीन उपकरणों एवं यन्त्रों से लैस है। शिक्षा के क्षेत्र में "श्री जैन विद्यालय" ने क्रांति ला दी है। इस विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करने वाला विद्यार्थी इस विद्यालय के प्रति आभारी है। शिक्षा के क्षेत्र में "श्री जैन विद्यालय" के अद्वितीय योगदान के प्रति मैं नतमस्तक हूँ। श्री जैन विद्यालय, हावड़ा भी अपनी एक दशक की शिक्षा यात्रा पूर्ण कर चुका है, यह गर्व एवं गौरव की बात है। मैं इस अवसर पर हार्दिक शुभकामना व्यक्त करता हूँ एवं शिक्षा एक यशस्वी दशक की सफलता चाहता हूँ। 1: पूर्व अध्यक्ष श्री जैन विद्यालय, कोलकाता सभा खण्ड / १० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किशनलाल बोथरा यही हमारा महामंत्र भी कहता है : णमो आयरियाणं एवं णमो उवज्झायाणं। ऐसी भावनाओं से हर विद्यालय स्वार्थ रहित होकर समाज को सच्ची सेवाएँ देता है और देता रहेगा। मैं सभा के हर कार्यकर्ता को बधाई एवं साधुवाद देता हूँ। वे सदा इस कार्य में सहयोगी रहें। बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए आज विद्यालय कम हैं। जरुरत है और भी अच्छे विद्यालय एवं कॉलेजों की जहाँ राजनीति और स्वार्थ की भावना से दूर विद्यार्थी सही शिक्षा प्राप्त कर सके। और यह जरुरत पूरी करने के लिए श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा सदा प्रयत्नशील रहेगी, ऐसा विश्वास है। पूर्व अध्यक्ष श्री जैन विद्यालय, हावड़ा णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं श्री जैन विद्यालय हावड़ा (अपने दोनों विभागों को साथ लिए) गरिमामय एक दशक पूर्ण कर रहा है। श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा (अभिभावक संस्था) के संस्थापकगणों का शुभाशीर्वाद फलीभूत रहा। पश्चिम बंगाल के माध्यमिक और उच्च माध्यमिक परिक्षाओं में यहाँ के विद्यार्थियों की शतप्रतिशत सफलताओं से इस विद्यालय को भी एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। विद्यालय के शिक्षक और कार्यकर्ताओं की स्वार्थरहित एकनिष्ठ भावना और भी मजबूत सिद्ध हुई और विद्यालय हावड़ा में समूचे समाज का एक कीर्तिस्तम्भ बना। मुझे भी अत्यन्त गर्व महसूस होता है कि ऐसे कार्यकर्ताओं और शिक्षकों की प्रथम कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने का मौका मिला था। भवन निर्माण के समय हावड़ा के मेरे कतिपय औद्योगिक मित्रों ने बहुत ही सहयोग दिया था। उनमें सर्वश्री श्यामसुन्दरजी केजड़ीवाल, श्री घनश्याम अग्रवाल, श्री शरद दूगड़ एवं श्री शंकरलालजी हाकिम अग्रणी थे। इस समय मैं उन्हें भूल नहीं सकता। उन्हें मैं उनके सहयोग एवं इस सुकार्य के लिए हार्दिक बधाई एवं साधुवाद देता हूँ। श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा के हर कार्यकर्ता ने विद्यालय के शिक्षक वर्ग को सदा आदरणीय एवं पूजनीय स्थान दिया और सिद्ध किया कि शिक्षक का समाज में सर्वोत्तम स्थान है। सभा खण्ड/११ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द नाहटा एक बार की बात है कि एक इलाके में एक सिद्ध पुरुष रहते थे। एक दिन उनके पास एक स्त्री अपने लड़के को लेकर पहुँची । उसने सिद्ध पुरुष से कहा, "महाराज, मेरा यह बच्चा मिठाइयाँ बहुत खाता है, कुछ उपाय बताइये जिससे इस की यह आदत बदली जा सके।" साधु ने कहा, "पन्द्रह दिन बाद आओ।" स्त्री अपने बच्चे को लेकर चली गई। वह पन्द्रह दिन बाद महात्मा के पास आई। महात्माजी ने कहा, "प्रिय बच्चे मिठाई अधिक खाना अच्छा नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि मिठाई खाना एकदम बन्द कर दो बल्कि जितनी मिठाई खाते हो उसका चौथाई भाग खाओ।" किसी भी विद्यालय में केवल पाठ्य पुस्तकों के रटा देने से ही विद्यालय के कर्तव्य की इति श्री नहीं हो जाती, बल्कि अच्छी रुचि स्वच्छ आदतें और उचित मूल्यों का भी ज्ञान कराना चाहिए। आज के बच्चे कल के भविष्य का निर्माण करते हैं कल यही देश के शासक भी होंगे। ये ही राष्ट्र की सच्ची निधि हैं। इसलिए इनका सर्वतोमुखी विकास आवश्यक है। मुझे सुनकर हर्ष होता है कि जैन विद्यालय लड़के-लड़कियों की सर्वतोमुखी विकास के लिए प्रयत्नशील है। विद्यालय अपना गौरवमय दशक मनाने जा रहा है और एक पत्रिका भी प्रकाशित कर रहा है। इस अवसर पर मैं शिक्षक, शिक्षिकाओं तथा अन्य जे आचरहि नर न घनेरे सम्बन्धित व्यक्तियों को हार्दिक बधाई देता हूँ तथा विद्यालय के गौरव को अक्षुण्ण रखने की कामना करता हूँ। स्त्री ने कहा, "अगर यही बात कहनी थी तो आप इसे उसी समय कह देते तो मुझे फिर आना न पड़ता।" साधु ने कहा, "मैं स्वयं मिठाई खाता था इसलिए मैंने पन्द्रह दिन मिठाई न खाकर देखा और मैने अनुभव किया कि मिठाई न खाने से कुछ नुकसान नहीं है बल्कि शरीर में कुछ स्फूर्ति अधिक है। इसलिए मैंने अब बच्चे को यह शिक्षा दी। शिक्षा देने से पहले उस पर आचरण आवश्यक है अन्यथा वह शिक्षा प्रभावी नहीं हो सकती। आज की शिक्षा अप्रभावी इसलिए है कि 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं नर न घनेरे' । अतः मैंने स्वयं उस पर आचरण कर अपने को इस योग्य बनाया।" कहानी समाप्त हुई। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चों को वही शिक्षा दी जानी चाहिए जिसे शिक्षक-शिक्षिकाएँ स्वयं आचरित कर शिक्षा - एक यशस्वी दशक सकें। विशेष कर चरित्र-निर्माण के क्षेत्र में तो यह अत्यन्त आवश्यक है। एक झूठ बोलने वाला, सत्य बोलने की शिक्षा नहीं दे सकता। एक पान पराग खानेवाला इसे न खाने की शिक्षा देने में कठिनाई का अनुभव करेगा। इसी प्रकार और भी बुराइयाँ हैं जिनके लिए शिक्षक को भी आदर्श होना चाहिए। हमें प्रसन्नता है कि सौभाग्य से श्री जैन विद्यालय के अध्यापक अध्यापिकाएँ आदर्शवान हैं। इनमें बड़ों के प्रति सम्मान तथा छोटों के प्रति प्यार है। उपाध्यक्ष श्री जैन हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेन्टर, बड़ा सभा खण्ड / १२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक बोथरा वाली शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है जो मानवीय मूल्यों की समझ लोगों में पैदा कर सके। तकनीकी शिक्षा मनुष्य को इन गुणों के अभाव में रोबोट के अलावा कुछ और नहीं बनाती। अत: शिक्षाप्रेमियों, शिक्षण संस्थाओं और शिक्षकों को तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों के स्तम्भ विनय, श्रद्धा, स्नेह, आत्मसम्मान आदि गुणों के विकास पर निरन्तर ध्यान देना चाहिए। ____ मैं आशा रखता हूँ कि हमारे विद्यालयों के शिक्षक हमारे बच्चों में इन सभी गुणों को विकसित करने में समर्थ रहेंगे जिससे हम दयावान, धैर्यवान, पुरुषार्थी लोगों को निरन्तर समाज सेवा हेतु अग्रसर पायेंगे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जैन धर्म में सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र, सम्यक् ज्ञान पर बल दिया गया है। स्थानकवासी जैन सभा ने शिक्षा प्रचार और प्रसार हेतु तीन विद्यालयों की स्थापना की है और कॉलेज की स्थापना के लिए प्रयासरत है। यही कारण है कि सभा की कौस्तुम्भ जयंती के प्रारंभ के साथ श्री जैन विद्यालय, हावड़ा के गौरवमय दशक को भी मनाने का आयोजन हुआ है। ईश्वर हमें ऐसी शक्ति दे कि हम निरंतर सेवा की ओर अग्रसर हों। सहमंत्री श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा शिक्षा का स्वरूप शिक्षा का उद्देश्य केवल धन अर्जित करना नहीं है बल्कि इसका मूल उद्देश्य मनुष्यता का विकास करना है। विद्या विनय आदि गुणों से ओत-प्रोत होनी चाहिए। विनयहीन व्यक्ति कितना भी बड़ा विद्वान क्यों न हो वह समाज में न अपना स्थान बना पाता है, न लोग उससे किसी प्रकार का लाभ पाते हैं। उसकी स्थिति पलाश के उस पुष्प के समान होती है जो देखने में बहुत ही सुन्दर परन्तु गन्धहीन होता है। समाज में ऐसे विद्वानों से स्वार्थ पनपता है और सामान्य वर्ग उनकी विद्वता के प्रकाश से वंचित रह जाता है। ऐतिहासिक ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है कि सभी गुणों के होते हुए भी विनय गुण के अभाव में व्यक्ति को या तो अपमान या पराजय वरण करना पड़ा है। महाभारत युद्ध की पूरी तैयारी के बाद अर्जुन और दुर्योधन दोनों एक साथ श्रीकृष्ण के यहाँ सहायता माँगने पहुँचे। दुर्योधन अभिमान के कारण उनके सिरहाने और अर्जुन श्रद्धावश पैर की तरफ बैठे। दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की सेना माँगी और अर्जुन ने निहत्थे श्रीकृष्ण को। अर्जुन को श्रद्धा और विनय के कारण सर्वशक्तिमान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और वे जयी हुए। स्वाभिमान और विनय दो शब्द हैं इनका मेल यदि किसी व्यक्ति के चरित्र में हो जाय, तो वह आदर्श पुरुष हो जाता है और ऐसे व्यक्तित्व विरले होते हैं। शिक्षा विपत्ति में धैर्य, संयम, विनय आदि गुणों को देने में समर्थ होनी चाहिए। चरित्र निर्माण को बढ़ावा देने सभा खण्ड/१३ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसमल भूरट लौटना पड़ता है। कभी-कभी प्रवेश न पाने के कारण कुछ लोग नाराज भी हो जाते हैं किन्तु विद्यालय प्रबंधन की लाचारी है। हमलोग स्थान ढूँढ़ रहे हैं। एक कॉलेज भी स्थापित करने का विचार चल रहा है। समस्या है उपयुक्त स्थान का न मिल पाना। लेकिन 'जहाँ चाह वहाँ राह' । 'हम होंगे कामयाब एक दिन'। सभा के कार्यकर्ताओं एवं सदस्यों में उत्साह है, इच्छाशक्ति है तथा सामर्थ्य भी है और उत्साही शिक्षाविधों का पथ-प्रदर्शन एवं आशीर्वाद भी प्राप्त है। श्री जैन विद्यालय, हावड़ा के इस गौरवशाली दशक के अवसर पर मैं अध्यापकों, प्रधानों तथा अन्य कार्यकर्ताओं को बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि इसी प्रकार विद्यालय भविष्य में और भी उन्नति के शिखर की ओर अग्रसर होगा। कोषाध्यक्ष: श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा, कोलकाता हम होंगे कामयाब एक दिन सन् १९२८ में संस्थापित श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा का इस वर्ष कौस्तुभ जयन्ती वर्ष प्रारम्भ होने जा रहा है, यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। इस संस्था द्वारा संचालित विविध गतिविधियों में से एक श्री जैन विद्यालय, हावड़ा है जो कोलकाता एवं हावड़ा के प्रमुख विद्यालयों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह हर्ष का विषय है कि यह विद्यालय शिक्षा यात्रा का एक दशक पूर्ण कर रहा है। इस अल्पावधि में ही इसने शिक्षा, अनुशासन में एक सुनाम अर्जित किया है। प० बं० माध्यमिक शिक्षा पर्षद् एवं प० बं० उच्च माध्यमिक शिक्षा संसद द्वारा मान्यता प्राप्त इस विद्यालय में सम्प्रति ४२०० छात्र-छात्राएँ शिक्षार्जन करते हुए अपने जीवन-पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। विद्यालय का परिणाम प्रारम्भ से ही प्रतिवर्ष शत-प्रतिशत होता आ रहा है। पाठ्येतर कार्यक्रमों में भी इसका विशिष्ट स्थान है। आधुनिक तकनीक में कहीं हम पीछे न रह .जाएँ इसलिए विद्यालय के समस्त छात्र-छात्राओं के लिए कम्प्यूटर शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध है। मल्टीमीडिया द्वारा भी बच्चों को शिक्षा दी जाती है। पठन-पाठन तथा सुन्दर प्रशासन के कारण ही आज अनेक स्थानीय एवं गणमान्य व्यक्तियों द्वारा उच्च माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान की कक्षाएँ प्रारम्भ करने का अनुरोध हो रहा है किन्तु सानाभाव के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है। प्रवेश के समय इतना दबाव रहता है कि सैकड़ों अभिभावकों को निराश शिक्षा-एक यशस्वी दशक सभा खण्ड/१४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भँवरलाल दस्सानी की ख्याति इतनी अधिक हुई कि हम अब सभी कक्षओं में आये हुए प्रवेशार्थियों को दाखिल नहीं कर पा रहे हैं। कक्षा १० तथा कक्षा १२वीं के की छात्र उच्चतम अंक पाने के कारण छात्रवृत्तियाँ भी पा रहे हैं। बच्चों का मानसिक स्तर दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। अत: उनकी चाह भी ऊँचे से ऊँचा गौरव पा लेने की है। उनकी इच्छा फलीभूत होगी, ऐसा मेरा विश्वास है क्योंकि जहाँ चाह है वहीं राह भी है। विद्यालय के गौरवमय दशक और सभा की कौस्तुम्भ जयन्ती पर होने वाले आयोजनों की सफलता की मैं हार्दिक कामना करता हूँ। पूर्व कोषाध्यक्ष श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा उल्लेखनीय प्रगति आज तकनीकी शिक्षा के कारण विश्व अत्यन्त समीप आ गया है। हम यहाँ बैठे-बैठे यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में बैठे हुए व्यक्ति से बात कर सकते हैं। इन्टरनेट द्वारा हम जिससे बात करते हैं उसका चित्र भी देख सकते हैं। इस प्रकार ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के कारण आज भारतवर्ष काफी आगे हो गया है। यहाँ के बच्चे विश्व के कोने-कोने में अपनी प्रखर बुद्धि का परिचय दे रहे हैं। हमारे देश की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण लोग समझते थे कि हम विज्ञान की दौड़ में पीछे रह जाएंगे लेकिन हमारे बच्चों ने कमाल करके दिखाया। इस प्रकार हमारा मस्तिष्क पक्ष तो बढ़ता गया मगर हृदय पक्ष सूना होता जा रहा है। व्यक्तिगत स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है। इसी के साथ मनुष्य का मन छोटा होता जा रहा है। वह परोपकार एवं दीन दुःखियों की सेवा से मुख मोड़ता जा रहा है, यह समाज के लिये एक अच्छी बात नहीं है। लेकिन आज भी दुनिया अच्छे विचार वाले आदमियों से खाली नहीं हो गई है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए श्री स्थानकवासी जैन समाज के तत्कालीन नवयुवकों ने इस सभा की स्थापना सन् १९२८ ई० में की। इस सभा की कौस्तुभ जयन्ती भी इसी वर्ष मनाई जा रही है। इस जयन्ती के साथ ही सभा श्री जैन विद्यालय, हावड़ा का भी गौरवमय दशक मनाने जा रही है। योग्य शिक्षकों तथा प्रधानों के दक्ष पथ-प्रदर्शन से अत्यन्त अल्प समय में इस विद्यालय सभा खण्ड/१५ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRI SARDARMAL KANKARIA Founder Member and Hony. Secretary of the School Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 SHREE JAIN VIDYALAYA FOR BOYS, HOWRAH Managing Committee Sundarlal Dugar President Surendra Kumar Banthia Vice-President Sardarmal Kankaria Secretary Dr. Gopalji Dubey Rector Ram Adhin Singh Vice Principal Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA FOR GIRLS,HOWRAH Managing Committee Pannalal Kochar President Mahendra Kumar Karnawat Vice President Sardarmal Kankaria Secretary Mrs. Olga Ghosh Principal Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Committee - Shree Jain Vidyalaya for Boys, Howrah Managing Committee - Shree Jain Vidyalaya for Girls. Howrah Celebration committee and other members of the teaching staff Principal and other Administrative staff and Non teaching staff of Shree Jain Vidyalaya, Howrah Sri R.D. Bhansali being garlanded by Ram Adhin Singh Sri S.M. Kankaria receiving the momento from Arindam Bose Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA, HOWRAH Sri Ridhkaran Bothra, Sri Surajmal Bachhawat and Sri & Smt. Sardarmal Kankaria performing the Bhumi Pujan of newly constructed Shree Jain Vidyalaya, Howrah Hawan on the inauguration of newly constructed Sri Jain Vidyalaya, Howrah 14 : SMIGA आपका हार्दिक स्वागत करती है। Sahitya Manishi Sri Kanhaiyalal Sethia, Sri Ratan Choudhury, Sri Rikhab Chand Jain and Sri Jagdish Roy Jain sitting on the stage in the inauguration ceremony Abhinandan of Sri Sarad Chandra Pathak by Sri S.M. Kankaria Sri Ridhakaran Bothra distributing the prizes Sri Anand Chopra, Sri Sardarmal Kankaria, & Smt. Olga Ghosh giving the shield to the winning student For Private & Personal use only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SS श्री जैन विद्यालय 24/9, anfarger en het, ge-099904 Annual Function 2002 SAN Sri Rajendra Banthia awarding the medal March Past by guides Dr. Basumati Daga giving away the prizes Sri P.L. Kochar giving away the prizes Sri Mahendra Karanawat, Vice President giving away the prizes A group photo on the ocassion of the Republic Day For Privale & Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SWEE SHREE JAIN VIDYALAYA HOWAR 26th January 2002, Republic Day & Lokarapan Ceremony of Deepnarayan Choudhury Block A Reception after the programme at the Vidyalaya on 26.01.2002 Sri Vinod Baid, renowned businessman and Sri Bajrang Jain on the dias during the inauguration of Computer Centre Sri Thanmal Bothra giving away the award to Mrs. Nilima Doshi, teacher(Girls Section) N VIDYALAYA Smt. Panchi Debi Choudhury with Mrs. Kankaria, Smt. Sushila Kochar and Momento, 26th Jan. 2002 Sri Pradip Kundalia, Sri Ridhkaran Bothra and Sri Sardarmal Kankaria discussing during the construction of the school Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Smt. Tara Devi Dugar addressing on the ocassion of Shraman Bhagwan Mahabir Jayanti Sri Prabodh Chandra Sinha, Parliamentry affairs minister distributing free ration at Shree Jain Vidyalaya, Howrah Chief Guest addressing in the Annual Sports and Prize Distribution Ceremony Smt. Sarla Maheswari, M.P. Sri Arun Maheswari, Sri S.M.Kankaria and Sri B.L. Karnawat on the ocassion of Independence Day Sri dulichand Chopts being honoured by Sri R.D. Bhansali Smt. Phul Kunwar Kankaria greeting Smt. Sarla Maheswari, M.P. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of£ JAIN Sri Shyam Sunder Acharya, Editor, Jansatta speaking to the students Sri Biman Mukherjee, D.I. of Schools, Howrah, Sri Rikhabdas Bhansali, Sri Akshay Chandra Sharma and Sri Vishnukant Shastri in the programme organised on the ocassion of Hindi Divas अहिंसा परमो धर्मः Teachers and students on Hindi Divas A Scene of Prabhat Pheri on the ocassion of Shraman Bhagwan Mahabir Jayanti SU Abhinandan of Sri Vibhuti Bhushan Chakraborty by Sri Rikhab Das Bhansali Vidyalaya teachers Ms. Kusum Khan, Sri Arindam Bose, Smt. Nandita Roy and Sri Lakshmi Shankar Mishra presenting cheque to the Chief Minister's Relief Fund For Privale & Personal use only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri J.R. Saha, I.A.S., Education Secretary, West Bengal distributing the prizes Abhinandan of Sri Bhikham Chand Bhansali on the ocassion of Dharmik Shiksha Sivir Inauguration of Deep Narayan Block by Smt. Panchi Devi Choudhury and Sri Ratan Choudhury Sri B.C. Bhansali, being greeted by Sri B.L. Baid, Sri Rajmal Choradia, Sri Champalal Daga, with him Sri Kamal Bhansali's Son Drill by different group of students in the Annual Sports Sri B.C. Bhansali, donated 1500 hand written books to Agam Ahimsa Samta Sodh Sansthan, being honoured by Sri Rajmal Choradia www.jainelitirary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Students of Shree Jain Vidyalaya, Howrah with Guests. Gymnasium by students A Karate Show by Jain Vidyalaya, Howrah Students A Karate Show by Jain Vidyalaya, Howrah Students Annual Sports - Musical Chair A Karate Show by Jain Vidyalaya, Howrah Girl Student Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scouts of Shree Jain Vidyalaya, Howrah Abhinandan of Sri Anand Chopra by Secretary. Sri S.M. Kankaria on the ocassion of Annual Sports Principal and others with Volleyball Team of Shree Jain Vidyalay, Kolkata Shri I. Goswami and Sri Abhay Chopra getting introduction of volleyball team Pyramid made by scouts of Shree Jain Vidyalaya, Howrah Sri S.M. Kankaria and Sri B.L. Karnawat on the occasion of Independence day. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REPUBLIC DAY CELEBRATIONS 2002 ! А Е Н . Н SHRE UN VALAYA Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA FOR BOYS (Secondary) Ms. Sipra Mitra Ms. Aseema Sen Dr. Renu Gupta Ms. Ratna Mitra Ms. Ansuya Sikdar Sri Vinay Kr. Tiwari Dr. Ajay Ray Sri Sanjay Singh Sri Arun Kr. Tiwari Sri Arindam Bose Ms. Kumkum Bhargava Sri Shailendra Kr. Mishra Ms. Indrani Sen Ms. Swarita Singh Sri Pranvesh Kr. Mishra Sri Harish Kumar Pathak Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri Partha Bandopadhyay Dr. Jagat Narayan Singh Sri Pramod Kr. Pandey Ms. Manasi Mitra Ms. Aruna Sharma Sri Kashee Prasad Mishra Ms. Anamika Tiwari Sri Rampukar Sharma Ms. Anindita Chakraborty Sri Satish Kumar Singh Sri Dibendu Bhattacharya Ms. Chanda Singh Sri Amit Pramanik Ms. Deepali Chakraborty Ms. Suparana Goswami Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA FOR GIRLS (Secondary) Ms. Kusum Khan Ms. Neelima Doshi Ms. Kanta Sharma Ms. Anvita Mishra Ms. Sutapa Roychowdhury Ms. Mitali Chongdar Ms. Krishna Mohta Ms. Geetanjali Chaturvedi Ms. Chandana Bhattacharya Ms. Sharmistha Rana Ms. Ipsita Sen Ms. Neelanjana Banerjee Dr. Mira Choudhury Ms. Sonika Mallick (Shaw) Ms. Sanyukta Dasgupta Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA FOR GIRLS (Secondary) Ms. Jayanti Singh Ms. Paramita Mazumdar Ms. Sraboni Chakraborty Ms. Papri Bose SHREE JAIN VIDYALAYA FOR BOYS ( Primary) Ms. Deepa Mukherjee Ms. Abhinanda Samanto Ms. Babita Jain Sri Nilratan Karfa Sri Yagyia Narayan Mishra Sri Kashee Nath Pandey Sri Anirban Neogy Sri Gopal Krishna Sri Santosh Tiwari Ms. Shakuntala Sharma Ms. Ela Vyas Jain' Education International Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA FOR GIRLS (Primary) Ms. Mansa Singh Ms. Sunbeam Manual Ms. Shikha Mitra Ms. Sangita Mandhana Ms. Shubhalaxmi Banerjee Ms. Gayatri Mishra Ms. Durba Ganguly Ms. Shanaz Bakht Ms. Nandita Roychowdhury Ms. Romi Chatterjee Ms. Shampa Ghosh Ms. Sangita Gupta Ms. Sharmila Bose Ms. Ratna Srivastava Ms. Bina Gupta Ms. Soma Bose For Privale & Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA FOR GIRL'S Class -IA Class -IB For Privale & Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - II A Class - Il B Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 TV Class - III A Class - III B Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - IVA Class - IV B For Privale & Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class -VA BAHWA Class - VB Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - VIA Class - VI B www.ainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - VIC bien Class - VILA Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USU Class - VIIB Class - VII C Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - VIILA Katardelen Class - VIII B Jain Education Interational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wawili & c alota told Class - VIII C avietadles ioga Ouro 28.aadida och DELJAL DATA Class - IXA Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - IX B Class - XA For Privale & Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - XB Class - XC Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - XIA Class - XIB Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 -HUUSIK Class - XIC olm Class - XI D Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WWW 43 elek W 29 ATTENDEES 6267 卐 सम्यक ज्ञान Class XII A Class - XII B Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - XII C SHREE JAIN VIDYALAYA FOR BOY'S Class -IA Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - I B MNR Class - II A Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W Class - Il B હતો.iાતામાં | W WW.TV Class - III A Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - III B 11 Class - IVA Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - IV B Class - VA Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III II UUUUU TUT Class - VB WUUT Class - VC Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VV 300 CON AD D 35 66 080 devorad C सम्यक दर्शन AWA 卐 Class - VIA Class - VI B Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F I Class - VIC DI ILLIM INIU VUV Class - VILA Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ILI Class - VII B பாமாவாக LALALTFEANIMLIN LUMEA UUUUUUUU Class - VII C www.Jainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SS Class - VIII A Class - VIII B Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S5 Class - VIII C Class -IXA Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - IX B Class - IXC Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - XA Class - XB Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - XC and Pearl Class - XIA For Privale & Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Class - XIB L AAT WAZAZI Class - XIC For Private 8 Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DO o SRI R.D. BHANSALI Founder member of the School Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMRITI SHESH - PILLARS OF SHREE JAIN VIDYALAYA, HOWRAH Bhanwarlal Karnawat Kanhaiyalal Maloo Surajmal Bachhawat Puranmal Kankaria Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA COMMITTEE - OFFICE BEARERS SHREES: S.JAN SABHA Sri Bachharaj Abhani - President Sri Manakchand Rampuria Trustee Sri Sardarmull Kankaria Trustee Sri R.D. Bhansali Trustee Sri Balchand Bhura Trustee Sri R.K. Bothra Vice-President Sri Vinod Minni Secretary Sri Ashok Bothra Jt. Secretary Sri Kishore Kothari Jt. Secretary Sri Parasmal Bhurat Treasurer Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA COMMITTEE MEMBERS Sri Jaichandlal Minni Sri Bhanwarlal Dassani Sri Fagmal Abhani Sri Mohanlal Bhansali Sri Kishanlal Bothra Sri Pannalal Kochar Sri S L Daga Sri Surendra Banthia Sri Subhash Kankaria Sri Rajendra Nahata Sri Rajendra Nahata Sri Sunderlal Dugar Sri C.P. Daga Sri Lalit Kankaria Sri Ashok Minni Sri Subhash Bachhawat For Privale & Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA COMMITTEE MEMBERS Sri Mahendra Karnawat Sri Arun Maloo Sri Nischal Kankaria Sri Pankaj Bachhawat Sri Sohan Raj Signhvi Sri J.L. Rampuria Sri Sohan Lal Golchha Sri B.L. Baid Sri C.M.Abhani Sri G. C. Bothra Sri M.C. Gelra Sri S. K. Daftary Sri K. S. Bhansali Sri T.R. Daga Sri K.S. Kothari Sri J. L. Karnawat Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA COMMITTEE MEMBERS Sri K.L. Maloo Sri Surendra Sethia GO Sri Sushil Gelra Sri Ajay Bothra Sri B.C. Kankaria Sri Gopal Ch. Bhura Sri Kamal Karnawat Sri Rajendra Buchha 45 Sri Suresh Minni Sri Ajay Daga Sri G. C. Kankaria Sri Hanuman Nahata (Office-in-charge) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA (होमरस्थानवासी जैनसभा RES Sri Bachhraj Abhani, Sri Rikhab Das Bhansali and Sri Harakh Chand Kankaria presenting the Sabha Literature to Swami Nityanandji Maharaj Shree Burabazar Kumar Sabha Pustakalaya honours Sri S. M. Kankaria श्रीकाशी विश्वनाथ सेवा समिति REGRIPASS SHREE KASHI VISHWANATH SEVA SANITY DIAMOND JUBILEE YEAR समाजमनाचम्मत नमागर Honourable guests on the occation of Diamond Jubliee of Shree Burabazar Kumar Sabha Pustakalaya A speech of Sri S.M. Kankaria at Shree Kasi Vishwanath Seva Samity Car Ho Representation of our instituition with different social & cultural organisations. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1945 Smt. Leela Bothra addressing the Dhyan & Yoga Camp Guest being honoured by Smt. Phoolkunwar Kankaria Sri S.L. Dugar, President Shree Jain Vidyalaya, Howrah giving away the Cheque for Kargil War Relief Fund Sri. B.L. Baid honouring Sri K.L. Sethia Audience present at the eve of Annual Function and Mahavir Jayanti Rashtrageet Scene Jain Education Intematonal Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA সেলাই শিক্ষণ কেন্দ্র শ্রী তাের স্থানালী জৈন মুক্তার চৌজন্যে ফুসরাজ কত মহিলা উষ্যন ও বিকাশ যোজনার অন্তর্গত পশ্যিালনায়- ভূদেব স্মৃতি বালিকা বিদ্যালয় কত DIFFERENT SOCIAL SERVICES OF SABHA Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S.S.JAIN SABHA (SAAT DASHAK) Sri B.L. Karnawat taking the initial of the trustee Sri S.M. Kankaria Dr. D.K. Sinha, Vice Chancellor, Viswa Bharati University being garlanded by Sri R.K. Bothra नावर स्थानकवासी जैनच्या A Group Photgraph Sri S.M. Kankaria presenting the momento to Dr. L.M. Singhvi Sri K.L. Gupta, Principal awarded by Sri K.L. Sethia on the occasion of Saat Dashak of Shree S.S. Jain Sabha at Science City Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S.S.JAIN SABHA (SAAT DASHAK) REE JAIN VIDYALAYA CALCUTTA) LJEPO Sri B.R. Jain, Editor, Shiksha, Seva Aur Sadhana ke Saat Dashak receiving his momento from Dr. L.M. Singhvi Sri T.N. Sheshan and other dignitaries at Netaji Indoor Stadium, Diamon Jubilee of Shree Jain Vidyalaya, Kolkata Sri S.M. Bachhawat, Sri R.K. Bothra & Sri S.M. Kankaria presenting the Lord Ganesha's framed idol made of sea foam Sri S.M. Bachhawat garlanded by Sri B.R. Abhani Dr. Santosh Kr. Bhattacharya awarding the Student Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA BHAGAVAN V LENNIUM AIN BALIKA S EN OFFER SADAN RIL 200 2600 th BIRTH KAR A HIS EXCELLENCY SHRI VIREN J. SHAH GOVERNOR OF WEST HINGAL FELICITATING SKI SARDARMAL KANKARIA A Millennium Tribute to Howrah Felicitation of Sri Sardarmal Kankaria by His Excellency Sri Viren J. Shah, Governor of West Bengal Pione W A Miller Inbur 330 Goutal 55 Hoe On 20th January 2001 At: Agrasam Balika Siksha Sadan 1 Agrasain Street. Liluah. Howrah Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA हाला जिला मारवाडी सम्मेलन च * Krage Students welcoming Smt. & Sri Kankaria Sri S.M. Kankaria representing our sabha at Hooghly District Marwari Sammelan Sri S.M. Kankaria representing our sabha at Akhil Bhartiya Marwari Sammelan Tamil CENTE RETRIBE Sri Sardarmull Kankaria at Alokendu Bodh Niketan in a programme of Handicapped and mentally retarded students His Excellency Governer, Prof. Nurul Hasan in Handicapped camp at Shree Swetamber Sthanakvasi Jain Sabha Hall Jain Education Interational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA Sri Sardarmull Kankaria at the Inauguration of newly constructed Hall at Kolaghat NERGIFONSO Computer Centre Inauguration at Shreerampur Krishi Uchcha Vidyalaya by Sri S.M. Kankaria, Trustee & Sri Lakhan Seth, M.P. MA ASHAPUA ENGLISH IMPRIMA CO CHOOL שרי BARE Cloth Distribution in the Rural Area - Sabha members, Sri Jaichand Lal Mukim and Sri Subhash Bachhawat. Ms. Tripti Kankaria is also alongwith them. 55F Villa Shibinin FL Heart of Sagra in can adferug दिनांक : 30 दिसम्बर 2001 Part of Helen we E President Sri Bachhraj Abhani and Trustee Sri Sardarmal Kankaria inaugurating "Ma Ashapura English Medium Primary School" in the Quake prone Kutch Sri K.Sriwastav, Sri M.C.Sethia, Sri H.C. Kankaria & Sri Paras Kochar at Free eye operation and handicap camp organised in memory of Acharya Nanesh are 1024 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S. S. JAIN SABHA TARA DEVI KANKARIA JAIN VIDYALAYA (SAGAR MADHABPUR) TARA DEVI KANKARIA JAIN VIDYALAYA (UNDER THE AUSPICES OF SHREE..JA SABIA, KOLKATA) BAGAR MADHABPUR INAUGURATION BY SRI JAI KUMAR KANKARIA GN 20 SEPTEMBER, 2001 PRESIDED BY SRI R. O. BHANSALI আর্যদেবীকাকারিয়া জেনবিদ্যা CHA:- 45.951 or HU Tagsmanda 2 "রদেবীকাকারিয়া জেনবিদার Cod :-0. 0073 Dinto S E ZTE ** Gabo ** -6 -2013 Inaugural Ceremony on 30th September 2001 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE S.S. JAIN SABHA GRAMIN ANCHAL VIDYASAGAR JANA KALYAN SAMITI Sardinketan FREE EYE OPERATION CAMP Shona SHE SINETANBAR STIRANAKVASI JAN SABHA Law.cacut-T00001 Free Eye Operation Camp at Shantiniketan Members of sabha at Sagar Madhabpur Inaugural function of Deep Tube Well, Sagar Madhabpur Welcoming to B.L.Karnawat & R.D.Bhansali at Shantiniketan GIS DE TE FAVOIR কম্পিউটার সেন্টার উদ্ভাধন B ON TER কালচার সেন্টারউদ্ভাধন az-a ..la assi SECSISE Sri S.M. Kankaria addressing the inaugural ceremony of Computer Centre at Shreerampore Krishi Uchcha Vidyalaya "Toran Dwar" at the eve of Inaugural Ceremony of Computer Centre Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN BOOK BANK 95 PA स्थानकवासी जनसभा BOOKS FOR ALL PROJECT OF SHEEN BOOK BANK. Calcutta RESERER STANAK WISI JAN SABHA TEC DEL DISTRIBUTION OF TEXT BOOKS PREE SWETAMBAP STKAMAKWASI JAIN SABHA JAM BOOK BANK PROJECT 1722 USTABU TUNG TEXTO CUPIECINTOSI CHIUSAN Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN BOOK BANK Sri Upendra Biswas, Director, C.B.I., along with Sri R.D. Bhansali, Sri Sundarlal Dugar and Sri Mohanlal Bhansali in the Free Book Distribution Ceremony SHEE JAIN BOOK B UNDER THE AUSPIC SHAGE SWEMMBER STHAN Md. Salim, Hon'ble Minister Minority Community with other guests Mahasweta Devi deliberating speech on the occasion of Book Bank PREORE 304 redame 55 Sri Subhash Bachhawat, Convenor introducing Shree Jain Book Bank On the dias are Sri Arvind Chaturved, Mahasweta Devi and Sri Thanmal Bothra. FRE ASTRIBUTIO Dr. Mondal being honoured by Sri S. M. Kankaria Mahasweta Devi distributing books to the student Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALYA, KOLKATA MANAGING COMMITTEE S.R. Singhvi President Vinod Minni Vice-President B.C.Kankaria Secretary S.C. Pathak Principal S.M. Kankaria Member R.K. Bothra Member Mohan Lal Bhansali Member R.K. Daga Member Gaur Vaidya Govt. Nominee Member R.S. Mishra Member A.K. Tiwari Vice-Principal H.N. Upadhyaya Vice-Principal Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALYA KOLKATA श्री जैन विद्यालय वार्षिकोत्सव पुरस्कार वितरण समारोह President, W.B. Council of H.S. Education Sri J. Mukherjee awarding Silver Medal to Jaswant Rai for Musical performance Dr. Prem Shankar Tripathi (Ex. Student) reciting the poem written by Prime Minister Sri Atal Behari Vajpayee in the programme organised for Kargil War Relief A scene of dias at the Annual Function, Mahajati Sadan. Sri H.C. Daga, Dr. P.S. Tripathi RTS A Scene of "Namak ka Daroga written by Munshi Premchand being played by the students of Shree Jain Vidyalaya Kolkata $RECOR 5555 Sri Bijay Kr. Mishra, Commissioner of Income Tax awarding Ankit Saraf Sri B.C. Kankaria honouring Sri Alok Kr. Sarkar, D.I. of Schools, (SE) Kolkata 1190.SUKEAS DANE Jopa 50ter Sony Sabh A scene of Drama at the Annual Function by the students, Mukesh Agarwal Group Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALYA KOLKATA Inter School Volley Ball Tournament - Introduction with players Sri S.M. Kankaria, Trustee, Shree S.S. Jain Sabha Dr. L.P. Tripathi, Ex-Principal, Adarsh Hindi High School & dean St. Xaviers College, giving the prizes to winners "Bhaktamber Pratiyogita", Inter School slutade ER Te ftatuta daglable? SKREE JAM VIDYALAY Guard of Honour by Band Party Inauguration of Akshar Parva Dr. Namvar Singh, Dr. P. Shotriya, Dr. Shambhunath, Dr. Chandra Pandey,M.P. & Sri S.M. Kankaria Scouts with Dr. Devi Shetty Annual Function Ceremony at Mahajati Sadan. Guests on the dias Prof. K.M. Lodha, Sri Arvind Chaturvedi & Sri S.S. Duttagupta, Deputy Secretary (Academy) W.B. Council of H.S. Education Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALYA KOLKATA President S.M. Bachhawat addressing Golden Jubilee celebrations at Netaji Indoor Stadium, Kolkata. Smt. Anita Debi, President W.B. Council of H.S. Education being present as chief guest Dr. B.C. Saha, devoted & renowned chemistry teacher being receiving the momento of Goddess Saraswati from Sri Jyotirmoya Mukhopadhyay, President W.B. Council of H.S. Education श्री जैन विद्यालय nikacija, a quasi Pes Welcome song on the ocassion of Annual Function, Sri Jain Vidyalaya, Kolkata 55 Renowned Medical practitioner & Ex-student of the school Dr. M.K. Goenka, giving away the prizes Sri Gautam M. Chakravarti presenting "Vishistha Pratibha Puraskar" to Sri Mahavir Lunawat, Gold Medalist at Company Secretary throughout India Exams Sri R.K. Bothra honouring Sri G. Baidya, A.I. of Schools(SE) & Govt. Nominee of the school Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARAKH CHAND KANKARIA JAIN VIDYALYA JAGATDAL Surendra Kumar Banthia -Vice-President R.D. Bhansali Lalit Kankaria-Secy. Harakh Chand Kankaria - President Sardar Mull Kankaria - Secretary Geetika Bothra - Jt. Secy. R.K. Bothra Ashok Bothra R.C. Shukla SHREE JAIN SHILPA SHIKSHA KENDRA - MANAGING COMMITTEE A.K. Tewari - Principal - Vom 55 Balkrishna Harsh - Principal Vinod Singh R.S. Mishra Co-ordinator Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S5 HARAKH CHAND KANKARIA JAIN VIDYALYA - JAGATDAL Sabha President Sri Bachraj Abhani awarding the students. Sri Harakh Chand Kankaria, President of the school is sitting on the stage. Sri Biswambhar Newar, Editor, Chhapte - Chhapte inaugurating the Computer Centre. Also present are Sri Radheyshyam Mishra and Sri Surendra Kr. Banthia. Sri Harakhchand Kankaria felicitating Sri Chatter Singh Baid Sri Jay Kankaria felicitating Md. Amin, Labour Minister, Govt. of West Bengal Specialists from Shree Jain Hospital & Research Centre conducting the Health and Eye Check-up in the school Girl students presenting the cultural programme on 26th Jan. 2002 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE MANAGING COMMITTE - OFFICE BEARERS H.C. Kankaria President S.S. Kejriwal Vice-President Shrichand Nahata Vice-President S.M. Kankaria Secretary Ridhkaran Bothra Treasurer Ashok Minni Jt. Secretary Dr. Narendra Sethia Jt. Secretary Manoj Mishra Administrative Officer www.ainelibrary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SS SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE Spiter entre HANY FERUN Surga NDATION MANA Welcome by the Band Party of Shree Jain Vidyalaya for Girls Presenting the momento to the consulate, Germany on the ocassion of closing ceremony of Free Plastic Surgery Camp. Flag hoisting on the eve of Republic Day Bhumi - Pujan Abhinandan of Dr. Urmila Binaikia by Mrs. Kankaria Sri Ashok & Alok Gupta receiving the momento from Sri Vinod Minnin on the ocassion of the Dialysis unit. 76 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE Smt. Umraodevi Kankaria, Smt. Kesar Bai Kankaria and Sri Harakh Chand Kankaria inaugurating the Phusraj Puranmal Operation Theatre Abhinandan of Dr. Indrajeet Roy, Director, Medical Education, Govt. of West Bengal by Sri B.R. Abhani, President Shree S.S. Jain Sabha Sri Rikhab Das Bhansali, Sabha President felicitating His Excellency Sri Vishnu Kant Shastri, Governor Himachal Pradesh Honouring Sri Mohan Chand Dhadha, President, Akhil Bharatiya Sri Jain Swetamber Khartargacha Mahasangha BIOCLING Sri Rikhab Das Bhansali, Sabha President felicitating the renowned Eye Surgeon Dr. I.S. Roy 070 ROTA SURGERY PLAATIC SURGERY PRoser DRY CAR OF CLIA MORO HOUTEN B 555 Sri Pradip Bothra speaks on the inauguration of plastic surgery camp Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SS SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE Dr. Lalit Agarwal, Sri Ashok & Alok Gupta, Sri S.M. Kankaria, Secretary of Hospital present on the inauguration of Dialysis Unit Acharya Sri Chandanaji inaugurating the Jaichandlal Vindokumar Minni Conference Hall VILUJV 2066/3067 7502 Se Shree Jain Hospital R 8 Research Centre de plastia Canis and INTER PLAST, GERMANYOS PRE-OPERATS CHECK LAB ND REGIST yurt Abhinandan of Smt. Iswari Pd. Tantia by Smt. Shashi Kankaria on the inauguration of Dialysis Unit Closing Ceremony of 2nd Plastic Surgery Camp Sri Narendra Saraogi distributing Artificial Limb and Tricycle Surgeons from Interplast, Germany 78 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE w eaknakureी आमरण निकल पतिवेक्तीपर कमिशन विनरस वितर Dignitaries present in Free Polio, Caliper and Artificial Limb Camp organised on the ocassion of 1st Punya Smriti of Acharya Sri Nanalalji Ma. Sa. Free Artificial Limb provided by Shree Jain Hospital & Research Centre, Howrah Free Surgical Camp organised by the Hospital being inaugurated by His Excellency Sri Vishnu Kant Shastri, Governor, Himachal Pradesh Free Plastic Surgery performed by the surgeons of Interplast, Germany Pradip Bothra, President, Rotary Club being garlanded by Sri Subhash Kankaria Free Plastic Surgery performed by the surgeons of Interplast, Germany www.ainelibrary org Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE JAIN KOSTALE RESCADUCE 1. ROAD (RAH Abhinandan of Sri Sanjay Sethia by Sri B.L. Karnawat Abhinandan of Sri Rajkaran Sirohia & Sri Vijay Ch. Sirohia by Sri S.L. Dugar Sri Bhanwarlal Bothra inaugurating the Smt. Munni Devi Moolchand Bothra Cabin.Also present are Sri Bherudan Bothra Sri Kishanlal Bothra, Sunder Bothra and Jay Bothra His Excellency Governer Sri Vishnukant Shastri inspecting the Hospital facilities 4. Shree Jain Hospital L& Research Centre) Smt. Chinmoyee Dey addressing on the inauguration of Eye Department Abhinandan of Sri and Smt. Iswari Pd. Tantia by Sri Harakh Chand Kankaria. Also present Sri S.M. Kankaria, Secretary of the Hospital For Private Prva 80 Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यालय खण्ड Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन विद्यालय, हावड़ा श्री जैन विद्यालय फॉर ब्वॉयज २५/१, बोन बिहारी बोस रोड, हावड़ा-७११ १०१ अध्यक्ष श्री किशनलाल बोथरा श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा, कोलकाता द्वारा सन् । १९९२ से १९९६ १९९२ में स्थापित एवं संचालित। श्री सुन्दरालल दूगड़ १९९६ से अनवरत प्रात:कालीन एवं दिवस विभाग उपाध्यक्ष १. श्री सुरेन्द्र बांठिया श्री जैन विद्यालय फॉर गर्ल्स १० + २ १९९२ से अनवरत मंत्री प्रात:कालीन : ६.३० से ११.१५ बजे तक १. श्री सरदारमल कांकरिया १९९२ से अनवरत पश्चिम बंग माध्यमिक शिक्षा संसद एवं पश्चिम बंग उच्च प्रधानाध्यापक माध्यमिक शिक्षा पर्षद द्वारा मान्यता प्राप्त श्री कन्हैयालाल गुप्ता १९९२ से १९९३ ३३ सेक्सन २०४८ छात्राएँ ४७ शिक्षिकाएँ २. श्री भूपराज जैन १९९३ से १९९४ श्री जैन विद्यालय फॉर ब्वायज १० + २ ३. श्री जयराम सिंह १९९४ से १९९६ दिवस ११.३० से ४.३० बजे तक ४. डॉ० गोपालजी दूबे १९९६ से अनवरत पश्चिम बंग माध्यमिक शिक्षा संसद एवं पश्चिम बंग उच्च सदस्य माध्यमिक शिक्षा पर्षद द्वारा मान्यता प्राप्त श्री रिखबदास भंसाली १९९२ से १९९६ ३२ सेक्सन २००६ छात्र ४३ + ७ = ५० शिक्षकवृन्द श्री रिधकरण बोथरा १९९२ से १९९६ २००० से अनवरत छः तल्ला बिल्डिंग, ६ तल्ले पर विशाल सभागार स्टेज सहित श्री किशनलाल बोथरा १९९६ से अनवरत पुस्तकालय : पन्द्रह हजार पुस्तकें एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाएँ श्री भंवरलाल दस्साणी १९९६ से २००० कम्प्यूटर : कम्प्यूटर प्रशिक्षण प्रत्येक छात्र-छात्राओं के लिए ५. श्री ललित कांकरिया १९९२ से २००० अनिवार्य मल्टीमीडिया एवं इण्टरनेट, लिफ्ट, जेनरेटर एवं आधुनिक ६. श्री राधेश्याम मिश्रा १९९२ से १९९६ साउंड सिस्टम से युक्त २००० से अनवरत ___ माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक में विगत अनेक वर्षों से ७. श्रीमती शिप्रा मित्रा १९९३ से १९९६ परीक्षाफल शतप्रतिशत ८. श्री विमल भंसाली १९९६ से २००० दस वर्षीय सफल शैक्षणिक यात्रा की सम्पूर्ति के उपलक्ष्य में ९. श्री दिलीपकुमार गांगुली १९९६ से २००० शिक्षा एक यशस्वी दशक १०. श्रीमती अर्पिता अधिकारी २००० से अनवरत "Education a glorious decade' समारोह का ११. श्री दीपक कांकरिया २००० से अनवरत दिनांक १२ मई २००२ रविवार को प्रात:काल ९.३० बजे से १२. अरुण १९९६ से अनवरत नेताजी इन्डोर स्टेडियम में भव्य आयोजन एवं शिक्षा : एक १३. श्री अरिन्दम बोस १२. १९९६ से अनवरत यशस्वी दशक स्मारिका का लोकार्पण, सांस्कृतिक कार्यक्रम १४. श्री चन्द्रदेव चौधरी १९६६ से अनवरत .. सन् १९२८ में संस्थापित श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा, स्थायी आमंत्रित सदस्य कोलकाता के अमृत महोत्सव (प्लेटिनम जुबिली) का भी इसी भव्य १. श्री रिखबदास भंसाली १९९६ से अनवरत समारोह में शुभारंभ। प्रस्तुति : भूपराज जैन २. श्री कन्हैयालाल गुप्ता १९९६ से २००० श्री बच्छराज अभाणी २००१ से अनवरत ४. श्री विनोदकुमार मिनी २००१ से अनवरत ५. श्री अरुणकुमार तिवारी १९९६ से अनवरत ६. श्री लक्ष्मीशंकर मिश्र १९९६ से अनवरत in शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन विद्यालय फॉर गर्ल्स अध्यक्ष १. श्री किशनलाल बोथरा १९९२ से १९९६ २. श्री सुन्दरलाल दूगड़ १९९६ से २००१ ३. श्री पन्नालाल कोचर २००१ से अनवरत उपाध्यक्ष १. श्री सुरेन्द्र बांठिया १९९२ से २००१ २. श्री आनन्दराज झाबक २००२ से अनवरत ३. श्री महेन्द्र कर्णावट अनवरत मंत्री १. श्री सरदारमल कांकरिया १९९२ अनवरत प्रधानाध्यापिका १. श्रीमती ओल्गा घोष १९९२ से अनवरत सदस्य १. श्री रिधकरण बोथरा १९९२ से २००१ २. श्री राधेश्याम मिश्र १९९२ से २००१ ३. श्रीमती कांता शर्मा १९९२ से अनवरत ४. श्री ललित कांकरिया १९९२ से १९९६ २००१ से अनवरत ५. श्रीमती स्वाति घोष १९९२ से १९९८ ६. श्रीमती कुसुमलता खान १९९८ से अनवरत ७. श्री सुभाष बच्छावत १९९२ से २००१ ८. श्री दिलीपकुमार गांगुली १९९६ से २००१ ९. श्री विजय शाहा १९९६ से अनवरत १०. श्री जवाहरलाल कर्णावट २००१ से अनवरत ११. श्री अशोक बोथरा २००१ से अनवरत १२. श्री अरुण मालू २००१ से अनवरत १३. श्री सर्वानीशंकर चौधरी २००१ से अनवरत स्थायी आमंत्रित सदस्य १. श्री रिखबदास भंसाली १९९६ से अनवरत २. श्री कन्हैयालाल गुप्त १९९६ से २००१ ३. श्री बच्छराज अभ्भाणी २००१ से अनवरत ४. श्री विनोदकुमार मिनी २००१ से अनवरत ५. श्री अरुणकुमार तिवारी १९९६ से अनवरत ६. श्री लक्ष्मीशंकर मिश्र १९९६ से अनवरत श्री जैन विद्यालय, हावड़ा के निर्माण के सहयोगी १. श्री नरेश दासगुप्ता २. श्रीमती अनिला देवी ३. श्री बादल बोस ४. श्री प्रलय तालुकदार ५. श्री रमन माहेश्वरी ६. श्रीमती सरला माहेश्वरी ७. श्री अरुण माहेश्वरी ८. श्री रतन चौधरी ९. श्री विनोद बैद १०. श्री विक्रम सिंह ११. श्री मुस्ताक अहमद १२. श्री मूंगालाल टेकड़ीवाल १३. श्री सत्यनारायण मखारिया १४. श्री प्रदीप कुण्डलिया १५. श्री सुरेन्द्र चौधरी १६. श्री इन्द्रदेव चौधरी १७. श्री नरसिंहदास डागा १८. श्री मनोज भरवाड़ा १९. श्री सुपारसमल चौरड़िया २०. श्री प्रकाश कोठारी २१. श्री सुशील डागा २२. श्री पुखराज कोठारी २३. श्री अब्दुल खान २४. श्री कन्हैयालाल अग्रवाल २५. श्री विभूतिभूषण चक्रवर्ती २६. श्री दीनदयाल सारदा २७. श्री कवल देव २८. श्री शंकर मोर २९. डॉ० ए. एन. सामन्त ३०. श्री सज्जन टेकड़ीवाल ३१. श्री देवकान्त लाल ३२. श्री समर सिंह विद्यालय खण्ड/२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सहयोगी श्री जैन विद्यालय, हावड़ा (श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा कलकत्ता द्वारा संचालित भवन निर्माण के सहयोगीगण) १। श्री फूसराज पूरनमल कांकरिया २। श्री जीवराज, विनोद कुमार वैद ३। श्री जयचन्द, मानकचन्द रामपुरिया ४। श्री दीपनारायण रामरतन चौधरी ५। श्री जेसराज वैद, परिवार ६। भीखमचन्द, भूरा परिवार ७। श्री सीताराम भरतिया चैरिटेबल ट्रस्ट ८। श्री पारसमल सरदारमल कांकरिया ९। श्री हरखचन्द जयकुमार कांकरिया १०। श्री दीपचन्द, दिलीपचन्द कांकरिया ११। श्री भंवरलाल करणावट १२। श्री मोतीलाल, सुन्दरलाल दुगड़ १३। श्री पाँचीराम नाहटा चैरिटेबल ट्रस्ट १४। श्री सेठ भंवरलाल रामपुरिया चैरिटेबल ट्रस्ट १५। श्री केशरदेव, रतनीदेवी गोयनका ट्रस्ट १६। श्री बंशीलाल, जानकीदेवी, अग्रवाल ट्रस्ट १७। श्री चंपालाल, भंवरलाल, हीरालाल भंडारी १८। श्री चतुर्भुज हनुमानलाल बोथरा १९। श्री शिखरचन्द, प्रकाशचन्द मिनी २०। श्री डूंगरमल, भँवरलाल, प्रकाशचन्द प्रदीपकुमार दस्सानी २१। श्री आसकरन, किशनलाल बोथरा २२। श्री जयचन्दलाल विनोद कुमार मिनी २३। श्री नथमल, रिखबदास भंसाली २४। श्री कन्हैयालाल बच्छराज चांदमल, फागमल अभानी २५। श्री जसकरन, आसकरन, पारख २६। श्री मोहनलाल विनायकिया २७। श्री धनराज, निर्मलकुमार बांठिया २८। श्री नेमीचन्द करणावट २९। श्री अनूपचन्द अबीरचन्द सेठिया ३०। श्री विजयसिंह, अभयसिंह सुराना ३१। श्री जयचन्दलाल, इंद्रचन्द सिरोहिया - सरदार शहर ३२। श्री छोटूलाल सेठिया चैरिटेबल ट्रस्ट ३३। श्री रूपचन्द, चन्द्रप्रकाश सिंघी ३४। श्री सोहनलाल बच्छराज दूगड़ ३५। श्री देवराज मेहता ३६। श्री महावीर सोनिका ३७। मेसर्स सुमेरलाल रायचन्द सेठिया ३८। श्री आनंदमल, सुमेरमल भूतोड़िया ३९। श्री सोहनराज सिंघवी ४०। श्री धनपति सिंह, दौलतसिंह सुराना (बिकानेर निवासी) ४१। श्री झूमरमल सुरेन्द्र कुमार दुगड़ ४२। श्री मोतीलाल प्रदीपकुमार बोथरा ४३। श्री मिर्जामन छगनलाल केजरीवाल चौरिटी ट्रस्ट ४४। मेसर्स बंगाल आयरन कॉरपोरशन ४५। श्री फूसराज बच्छावत, बच्छावत परिवार ४६। श्री कन्हैयालाल शांतिलाल मालू ४७। श्री कानमल जयचन्द मुकीम ४८। स्व० श्रीमती सुन्दरदेवी कोठारी (चुरू) की पुण्य स्मृति में प्रकाशचन्द्र कोठारी ४९। स्व० श्री ताराचन्द बराडिया (बीकानेर) की पुण्य स्मृति में श्री चांदमल, पारसमल, राजमल बराडिया ५०। श्री कन्हैयालाल, नरेन्द्रकुमार अंचलिया ५१। श्री नवरतनमल जैन ५२। श्री तेजकरण बोथरा की पुण्य स्मृति में सुमतिचन्द, देवेन्द्र कुमार बोथरा ५३। श्री प्रदीपकुमार, विनोदकुमार कुंडलिया ५४। विजय सिंह कोठारी शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५। श्री चुन्नीलाल, भंवरलाल कोठारी ५६ | श्री कल्याणमल कोठारी (बीकानेर) ५७ | श्री मगनलाल नथमल बेंगानी ५८ । श्री पन्नालाल हीराचन्द कोठारी ५९ । श्री बालचन्द भूरट (कुचेरा) निवासी की पुण्य स्मृति में पारसमल, राजमल, विजयसिंह, वसंत व निर्मल भूरट द्वारा ६० । श्री नवरतन, गौतमचन्द कांकरिया ६१ । श्री प्रतापसिंह ठठ्ठा (बीकानेर) परिवार ६२ । श्री अखेचन्द, लूणकरण भण्डारी ६३ । श्री जेठमल सुरेन्द्रकुमार बांठिया ६४ | श्री छत्तरसिंह वैद ६५ । मेसर्स बंगाल रोलिंग शटर्स एण्ड इंजीनियरिंग वर्क्स ६६ । श्री मिलाप प्रकाश चोरडिया ६७। श्री बुधमल दुगड़ (जौहरी) ट्रस्टी मानिकचन्द, मालीदेवी दुगड़ ६८ । श्री त्रिलोकचन्द दुधोडिया ६९ । श्री जगदीश राय जैन एण्ड सन्स ७०। श्री पानमत्न मिन्नी की पुण्य स्मृति में श्रीमती भंवरीदेवी मिन्त्री (धर्मपत्नी) ७१ । श्री मगनलाल, भंवललाल, पारख (बीकानेर) की पुण्य स्मृति में श्री भन्नूलाल पारख ७२ । श्री सुखदेवदास, गोपीकिशन मेहता ७३ | श्री दीपचन्द, जयचन्दलाल सेठिया ७४ | श्री अजय कपूर ७५ । श्री बस्तीमत्न, हस्तीमल रेखावत ७६ । श्रीमती राधारानी सुखानी धर्मपत्नी श्री चन्दनमल सुखानी ७७ ॥ श्री मानमल भूतोड़िया ट्रस्टी भूतोडिया मेमोरियल ट्रस्ट ७८ । श्री छगनलाल, मोतीलाल सिरोहिया ७९ । श्री शोभाचन्द पन्नालाल विनायक ८०। श्री भँवरलाल कोठारी (चुरन) की पुण्य स्मृति में श्री उमेन्द्र सिंह, बच्छराज कोठारी ८१ । श्री सुन्दरलाल गोलछा ८२ । श्री रतनलाल डागा व श्रीमती जमुनादेवी डागा की पुण्य स्मृति में श्री तनसुखराज, मनोजकुमार डागा ८३ । श्री सुशीलचन्द, संजयकुमार दुगड़ ८४ | श्री सूरजमल मंगलचन्द चौधरी विद्यालय खण्ड / ४ ८५ । श्री ज्ञानचन्द ललितकुमार कोठारी ८६ । श्री जयचन्दलाल, राजेन्द्रकुमार गेलड़ा ८७ । श्री जशुभाई पटेल ८८ । श्री ललितकुमार चौधरी ८९ । श्री शुभकरण रायजादा ९० । श्री कृपाचन्द शांतिलाल सुराना ९१ । श्री लखमीचन्द लूणिया की पुण्य स्मृति में अमरचन्द, जतनलाल, लूणिया ९२ । श्री तोलाराम, फतेहराज डागा ९३ । श्री भैरूदान कांकरिया की पुण्य स्मृति में मोतीलाल, मगनलाल गुलगुलिया ९४ | श्री शखिरचन्द, मस्तपाल, बच्छावत ९५ । श्री भँवरलाल राजेन्द्रकुमार नाहटा ९६ । श्री गुलाबमल सिंघवी ९७ । श्री मानकचन्द केसरीचन्द दुगड़ ९८ । श्री हरिकिशनदास मल्ल ट्रस्ट चैरिटेबल ९९ । श्री महेन्द्रकुमार, आनन्द राज झावक । १०० । श्री नथमल, विमलचन्द लूडिया १०१। स्व० श्रीमती सूरजदेवी खजांची धर्मपत्नी श्री हेमराज खजांची। १०२ । श्री तेजराज, अभयमल लोढ़ा १०३ । श्री मनोहर, मदनचन्द बेंगानी १०४ | श्री चन्दनमल दुगड़ १०५ । श्री जोधराज बोहरा चैरिटेबल ट्रस्ट १०६ । श्री विजयसिंह मानिकचन्द बोथरा १०७ । श्री वासुदेव लोहिया चैरिटी ट्रस्ट १०८ । श्री निर्मल नाहर ट्रस्ट १०९ । श्री दीपचन्द सुन्दरलाल गोलछा । ११० । स्व० भंवरीदेवी नाहटा की पुण्य स्मृति में नौरतमल नाहटा १११ | श्री दीपचन्द नवरतनमल बोथरा ११२ । श्री लूनकरन, केशरीचन्द गेलड़ा ११३ | श्री ईश्वरदास, तारकेश्वर छल्लानी ११४ | श्री रामलाल गणेशमल चिण्डालिया ११५ । श्री वीरेन्द्रसिंह बांठिया ११६ । श्री हेमराज, पुखराज बेताला ११७। श्री लाभचन्द रामपुरिया परिवार ११८ । श्री भंवरलाल जेठमल बांठिया ११९। श्रीमती मालादेवी बच्छावत धर्मपत्नी मूलचन्द बच्छावत शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०। श्री गोपाल चन्द नारायणकुमार बोथरा १२१। श्री कमलकुमार अशोककुमार जैन १२२। श्री शिखरचन्द रामचन्द वैद १२३। श्री चाँदमल, रिलिजियस ट्रस्ट बर्धमान १२४। श्री मंगलचन्द मोहनलाल १२५। कस्तूरीदेवी बम्ब की पुण्य स्मृति में आलोकचन्द सुशील कुमार बम्ब। १२६। श्री पन्नालाल जसकरन लुनिया १२७। श्री मोहनलाल, कमलसिंह वैद १२८। श्री डालचन्द बांठिया मीनासर १२९। श्री शांतिलाल खटेड़ १३०। श्रीमती मधु जैन १३१। श्रीमती पूनमचंद शामसुखा १३२। श्री मगनलाल कोठारी (बीकानेर) १३३। श्री भीखमचन्द, मोहनलाल, कमलासिंह, विमलसिंह व राजकुमार भंसाली १३४। श्री दीपचन्द, बुलाकीचन्द, किशनलाल, शांतिलाल डागा १३५। श्रीमती सम्पतदेवी कोठारी व श्रीमती सोहनी देवी कोठारी (चुरू) की पुण्य स्मृति में कमलासिंह कोठारी १३६। श्री कमलचन्द, जगराज, कैलाशचन्द मुकीम १३७। श्री शकुनमल जैन (जालोर) की पुण्य स्मृति में श्री मनसुख लाल जैन १३८। श्री रामलाल, राजरूप, डोसी १३९। श्री सम्पतराज रतनलाल कांकरिया १४०। श्री इन्द्रचन्द्र, उगमचन्द्र ललवानी १४१। श्री हनुमान लाल लुनावत प्रीति लाडिया, सप्तम् अ शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय माणकचन्द रामपुरिया • वीणा वादिनी जय हे। वीणा वादिनी जय है । ज्ञान-प्रभा नव ज्योति समुज्ज्वल, तिमिरांचल-पट किरणें उज्ज्वल; नव प्रकाश बन उतरो साज्ज्वलमधुर सुभासिनी जय हे। वीणावादिनी जय हे!! नव-नव सुमन खिलें अन्तर के, बीत चले युग मनवन्तर के; विकसे सरसिज दृग-प्रान्तर केसहज सुहासिनी जय हे। वीणावादिनी जय है !! मानवता की उन्नति के स्वर, देव-तत्त्व के पोषक सत्वर; जड़ता-कटुता, सकल विषम हरकण-कण लासिनी जय हे! वीणावादिनी जय हे!! झंकृत कर दे तार हृदय के, नवप्रकाश अब खिले उदय के; गूंजे गीत पवन-किसलय केस्वर-निनादिनी जय हे! वीणा वादिनी जय हे!! रुकें रुकावट कहीं न कोई, परम भावना रहे न सोई; दृष्टि-दृष्टि से लगकर रोईकष्ट-नाशिनी जय हे। वीणावादिनी जय हे !! जन-जन हार बने शुचि कविता, मेरे भाव-कुटिल की भविता; चमके नभ में पावन सविताभाव-विलासिनी जय हे! वीणावादिनी जय हे !! सकल सृष्टि नव-नव उद्भासित, रन्ध्र-रन्ध्र निर्बन्ध सुवासित; तृण-तृण-तरु-तरु त्वरित प्रकाशित विश्व-रूपिनी जय हे ! वीणावादिनी जय हे !! जय गणेश सिद्धि-विनायक, हे गणनायक, तेरी जय-जय गाऊँ । तू ही मंगल-दाता तेरे पद में शीश नवाऊँ ।। एकदन्त औ वक्रतुण्ड तू तेरी महिमा न्यारीकृपा करो सौभाग्य-विधाता दृष्टि खुले रतनारी । तड़प रहा जग बड़ी व्यथा है, शान्ति-सुधा बरसाओ, सर्वभूत जय मंगलदाता ! जल्दी भू पर आओ, घिरा चतुर्दिक अन्धकार है, गूंज रहा है क्रन्दन ज्ञान विभा फैलाओ भू पर जयति भवानीनन्दन । सम्मुख कष्ट अपार खड़े हैं जागो हे वरदानी, रूद्ध हुई जाती है सत्वर खोल मुखर कर वाणी; खिले प्रकाश धरा पर नूतन मिटे सकल अँधियारीरजकण महिमावान बना है मूसक अतुल सवारी । विघ्न हरें, सब कष्ट कटें, यह धरती बने सुहावन, शुभारम्भ तू शुभ प्रयत्न के तेरी गाथा पावन; रोग-व्याधि सब मिटे, करें सब तेरा प्रतिपल वन्दनजय गणेश, जय सुख के दाता । जय-जय शंकर नन्दन ।। विद्यालय खण्ड/६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 सरदारमल कांकरिया म आज हावड़ा के लोकप्रिय स्कूलों में श्री जैन विद्यालय की गणना प्रथम रूप में होती है। लगभग १०० सुयोग्य शिक्षकों की देखरेख में इस समय ४२०० छात्र-छात्राएँ अध्ययनरत हैं। सभी धर्म के विद्यार्थी प्रेमपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। बहुत कम फीस में अच्छी शिक्षा इस विद्यालय में विद्यार्थी को दी जाती है। करीबन २०० विद्यार्थी बिना शुल्क के भी शिक्षा पाते हैं। स्कूल में एक शानदार अतिआधुनिक कम्प्यूटर कक्ष है, १५००० पुस्तकों की विशाल लाइब्रेरी है, मल्टीमीडिया कम्प्यूटर के द्वारा प्राइमरी के छात्रछात्राओं को शिक्षा दी जाती है। स्काउट्स बैण्ड के अलावा कराटे की भी शिक्षा दी जाती है। लड़कियों को नृत्य सिखाने की व्यवस्था भी है। स्कूल का अपना एक विशाल ऑडीटोरियम है। अध्ययन अध्यापन में बिजली के अभाव में किसी प्रकार की बाधा न आये एतदर्थ जेनरेटर की व्यवस्था है। एक लिफ्ट भी स्कूल में है। __ आज दस साल व्यतीत होने जा रहे हैं। इस अल्प समय में स्कूल ने हावड़ा में विशेष स्थान बनाया है। शिक्षा के क्षेत्र में आगे हमारी योजना कॉलेज बनाने की भी है। श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा द्वारा संचालित यह विद्या मंदिर अल्प समय में अत्यन्त लोकप्रिय हो गया है। विद्यालय द्वारा अन्य जरूरतमंद विद्यालयों को फर्नीचर एवं पंखे हर वर्ष प्रचुरता से दिये जाते हैं। पिछले २ वर्षों में ४ कम्प्यूटर सेन्टर भी विद्यालय द्वारा स्थापित किये गये हैं। देवरिया गर्ल्स स्कूल में २ कमरों का एक विंग भी विद्यालय के सहयोग से निर्मित किया जा चुका है। हरिराम हाई स्कूल देवरिया में साइंस की लेब्रोटरी एवं कम्प्यूटर कक्ष, जिसमें ८ कम्प्यूटर, एक प्रिन्टर तथा एक वोल्टेज स्टेबलाइजर है, इस स्कूल की ओर से चालू होकर वहाँ के छात्रों को शिक्षित करने में सहयोग दे रहा है। सागर माधोपुर (सुन्दरवन) में एक प्राइमरी स्कूल का निर्माण भी कराकर स्कूल चालू कर दिया है तारादेवी कांकरिया जैन विद्यालय के नाम से। हमारा यह अनूठा प्रयास है। इस सफलता का श्रेय विद्यार्थियों की लगन, सुयोग्य शिक्षकों के द्वारा सुन्दर ढंग से अध्यापन एवं मेहनत तथा प्रधानाध्यापिका एवं हेडमास्टर की देखरेख एवं कार्यसमिति की उचित सलाह एवं सभा के अपूर्व सहयोग से ही यह सम्भव हो सका है। जमीन मिलने से इस स्कूल को और बढ़ाने की हार्दिक भावना एवं कामना है। एक दशक की सम्पूर्ति के अवसर पर मैं सबको बधाई देता हूँ एवं विश्वास करता हूँ कि यह विद्यालय भविष्य में कीर्तिमान स्थापित करने में सफल होगा। नेताजी इन्डोर स्टेडियम कोलकाता में दिनांक १५ जनवरी, १९८४ को आयोजित श्री जैन विद्यालय के स्वर्ण जयन्ती समारोह में अतिथि पद से संबोधित करते हुए विश्वमित्र के संपादक श्री कृष्णचन्द्र अग्रवाल ने एक साहस भरी चुनौती दी थी कि श्री जैन विद्यालय, कलकत्ता तो आप लोगों के बुजुर्गों द्वारा बनाई गई संस्था है, आप लोग खुद कुछ करें तो जानें। बात बहुत पते की कही श्री अग्रवालजी ने। मीठी चुभन भी हुई। इससे कार्यकर्ताओं के मन में एक लगन जगी कि कुछ नया किया जाये। आखिर हावड़ा में स्कूल के निर्माण का निर्णय हुआ। जमीन क्रय से लेकर मकान बनाने के कठिन कार्य में श्री रतन चौधरी एवं श्री सुन्दरलाल दुगड़ का जबरदस्त सहयोग मिला। ८ महीने के अल्प समय में ही भवन तैयार कराकर मई ९२ में स्कूल चालू कर दिया गया। पहले साल ही १६०० छात्र-छात्राओं ने दाखिला लेकर हम लोगों पर जबरदस्त विश्वास प्रगट किया। इससे हम लोगों पर एक विशेष जिम्मेदारी आ गई। सुयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति करके स्कूल प्रारंभ कर दिया। या अध्यापकों की कठोर मेहनत एवं विद्यार्थियों की लगन के कारण परीक्षाफल प्रशंसनीय रहने लगा। ३ वर्ष बाद जब विद्यार्थी बोर्ड की परीक्षा में सम्मिलित हुए तो १०० प्रतिशत परिणाम आया। फिर हायर सेकेण्डरी की मान्यता भी मिल गई और हर वर्ष परीक्षाफल १०० प्रतिशत आने से मन में अपार सन्तोष हुआ। मानद् मंत्री श्री जैन विद्यालय, हावड़ा शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 सुन्दरलाल दुगड़ इस विद्यालय ने हावड़ा में एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की है। एक अच्छे शिक्षण संस्थान की कमी को इसने पूरा ही नहीं किया अपितु हावड़ावासियों को एक उच्च शिक्षण संस्थान प्राप्त हो गया। अच्छे परीक्षा परिणाम, अनुशासन एवं उच्च शिक्षण स्तर ने न केवल हावड़ा में अपितु कोलकाता के अच्छे शिक्षण संस्थानों में इसने अपना स्थान बना लिया है। अध्यापको की लगन, मेहनत एवं अध्यापन के प्रति समर्पण भावना का ही यह परिणाम है। विद्यालय में कक्षा एक से अध्यायन अध्यापन होता है। हमारी इच्छा है कि यहाँ नर्सरी की कक्षाएँ भी प्रारंभ हों इसके लिए जमीन और भवन की सख्त आवश्यकता है। यदि हावड़ा म्युनिसिपल कार्पोरेशन अपनी वह जमीन जहाँ मुर्दो को जलाकर वायुमंडल को प्रदूषित किया जाता है, विद्यालय को पार्क बनाने के लिए प्रदान कर दे ताकि उसका उपयोग हो सके तदर्थ हम प्रयत्नशील हैं एवं अधिकारियों से अनुरोध है कि शिक्षण संस्थान के आस-पास का वातावरण शुद्ध, स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित बनाने के लिए स्वेच्छा से हमें भूमि प्रदान कर दे ताकि एक बहुत अभाव की पूर्ति हो सके। अन्य जमीन मिलने पर वहाँ नर्सरी की कक्षाओं के लिए भवन बनाने २५/१, बोन बिहारी बोस की जो भूमि मैने व श्री रतनजी का विचार है जिससे यह सुविधा भी हावड़ावासियों को प्राप्त हो चौधरी ने क्रय की थी, उसी को श्री जैन विद्यालय स्थापित करने के सके। लिए उचित स्थान समझकर श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा के हावड़ा में एक अच्छे कॉलेज की भी अत्यन्त आवश्यकता है पदाधिकारियों ने पसन्द कर लिया एवं हमने भी सहर्ष यह भूमि ताकि हावडावासियों को उच्च शिक्षण के लिए कोलकाता के विद्यालय निर्माण के लिए समर्पित कर दी। उस समय यह स्वप्न में कॉलेजों का चक्कर न काटना पडे। सभा के पदाधिकारीगण एवं भी नहीं सोचा था कि इतना शीघ्र इस पर भवन निर्मित हो जायेगा कार्यकर्ताओं का यह चिन्तन निरन्तर चल रहा है। मुझे विश्वास है एवं एक विशाल विद्या मंदिर की स्थापना हो जाएगी। सभा के कि हमारे ये स्वप्न भी शीघ्र साकार होंगे एवं हावड़ावासियों के बच्चों कर्मठ कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों के दृढ़ संकल्प, कठोर को प्रारम्भिक से लेकर उच्च शिक्षा यहीं प्राप्त हो जायेगी। परिश्रम तथा अथक अध्यवसाय ने श्री जैन विद्यालय हावड़ा को मूर्त श्री जैन विद्यालय, हावड़ा ने अपनी एक दशकीय शैक्षणिक रूप प्रदान किया एवं सन् १९९२ में यह विद्या केन्द्र छात्र-छात्राओं यात्रा पूर्ण की है एवं शिक्षा : एक यशस्वी दशक समारोह का को शिक्षा प्रदान करने के लिए तत्पर हो गया। आयोजन हो रहा है। इस अवसर पर स्मारिका भी प्रकाशित हो रही ___कहावत है-'जहाँ चाह वहाँ राह' । श्री जैन विद्यालय, हावड़ा है, इसकी पूर्ण सफलता की हार्दिक कामना करता हूँ। छात्र, के निर्माण ने इस कावत को चरितार्थ किया है। प्रयत्न और परिश्रम शिक्षक, अभिभावक एवं प्रबन्धन इसके महत्वपूर्ण अंग हैं। मैं से असंभव भी संभव हो जाता है। पाँच तल्ले का विशाल श्री जैन सबको हार्दिक बधाई देता है तथा अपनी अशेष शुभकामनाएँ विद्यालय प्रयत्न और परिश्रम का ही सुफल है। आज श्री जैन समर्पित करता हैं। इसी समारोह से श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन विद्यालय में ४२०० छात्र-छात्राएँ अध्ययनरत हैं एवं यह अपनी सभा के कौस्तभ जयन्ती के वर्ष व्यापी कार्यक्रमों का शुभारंभ भी शैक्षणिक यात्रा के दस वर्ष पूर्ण कर रहा है, यह अपने आप में हो रहा है. यह सोने में सहागा एवं मणिकांचन संयोग है। महत्वपूर्ण है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे इस विद्यालय की प्रबन्ध समिति का अध्यक्ष बनाया गया। शायद इसके निर्माण में मेरी रुचि अध्यक्ष : एवं प्रयत्न का ही यह सुफल है। मैंने तो अपने दायित्व के निर्वाह श्री जैन विद्यालय फॉर ब्वायज, हावड़ा का प्रयत्न किया है। विद्यालय खण्ड/८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 पन्नालाल कोचर हमारे यहाँ एक कहावत थी कि माँ की गोद ही बालक की प्रथम पाठशाला है। किन्तु आज बिल्कुल इसके विपरीत हो रहा है। दूध मुँहे बच्चे को गोद से अलग कर किंडरगार्टेन स्कूलों में भेज दिया जाता है। इसको आज रोकने की आवश्यकता है। जो माँ की गोद से बालक सीख सकता है, वह अन्यत्र अति दुर्लभ है। अत: स्त्री शिक्षा को प्राथमिकता देना आवश्यक है। If you educate a girl, you educate a family बच्चा राष्ट्र का भावी निर्माता है, यह तभी चरितार्थ हो सकता है जब माँ पूर्णतया शिक्षित हो और अपने बच्चों को वह भारतीय परिवेश के अनुसार ढाल सके। श्री जैन विद्यालय, हावड़ा फॉर गर्ल्स के द्वारा जो शिक्षा प्रदान की जा रही है, वह उसी उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो, यही हमारा प्रयत्न है। स्त्री शिक्षा का स्तर काफी ऊँचा उठा है पर इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में लड़कियाँ अभी भी लड़कों से काफी पीछे हैं। इसमें उनके अभिभावकों या मातापिता की मानसिकता बाधक है। लड़कियों के माता-पिता या अभिभावक उसके विवाह की शीघ्रता करने लगते हैं। यों भी कह सकते हैं कि लड़की विवाह योग्य हो गई है अत: इसका विवाह कर श्री जैन विद्यालय, हावड़ा अपनी शैक्षणिक यात्रा के दस वर्ष देना उचित है ताकि वे अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकें। इसी पूर्ण कर चुका है एवं अपनी इस सफल यात्रा के उपलक्ष्य में मानसिकता के चलते अभी भी हमारी लड़कियाँ तकनीकी क्षेत्र में 'शिक्षा : एक यशस्वी दशक' समारोह का आयोजन कर रहा है, आगे नहीं बढ़ पा रही हैं अत: अभिभावकों को इस मानसिकता से यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है। मैं इस समारोह की सफलता की। मुक्त होने की आवश्यकता है। कामना करता हूँ एवं उन पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं, शिक्षकों एवं आज लॉरेटो एवं अन्य मिशनरी स्कूल की तरह से हमारे यहाँ छात्रों को हार्दिक बधाई देता हूँ जिनके अथक परिश्रम, अध्यवसाय, भी व्यवस्था होनी चाहिए ताकि छात्राएँ अध्ययन के साथ-साथ अपनी लगन का यह सुखद परिणाम है। अन्य रुचियों का विकास कर सकें एवं जीवन के हर क्षेत्र में गति दुछ समय पूर्व ही मुझे श्री जैन विद्यालय हावड़ा फॉर गर्ल्स की कर सकें. किसी से पिछडी न रहें। प्रबन्ध समिति का अध्यक्ष भार दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में मेरी प्रसन्नता है कि श्री जैन विद्यालय, हावड़ा हर प्रकार के वर्तमान बहत गति न होने पर भी मुझे यह दायित्व दिया गया है, इस दायित्व एवं अधनातन साधनों से सम्पन्न एवं युक्त है। एक अच्छी लाइब्रेरी, के सम्यक् निर्वाह का मैं प्रयत्न करूँगा। कम्प्यूटर, मल्टीमीडिया, इण्टरनेट आदि की पूर्ण सुविधाएँ हैं एवं ___ भारतवर्ष में स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक छात्र-छात्राओं को इसका लाभ भी मिल रहा है। परिवर्तन अवश्य हुआ है। तकनीकि एवं अन्य संकायों का भी मैं पुन: उन कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों को बधाई देता हूँ काफी प्रचार-प्रसार हुआ है लेकिन भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं जिन्होंने हावडावासियों को यह सौगात दी है।। वातावरण के अनुसार जो स्वरूप एवं स्तर होना चाहिए था, वह नहीं यह एक सुखद संयोग है कि सन् १९२८ में संस्थापित श्री हो पाया है। राजनीति एवं क्षुद्रस्वार्थों ने इस पावन क्षेत्र को गंदा कर श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा के कौस्तभ जयन्ती वर्ष का प्रारंभ दिया है या यों कहें कि मैकाले ने जिस उद्देश्य से शिक्षा का जो श्री जैन विद्यालय. हावडा के शिक्षा : एक यशस्वी दशक समारोह स्वरूप प्रचलित किया था, उसमें वह आजादी के बाद और अधिक से हो रहा है। प्रभावी हो गया। अनेक आयोगों का गठन किया गया एवं उन्होंने अपने सुझाव भी दिये किन्तु उनके अनुरूप कोई परिवर्तन अभी तक अध्यक्ष श्री जैन विद्यालय फॉर गर्ल्स, हावड़ा नहीं हुआ। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/९ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० सुरेन्द्रकुमार बांठिया चरित्र निर्माण का केन्द्र :: श्री जैन विद्यालय गर्व एवं गौरव का बोध हो रहा है यह जानकर कि जैन विद्यालय हावड़ा अपनी स्थापना के दस वर्ष पूर्ण कर रहा है। एक संस्था के इतिहास में दस वर्ष का समय कुछ अधिक नहीं होता, किन्तु इस अल्पकाल में इस विद्यालय ने शिक्षा के क्षेत्र में इतना सम्मान अर्जन कर लिया है कि हावड़ा के अच्छे विद्यालयों में ही नहीं अपितु हावड़ा अंचल में हिन्दी भाषी समाज द्वारा संचालित विद्यालयों में इसकी गणना सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में की जाती है। कोलकाता में स्थानाभाव के कारण बहुत से परिवार हावड़ा में आकर बस गए। उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए इस अंचल में एक ऐसे विद्यालय की आवश्यकता थी जहाँ उनके बच्चों को शिक्षा दी जा सके इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए स्थानकवासी जैन सभा के समर्थ सदस्यों ने एक विद्यालय स्थापित करने का संकल्प लिया। माननीय श्री सरदारमलजी कांकरिया की देख-रेख में छ: महीने के अन्दर भवन बनकर तैयार हो गया और शिक्षा-दीक्षा का कार्य भी आरम्भ हो गया। अपनी स्थापना से आज तक विद्यालय का परीक्षाफल शत-प्रतिशत रहा। उच्च माध्यमिक शिक्षा विभाग द्वारा अच्छे प्रशिक्षण के लिए विद्यालय के दोनों विभागों ( ब्वायज एवं गर्ल्स) को 'ए' श्रेणी का प्रमाण पत्र मिला है। हमारा समाज सम्यक् चारित्र, सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान में विश्वास करता है, इसीलिए इस विद्यालय में शिक्षा के साथ-साथ विद्यालय खण्ड / १० चरित्र निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है । कक्षाओं में शिक्षक एवं शिक्षिकाएं भी प्रयत्नशील हैं कि बच्चों का चरित्रनिर्माण उचित रूप से हो। अच्छे स्वास्थ्य के लिए नियमित व्यायाम की व्यवस्था है। माध्यमिक के पाठ्यक्रम में योगासन आदि की व्यवस्था की गई है। छात्र-छात्राएं स्वयं अपनी सुरक्षा कर सकें इसलिए प्रशिक्षित प्रशिक्षकों द्वारा कराटे की ट्रेनिंग दी जाती है। इनमें से कई छात्र-छात्राएँ ब्ल्यू बेल्ट भी पा चुके हैं। शिक्षा शुल्क भी कम है। इससे हावड़ा के धनी गरीब सभी वर्ग के अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज पा रहे हैं। समय-समय पर विशेष विषयों के विद्वानों को बुलाकर उनका व्याख्यान कराया जाता है। व्यावसायिक शिक्षा के लिए कम्पनी सेक्रेटरी और कम्प्यूटर के लिए विभिन्न संस्थाएँ व्याख्यान तथा प्रायोगिक शिक्षा देते हैं। समय की मांग देखते हुए विद्यालय में कम्प्यूटर, इण्टरनेट तथा मल्टीमीडिया की व्यवस्था भी की गई है। छात्र-छात्राओं की उच्च शिक्षा की व्यवस्था के लिए एक कॉलेज की आवश्यकता महसूस की जा रही है। हमलोग जमीन खोज रहे हैं। अन्त में मैं विद्यालय के शिक्षक-शिक्षिकाओं तथा प्रधानाध्यापिका तथा रेक्टर को धन्यवाद देता हूँ जिनके अथक परिश्रम से विद्यालय इतना शीघ्र उन्नति के शिखर पर चढ़ता जा रहा उपाध्यक्ष : श्री जैन विद्यालय फॉर ब्वायज, हावड़ा एकता अग्रवाल, ११ बी शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेन्द्र कर्णावट हावड़ावासियों के लिए वरदान मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई है कि श्री जैन विद्यालय हावड़ा अपनी दस वर्षीय शैक्षणिक यात्रा की सम्पूर्ति के उपलक्ष्य में शिक्षा: एक यशस्वी दशक समारोह का आयोजन नेताजी इनडोर स्टेडियम में कर रहा है एवं इस अवसर पर शिक्षा एक यशस्वी दशक' स्मारिका का लोकार्पण भी हो रहा है। किसी भी शैक्षणिक संस्थान के लिए दस वर्ष एक अल्प अवधि है। इस अल्प अवधि में भी श्री जैन विद्यालय हावड़ा ने हावड़ा की शिक्षण संस्थाओं में महत्वपूर्ण एवं अग्रणी स्थान बनाया है। यह छात्र अध्यापक, अभिभावक एवं प्रबन्धन के समन्वय का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। इस चतुष्कोण के ऐक्य एवं सामंजस्य के कारण यह विद्यालय निरन्तर प्रगति की ओर उन्मुख है। इस निर्माण में श्री सरदारमलजी सा. कांकरिया श्री रिखबदासजी भंसाली, श्री रिधकरणजी बोथरा आदि के साथ मेरे स्व ० पिता श्री भँवरलालजी कर्णावट का भी विशेष योगदान रहा है। उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि यह विद्यालय अपने नाम के अनुरूप यशस्वी एवं गौरवशाली बने। विगत अनेक वर्षों से इस विद्यालय की माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक कक्षाओं का परिणाम केवल शतप्रतिशत ही नहीं रहा है बल्कि कई विषयों में उच्च अंक प्राप्त कर छात्र-छात्राओं ने इस विद्यालय को गौरवान्वित किया है वस्तुतः शिक्षक शिक्षिकाओं के शिक्षा एक यशस्वी दशक अथक अध्यवसाय, कठोर परिश्रम एवं लगन का यह परिणाम है। हावड़ावासियों के लिए तो यह विद्यालय एक वरदान हैं। शिक्षा का उद्देश्य केवल शिक्षित होना ही नहीं है अपितु एक सभ्य नागरिक भी बनना है। इस विद्यालय से निकलनेवाले छात्रछात्राएं निश्चित ही शिष्ट नागरिक बनकर इस विद्यालय, समाज एवं राष्ट्र को गौरवान्वित करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है । , किसी भी शिक्षण संस्थान का द्रुत विकास छात्र अध्यापक, अभिभावक एवं प्रबन्धन के सामंजस्य पर निर्भर करता है एवं यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि इस चतुष्कोण के समन्वय के कारण यह विद्यालय दिनोंदिन आगे बढ़ रहा है। उच्च शिक्षण स्तर, अनुशासन एवं शतप्रतिशत परीक्षा परिणाम ने इस विद्यालय को इतना लोकप्रिय बना दिया है कि छात्र छात्राओं की संख्या निरन्तर बढ़ रही है एवं यह स्थान छोटा पड़ने लगा है। इस क्षेत्र में एक कॉलेज की भी नितान्त आवश्यकता है यदि पदाधिकारी गण कॉलेज का निर्माण कर सकें तो वह सोने में सुहागा होगा। मैं समारोह की पूर्ण सफलता तथा विद्यालय के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। उपाध्यक्ष्य श्री जैन विद्यालय फॉर गर्ल्स, वड़ा श्वेता पारख, सप्तम् स विद्यालय खण्ड/ ११ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr. G. J. Dubey Value Education In 1947, we became an independent country. We got the freedom, but largely we had to depend on others. So much so, that in framing our constitution, we had to depend on the constitutions of many countries in general and on the British constitution in particular. We also depended on the British system of education to some extent. During the struggle for freedom almost in all the annual sessions of Indian National Congress, the congress president declared that in our country colonial system of education was prevailing. It was worthless and they would have change that lock, stock and barrel, but we could not change it even now. We generally followed the system of education as recommended by Wood despatch in 1854. After independence several commissions and committees recommended more or less within the limit of the same structure. Sometimes some changes were brought but they remained on papers only. In the last four decades because of the idea of globalisation and progress in Information Technology, the world came closer. But there was no assimilation of cultures. Most of the countries forgot their old culture but could not put on the garb of new culture properly. Thus there is a cultural crisis in the world. India is not an exception to it, Indian society has changed at a very fast rate but education could not change at that rate. Today's social changes and value changes have challenged the educational system to develop forms of teaching, learning and ways to use free time which will help young people become effective in a democracy. In our present society, there are several hurdles which we have to cross. In our schools we have been experimenting to make our pupils free and fearless. In this context I shall like to share with my readers one of many experiences which came across in our schools. One day a boy came to me and said "Sir, will you not allow me to sit for my final examination tomorrow ?" "Why?" "Because my mother could not clear the last quarter fee dues within the stipulated date." feeling guilty the boy replied. This was a dialogue between a six years old boy reading in class I B and me. I allowed him to sit for the examination. He looked into my eyes and said, "Thank you, Sir." The mother was also accompanying her son, But she was standing behind the door. She came out to express her gratitude. She promised to pay the fee before the publication of the result of or son. I started thinking about the plight of the boy. I admired his boldness but was sorry to think that at this tender age of 5-6 we are making him aware of the stark reality of the world. The experience gained by the boy is due to his need but this experience or education becomes a quality in democracy. In a democratic society it becomes necessary to express one's point of view properly and frankly. This is not the lone example. There are many pupils in several schools. They have to discontinue their education as they are not able to afford to pay the tuition fees. The pupils and the guardians both are afraid of meeting the administrator. This is cowardice. No principal would deprive any pupil from appearing in the examination for not paying the tuition fee. He or she may withhold the result. In expressing truth a pupil should not be afraid. To develop this trait of personality there is a need of special type of administration in education. Now the question is whether it should be lenient, or, it should be strict. In my opinion both of the above two types are not desirable. It should be sympathetic. There should be rapport between an administrator and pupils. Now the question is why do these pupils not go to Government schools or government aided schools ? These schools are free. Reason is clear. First, they do not get admission in government schools as there is no vacancy. The Government schools are few and far between. Yes, there are government aided schools. There are vacancies also. But many of these schools are in a pathetic condition. There is no required number of teachers. Infrastructure is either absent or needs proper maintenance or repair. Teaching is neglected. There are no proper administration and supervision. It is said that we prepare students for their alround development. We have to make all possible efforts to see for the proper development of pupils. Besides, the knowledge and skill, there should be inculcation of right type of attitude, interest and values also in students. But विद्यालय खण्ड/१२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ how? A boy stays with us about 5 to 6 hours on each working day. There are good number of holidays which create so often a gap between the teaching works. A study indicates that there are hardly 200 working days. Thus we get a little time to work for good behaviour. A student spends a considerable amount of time in his home. Whatever time the school gets, it has to spend in preparing students for the examination. Creditability of the school depends on the final examination result. Thus in this short span of teaching periods we have to prepare the students for the stereo type of examinations only. Naturally this defective system of examination forces teachers to encourage the students for rote rnemorisation. What ever students prepare for their examinations become obsolete and irrelevant when they come in the real society to earn their livelihood. It is said that knowledge doubles in ten years time. Thus the knowledge is increasing in geometrical progression. But the time to gain it, is limited. After certain age they have to join the chorus of life, with this irrelevant and outdated knowledge. Thus, it should be the endeavour of teachers to see that the students are prepared in such a way that they themselves could read, write and understand the new knowledge which is published in the form of books. Thus students should be capable of reading and understanding the subject matter in various capacity. The home, the peer groups, parents, media may be of great help in educating a boy. A student who does not get proper atmosphere cannot develop properly. He is very much a product of his family atmosphere. There may be scarcity of fund in the family. The father may be fully busy, having no time to meet his children. Mother not having any education worth name. Or, father's inability to keep the family with him. In cases where the child is living with his parents (both father and mother) the child sees, in some cases parents quarreling, Sometimes father beating the mother for no fault of her, Father might be an addict, but he wants that his child should get good education. A smoker never wants that his ward should smoke. A person who drinks does not want that his son should drink. Therefore, parents, for the proper up-bringing of their children should sacrifice their momentary pleasure. We want equality in educational opportunity, but there is no equality in economic and social status. This is the saddest part of our educational system that earning and learning do not go hand in hand. When we learn, do not earn and when we earn do not learn. We want that each and every boy should be honest. To fulfil this aim we ourselves should also have an ideal character. We should not harass the boy for taking private tuition. The difficulty today is that the consumerism had made us so much materialistic that we are always involved in earning by hook and crook not thinking what is right and what is wrong. In last four decades there had been rapid and pervasive social change. It is one of the major changes in शिक्षा एक यशस्वी दशक values. But the only values which did not change are so inclusive that they are vaguely defined. For instance, the value of honesty was always important, but in actual practice, they are greatly changed. Again, justice is an abstract word for a value, as is democracy. These values are as important now as they were a long time ago, but their operational meaning is different today. Home and society both set a very bad example of honesty. This aspect of honesty is the key word and is taught and preached in all religions and scriptures. Most of the people do not bother about them. This hypocrisy is largely prevalent in home and society. The boys and girls are living in this atmosphere. They find that a street fiddler becomes instant multimillionaire. He is honoured. After earning money nobody remembers his past. It is rightly said "Whatever you do, if you come out successful, nobody is going to criticize you." When a boy or girl comes across such atmosphere, he is at a loss to decide what should he or she do. Which is the right path? In many cases they are convinced that the path of dishonesty is the right path. Politics has emerged as a new force in national life Diametically opposed points of view clash and ensuing clamour every shade of opinion can be heard shouted at fever pitch. Welfare of the nation has taken a backseat. Alleged Criminals are protected, sheltered and supported by our legislators. A number of them have a criminal record also. In our legislatures sometimes we come across such type of behaviour, which is awful, awkward and unbecoming of a legislator. Free and fair election which is the basis of democracy is at a very low ebb. In this atmosphere teachers have to play a very important role. He should not accept the brief of any political party. He should give free and unbiased opinion. Alas! we are not honest to our profession and opinion. There is a noticeable decrease in pupils abilities to control impulsive behaviours and the trend is increasing. Both Psychological and social factors contribute to this situation. In affluent homes also the condition remains the same. parents do not care to devote sometime, with their children, Once it so happened that a family consisting of wife, husband and two children aged 9 and 7 was taking tea and morning break fast together. The gentleman was busy in reading News Paper. The child of nine years was telling some thing and the father without paying attention to him was saying "han" "hun" to show that he was listening to the boy. The young child understood that the father was not listening to him. He snatched the paper from the father and quipped," "Dad, please listen to us, sometimes we also talk a useful thing". Really we have to listen to our children also, if we want their proper development. I have met several affluent guardians who do not know the real name of their children. Many of them do not know in which class their ward reads. The child is getting every thing but not the proper care from his parents. विद्यालय खण्ड/ १३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of tot শ্রাবণে Most of people criticize dishonesty, quarrelsome behaviour, laziness but they do not gather courage to come forward and oppose it. Those who are tolerating such type of behaviour are also guilty. If we want that our boys should develop good habits and become an honest and loyal citizens, we have to change the society. Several times we come across such guardians who come to us and complain about their wards. In most of the cases, they want that their wards should not know that they came to the school and made a complaint against their wards. In some cases how to persuade a boy or girl not to repeat the ugly and irresponsible behaviour become so painful to them that they leave home and do not return again. Some of the guardians are extra-zealous to see that their wards should do very well in the examination. This explosion of expectation of the parents sometimes, leads to an unsuccessful candidate to commit suicide. Therefore, guardians are also to take precaution while punishing or rebuking their wards. The trend of individualistic society and small family make a vacuum in the home. There is nobody in the house to console the boy or girl, when a girl or boy becomes unsuccessful. The weak boys should be looked after sympathetically. This is the place where grandparents could have been very helpful. Newspapers, television are trying to sell their commodity. Therefore, to make the people interested in their news and materials give such things which can be categorized as nonsense. Several times on television we see such a sexy exposure that we are startled to think how the censor board cleared such an objectionable picture and statement to be screened. To bring the reform in the country, the government, society and each individual have to create a will to see that our schools which are the foundation stone of the strong edifice of the democracy, are not neglected. I am sorry to comment that a large number of teachers are callous and careless. Of course, the air which is blowing in the country every where, one has to inhale. Therefore, only the teachers art not to be blamed. There is some defect in the whole system of organization. The teachers, politicians, guardians, every one in the society are responsible for this defect, according to their shares in shouldering the responsibility for making the country really a great one. There would be disaster if we all do not play our role collectively and carefully. We should not think of a great country, without playing our role effectively, wisely and whole-heartedly. Let us unite and make all efforts to bring peace, progress and prosperity in the country. Rector - Shree Jain Vidyalaya, Howrah গগন ঢেকে মেঘ জমেছে। বাতাস বহে বেগে, শ্যামল কিশলয়ের সাথে কদম ওঠে জেগে। বৃষ্টি পড়ে টাপুর-টুপুর কেয়ার বনে বনে, বাদল হাওয়ার ভাবছে কী যে খােকন মনে মনে। ভিজছে ওরা ঐ যে দেখি অশথ গাছের তলে, কাগজ দিয়ে নৌকা গড়ে ভাসায় কারা জলে। ছােট্ট খােকার ঘুম আসে বা, শুনে মেঘের ডাক। শ্রাবণেরই ঘনঘটায় খুকু যে নির্বাক। प्रियन्का गुप्ता, १२-अ विद्यालय खण्ड/१४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 Mrs. Olgha Ghosh Peace - Where art thou? Even the make-belief screen Life full of show and glamour is not a happy and peaceful one. It is a life full of tensions, struggles and cut-throat competitions where only the fittest survive. Sometimes peace and contentment is sought in drinking, gambling and taking drugs. Such people find a temporary sedative, a marvellous relaxation, a happy oblivion by having recourse to alcohol, smoke, gamble or drugs. Indulgence in such activities takes a person to the brink of existence and in most cases to a point of no return. Yet there are many who seek peace and happiness in dishonest means. Today, dishonesty has crept into every system in the country. It has eroded the very fabric of social life. Honesty has become a rare virtue not found easily. Unfortunately, in our pursuit for power and position, lucre and lust we have lost sight of peace and happiness. Another factor greatly responsible for driving out peace is terrorism. Terrorism is a very familiar word today. Religious intolerance and fanaticism have led to violence and terror. It has tom the world apart and robbed every bit of peace from the face of the earth. Man has taken up arms against man. People are killing each other without any qualms or compunction. In the turmoil of today, when there is so much of unrest do you often wonder just where the world is heading? Does it mean life is meaningless and peace is nowhere to be found? It is elusive in life? No peace can be found in a clear conscience, true friendship, good health and character, we can discover peace in the beauty of Nature. Sunrise and sunset, singing of birds and the music of wind in the trees, laughter and gaiety of children bring great deal of happiness and sunshine in our lives If you make a conscientious effort to be thoughtful of those around you will experience an inner joy and peace that money cannot buy and the world cannot take away. And more than that, you will begin to live in the thoughts of others because you have been thoughtful of them. Classes need to bury their dissensions and find the mutual path of understanding. Hate and malice are detrimental to the growth of progress. If the world is to be saved and peace is to be restored it can only be on a basis of mutual understanding trust and friendship. Let us all endeavour to build a better world, a peaceful world of co-operation, understanding and love. "Arise! Awake and stop not till the goal is reached". Principal Shree Jain Vidyalaya, Howrah What does the world need - particularly right now? The world's greatest need today is Peace and Peace alone. The world is hungry for peace and its relentless search is futile because peace and happiness do not seem to exist longer in true sense of the term. This storm-tossed, war-weary, troubled world needs Peace-needs-it more than anything else. Every person is in search of peace and happiness. Peace is the motive behind everyone's quest. Search for peace impels our activities infect it is the driving force. Hermits and sages have eternally sought peace and solitude to be far away from all petty meanness of humanity and everything else that could distract them from their high thinking. Nothing is more conducive to deep and noble thought than to be alone, surrounded by forests, mountains, valleys, lakes and rivers. Where does Peace reign? With one it is power, with another riches, with a third social position, with many it is some insignificant thing like clothes, a piece of jewellery, a special kind of car. In the long run we realize that these cannot bring true happiness and peace. Are politicians, who are in power, really happy and at peace? No, they know they have made too many promises they cannot keep. Once they are in power they forget commitments they made to the people. The rich man you envy is looking at you envying your health and contentment. While you envy his gold jewellery and automobiles, he is envying your energy, strength, courage and health. These are treasures which the world's wealth cannot buy. शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/१५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O S. C. Pathak muscle. It is our duty to cultivate respect for human values like love, sympathy, mercy, forgiveness. School is the place where they must be taught the art of give-and-take. The biggest demand of the day is to create ecological awareness among students. They must be made to realise that communal harmony is not an empty dream. It is the most important thing which our country needs today. Let us remember poet Iqbal. न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ. हिन्दोस्तांवालो। तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में । Last word to students - your talent is not only yours. It is national property also. Develop it to the maximum possibility and use it for the betterment of the country alongwith your personal prosperity. Principal, Shree Jain Vidyalaya Kolkata Pilgrim's Progress Congratulations to Shree Jain Vidyalays, Howrah on the completion of a glorious decade in its academic journey. I offer my best wishes to the vidyalaya hoping that it will scale greater heights of success in the coming decades. One thing unique about the said school is to cater to the need of the middle class people of the Howrah region. Being no elite school it is completely dedicated to the service of the society. It is really a challenge to run an educational institution these days. Many elements try to take undue advantage. Political leaders and anti-socials elements exercise undue pressure on the teachers and managing body at the time of admission and promotion. It is hoping against hope to expect any protection from lawenforcing authorities which cannot protect themselves. Inspite of these odds, Shree Jain Vidyalaya, has been rendering valuable services to Howrah for the last ten years and I have been a witness to this phenomenon. A few words of advice to my fellow teachers. They must work hard to maintain and improve the reputation of the institution. They should be guided by the sole principle of enlightened self-interest. In the betterment of the institution lies the betterment of teachers. Most of the students are lazy, careless and inattentive, we can quote the words of Christ which he used about his crucifers. "Forgive them, Rather, they do not know what they are doing". Inspite of all the blames students are innocent. We should try to understand them. Many of them hail from families which have no academic atmosphere at home. What they see around them are the powers of money and विद्यालय खण्ड/१६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत रामअधीन सिंह का दुरुपयोग करती हैं जिससे उस परिवार का बजट सामान्य से असामान्य हो जाता है और परिवार को कर्जकाछूत अवश्य छू लेता है। "तेते पाँव पसारिये जेती लाम्बी सौर" यह कहावत इन ग्रामीणों को कभी नहीं सुहाती है। मुन्डन- प्रायः प्रत्येक बच्चे की पहले बार बाल कटवाने की प्रक्रिया है जिस पर सामान्य ग्रामीण कई हजार रुपये खर्च कर देता है और बच्चे के अच्छे भाग्य की कल्पना के लिए उधार लेकर भी पैसा खर्च करने में ग्रामीण जरा भी संकोच नहीं करता है। खेत मजदूरों की आर्थिक स्थिति वास्तव में दयनीय है। उन्हें पूरे वर्ष खेती में काम नहीं मिलता है। खाली समय किस प्रकार वे कुटीर उद्योगों में लगाएँ कि उन्हें उनके श्रम का उचित मूल्य मिल सके, इसका ज्ञान न होने के कारण उनका जीवन स्तर और गिर जाता है। __ मद्यपान उनकी बहुत बड़ी कमजोरी है जिससे सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के अनेक प्रयासों के बावजूद उनकी स्थिति नहीं सुधरती है और वे कर्ज से नहीं उबर पाते हैं। गाँव के किसानों की गरीबी का दूसरा कारण दहेज, अशिक्षा और उनकी नई पीढ़ी का श्रम से परहेज करना है। अन्य सम्पन्न लोगों की बराबरी करने भारतवर्ष में बढ़ते पाँच सितारा होटलों की संख्या, बढ़ते वायुयान में दहेज देने या लेने में ग्रामीण गर्व का अनुभव करता है और यात्रियों की संख्या, प्रत्येक कस्बे और शहर में बढ़ती शराब की दुकानों कहता है कि शादी-विवाह रोज-रोज नहीं होते हैं इसलिए दिल खोल की संख्या भारत की गरीबी का परिचय देती हैं। किसी भी शहर या कस्बे __ कर खर्च करो ताकि लोगों को लगे कि सामाजिक आदमी है। की सड़कों से गुजरने वाले वाहनों की संख्या भी भारत की गरीबी को जिसको कई गाँवों के लोग जानते हैं। शिक्षा पर खर्च कभी भी कोई प्रदर्शित करते हैं। शहरों की बहुमंजिली इमारतें और महल तथा फिजूल खर्च नहीं मान सकता है लेकिन गाँवों और छोटे कस्बों में सरकारी और गैर-सरकारी दफ्तरों के पास खुली कॉफी, चाय की दुकानें खुलने वाले अंग्रेजी स्कूल में छात्रों को टाई बाँध कर जाना अनिवार्य तथा फास्टफुड स्टालों से भी भारत की गरीबी परिलक्षित होती है। शादी है और पाँच साल के बच्चे के पीठ पर पाँच किलो का बस्ता और विवाह के अवसर पर आयोजित भव्य समारोहों से भी भारत की निर्धनता २००रु से २५०रु प्रति माह फीस मेरी समझ से फिजूल खर्च है। कोआँका जा सकता है। देश की सत्तर प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है इन स्कूलों में जाने वाले गरीब या सामान्य परिवार के बच्चों की जिसमें किसान, किसान मजदूर, धोबी, लोहार तथा अन्य पेशे से जुड़े शिक्षा अधूरी रह जाती है। ऐसे बालक ठीक ढंग से न तो मातृभाषा लोग रहते हैं जो शहरों में निवास के लिए उत्सुक रहते हैं, उनकी गरीबी सीख पाते हैं और न अंग्रेजी भाषा का बोझ उठा पाते हैं। परिणाम के बारे में सोचा जाय तो स्पष्ट पता चलता है कि उनकी गरीबी का कारण यह होता है कि किसी प्रकार कक्षा ६-७ तक पढ़ने के बाद स्कूल प्रचलित कुरीतियाँ और प्राप्त साधनों का समुचित उपयोग न करना है। छोड़ देते हैं। यदि ये बच्चे मुफ्त शिक्षा देने वाले सरकारी या गैरशादी-विवाह के अवसर पर खेत मजूदर अधिक से अधिक बारात सरकारी संस्थानों में गये होते तथा तनिक भी स्नेह के साथ इन्हें बुलाता है, नाच-तमाशा तथा दिखावे पर अपनी सामर्थ्य से कई गुना उत्साहित किया गया होता तो अवश्य शिक्षित हो जाते। अधिक धन खर्च करके अपने लिए गरीबी को सहज ओढ़ लेता है और शिक्षा किस माध्यम से दी जाय, यह विवाद का विषय हमारे भाग्य को कोसता है। वह बराबर भाग्य के सहारे अच्छे दिन आने की देश में है। प्रायः प्रत्येक सरकार अपनी आय का काफी हिस्सा उम्मीद में गरीबी रेखा के नीचे बड़े चैन से जिन्दगी जीने के लिए विवश हो शिक्षा पर खर्च करती है लेकिन उसका प्रतिफल बहुत ही नगण्य जाता है। शादी विवाह के अलावा अनेक पूजा-पाठ में भी सामान्य है। ऊँचे वेतनमान पर नियुक्त अधिकारी या अध्यापकगण अपने आर्थिक स्थिति का ग्रामीण धन खर्च करने से नहीं चूकता है। गृहणियाँ अधिकारों की रक्षा के लिए संगठन बना लेते हैं और राजनैतिक किसी मन्दिर या देवस्थान पर पूजा करने के लिए ऑटोरिक्शा,जीप या दलों के माध्यम से प्रान्तीय सरकारों को डाँवाडोल कर देने की भाड़े की कार द्वारा पूरे बाल बच्चों के साथ जाती हैं और मनौती पर धन क्षमता वाला संगठन बना कर उन्हें (इन सरकारों को) उनके विरुद्ध शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/१७ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ न करने के लिए विवश कर देते हैं। शिक्षा की आवश्यकता साथ ऐसे संगठनों को संचालित करना चाहिए जो लोगों को संयमित केवल बच्चों की ही नहीं है बल्कि इसकी आवश्यकता खेत मजदूर, जीवन जीने की कला के बारे में मार्गदर्शन कराएँ। यह मार्गदर्शन किसान, कारीगर, किरानी तथा अन्य पेशे से जुड़े लोगों को भी है। किसी धर्म या मजहब से जुड़ा नहीं होना चाहिए बल्कि जीवन की उनको पुस्तकीय ज्ञान से अधिक परामर्श तथा मन्त्रणा की कला पर आधारित जीवन मूल्यों को पहचानने पर बल देने वाला आवश्यकता है जिससे स्वस्थ परम्परा प्रतिपादित हो सके। सही होना चाहिए। शिक्षा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो स्कूलों, दिशा में लोग सोचें और अपने साथ-साथ देश के हितों के बारे में महाविद्यालयों के प्रांगण तक ही सीमित नहीं है। अनुभवों से प्राप्त विचार कर सकें। धन का अपव्यय यदि रोका जा सके तो सभी शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है जिसके द्वारा विशेष स्थिति में उत्पन्न बेकार लोगों को रोजगार दिलाया जा सकता है। प्रत्येक देशवासी समस्या किस प्रकार हल की जाय, इसका ज्ञान प्राप्त होता है। गर्व के साथ सुन्दर ढंग से जीवनयापन कर सकता है। अनुभवहीन किताबी ज्ञान रखते हुए भी प्राय: समस्याओं का निदान . सरकार के अन्न भण्डारों में अन्न सड़ रहा है। उन्हें कैसे बाँटा नहीं ढूँढ़ पाते। सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए जाय, यह विकराल समस्या है। मुफ्त में बाँटने पर मुफ्तखोरों की अनुभवी परामर्शदाताओं की आवश्यकता है जो लोगों को उत्साहित संख्या में इजाफा होगा और अकर्मण्यता बढ़ेगी। यदि कुछ मूल्य करे और सही मार्गदर्शन दे ताकि पिछड़े उपेक्षित निर्धन दृढ़ रखकर बेचा जाय तो एक वर्ग ऐसा है जो खरीदने की बिलकुल इच्छाशक्ति का सहारा लेते हुए अपने जीवनशैली को बदल सकें। क्षमता नहीं रखता है। सर्वहारा वर्ग की पहचान करने के लिए ये कार्यशालाएँ कैसी हों इसको जन संचेतना का स्वरूप कैसे दिया प्रयुक्त माध्यम इमानदारीपूर्वक काम नहीं करता है जिससे कमजोर, जाय, इस पर विचार की आवश्यकता है। इससे लोग अवश्य सम्बलहीन, दीन की सही पहचान नहीं हो पाती है और प्राप्त लाभ लाभान्वित होंगे और भारत गरीबों का देश है इस कलंक को धो कुछ पिछलग्गुओं को मिल जाता है। राजनैतिक दलों का योगदान सकेंगे। भारत के पास धन, संसाधन एवं पुरुषार्थ किसी चीज की देश में अव्यवस्था फैलाने में कम नहीं है। स्वयंसेवी संस्थाओं को कमी नहीं है। कमी यदि है तो पुरुषार्थ को जगाने की। प्रत्येक अस्पताल, विद्यालय, बूढ़ों और लाचारों के लिए सेवा संस्थानों की व्यक्ति को अपने सत्व को पहचानने की आवश्यकता है जिससे स्थापना करना चाहिए। इन संगठनों को अपने सुन्दर कार्यों से स्नेह, वह अपने अन्दर की क्षमता का सदुपयोग कर अपने जीवन को प्रेम और सद्भाव का आदर्श स्थापित करना चाहिए जिससे मानव कल्याणकारी एवं सदुपयोगी बना सके। उचित मार्गदर्शन के कारण मात्र अपने को सुरक्षित अनुभव कर सके। जाति, भाषा, धर्म, प्रान्त चीन ने जो पूंजीवादी व्यवस्था का घोर विरोधी था आज पूँजीवाद को के नाम पर फैलाए जाने वाला उन्माद सदैव निन्दनीय होता है। इससे अपनाया और वहाँ के लोग रुढ़ मार्क्सवादी सामाजिक जीवनशैली घृणा, हिंसा और प्रतिशोध की भावना फैलती है। भारत के लोगों की से हटकर जीना आरम्भ कर दिए जिससे उन्हें अब अपने जीवन पर गरीबी में और वृद्धि न हो और आपसी एकता और भाईचारा बना सन्तोष एवं गर्व है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रम और ऊर्जा का रहे इसके लिए स्वार्थी लोगों को पहचानें। विभिन्न मुखौटे लगाकर सदुपयोग, कुरीतियों का परित्याग, धर्माडम्बर से दूर और राजनीतिज्ञों शोषण करने वालों से बचने की शिक्षा अति आवश्यक है। के कुचक्रों को समझने वाला सामाजिक संगठन गरीबों की गरीबी कर्तव्यपालन जीवन को संयमित और सुन्दर ढंग से जीने की मिटा सकता है। इससे दुर्लभ मनुष्य जीवन धन्य हो सकता है और प्रेरणा देता है। आपस में लड़ना और दूसरे के अधिकारों को छीनना हम भारतीय कह सकते हैं कि हम गरीब नहीं हैं। विश्व के सामने नहीं सिखाता-“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना"। कहने अपने गौरवशाली अतीत के साथ संभ्रान्त वर्तमान को प्रतिस्थापित का अर्थ यह है कि आज के साधनों का प्रयोग जीवन स्तर को कर सकते हैं, ऐसे लोग जो समाज के विभिन्न वर्गों में चेतना फैला सुधारने के लिए किया जाना चाहिए। विवेकपूर्ण जीया जीवन गरीबी कर उनको सन्मार्ग पर चलते हुए सुन्दर जीवन जीने की शैली को को दूर रखता है। बहुत अधिक मात्रा में भोजन करने वाला व्यक्ति समझा सकें। तभी हमारे देश और समाज का कल्याण हो सकता अवश्य रोगी हो जाता है और उसे डॉक्टरों, अस्पतालों का चक्कर है। ऐसे ही लोगों की उम्मीदों पर प्रजातान्त्रिक देश की कल्पना की लगाते-लगाते जीवन का बहुमूल्य समय कष्ट के साथ जीना पड़ता गई थी। विभिन्न स्तर से आये अनुभवी 'सादा जीवन उच्च विचार' है। यदि वह अपने को संयमित रखता, यदि भोजन का अधिक अंश रखने वाले समाज सुधारक समस्याओं को सुलझाने में सहायक होंगे ग्रहण न करके जरुरतमंद को देता तो अवश्य स्वस्थ एवं सुन्दर और हमारे देश का चतुर्दिक विकास होगा। जीवन जीता। अति संभ्रान्त और धनी वर्ग से समाज को कुछ उपप्रधानाचार्यअपेक्षाएँ हैं जो पूरी नहीं हो पा रही हैं। उन्हें धन के दान के साथ श्री जैन विद्यालय फॉर ब्वायज, हावड़ा विद्यालय खण्ड/१८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० अजय डागा छोटी-छोटी पर आवश्यक बातें * सबको सूर्योदय से पहले उठना चाहिये। * उठते ही भगवान का स्मरण करना तथा त्वमेव माताच पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव, इस प्रकार स्तुति करनी चाहिये। * अपने से बड़ों को प्रणाम करना चाहिये। * शौच-स्नान करके दंड-बैठक, दौड़-कुश्ती आदि शारीरिक व्यायाम करना चाहिये। विद्यालय में ठीक समय पर पहुँचना और भगवत् स्मरण पूर्वक मन लगाकर पढ़ना चाहिये। किसी प्रकार उधम न करते हुए मौन रहकर भगवत के नाम का जप और स्वरूप की स्तुति करते हुए प्रतिदिन जाना-आना चाहिये। * विद्यालय की स्तुति-प्रार्थना आदि में अवश्य शामिल होना और उनको मन लगाकर प्रेमभावपूर्वक करना चाहिये क्योंकि मन न लगाने से समय तो खर्च हो ही जाता है और लाभ होता नहीं। * पिछले पाठ को याद रखना और आगे पढ़ाये जाने वाले पाठ को उसी दिन याद कर लेने से पढ़ाई के लिए सदा उत्साह बना रहेगा। * पढ़ाई कभी कठिन नहीं मानना चाहिये। * अपनी कक्षा में सबसे अच्छा बनने की कोशिश करनी चाहिये। * किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में अपने से अग्रसर होते देख कर खुलकर प्रसन्न होना चाहिये और यह भाव रखना चाहिये कि यह उन्नति कर रहा है इससे मुझे भी पढ़कर उन्नति करने का प्रोत्साहन एवं अवसर प्राप्त होगा। * अपने किसी सहपाठी से डाह नहीं करनी चाहिए और न यही भाव रखना चाहिये कि वह पढ़ाई में कमजोर रह जाय जिससे उसकी अपेक्षा मुझे लोग अच्छा कहें। * किसी भी विद्या अथवा कला को देखकर उसे दिलचस्पी के सात समझने की चेष्टा करनी चाहिये क्योकि जानने और सीखने की उत्कण्ठा विद्यार्थियों का गुण है। * अपने को उच्च विद्वान मानकर कभी अभिमान न करना चाहिये क्योंकि इससे आगे बढ़ने में बड़ी रुकावट होती है। * नित्यप्रति बड़ों की तथा दीन-दुःखी प्राणियों की कुछ न कुछ सेवा अवश्य करनी चाहिये। * किसी भी अंगहीन दुःखी, बेसमझ गलती करने वाले को देखकर हँसना नहीं चाहिये। * मिठाई, फल आदि दूसरों को बाँटकर खाना चाहिये। * न्याय से प्राप्त हुई चीज को ही काम में लेना चाहिये। * दूसरे की चीज उसके देने पर भी न लेने की चेष्टा रखनी चाहया * हर एक आदमी के द्वारा स्पर्श की हुई मिठाई आदि एवं अन्न की बनी खाद्य वस्तुएँ नहीं खानी चाहिये। भूख से कुछ कम खाना चाहिये एवं सदा प्रसत्रतापूर्वक भोजन करना चाहिये। * भोजन के समय क्रोध, शोक, दीनता, द्वेष आदि भाव मन में लाना उचित नहीं क्योंकि इनके रहने से भोजन ठीक से नहीं पचता। * भोजन करने के पहले दोनों हाथ, दोनों पैर और मुँह. इन पाँचों को अवश्य धो लेना चाहिये। * भोजन के बाद कुल्ले करके मुँह साफ करना उचित है, क्योंकि दाँतों में अन्न रहने से पायरिया आदि रोग हो जाते हैं। * चलते-फिरते और दौड़ते समय एवं अशुद्ध अवस्था में तथा अशुद्ध जगह में खाना-पीना नहीं चाहिए क्योंकि खाते-पीते समय सम्पूर्ण रोम कूपों से शरीर आहार ग्रहण करता है। * स्नान और ईश्वरोपासना किये बिना भोजन नहीं करना चाहिये। * लहसून, प्याज, अण्डा, माँस, शराब, ताड़ी आदि का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/१९ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लैमनेड, सोडा और बर्फ का सेवन नहीं करना चाहिये क्योंकि * सभा में जाते समय अपने पैरों का किसी दूसरे से स्पर्श न हो इनसे संसर्गजन्य रोग आदि आने की बहुत सम्भावना है। जाये, इसका ध्यान रखें। अगर भूल से किसी के पैर लग जाये उत्तेजक पदार्थों का सेवन कदापि न करें। तो उससे हाथ जोड़कर क्षमा माँगें। मिठाई, नमकीन, बिस्कुट, दूध, दही, मलाई, चाट आदि बाजार * सभा में बैठे हुए मनुष्यों के बीच में जूते पहनकर न चलें। सभा की चीजों को नहीं खाना चाहिये क्योंकि दुकानदार लोभवश में भाषण या प्रश्नोत्तर करना हो तो सभ्यतापूर्वक करें। सभा में स्वास्थ्य और शुद्धि की ओर ध्यान नहीं देते जिससे बीमारियाँ अथवा पढ़ने के समय बातचीत न करें। होने की सम्भावना रहती है। * सबको अपने प्रेम भरे व्यवहार से संतुष्ट करने की कला सीखें। * बीड़ी, सिगरेट, भाँग, चाय आदि नशीली चीजों का सेवन कभी * कभी प्रमाद में उद्दण्डता न करें। न करें। * पैर, सिर और शरीर को बार-बार हिलाते रहना आदि आदतें * अन्न और जल के सिवा किसी और चीज की आदत नहीं बुरी हैं, इससे बचें। डालनी चाहिये। ___ * कभी किसी का अपमान और तिरस्कार न करें। कभी किसी * दाँतों से नख नहीं काटना चाहिये। दातुन कुल्ले आदि करने के का जी न दुखायें। समय को छोड़कर अन्य समय मुँह में अँगुली नहीं देनी चाहिये। * शौचाचार. सदाचार और सादगी पर विशेष ध्यान रखें। प्रात:काल उठते ही जल का सेवन अवश्य करें। यह अमृत * अपनी वेश-भूषा अपने देश और समाज के अनुकूल तथा सादा के समान लाभकारी है। रखें। भड़कीले फैशनदार और शौकीनी के कपड़े न पहनें। * पुस्तक के पन्नों को अँगुली पर थूक लगा कर नहीं उलटना ___ * इत्र, फुलेल, पाउडर और चर्बी से बना साबुन, वैसलिन आदि चाहिये। न लगायें। * किसी की भी जूठन खाना और किसी को खिलाना निषिद्ध है। * जीवन खर्चीला न बनायें अर्थात अपने रहन-सहन, खान-पान, * रेल आदि के पाखाने के नल का अपवित्र जल मुँह धोने, कुल्ले पोशाक-पहनावे आदि में कम से कम खर्च करें। करने या पीने आदि के काम में कदापि न लेना चाहिये। * शरीर के कपड़ों को साफ तथा शुद्ध रखें। * कभी झूठ न कहें, सदा सत्य भाषण करें। कभी किसी की कोई * शारीरिक और बौद्धिक बल बढानेवाले सात्विक खेल खेलें। भी चीज न चुरावें। परीक्षा में नकल करना भी चोरी ही है तथा * जूआ, ताश, चौपड़, शतरंज आदि प्रमादपूर्ण खेल न खेलें। नकल में मदद देना भी चोरी करना है। इससे सदा बचना टोपी और घड़ी का, फीता, मनीबैग, हैंडबैग, बिस्तरबंद, चाहिये। कमरबंद और जूता आदि चीजें यदि चमड़े की बनी हों तो उन्हें * माता-पिता-गुरु आदि बड़ों की आज्ञा का उत्साह पूर्वक पालन काम में न लेवें। करें। बड़ों की आज्ञा पालन से उनका आशीर्वाद मिलता है * बुरी पुस्तकें और गंदा साहित्य न पढ़ें। जिससे लौकिक और पारमार्थिक उन्नति होती है। * अच्छी पुस्तकों को पढ़ें और धार्मिक सम्मेलनों में जायें। गीता, * किसी से लड़ाई न करें, किसी को गाली न बकें। अश्लील गंदे रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थों का अभ्यास अवश्य करें। शब्द उच्चारण न करें। किसी से भी मार-पीट न करें। कभी * पाठ्य ग्रन्थ अथवा धार्मिक पुस्तकों को आदरपूर्वक ऊँचे आसन रूठे नहीं और जिद्द न करें। पर रखें। भूल से भी पैर लगने पर उन्हें नमस्कार करें। * कभी क्रोध न करें। दूसरों की बुराई और चुगली न करें। * अपना ध्येय सदा उच्च रखें। अध्यापकों एवं अन्य गुरुजनों की कभी हँसी दिल्लगी न उड़ायें प्रत्युत उनका आदर सत्कार करें और जब अध्यापक पढ़ाने के * अपने कर्तव्य पालन में सदा उत्साह तथा तत्परता रखें। किसी लिए आयें और जायें तब उनका खड़े होकर नमस्कार करके भी काम को कभी असम्भव न मानें, क्योंकि उत्साही मनुष्य के सम्मान करें। लिये कठिन काम भी सुगम हो जाते हैं। * सभा में सभ्यता से आज्ञा लेकर नम्रतापूर्वक चलें, किसी को नीना * अपना प्रत्येक कार्य स्वयं करें। यथासम्भव दूसरे से अपनी सेवा * लांघकर न जायें। न करायें। विद्यालय खण्ड/२० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सदा अपने से बड़े और उत्तम आचरणवाले पुरुषों के साथ रहने की चेष्टा करें तथा उनके सद्गुणों का अनुकरण करें। * प्रत्येक कार्य करते समय यह याद रखें कि भगवान हमारे सम्पूर्ण कार्यों को देख रहे हैं और वे हमारे हित के लिए हमारे अच्छे और बुरे कार्यों का यथायोग्य फल देते हैं। * धर्म पालन करने में होनेवाले कष्ट को तप समझें। अपने आप आकर प्राप्त हुए संकट को प्रकृति का कृपापूर्वक दिया हुआ पुरस्कार समझें। * मन के विपरीत होने पर भी कभी घबरायें नहीं, अपितु परम संतुष्ट और प्रसन्न रहें। * अपने में बड़प्पन का अभिमान न करें। * दूसरों को छोटा मानकर उनका तिरस्कार न करें। किसी से घृणा न करें। * अपना बुरा करने वाले के प्रति भी उसे दुःख पहुँचाने का भाव न रखें। * कभी किसी के साथ कपट, छल, धोखाबाजी और विश्वासघात न करें। * इन्द्रियों का संयम करें। मन में किसी भी बुरे विचार को आने न दें। * अपने से छोटे बालक में कोई दुर्व्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसको समझायें अथवा उस बालक के हित के लिये अध्यापक अथवा अभिभावकों को सूचित करें। * अपने से बड़े में कोई दुर्व्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसके हितैषी बड़े पुरुषों को नम्रतापूर्वक सूचित करें। * अपनी दिनचर्या बनाकर तत्परता से उसका पालन करें। * सदा दृढ़प्रतिज्ञ बनें। प्रत्येक वस्तु को नियत स्थान पर रखें तथा उसकी संभाल करें। * अपने में से दुर्गुण-दुराचार हट जायें और सद्गुण सदाचार आयें, इसके लिए भगवान से सच्चे हृदय से प्रार्थना करें और भगवान के बल पर सदा निर्भय रहें। स्वाति जोशी, अष्टम् ब शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/२१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o Mousumi Ghosal The Value of Education What has man made of man? Does he dwell in that same world that William Shakespeare had visualized in his immortal plays or John Milton had idealized in his 'Paradise Regained' or William Wordsworth had spiritualised in his romantic poems. Perhaps not. Today the world has became highly mechanical. Men are not only assisted but rather dominated by machines devoid of feelings. They are gauged not by their academic feats but by their social status and material possessions. Money is the order of the day. But then the world is not only governed by the so-called muscle power, it is master-minded by the intellectuals, the educated masses, the pillars of the society. For instance a computer adorns the drawing room of a rich man but the technology that goes into its making and implementation is undoubtedly the contribution of a scientist. If we probe a bit deeper, we find that whether it is a scientist ar a mathematician or any other scholar, they all have their origin in their education, their strong ties with their educational institutions. Welt, what is education - a topic most popularly discussed but the least effectively implemented and understood. Is it merely a rich man's possession or a poor man's delight? Is it an inborn talent or a hereditary characteristic? certainly not. Rather it is an acquired knowledge or an enhancement of knowledge catering to the needs of both the rich and the poor. Education strives to overcome the arbitrary social and racial barriers, probing and exploring tho hearts of all - rich and poor, black and white alike. Such a society of educated people will finally pave the way for that word which Rabindranath Tagore spoke of in his 'Where the Mind is Without Fear' 'Where, the world has not been broken up into fragments by narrow, domestic walls'. This noble mission of imparting education rests upon the shoulders of the teachers. A child is like a mould of clay, who acquires the shape and form of his or her creator. A child exposed to positive environment, healthy education develops into a balanced dynamic and successful individual. Such a person is a boon to the society, enlightening the lives of the so-called less privileged, ignorant and innocent masses. The life of an educated man is like a fast-flowing river, which at its origin is narrow and immature. Similarly a child rattling off her nursery rhymes is ignorant and chaste. With the lapse of time, the river enters into the plains and valleys gathering silt and finally emerging at its mouth often forming a delta. So also a child under the apt guidance of his or her teacher enters into the summer or youth of life. Accumulating and assimilating new perceptions through education finally proves beneficial both to himself or herself and the society Thus a teacher by the dint of her hard work weaves the chaplets of fame for the future. A teacher through her flights of imagination transcends the physical barriers of a classroom, exposes the students to enjoy the pleasant experiences of either the African Safari or the Niagara Falls or enlightens their souls with the noble, chivalrous deeds of our past rulers. Thus a child is made abreast with both the past and the present. It was with this noble mission of enriching the society that Shree Jain Vidyalaya was started in the year 1992 Situated close to the Ganges surrounded by factories and slums on all the sides, the elegant magnificent edifice stands like the mighty Himalayas, forcing the surroundings to pale into insignificance It has successfully completed its tenure of ten years and had achieved various milestones of success. A famous Greek Critic, Longinus had said that 'Style is the man', Similarly 'Success is the name' is applicable to the school. The students over the years have brought home laurels, be it in the sphere of academics or athletics or in the domain of co-curricular activities like debate, quiz or music. We strongly believe that Victory is the motto and the sky is the limit. Success is a way of life. It is a journey and not a destination. Success does not necessarily mean the absence of failures it is rather the attainment of ultimate objectives. It is a teacher who inculcates these positive trait of success, determination and positive attitude in his or her students. A person with positivity has certain personality traits like they are compromising, caring, confident and विद्यालय खण्ड/२२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ have high faith in themselves. It is a teacher's duty to play the role model of a child guide and philosopher, to extract and strengthen the best in a child. For a child is a gift of God and a blessing to a society. It must be handled and moulded with care and dexterity to add to the pride of our nation. It is only then that we, the teachers would feel that our lives have not gone in vain but have served the society in our own meager limited way. Thus a teacher is a guiding star who leads the way through the undulations of life, traveling miles and miles and finally aiming for that idea utopian world where not violence but peace and harmony would prevail. Asst. Teacher Shree Jain Vidyalaya, Howrah शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/२३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपाल कृष्ण परिस्थितियाँ पैदा हुईं, भारतीय ऋषि-मुनियों तथा महान् मनीषियों ने विशेष रूप से सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया और मानवता की रक्षा की। हमारा देश संतुलित सृष्टि और सन्मार्ग का प्रमुख केन्द्र रहा है एवं वैज्ञानिकों ने भी मानव-जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने में सराहनीय कदम बढ़ाया है। मानव विवेकशील प्राणी है लेकिन कुछ विवेकशून्य मानवों ने अपने स्वार्थलिप्सा के लिए प्राकृतिक संसाधनों को विकृत किया। फलतः इन दिनों कभी-कभी प्राकृतिक रूप से भी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, अर्थात् अतिवृष्टि-अनावृष्टि, बाढ़- . सूखा एवं भूकम्प आदि का सामना कर मानव जीवन विषम स्थिति को झेलता हुआ अभावग्रस्त हो जाता है। आधुनिक काल 'वैज्ञानिक युग' के नाम से जाना जा रहा है। इसमें कुछ अनेक अत्याधुनिक आविष्कार करके मानव जीवनशैली को एक नया मोड़ दिया। यह एक विशिष्ट योगदान माना जाता है। दुनिया का प्रत्येक भूभाग बहुत निकट प्रतीत हो रहा है क्योंकि क्षणमात्र में हम अपने परिजनों से वार्तालाप कर सकते हैं तथा कुछ ही घंटों में एक-दूसरे का साक्षात्कार भी कर लेने में सक्षम हैं। दूसरे शब्दों में यह कहें कि मानवता और आतंकवाद "मानव का जीवन स्तर काफी उन्नतशील हो गया है तो कोई इस संसार का रचना प्रकृति का अनुपम कृति है। प्रकृति न अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस धरातल को बड़े ही संतुलित ढंग से सजाया और सँवारा है। इन सभी कृत्रिम संसाधनों के साथ-साथ हमारे वैज्ञानिकों ने कहीं अथाह सागर तो कहीं उच्चतम् हिमाच्छादित पर्वत, कहीं सुन्दर कुछ विध्वंसक सामग्री का भी आविष्कार किया। आज इन्हीं हरियाली युक्त मैदान तो कहीं आकर्षक मनमोहक जल प्रपात। "विस्फोटकों' का दुरुपयोग 'आधुनिक असुर-आतंकवादी' ने करके विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे फूल-फल एवं उन पर अठखेलियाँ मानव जीवन को नारकीय बना डाला है। इन दिनों आतंकवादी करती तितलियाँ आदि। कहीं विशाल रेगिस्तान तो कहीं सपाट गतिविधियाँ इस प्रकार बढ़ गई हैं कि मानव जीवन अस्त-व्यस्त हो पठार, षट् ऋतुओं से युक्त विभिन्न प्रकार के मौसम और उनसे रहा है। फलत: सम्पूर्ण प्राकृतिक सृष्टि ही खतरे में नजर आने लगी संबंधित फसल-फल एवं फूल आदि। इस प्रकार नाना प्रकार के है। हम यह कहने के लिए बाध्य हो रहे हैं कि-"मानवता का लोप जीव-जंतुओं की संरचनाओं से भरी पड़ी यह धरती। हो रहा है तथा दानवी प्रवृत्ति का विकास हो रहा है और शायद । इन्हीं सम्पूर्ण रचनाओं में से एक विशिष्ट एवं अमूल्य रचना दानवी प्रवृति का ही दूसरा नाम 'आतंकवाद' है। जो वर्तमान को है-मानव। इन्हीं मानवों में कुछ विशिष्ट मानव भी पैदा हुए जिन्होंने अपने चंगुल में समेटे हुए है।" इन प्राकृतिक संसाधनों को एक नया आयाम देकर समस्त मानवों कभी-कभी ऐसा एहसास होता है कि क्या मानवीय के लिए नैसर्गिक सुख प्रदान किया। आवश्यकताओं का विकल्प 'आतंकवाद' ही है? शायद नहीं! आधुनिक समय में इस सुनहले, सुखमय और शांतिमय 'यदि यही विकल्प होता तो आतंकवाद ही आदर्श होता।' लेकिन जीवन को खोखला बनाने के लिए एक आसुरी शक्ति पैदा हो गई कुछ कुत्सित भावनाओं से ग्रसित लोगों ने ऐसा आदर्श बनाया है है जो 'आतंकवाद' के नाम से जानी जाती है। और प्रकृति की इस सुन्दरतम् रचनाओं को खोखला बनाने पर तुला 'मानवता' ही परोपकार का दूसरा नाम है। संसार के सभी । हुआ है। जीवों के प्रति सम्मान का भाव रखनेवाला एकमात्र मानव ही तो है। शायद इन आतंकवादी असुरों का मानना है कि सर्वत्र भय इस मानव जाति के इतिहास में हमारे देश के लोगों का योगदान योगदान औरत और दहशत का वातावरण उपस्थित कर वे लोग अपने जीवन के 'विशिष्ट मानव' के रूप में रहा है। जब-जब इस संसार में विषम- जल लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन प्राचीन इतिहास साक्षी है कि विद्यालय खण्ड/२४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुर कभी भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाये हैं। अतः इस संसार में हमेशा 'सत्यमेव जयते' की परम्परा रही है। आधुनिक काल में भी अभी-अभी इस 'धरा' पर उथलपुथल का माहौल उपस्थित हो गया है । सम्पूर्ण सभ्य समाज अस्तित्व को बचाने और कायम रखने में कठिनाई अनुभव कर रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सभ्यता समाप्ति की ओर है अथवा शब्दकोष का एक 'शब्द- मात्र' बनकर रह गया है। शायद नहीं। यदि ऐसी बात होती तो इतने व्यापक रूप से आतंकवाद का विरोध नहीं होता। हालांकि विरोध का स्वर धीमा और स्वार्थपूर्ण रहा है अर्थात् विरोध अन्तर्मन से नहीं हो रहा है वास्तव में यदि विश्व समुदाय के सभी सभ्य लोगों के विरोध का स्वर एक हो जाय तो एक बार फिर संसार 'आतंकमुक्त' हो जाय अथवा आतंकमुक्त संसार की कल्पना साकार हो जाय। लोगों में एक नया विश्वास जागृत हो सकता है। भय और दहशत का माहौल सदा-सदा के लिए समाप्त हो सकता है। इस धरती पर एक बार फिर स्वर्गिक वातावरण उपस्थित हो सकता है। देवगण एक बार फिर पृथ्वी पर जन्म लेने को लालायित हो सकते हैं। इस वसुन्धरा पर पुनः सूर्योदय और सूर्यास्त के समय पक्षियों का कलरव सुनाई दे सकता है। एक बार फिर ब्रजवासियों को सायंकालीन गोधूलि बेला का दृश्यावलोकन हो सकता है। हिमालय एक बार फिर देवालय और शिवालय का स्थल बन सकता है। हिमाच्छादित पर्वत पर प्रातः कालीन स्वर्णिम दृश्य के अवलोकनार्थ पुनः जनमानव का सैलाब उमड़ सकता है। कश्मीर की हरीतिमा और केशर की खुशबू एक बार फिर इन वादियों की ओर सैलानियों को आकर्षित करने में सक्षम हो सकती है। अनुपम वादियों के बीच डलझील का तरण ताल पुनः आकर्षण का केन्द्र बन सकता है। कितना अच्छा होता कि संसार के सभी मानव अपने निजी स्वार्थ, जाति, धर्म के सीमांकन से ऊपर उठकर मानवता के विकास एवं प्रकृति की इस अनुपम सृष्टि का सदुपयोग करने में तल्लीन होते । कभी-कभी ऐसा आभास होता है कि प्रकृति द्वारा हमें मानव जीवन शायद इसी सत्कार्य के लिए ही मिला है। लेकिन दुर्भावनाओं से प्रसित व्यक्ति है इस अनमोल जीवन का सम्भवतः दुरुपयोग कर रहे हैं, अर्थात् भयाक्रान्त होकर पाशविक जीवन यापन कर रहे हैं। क्या इस जीवन का उद्देश्य यही है कि सभी एक-दूसरे से सहृदयता पूर्वक बात भी नहीं कर सकें, एक-दूसरे से मिलते हुए भी अपनी पहचान स्पष्ट नहीं करें अर्थात् अपनी ही मानव जाति से भयाक्रान्त हों व्यक्ति अपने भावनात्मक उद्वेग को विचलित करते रहें या शिक्षा एक यशस्वी दशक अपनी मनःस्थिति को झूठी सान्त्वना देते हुए अपने-पराये में उलझ हुए अपने बहुमूल्य जीवन को समाप्त कर लें ? शायद नहीं क्योंकि आज हमारे वैज्ञानिकों ने मानव सभ्यता को गुफाओं से निकालकर जीवन जीने की विचाधारा को बदल दिया है। मानव सिर्फ धरातल पर ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष और चन्द्रमा तक का सफर कर चुका है । इस प्रकार विवेकशील समाज ने सृष्टि की सुन्दरता में चार चाँद लगाए हैं और इस दिशा में अभी भी प्रयत्नशील है। I इन दिनों मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति क्षणमात्र में ही कर सकता है। इतने अधिक संसाधन शायद कल्पित स्वर्ग में भी उपलब्ध नहीं हो सकते, अर्थात् मानव की सारी कल्पनाएँ साकार होती जा रही है लेकिन कहीं न कहीं इन्हीं वैज्ञानिकों की देन है कि आज हम भयाक्रान्त और त्रस्त भी हैं। विवेकशील मानव इन वैज्ञानिक उपलब्धियों का सदुपयोग कर मानवता के विकास एवं सत्कार्य से जुड़े हैं, वहीं विवेकशून्य मानव इन संसाधनों का दुरुपयोग कर इस सृष्टि को विनाश का रूप दे रहे हैं। वास्तव में मानवता यही है कि लोग समरसता का भाव अपनाएँ एवं अपने-पराये का फर्क भूलकर सर्वत्र खुशियों का सा वातावरण उपस्थित कर 'सरगम' स्थापित करें, तभी 'अपार' और 'अभाव' का भेद मिट सकता है। धर्म और मजहब की दीवार को तोड़कर प्रेम और भाई-चारा स्थापित हो, शायद यही मानवजीवन की सार्थकता है इसीलिए कहा गया है कि "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि 'विवेकपूर्ण कार्य ही मानवता का पर्याय है' अर्थात् जो स्वार्थलिप्सा से ऊपर उठकर परोपकार एवं सत्कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहे सच्चे अर्थ में वही मानव है। ऐसा प्रतीत होता है कि आतंकवाद से जुड़े लोग हमेशा अमानवीय कार्य करते हैं अर्थात् वे लोग मानव कहलाने के अधिकारी भी नहीं रह जाते हैं। 'युद्ध' कभी भी शांति का विकल्प नहीं बन सका अर्थात् शांति के प्रसार के लिए प्रेम और सद्भावना का मार्ग ही श्रेष्ठतर है जिसे अपनाना होगा । परम शांति के लिए 'आतंकवाद' नहीं अध्यात्म की आवश्यकता है। अतः प्रकृति, धरती और संस्कृति की रक्षा करना ही मानवता तथा मानव जीवन का उद्देश्य है। सहशिक्षक, श्री जैन विद्यालय, हावड़ा विद्यालय खण्ड / २५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० रामपुकार शर्मा कहा गया है। अत: श्री नर्मदाजी को 'मेकाल-कन्या' भी कहा जाता है। किम्वदन्ती है कि जब नर्मदा अपनी पूर्ण लावण्यावस्था पर पहुँची, तब उनका विवाह सोणभद्र (सोन) से होना निश्चित हुआ, परन्तु दुर्भाग्यवश नाई कुमारी जिस पर नर्मदा की रूप-सज्जा की जिम्मेवारी सौंपी गई थी, वह स्वयं नर्मदा का रूप धारण कर विवाहमण्डप में जा बैठी। झूठ के पैर नहीं होते हैं, फलस्वरूप बात खुल गई। इधर नर्मदा विवाह-हेतु बुलावा न आने के कारण पश्चिम की ओर मुड़कर खड़ी हो गयी। यह खबर पाकर कपिल मुनि ने नर्मदा को मनाना चाहा, परन्तु क्रोधातुर मानिनी पल भर भी न ठहरी और तेज कदमों से पश्चिमगामी हो गई। उधर सोणभद्र यह सब जानकर अत्यन्त दु:खी हुए और बिन ब्याहे पूर्व की ओर चल पड़े। फलत: आज तक नर्मदा चिर कुमारी और सोणभद्र भी चिर कुमार रहे। इसी भाँति एक नहीं कई लोक-कथाएँ नर्मदा सोन से जुड़ी हुई हैं। नर्मदा और सोन की उद्गम के अतिरिक्त और कई छोटी-छोटी जलधाराओं का भी उद्गम-स्थल है 'अमरकंटक'। सभी किसी न किसी जलकुण्ड के मुख से ही आगे बढ़ी, चली हैं। जहाँ नर्मदा का उद्गम-स्थल है, वहाँ एक जलकुण्ड बना दिया गया है। इस अमरकंटक : परिदर्शन जलकुण्ड के चतुर्दिक विख्यात श्री माँ नर्मदा मंदिर स्थापित है। धर्म और निसर्ग का समन्वय तथा परिष्कृत-भाव से परिपूर्ण जलकुण्ड में स्नान कर उसकी चतुर्दिक परिक्रमा कर नर्मदा मइया 'अमरकंटक' एक अद्भुत एवं सुरम्यपूर्ण स्थान है- तीर्थ यात्रियों, की अर्चना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि ई० नवमी शताब्दी पर्यटकों तथा साधारण यात्रियों से परिपूर्ण। फिर भी सब कुछ खुला- में रेवा के महाराज गुलाबसिंह ने नर्मदा मंदिर का निर्माण करवाया खला। चारों ओर उन्मुक्त वातावरण में भटकते जलद-खण्डों का था और उस काल के निर्मित कई अन्य मंदिर भी इसके चारों ओर ही साम्राज्य है। जनसमागम होने पर भी अमरकंटक शान्ति का खड़े हैं। सभी मंदिरों का निर्माण लगभग एक ही स्थापत्य कला का पर्याय है। पेड़-पौधों की घनी छाया एवं दूर-दूर तक बिखरी हुई नमूना है। परन्तु नर्मदा से सोनमुण्डा के रास्ते में एक नये ढंग का पहाड़ियों का झुण्ड वैदिककालीन तपस्वियों की स्थिति का आभास मंदिर बनाया जा रहा है। पूछने पर पता चला कि उसी स्थान का कराते हैं और उन पर खड़े लम्बे-लम्बे शाल के वृक्ष एक पैर पर कोई तांत्रिक सम्प्रदाय उसे बनवा रहा है, जिसका सिंह-द्वार अद्भुत खडे तपस्यारत वैदिक तपस्वियों की परम्परा को उद्घोषित करते है. जिस पर चारों तरफ त्रिपुरेश्वरी के चार भव्य मुख निर्मित हैं। प्रतीत होते हैं। हमारा देश भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही नदियों का यह दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला (मदुराई कला) से अत्यधिक देश रहा है, इसलिए नहीं कि देश में नदियों की अधिकता है बल्कि प्रभावित है। इसलिए कि इस देश में नदियों का विशेष सम्मान हुआ है। वे हमारे नर्मदा मइया के मंदिर के सामने ही काले-पत्थर का बना हुआ जीवन में बहुत अधिक महत्व रखती हैं। उनसे हमारा आर्थिक, एक छोटा-सा हाथी, जिसे बादल का हाथी कहा जाता है और उस सामाजिक, आध्यात्मिक जीवन समृद्ध हुआ है। पर भग्न सवार 'बादल' भी मौजूद है। ठीक इसके पास ही बाँयीं नर्मदा नदी का उद्गम ही 'अमरकंटक' की प्रसिद्धि का कारण । ओर भग्नावस्था में एक घोड़ा और उस पर सवार भी है, जिसे रुदल है। एक ही पर्वत के भिन्न-भिन्न छोरों से उत्पन्न हुआ है एक नदी और उसका घोड़ा कहा जाता है। बादल के हाथी के चारों पैरों के और एक नद। प्रचलित कथाओं के आधार पर श्री माँ नर्मदाजी सभी मध्य लगभग सवा वर्गफुट जगह है। धरती पर साष्टांग होकर यदि नदियों में श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे साक्षात् देवाधिदेव भगवान महादेव के कोई व्यक्ति उससे पार हो जाता है तो यह प्रमाणित होता है कि शरीर से उत्पन्न हई हैं तथा स्थावर और जंगम सभी प्राणियों की उसने कोई पाप नहीं किया है. परन्तु इसके विपरीत जो उसमें उद्धारक हैं। श्री अमरकंटक को प्राचीनकाल में मेकाल पर्वत भी अटका रह जायेगा वह पापी कहलाएगा। यह कथा प्रचलित है, विद्यालय खण्ड/२६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु यह देखकर आश्चर्चचकित रह गया कि एक स्वस्थ मोटी होकर आगे बढ़ती है, जो काफी सुहावनी लगती है। इसी स्थान पर महिला अनायास ही उससे होकर निकल गई, मानो वह कोई गुल्म- एक जलकुण्ड बन गया है, जो बहुत ही रमणीय है। अगल-बगल लता हो, जबकि कई दुर्बल व्यक्ति अपना सिर ही घुसा पाये और का क्षेत्र गहन गम्भीर वनों का है, इसमें सर्वाधिक शाल वृक्ष ही हैं। या तो अटक कर या साहस खोकर वापस उसी रास्ते निकल आये। नर्मदा मंदिर से पूर्व-दक्षिण के कोने में एक मील की दूरी पर 'अमरकंटक' के पश्चिमी भाग में नर्मदा कल-कल प्रवाह के स्थित है, सोनमुण्डा। यहाँ जाने के लिए एक पक्की सड़क है। साथ लगभग ६ कि०मी० की दूरी पर एक प्रपात बनाती है, जिसे सड़क पहाड़ी है। शाल, शीशम, महुआ तथा आम वृक्षों के सघन कपिलधारा कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी स्थान पर जंगल से होकर जाती है। सोननद का उद्गम यहीं के पाँच पेड़ों के कलिपमुनिजी ने नर्मदा को रोकना चाहा था। नर्मदा तो आजतक मूल से हुआ माना जाता है। वहीं पर ईंटों का एक छोटा-सा हौज किसी भी बाधा या बन्धन को मानने के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं बना हुआ है जिसमें सोनजल इकट्ठा होकर फिर कल-कल निनाद है। नर्मदा मंदिर से कपिल-धारा तक एक पक्की सड़क जाती है। से पत्थरों पर से होता हुआ आगे बढ़ता है। थोड़ी ही दूर आगे जाकर कई स्थानों पर सड़क और राहगीरों के साथ-साथ नर्मदा कल-कल, वह लघु जलधारा लगभग ३५० फुट नीचे गिर कर एक विशाल छल-छल करती हुई पत्थरों पर चढ़ती-उतरती अपने रूप में प्रपात बनाती है। जलधारा में जल की न्यूनता अथवा बाहुल्यता पर मदमाती चल रही होती है। जल धारा और सड़क के दोनों ओर दूर- इस प्रपात का आकार निर्मित होता है, परन्तु इस स्थान से दूर तक दूर तक पहाड़ियों और घाटियों में फैली हरियाली दिखाई पड़ती है। फैली पर्वत मालाएँ और घने हरे-भरे वन से आच्छादित धरती की शाल-कौल आदि के वृक्ष प्रहरियों की भाँति उन्नत सिर किए पंक्ति- सुरम्य छटा देखते ही बनती है। सायंकाल तो यहाँ की छवि निराली बद्ध खड़े हैं। अगल-बगल के छोटे-छोटे पौधे हवा के मंद झोकों से हो जाती है। 'निराला' के शब्दों में कहें तो :हिल-हिल कर छोटे-छोटे बच्चों की भाँति तालियाँ बजाते हुए सौन्दर्य-गर्वित सरिता के अतिविस्तृत वक्षःस्थल मेंप्रसन्नतापूर्वक हमारा स्वागत कर रहे दिखते हैं। धूप की तेजस्विता धीर वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल अचल मेंइन लघु तृण-गुल्मों की वात्सल्यता से कुछ कम हो जाती है मानों उत्ताल तरंगाघात प्रलय-घन गर्जन जलधि प्रबल मेंवे इनके सम्मुख पराजित हो गये हों। क्षिति में - जल में - नभ में - अनिल-अनल मेंनर्मदा शिलाखण्डों पर से सरकती हुई अचानक १५० फुट का सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप, चुप, चुप,' प्रपात बहाती हुई नीचे के शिलाखण्डों पर जा गिरती है और अजीब- है गूंज रहा सब कहीं- । सी विजय हर्ष ध्वनि करती है; परन्तु ग्रीष्मकाल के दिनों में आस-पास शाल और आम के घने वृक्षों पर लँगूरों (हनुमान) का जलराशि की कमी के कारण इससे झर-झर कर धारा गिरती है। ही राज्य है। अत: कुछ फल या खाद्य-पदार्थ आदि लेकर आगे बढ़ना वर्षाकाल में इस प्रपात का सौन्दर्य फूलकर द्विगुणित ही नहीं कई बड़ा ही दुष्कर हो जाता है, वे जबरदस्ती छीन कर ले जाते हैं। ये गुणा अधिक हो जाता है। शिलाखण्डों से टकराकर जलराशि के वन्य-प्राणी इस सुनसान वन्य-प्रान्त को सजीवता प्रदान करते हैं। फुहारे सूर्य-किरणों को सतरंगी बना देते हैं। इस गिरती जलधारा के नर्मदा मंदिर से पूर्व की ओर लगभग एक मील की दूरी पर 'माइ नीचे थके यात्रीगण स्नान कर माता नर्मदा से आशीर्वाद प्राप्त कर की बगिया' नामक स्थान है। यहीं से नर्मदा मंदिर में श्री नर्मदा माँ पर थकान मिटाते नजर आते हैं। इस प्रपात के ऊपरी भाग की अपेक्षा चढ़ाने के लिए फूल आया करते हैं। 'बगिया' का प्राकृतिक दृश्य निचली गहरी छाती काफी रमणीय है। दूर-दूर तक फैले छोटे-बड़े अद्भुत एवं मनोहर है। इसी 'माइ की बगिया' की परिक्रमा कर कुछ शिलाखण्ड और उसके इर्द-गिर्द छोटी-छोटी कुटियाँ हैं, जिनमें तो लौकिक जगत में लौट आते हैं और कुछ अलौकिकता की खोज में साधुगण या योगीजन रहते हैं और साथ में विविध रंग के पक्षी और संसारिकता का त्याग कर आगे बढ़ जाते हैं। यहाँ की भीगी मिट्टी में एक बन्दर ही इस प्रशान्त वनस्थली की सजीवता को बनाए हुए हैं। विशेष प्रकार का पौधा पाया जाता है, जिसके पत्ते बड़े-बड़े होते हैं। वृक्ष कपिलधारा से पश्चिम की ओर लगभग एक फर्लाग की दूरी पर ३ से ४' ऊँचे दिखते हैं। एक अन्य प्रकार का तृण या गुल्म जिसे एक छोटी-सी गुफा है। यहीं पर नर्मदा तीन पतली धाराओं में बँट स्थानीय भाषा में 'गुलबकावली' कहा जाता है। इसके फूल से अर्क जाती है। कुछ दूर तक प्रवाहित होने के पश्चात् पुनः वह एकाकार निकाल कर एक साधु प्रवृति व्यक्ति आँखों का इलाज करता है। कहा होकर लगभग २० फुट का प्रपात बनाती हुई पुन: नीचे की ओर जाता है कि दूर-दूर से आँखों के रोगी यहाँ आते हैं और अपने चक्षु की गिरती है। इस छोटे प्रपात का नाम दूधधारा है। जलधारा फिर चौड़ी सफल चिकित्सा प्राप्त कर संतुष्ट हो जाते हैं। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/२७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अमरकंटक' से लगभग ६ कि०मी० उत्तर की ओर शहडोल जाने वाली सड़क के दाहिनी ओर श्री ज्वालेश्वर महादेव नामक स्थान स्थित है। यही जुरिला (ज्वाला) नामक एक छोटी नदी का उद्गम स्थल है । यहीं भगवान ज्वालेश्वर महादेवजी का मंदिर है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, "जो व्यक्ति ज्वालेश्वर महादेव पर जलाभिषेक करता है, वह जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है।" श्री ज्वालेश्वर मंदिर से दक्षिण की ओर ढाई मील की दूरी पर स्थित है- 'भृगुकमण्डल' यहाँ तक का मार्ग सघन जंगल के मध्य से होकर जाता है। इसे भृगु ऋषि की साधना स्थली के रूप में जाना जाता है । भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर पाद- प्रहार के उपरान्त अशान्त मन को शान्त करने के लिए इस निर्जन स्थल को चुना था। चिन्ह के रूप में उन्होंने अपना कमण्डल यहीं छोड़ दिया। बारहों महीने इस पत्थर के कमण्डल से अमृत-जल गिरता रहता है। नर्मदा मंदिर के पश्चिम में लगभग १० कि०मी० की दूरी पर स्थित है- 'कबीर चौरा' या 'कबीर चबूतरा' यहाँ जाने के लिए एक पक्की सड़क जंगल-पहाड़ों से होकर जाती है। फलतः मार्ग काफी चित्ताकर्षक है। बीच-बीच में पर्यटक या वन विभाग की ओर से सड़क के किनारे लगा हुआ बोर्ड "पहले जानवरों को पार होने दें, फिर वाहन बढ़ाएँ हम शहरी लोगों के लिए काफी कौतूहल का विषय रहा और सचमुच एक स्थान पर लंगूरों (हनुमान) की टोली सड़क पार कर रही थी, सरकारी बस चालक ने बस को बीच सड़क में ही रोक दिया बड़ा ही आनन्ददायक दृश्य था । लंगूरों का सरदार पहले पार होकर एक ऊंचे शिलाखण्ड पर बैठकर अन्य साथियों को सड़क पार करता देखता रहा और जब सभी सड़क पार कर गये, तब वह भी उनके पीछे होता हुआ जंगल में गायब हो गया। अपूर्व अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा और सतर्कता का उदाहरण दृष्टिगत हुआ। काश, लोग इन जानवरों से कुछ सीख पाते। इन सघन जंगलों से होकर कबीरचौरा पहुँचा जाता है। कबीर पंथियों का मानना है कि सन्त कबीरदास इसी चबूतरे पर बैठकर अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे। यहाँ पर भी वही 'गुलबकावली' के पौधे और अगल-बगल कई छोटे-छोटे जलकुण्ड और आश्रम-कुटी दिखाई दिये । गम्भीर नीरवता का राज था परन्तु हृदय में कबीर की निर्गुणी 'साखी' 'सबद' 'रमैनी' गूँज उठती हैएक डाल पर पंछी रे बैठा, कौन गुरु कौन चेला, तू उड़ जा हंस अकेला..... / मध्य 'अमरकंटक' में नागरिक निवास के अतिरिक्त पुलिसथाना बस स्टैण्ड, यात्रियों के लिए होटल, ट्यूरिज्म हाउस, बैंक, विद्यालय खण्ड / २८ टेलीफोन केन्द्र, अतिथिशाला, बाजार आदि सबकुछ हैं। यहीं एक बड़ा खुला मैदान है, जिसमें मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, वैशाखीपूर्णिमा आदि समयों पर काफी बड़ा मेला लगता है। जिसमें स्थानीय निर्मित वस्तुओं की अधिकता रहती है, परन्तु बाहरी पर्यटकों की अधिकता इनमें शहरीपन का भाव पैदा कर देते हैं। बाकी समय सर्वत्र शान्त वातावरण। उसी मैदान के दक्षिणांत में नर्मदा की जलधारा को रोक कर एक जलाशय का रूप दे दिया गया है। जिसमें कई पैडेल बोट अक्सर दिन-भर पर्यटकों को लेकर जल पर तैरते रहते हैं उस जल में आकाश के तैरते बादल कुछ समय के लिए तैरते नजर आते हैं। इस जलाशय के एक ओर असंख्य सफेद-सफेद बगुले दूर से सफेद खिले कमल का भ्रम पैदा करते हैं। कभी-कभी ये सफेद बगुले पैडल बोट पर आकर बैठकर यात्रियों का 'अमरकंटक में स्वागत करते हुए प्रतीत होते हैं। 'अमरकंटक' की सन्ध्याकालीन प्राकृतिक छटा निराली है। पर्वत श्रेष्ठ 'अमरकंटक' परम् सुन्दर पुष्प लताओं से परिपूर्ण है। यहाँ के गगनचुम्बी विशालकाय वृक्ष सभी ऋतुओं में हरे-भरे रहते हैं। यहाँ पर अधिकांश धार्मिक सम्प्रदायों के मंदिर, पूजा-स्थल, मठ या फिर आश्रम हैं। जिनमें मार्कण्डेय आश्रम, गायत्री शक्ति पीठ, कल्याण आश्रम, रामकृष्ण कुटीर, गुरुद्वारा, श्री राम-कृष्ण विवेकानन्द सेवाश्रम आदि विशेष प्रमुख हैं। संध्याकाल में यहाँ की सम्पूर्ण दिशाएँ घण्टे शंखनाद, आरती, भजन-कीर्तन आदि की मधुर ध्वनि से गूंज उठती है। और यहाँ की चाँदनी रात, अपने-आप में एक सुखद अनुभव का आभास देती है। ऐसा लगता है मानो पृथ्वी मण्डल को किसी ने दुग्ध-स्नान करा दिया हो या उस पर किसी ने श्वेत चादर बिछा दी हो। चारों ओर निस्तब्धता छाई हुई, पेड़-पौधे चुपचाप खड़े किसी चित्रकार के अनुपम चित्रकारी की शोभा प्रदान करते हैं। पवन प्रवाहित होने से उस छवि की छटा द्विगुणित हो जाती है। वृक्षों के झूमने से प्रकाश निर्मित बेल-बूटे इधर-उधर हिलने लगते हैं और नेत्रों को बड़े ही सुहावने लगने लगते हैं मानो कि प्रकृति पटल पर चलचित्र प्रदर्शित किये जा रहे हों। ऐसे प्राकृतिक सौन्दर्य-सम्पदा से परिपूर्ण क्षेत्र से वापसी या प्राकृति-सौन्दर्य से विछोह अत्यन्त ही कष्टदायक लगता है और मन में स्वत: ही गूँज उठता है : नर्मदायै नमः प्रातः नर्मदायै नमो निशि । नमस्ते नर्मद देवी प्राहिमाम् भवसागरत् । सहशिक्षक, श्री जैन विद्यालय, छवड़ा शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० रंजन राठी, सप्तम् 'स' का मेहमान बनाकर ले गये। वहाँ उसने मुझे सुन्दर भोजन करवाया। इन्द्राणी स्वयं पंखा झल रही थी एवं इन्द्र मेरे मुँह में कौर डाल रहे थे। इतनी ही नहीं, जब विष्णु को इस बात का पता चला तो वे भी मेहमानवाजी के लिये मुझे बैकुण्ठ ले गये। फिर शंकरजी मुझे कैलाश ले गये। ऐसा स्वप्न तू क्या, तेरे बाप-दादा व तेरी इक्कीस पीढ़ी के लोग भी नहीं देख सकते। लाओ, खीर।" नौकर ने कहा सेठजी मेरा भी स्वप्न सुनिये। रात्रि को सपने में मेरे गुरुजी आये। बड़ी-बड़ी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी आँखें, डंडा दिखाते हुए उन्होंने कहा "बेवकूफ कहीं के। खीर वहाँ खराब हो रही है और तू यहाँ खरटि भर रहा है। चल उठ और खीर खा।'' । ___मैं कुछ देर चुप रहा। फिर गुरुजी ने लाल-लाल आँखें दिखाते हुए कहा "मूर्ख कहीं के! खीर खाता है कि डंडा?'' ___ मैंने डर के मारे खीर खाना कबूल कर लिया। मैं तुरन्त गया रसोईघर में और खीर खाने लगा....मजेदार, स्वादिष्ट खीर.. ऐसी खीर मैने जिंदगी में पहली बार खायी थी..अहाहा! फिर पतीली मांज धोकर रख दी। वह देखिये पतीली, चम-चम चमक रही है। तब सेठजी ने कहा "यह तुम्हारा स्वप्न था कि हकीकत?" "स्वप्न नहीं हकीकत ही थी।" "यह कैसे संभव हुआ" "मैंने गुरु बना रखे हैं। उन्होंने ही मुझे ऐसा करने के लिये कहा" "उस वक्त मुझे क्यों नहीं बुलाया?" "उस वक्त आप तो सम्राट बने हुए थे। मैं बुलाने गया किन्तु वहाँ मुझ गरीब को कोई आने नहीं दिया क्योंकि आपकी सुरक्षा कड़ी थी. और बाद में आप इन्द्रपरी में, बैकण्ठ में और कैलाश में मेहमानवाजी मना रहे थे। मैं गरीब नौकर भला वहाँ कैसे पहुँचता? आपको इन्द्रपुरी में इन्द्र की मेहमानवाजी मुबारक हो? विष्णु और शिवजी की मेहमानवाजी मुबारक हो। मैने तो यहीं पर खीर खाकर अपनी भूख मिटा ली।" खीर खाता है कि डंडा एक सेठ व्यंजनों के बड़े शौकीन थे। एक दिन उन्होंने अपने नौकर को खीर बनाने के लिये केसर, पिस्ता, काजू, बादाम आदि देते हुए कहा : “बढ़िया खीर बनाकर रखना। मैं अभी घूमकर आता हूँ।" यह कहकर सेठ घूमने के लिये निकल पड़ा। रास्ते में उन्हें एक मित्र मिल गये। सेठ ने पूछा-“कहाँ जा रहे हो?'' मित्र के यह कहने पर कि वह शादी की दावत में जा रहा है। चलना हो तो तुम भी चलो। व्यंजनों का शौकीन सेठ उसके साथ चल दिया। सेठ गले तक भोजन चढ़ा कर घर वापस आया। घर पर स्वादिष्ट खीर तैयार थी किन्तु पेट में जब जगह हो तब तो खाये। सेठ ने सोचा यदि नौकर से बता दूँगा कि भरपेट दावत खाकर आया हूँ तो सारी खीर वही चट कर जायेगा। सेठ ने युक्ति लगाई और कहा "अभी खीर खाने की इच्छा नहीं है। चलो, अभी सो जाते हैं। रात में जिसका स्वप्न सुन्दर होगा, वह सुबह खीर खायेगा।" सुबह हुई। दोनों उठे। सेठ ने कहा, "लाओ खीर।" नौकर के यह कहने पर कि पहले अपना स्वप्न तो सुनाइये। सेठ ने कहा कि खीर तो मुझे ही मिलेगी क्योंकि मुझसे सुन्दर स्वप्न तू देख ही नहीं सकता। इसलिये खीर ले आ और मुझे खाने दे। नौकर के फिर से कहने पर सेठ ने कहा : "मैं सपने में भारत का सम्राट बन गया था। इन्द्र को जैसे ही इस बात का पता चला तो वे मुझे इन्द्रपुरी शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/२९ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहुल अग्रवाल, १० ब गज़ की जगह थान हार गया एक कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों ने आपस में विचार करना शुरू कर दिया। उस कार्यालय के सबसे अनुभवी कर्मचारी के रूप में अनुभवानंद मशहूर थे। कार्यालय के सभी कर्मचारी उन्हें बड़े भाई जैसा सम्मान देते थे । अनुभवानंद को अनुभव के आधार पर अपने कार्यालय के भाई-बहनों के लाभ-हानि का पता था। अत: उन्होंने अपने सफेद बालों की दुहाई देते हुए कहा भाइयों एवं बहनों! हमें थोड़ा धीरज के साथ कोई भी कदम उठाना चाहिए। अनुभवानंद की इस सलाह पर कई कम उम्र के कर्मचारियों ने आपत्ति की और लोहा गर्म होने पर चोट करने की सलाह दी, परन्तु उन्हें यह पता नहीं था कि एकाएक सफलता हाथ लगनी आसान नहीं है। उन्होंने बहुत खुशामद करके कार्यालय के कर्मचारियों को धैर्य धारण करने के लिए राजी कर लिया। दूसरे दिन अपनी भावना को अनुभवानंद ने उस कार्यालय के प्रधान अधिकारी के साथ सलाह करते हुए कहा- महाशय ! कार्यालय में अब त्याग और बलिदान करने वाले कर्मचारियों की कमी हो गयी है। नई पीढ़ी के लोग हमलोगों की तरह से सहनशील नहीं हैं। अतः उनमें उत्तेजना बढ़ रही है आप कृपया मालिक को यह सूचना दे दें कि उनकी वेतनवृद्धि से सम्बन्धित इच्छा जानकर कुछ ऐसा करें कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे । विद्यालय खण्ड / ३० अधिकारी महाशय ने यह आश्वासन दिया कि मैं साहब से अवश्य कहूँगा । कई बार इसकी बातें अधिकारी और अनुभवानंद के बीच हुई, परन्तु कोई लाभ दिखाई नहीं दे रहा था। आखिर में सभी कर्मचारियों के साथ स्थानीय ख्याति प्राप्त जनसेवकों से मिलना उचित समझकर उन्होंने अपनी समस्या के समाधान के लिए प्रयास किया। उनमें से एक प्रतिष्ठित एवं ख्याति प्राप्त जननेता ने उसका साथ दिया। बार-बार मिलकर इतनी सफलता पा ली कि कर्मचारियों की इच्छा के अनुकूल वेतन वृद्धि कराने में सफल हो गये। अनुभवानंद के अनुभव एवं युवासाथियों के उत्साह के कारण कार्यालय के कार्यक्रम में एक नवीनता आ गई। सभी कर्मचारियों के कार्य करने के ढंग को देखकर सेठ धनपतिजी को भी संतोष हुआ कि कम से कम सभी प्रसन्न होकर कम्पनी के उत्थान में लग गये हैं। खर्च जितना बढ़ा है, उससे दुगुनी आमदनी होने लगी है परन्तु जिस जगह अच्छे एवं कर्मठ लोग रहते हैं वहीं पर कुछ अकर्मण्य एवं चापलूस लोग भी रहते हैं। उनकी दृष्टि में अनुभवानंद खटकने लगे। उन लोगों ने सेठजी से उनकी तरह-तरह से निन्दा करनी प्रारम्भ कर दी। इसी बीच सेठजी का एक नई कम्पनी खोलने के लिए इमारत बनाने के लिए जगह की आवश्यकता आ पड़ी। संयोगवश अनुभवानंदजी के सहयोग से स्थानीय जननेता ने सेठजी के उस कार्य में भी काफी योगदान किया और सेठजी अपने घर आने-जाने के समय अनुभवानंद को भी साथ रखने लगे। अनुभवानंदजी ने सेठजी को सुझाव दिया कि नेताजी के बड़े लड़के को अपने कार्यालय में किसी उच्चपद पर नियुक्त कर दीजिए. भविष्य में इससे बहुत बड़ा लाभ आपको हो सकता है। सेठ धनपतिजी ने अनुभवानंदजी की भावना को समझा और उस नौजवान को बड़ी चतुराई से अपनी कम्पनी का ऑफिस इन्चार्ज बना दिया। कमलनाथ एक सुन्दर, स्वस्थ, आकर्षक एवं तेज नौजवान था। जब से वह कार्यालय में आया तब से एक नयी जान आ गयी। उसने अपने व्यवहार से सबका मन जीत लिया। कार्यालय के सभी कर्मचारी उसे अपने छोटे भाई की तरह प्यार करने लगे । अनुभवानंद से मिलकर उसने कार्यालय के कर्मचारियों का एक संगठनात्मक स्वरूप बनाया और सेठजी का मन कर्मचारियों की ओर मोड़ने में सफल हो गया। अभी दो वर्ष भी नहीं बीते थे कि सरकारी वेतन की मांग को लेकर सभी बातें करने लगे । अनुभवानंद ने सेठजी को सचेत किया। उन्होंने सलाह दी कि अगर फिर से सभी कर्मचारियों को तीन इन्क्रीमेन्ट एक साथ दे दिये जाएँ तो सभी मान सकते हैं, परन्तु इस बार सेठजी ने ठान लिया था कि एक पैसा भी नहीं बढ़ायेंगे। कमलनाथ ने अपनी योग्यता का परिचय दिया एवं स्थानीय शिक्षा एक यशस्वी दशक - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाव के कारण सेठजी को बाध्य होना पड़ा और वे इस बात के लिए राजी हो गये कि सभी कर्मचारियों को सरकारी वेतन के बराबर वेतन देंगे, परन्तु कम्पनी के लाभ के लिए आप लोगों को जी-जान लगाकर काम करना पड़ेगा। इस बार सभी कर्मचारियों पर कम्पनी का पाँच लाख रुपये प्रतिमास खर्च बढ़ गया। कमलनाथ की जय-जयकार होने लगी। इस बार अनुभवानंद के अनुभव को सेठजी ने नहीं अपनाया था। उन्होंने जो कार्य एक लाख मासिक खर्च बढ़ाकर संपन्न करना चाहा था, वही खर्च सेठजी को पाँच गुना करना पड़ा। इसके बावजूद भी सेठजी का झुकाव कमलनाथ की ओर होने लगा क्योंकि उनकी समझ में आ गया था कि इसी के कारण मैं गज की जगह थान हार गया हूँ। अगर इसे अपने अनुकूल बना लूँ तो भविष्य में कम्पनी में कोई भी सिर उठाने योग्य नहीं रहेगा। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/३१ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D सन्तोषकुमार तिवारी भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल था । राष्ट्र का यश-वैभव चरम सीमा पर था। वह काल भारत का स्वर्ण युग माना जाता है। जब चन्द्रगुप्त बालक ही था, चाणक्य ने उसकी प्रतिभा को परखा था और उससे प्रभावित होकर अपने बुद्धि-कौशल से उसे सम्राट बनाया था। चाणक्य अपनी धुन का पक्का था - जो बात मन में एक बार ठान लेता, उसे हर कीमत पर सफलतापूर्वक पूरी अवश्य कर लेता। महान तपस्वी तो वह था ही, देश सेवा का भाव भी उसमें कूट-कूट कर भरा था। देश की निरन्तर सेवा करते रहने के लिए वह स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त का महामात्य (महामंत्री) बना । अन्दर प्रवेश किया। सामने चटाई पर एक व्यक्ति बैठा था- अपने में खोया हुआ; हाथ में कलम और सामने कागज रखे हुए थे। उसका रंग काला था सिर पर एक बड़ी सी चोटी के अतिरिक्त सिर का शेष भाग मुंडित था, कमर से नीचे का भाग एक मोटी धोती में लिपटा हुआ था तथा शरीर का ऊपरी भाग नंगा था, जिस पर केवल एक मोटा जनेऊ लटक रहा था। हाँ, उसके चेहरे के हावभाव से साफ दिखाई पड़ रहा था कि यह व्यक्ति संकल्पशक्ति का धनी और अपनी लगन का पक्का है। सम्राट ने झुककर उसे प्रणाम किया, फिर स्वयं व मेगास्थनीज, दोनों उसके सामने चटाई पर बैठ गये। उसने आँख उठाकर एक बार आगन्तुकों की ओर गम्भीरतापूर्वक देखा फिर बिना कुछ कहे या सुने पहले की तरह अपने काम में जुट गया। थोड़ी देर बाद मेगास्थनीज को लेकर सम्राट वहाँ से वापस आया महल में वापस पहुँचने पर मेगास्थनीज बोला, "महाराज! आज तो आप मुझे अपने महामंत्री से मिलाने वाले थे ?" सम्राट हँसे और बोले, "वे महामंत्री ही तो थे, जहाँ हम आपके साथ आश्रम में गये थे। " चाणक्य : तप व सेवा की सजीव मूर्ति की बात उसकी समझ में नहीं आई थी। विस्मय से बोला, "लेकिन मेगास्थनीज आँखें व मुँह फैलाए बेवकुफ बना खड़ा था। सम्राट महाराज! इतने विशाल और वैभवशाली राष्ट्र का महामंत्री एक झोपड़ी में रह रहा है ! और महाराज ! महामंत्री तो आपके मातहत है, उन्होंने तो आपके अभिवादन भी नहीं किया। उल्टे आपने उन्हें प्रणाम किया और वे बोले तक नहीं लगते भी एक साधारण देहाती किसान मजदूर जैसे थे। मैं तो इन सारी पहेलियों में उलझ कर रह गया हूँ।' | सम्राट ने फिर कहा, "वे हमारे महामंत्री हैं और हमारे गुरु भी, अतः उन्हें प्रणाम करना मेरा धर्म है मैं और मेरा राष्ट्र उनकी ही कृपा और आशीर्वाद का प्रसाद है। राष्ट्र-संचालन की सारी नीतियाँ उन्हीं की बुद्धि का परिणाम है तथा सारे समाज के सुख-दुःख की हलचलें उनकी अपने दिल की धड़कने हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन ही राष्ट्र की जीवनधारा में विलीन कर दिया है। रही उनके न बोलने की बात, सो वे राष्ट्र-कल्याण के प्रति चिन्तन और राष्ट्रसंचालन के लिए नियम-कानून बनाने में रात-दिन लगे रहते हैं। उनसे बात करने के लिए हमें भी पहले से समय लेना पड़ता है। आज हम उनसे समय लिए बिना ही केवल उनका आशीर्वाद लेने उनके पास गये थे।" मेगास्थनीज का आश्चर्य और भी अधिक बढ़ा तथा चाणक्य जैसे 'महान् तपस्वी राष्ट्रभक्त से बात करने के लिए उसका मन छटपटाने लगा । भारत की यशोकीर्ति देश देशान्तर तक फैली हुई थी। उसी समय युनानी दूत मेगास्थनीज भारत आया। राज्य का उत्तम संचालन तथा प्रजा की सुख-समृद्धि देखकर वह अत्यन्त प्रभावित हुआ । उसने सम्राट चन्द्रगुप्त से कई बार भेंट की। महामात्य चाणक्य की प्रशंसा उसने बहुत सुनी थी, लेकिन उनसे भेंट नहीं हो पायी ती । उनसे मिलने के लिए उसने सम्राट से निवेदन किया । अद्भुत ही है। कि किसी राष्ट्र के मन्त्री या प्रधानमंत्री से मिलने के लिए निवेदन उस राष्ट्र के अध्यक्ष से किया जाय । एक दिन सम्राट चन्द्रगुप्त मेगास्थनीज को साथ लेकर रथ से चला। एक साधारण आश्रम में पहुँचा । द्वार पर जूते उतार कर विद्यालय खण्ड ३२ शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य ने मेगास्थनीज को वार्ता का समय दिया। वह करना तो एक घोर अपराध है। नियम कानून बनाने वाले ही जब निश्चित समय पर वहाँ पहुँचा। महामंत्री नित्य की भाँति राष्ट्र के उन नियमों को तोड़ेंगे, तब उनके पालन के लिए अधिकारियों एवं कार्यों में व्यस्त थे। मेगास्थनीज के पहुंचने पर महामंत्री ने जलते हुए जनता को कैसे प्रेरित किया जा सकेगा। व्यक्ति की बातों और दीपक को बुझा दिया तथा दूसरा दीपक जला दिया और बोले "क्या उसके आदेशों या उपदेशों का असर दूसरों पर नहीं पड़ता, असर सेवा करूँ?" पड़ता है केवल उसके व्यवहार का, उसके व्यक्तित्व का।" मेगास्थनीज का विस्मय बढ़ा। कहा, "जिज्ञासायें तो आपसे मेगास्थनीज भाव-विह्वल था। उसका रोम-रोम उस महान् बात करने की बहुत सी है, लेकिन एक नई जिज्ञासा उत्पन्न कर दी तपस्वी को प्रणाम कर रहा था। उसका मस्तक झुक गया और मुख है आपने। आपने दीपक बुझाकर दूसरा दीपक क्यों जला दिया?" से निकला, “धन्य है वह देश, जहाँ आप जैसा महामंत्री हैं। सम्राट चाणक्य ने सरलता से उत्तर दिया, "अभी तक मैं महामंत्री से आपके विषय में सुना था और अब जान गया हूँ कि आपके देश की हैसियत से राष्ट्र का कार्य कर रहा था, अत: राष्ट्र की सम्पत्ति की उन्नति में आप ही के चरित्र के सच्चे सौन्दर्य का प्रकाश चमक का तेल जल रहा था। अब मैं चाणक्य की हैसियत से आपसे निजी रहा है। इस एक ही प्रश्न के उत्तर से हमारी सारी जिज्ञासाएँ शांत बातचीत कर रहा हूँ, अत: मेरे परिश्रम से उपार्जित आय से यह हो गई हैं। हमें अब आगे कुछ नहीं पूछना है।" दीपक जल रहा है। निजी कार्य के लिए राष्ट्रीय सम्पत्ति का उपयोग स्नेहा सुरेका, अष्टम् ब शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/३३ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमीत यादव, कक्षा : ७ 'अ' कर राजकुमार की आँखों में लगा दिया। राजकुमार सबको देखने लगा। राजा ने खुश होकर श्याम को कुछ माँगने के लिये कहा तो श्याम ने उस वन को माँगा। राजा ने वह वन उसे दे दिया। श्याम ने जंगल में जाकर मिट्टी के अंदर गड़ी सोने की सारी मुद्राएँ निकाल ली और झाड़ी के नीचे सोने के घड़े में जो गहने थे वे भी ले लिये। वह अब खूब धनी हो गया। रतन को जब यह मालूम हुआ तब वह भी जंगल के बरगद के पेड़ पर चढ़ गया। रात को सब जानवरों ने कहा कि उनका सब धन गायब हो गया, तभी रतन बोल पड़ा कि वह मेरा भाई था। जानवरों ने मिलकर रतन को पेड़ पर चढ़कर इतना पीटा कि वह मर ही गया। लालची भाई एक गाँव में दो भाई रहते थे। बड़े भाई का नाम रतन और छोटे भाई का नाम श्याम था। रतन एक विद्यालय में पढ़ाया करता था जबकि छोटा भाई सारा दिन खेती करने में ही गुजार देता था। लेकिन रतन को खाना अच्छा मिलता था और उसके छोटे भाई को रूखा-सूखा मिलता था। इस बात पर दोनों की पत्नी एक-दूसरे से हमेशा झगड़ती रहती थी। बड़ी बहू बहुत चालाक थी। उसने दोनों भाइयों को अलग करवा दिया। रतन ने छोटे भाई के हिस्से की भी सारी दौलत हड़प ली। श्याम की पत्नी ने उसे शहर जाकर कुछ पैसे कमाने की सलाह दी। वह जंगल की राह से शहर जाने लगा। चलते-चलते शाम हो गई। उसने एक बरगद के पेड़ के ऊपर विश्राम करना उचित समझा। रात के समय उस पेड़ के नीचे जंगल के सभी पशु आये। उनमें से लोमड़ी ने भालू से कहा कि "उसने अपने घर में सोने की मुद्राएँ छिपा रखी हैं।'' भालू ने कहा, "मैंने तो अपना धन दूर की एक झाड़ी में छिपा कर रखा है।" इसी तरह सारे पशु अपने-अपने धन के बारे में बातें कर रहे थे। तालाब के पास कुछ छोटे-छोटे पेड़ भी थे। उनमें से एक ने कहा कि 'इस वन के राजा का बेटा अन्धा है। अगर कोई मेरे पत्ते का रस उसकी आँखों में लगा दे तो वह देख सकेगा।' यह सब बात श्याम सुन रहा था। प्रात:काल होने पर उसने उस पेड़ के कुछ पत्तों को तोड़ लिया और राजदरबार में चला गया। उसने उस पत्ते का रस निकाल विद्यालय खण्ड/३४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O विशालप्रसाद जायसवाल, एकादश ब गुरु का महत्व गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुदेवो महेश्वरः । गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही जन्म लेता है, बढ़ता है और अन्त में समाज में रहकर मृत्यु को प्राप्त होता है। लेकिन इस जन्म और मृत्यु के बीच जो जीवन है उसे सुखमय बनाने के लिए ज्ञान का होना अति आवश्यक है और वह ज्ञान हम अपने गुरुजनों से ही प्राप्त करते हैं। शिष्य की सफलता में प्रथम स्थान गुरुदेव तथा गुरुमाता का होता है। सदियों पहले जब हमारे पूर्वज आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने जाते थे, उन्हें गुरुदेव तथा गुरुमाता से जो दिव्य ज्ञान प्राप्त होता था, वे उन्हीं के सहारे जीवन की जटिल से जटिल समस्याओं को सुलझा देते थे। गुरु अपने शिष्यों को उच्च से उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान करते थे। वे सभी नैतिक, व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करते थे जिससे उनका जीवन धन्य हो जाता था। शिष्य अपने माता-पिता तथा गुरु की आज्ञाओं का पालन करने में अपने प्राणों को भी दाव पर लगा देते थे। _ 'गुरु बिनु होइ न ज्ञाना' का विश्वास भारतीयों की अपनी विशेषता है। गोस्वामी तुलसीदास ने गुरु के सम्बन्ध में कहा है "बँदउँ-गुरु - पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि।" तब और आज में कितना अन्तर हो गया है। आज तो कलियुग की छाया सभी को ग्रस रही है। माया के प्रभाव में सभी मोहित होते जा रहे हैं। इससे तो कोई सच्चा मार्गदर्शक ही बचा सकता है। गुरु से बड़ा मार्गदर्शक कौन हो सकता है? बुराई की ओर बढ़ते हुए कदम को गुरु के सिवा और कौन रोक सकता है? मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।' आज तो ऐसा हो गया है कि हम क्रोध में अपने गुरुजनों का भी अपमान कर देते हैं। हम अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं। कभी-कभी तो मूर्खतावश अपने आप को गुरु से भी बड़ा ज्ञानी समझने लगते हैं और फलस्वरूप पतन की ओर बढ़ते चले जाते हैं। हमें गुरु निन्दा नहीं सुननी चाहिए पर हम भूल से गुरु की निंदा ही कर बैठते हैं। हमारे पूर्वजों तथा हमारे गुरुओं ने हमारे लिये जो नियम बनाये हैं हमें उसी के अन्तर्गत रहकर कार्य करना चाहिए। किसी कवि ने कहा है "गुरु की निन्दा सुनहि जे काना, हो पातक गौ घात समाना।" गुरु अपने शिष्य की गलतियों को सुधारते हैं। वे हमें अपने पुत्र के समान ही स्नेह प्रदान करते हैं और हर स्थिति से अवगत कराते हैं। कभी-कभी हम इतने नीचे गिर जाते हैं कि जिसका ध्यान ही नहीं रहता। उस समय गुरु हमारे मार्गदर्शक बनकर आते हैं और हर तरह से हमारे सुधार की कोशिश करते हैं। उन्हीं के प्रयास से हमारा जीवन सुखमय होता है। ईश्वर की अपेक्षा गुरु को प्रथम पद दिया गया है। कबीरदासजी भी गुरु को प्रथम पूज्य मानते हैं "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय।" विधाता द्वारा रचित इस सुन्दर सृष्टि में मानव सबसे सुन्दर कृति है। विधाता ने उसके लिए कुछ विशेष गुणों की रचना की है। जिसे हम अपने गुरु से प्राप्त कर उसका सदुपयोग करना सीखते हैं। उसके ये गुण मानवतत्व या मनुष्यता कहलाते हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म जीव मात्र के प्रति प्रेम है। वस्तुत: गुरु ही ईश्वर तत्व का दूसरा रूप है जो हमारे सभी दुर्गुणों को सँवारते हैं और हमें हर समस्या से लड़ने का मार्ग दिखलाते हैं। अगर गुरु न हो तो अज्ञानान्धकार में हम खो जाएँ। जब मनुष्य में अहंकार बढ़ता है और वह खुद को अपने जीवन का मूल निर्देशक मान लेता है तब भी ईश्वर गुरुजनों के माध्यम से हमें सुधारने की चेष्टा करते हैं। अत: हमें अपने गुरुजनों का आदर करना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/३५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 अभिषेककुमार उपाध्याय, ६ ग में नमाज पढ़ने गए हैं। फकीर मस्जिद की ओर चल दिया। वहाँ पहुंचने पर फकीर ने देखा कि बादशाह नमाज समाप्त करते हुए अल्लाह से हाथ जोड़कर कह रहे हैं-“हे अल्लाह! मुझे इतना धन और साम्राज्य दो कि मैं और ज्यादा शक्तिशाली बन जाऊँ।" फकीर ने बादशाह को इस प्रकार अल्लाह से दुआ माँगते देखा तो वहाँ से चले जाना ही ठीक समझा। बादशाह ने फकीर को जाते देखकर कहा, "फकीर साहब! आप इतनी जल्दी क्यों चल दिए? मुझसे कोई काम था क्या?" फकीर ने जवाब दिया, "हाँ हुजूर! काम तो था, लेकिन अब नहीं है।" बादशाह बोला, "ये आप क्या अजीब बात कर रहे हैं?" “हुजूर!'' फिर फकीर ने उत्तर दिया "मैं आपको बादशाह समझकर कुछ धन माँगने आया था मगर आपको खुद अल्लाह से भीख माँगते देखा, तो मैंने सोचा कि जो आदमी खुद अल्लाह से भीख माँग रहा हो वह भला दूसरों को क्या देगा। आप तो मेरी ही तरह भिखारी हैं। इसलिए मैं भी उसी अल्लाह से माँगूंगा जिससे आप माँग रहे थे।" भिखारी बहुत दिन पहले की बात है। दिल्ली में एक फकीर रहता था। अल्लाह की बंदगी के अलावा उसको दूसरा कोई काम नहीं था। उसके पास कुछ भी नहीं था, फिर भी वह हमेशा खुश रहता था। एक बार राज्य में अकाल पड़ गया जिससे लोगों को बहुत कष्ट हुआ। उसने सोचा कि बादशाह से कुछ धन माँगकर जलाशयों का निर्माण कराया जाय। धन के लिए फकीर बादशाह के महल की ओर चला। महल में जाने पर उसे पता चला कि बादशाह मस्जिद नेहा मालू, नवम् अ विद्यालय खण्ड/३६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशीप्रसाद मिश्र, एम०ए०बी० एड० मेरे शहर के पश्चिम में, मेरे जन्म के बहुत पहले से, शान्त निर्मल धारा में बहती एक नदी है, सलिल समृद्ध है, जल प्रवाह लम्बा है, नाम उसका गंगा है। 1 गंगा का किनारा युक्त सिकता की राशि से, नौकाएं डोलती है, मृदु मंद मंथर गति से, सूर्य उदय होते ही आते हैं भोलू नाथ, भैसों को हाँकते हुए गायों के साथ-साथ, हर गंगे बोलते हैं, पशुओं को नहलाते हैं, प्रदूषण फैलाते हैं। थोड़ी ही दूर पर बैठे हैं जुम्मन शेखहाथ में लिए हैं एक बंशी व कुछ चारा, गंगा वाह ! क्या भारा । चमक उठी आँखें खिल उठी बाहें, भोजन की व्यवस्था है नाम जिसका गंगा है। सूर्य जब अस्त हुआ, फैल गया राज्य- रजनी नरेश का, विश्राम बेला है, शिक्षा एक यशस्वी दशक पर क्या गंगा भी सोएगी ? और - रात अब जागेगी, हाँ रात भी जागेगी और गंगा को जगाएगी। धीवरों की नौकाएँ दीपों से प्रदीप्त हुई, गंगा के काले घने पाटों पर जालियाँ सुदीर्घ हुईं, रात का उपक्रम है। काल का नियोजन है। प्रातःकाल होते ही जाल जब सिमटेंगें, उलझे होंगे उनमें झीगे, रोहू तथा और भी अनेक क्या जीवन बस इतना ही ? काल की व्यवस्था है, नाम जिसका गंगा है। गंगा के तट पर, बैठे-बैठे इन दृश्यों को देखता हूँ सोचता हूँ। श्रेष्ठ जनों की वाणी में, गंगा पतित पावनी है। पापविनाशिनी है, मोक्षदायिनी है । पर दृश्य कुछ और है, गंगा का उपयोग सोच से परे है, क्योंकि नाम इसका गंगा है। अनेक है शैली वर्मा, ११ बी विद्यालय खण्ड / ३७ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 दिग्विजयप्रताप सिंह, ९ अ 0 अमर शाही, १० ब प्यार करते हैं लालच और नफरत की आँधी है, फोटो में गाँधी है। ऐसे में एक दिन आता है, जब युद्ध जरूरी हो जाता है। नजरें बचाते हुए कहते हैं, युद्ध अब जरूरी है। वह दिन आता है, जब एक जड़ इबारत, भावनाओं की जगह उमड़ती है और घेर लेती है, एक निनादित नाम । और सामूहिक अहंकार होता है । जब अच्छाइयाँ, बिना लड़े हारती हैं। जब कोई किसी को कुचलताचला जाता है, और कोई ध्यान नहीं देता है, तब एक दिन आता है, जब सेना के मार्च का इन्तजार करते हैं । बत्तियाँ बुझा लेते हैं, और कहते हैं 'प्यार करते हैं । माँ! तुम तो हो महान वीणावादिनी माँ तू शारदे, नित्य करूँ तेरा गुणगान, चरणों में निज मस्तक रखकर, करता रहूँ सदा मैं ध्यान, माँ तुम ऐसा दो वरदान । माँ तुम तो हो महान् । सबको देती तू ही विद्या, सबको देती तू ही ज्ञान, जो भी शरण तुम्हारे आया, बना वही विद्वान । माँ तुम तो हो महान् । इसीलिए माँ शरण में आया । और न ठौर कोई भी पाया । मुझको दे आशीष तू इतना, बना रहे जो दिया है मान । माँ तुम तो हो महान् । जीवन अपना राष्ट्र निमित्त हो । चंचल अपना कभी न चित्त हो । आये कठिनाई की बेला, पाऊँ शीघ्र ही सुगम निदान । माँ तुम ऐसा दो वरदान । माँ तुम तो हो महान् । विद्यालय खण्ड/३८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 प्रतीक रतावा, ९ ग गौरव पाठक, ६ अ आ गई परीक्षा मेरी नजर में १. कब्रिस्तान - दुनिया का अंतिम स्टेशन । २. चाय कलियुग का अमृत । ३. पेन कागज की सड़क पर दौड़ने वाला इंजन । ४. सर्प भगवान शंकर का नेकलेस । ५. पश्चाताप अपराध धोने का साबुन । ६. चिंता मोटापा कम करने की दवा । ७. चोर रात का शरीफ व्यापारी । ८. पाकेटमार - जेब का भार कम करने वाला । लो सिर पर आ गई परीक्षा, मस्ती सब खा गई परीक्षा । जैसे कोई भूत आ गया, रूखे सूखे बालों वाला । काली-काली आँख दिखाता, पिचके-पिचके गालों वाला । डर बनकर आ गयी परीक्षा, लो सिर पर आ गई परीक्षा । झुक गई गर्दन, कमर भी टेढ़ी, पैरों पर चढ़ गयीं चीटियाँ । अकल थक गयी दौड़ भागकर, कानों में बज रहीं सीटियाँ । बन्द रेडियो, बन्द सिनेमा, । खेल-कूद को जेल हो गई। अक्षर की पटरी पर चलती, आँखें विद्युत मेल हो गईं। कमजोरी ला गयी परीक्षा, लो सिर पर आ गयी परीक्षा । क्रोध घमंड प्रायश्चित लालच रिश्वत चिंता जरा सोचिये बुद्धि को खा जाता है। ज्ञान को खा जाता है। पाप को खा जाता है। ईमान को खा जाता है। इन्साफ को खा जाती है। आयु को खा जाती है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/३९ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० प्रियंका दुगड़, ८ ब बिहार की राजधानी पटना है । वहीं के होटल की घटना है । बूढ़ा - बूढ़ी का एक Pair, निकाल के बैठ गए Chair, बूँढ़े ने बैरे को बुलाया, खाने का आर्डर दिया । पहले बूढ़े ने खाना खाया, बुढ़िया ने पंखा हिलाया । बुढ़िया ने खाना खाया, और बूढ़े ने पंखा हिलाया । यह देखकर बैरे का माथा चकराया, उसने पूछा - "ऐ लैला मजनू के माँ बाप, तुम दोनों में इतना ही प्रेम है तो साथ में क्यों नहीं खा लेते ?" दाँतों का सेट एक बूढ़े ने कहा, "बेटा तुम्हारी बातें तो नेक हैं... पर हमारे पास दाँतों का सेट एक है" विद्यालय खण्ड / ४० ० नेहा अग्रवाल, ८ ब मुझको फेल न करना ईश्वर मुझको फेल न करना, एक साल की जेल न करना । ऐसा मुझसे खेल न करना, ईश्वर मुझको फेल न करना । पास-पड़ोसी बुरा कहेंगे, नहीं पिताजी प्यार करेंगे । ऐसा मुझसे खेल न करना, ईश्वर मुझको फेल न करना । दीदी से डाँट पड़ेगी, दोस्तों से आँख न मिलेगी । ऐसा मुझसे खेल न करना, ईश्वर मुझको फेल न करना । शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O Shibani Mitra they can, because forgiveness is a quality possessed by the strong and not by the weak. Teach them to follow the sermon-Speech is silver, silence is golden'. Let them be good listeners but at the same time be able to filter all that they hear on a screen of truth and store the ones that are worthy and invaluable. Teach them, if you can, how to laugh when they are sad as there is no shame in tears. Teach them to scoff at Cynics and to beware of too much sweetness. Teach them to sell their brain to the highest bidders but never to put a price tag on their heart and soul. Teach them to acknowledge the help and support they get from their fellowbeings because gratitude is the most exquisite form of courtesy. Treat them gently, my friends, but donot cuddle them because only test of fire makes fine steel. Teach them to learn the hard way to success which never comes easy. Teach them to be honest and sincere in whatever they do as only earnestness pays dividend Teach them to have sublime faith in themselves because then only they will have sublime faith in mankind. I know it is a tough job to enlighten them, but they are such fine, innocent little fellows, my friends. My Dear Friends Asst. Teacher, Shree Jain Vidyalaya, Howrah (This article is conceived from a letter written by one of the most respected Presidents of the USA) My dear friends, or the nation builders, you are in the most noble profession and entrusted a very responsible duty by the almighty. Like responsible followers of the almighty, teach your children that the world is nothing but a stage where they are actors who have to play their part well and leave the stage for others to perform. Time is limited like the setting sun whch fades away pretty fast. There is no time to stand and stare but to act swift and collect as many pebbles of knowledge as possible. Teach them how to inculcate the best virtues; ideals and qualities but not to get swayed by success. Teach them that all men are not true but for every wicked person there is a hero, that for every selfish politician, there is a dedicated leader. Teach them that for every enemy there is a friend. Teach them to learn to lose and also to enjoy winning. Steer them away from envy, if you can. Teach them the secret of quiet laughter. Teach them, if you can, the wonder of books but also give them time to ponder over the eternal mystery of nature. Allow them to leisurely wander lonely like the clouds in the lap of nature. In school teach them it is far more honourable to fail than to cheat. Remind them that failure is never final and success is never permanent. Teach them to have faith in their own ideas, even if everyone tells them, they are wrong. Teach them to be gentle with gentle people and tough with the tough. Teach them to forgive people, if मनीषा शर्मा, सप्तम् ब fyr 17, 2014 विद्यालय खण्ड/४१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Srabani Chakraborti Some Aspects of Pastoral Adaptation Pastoralism represents an off-shoot of the early mixed agriculture and herding complexes in adaptation to dry grasslands. Pastoralism was the characteristic trait of Neolithic Period. Neolithic cultivation enabled human create miniature environments where plant domesticates could thrive, herding of domestic animals allowed no such control. It was humans who had to confirm to the patterns of rainfall and natural vegetation and to substantial degree to the animal they herded. Often this requires seasonal migration or transhumance. In this article, some traits of Pastoralism are being focussed in the context of two Nomadic tribes, namely Basseri Nomads of Southern Iran and Karmojong of Uganda. The Basseri of Southern Iran are Pastoral, tentdwelling nomads numbering some 16,000. They migrate seasonally through a strip of land some 300 miles long, an area of about 2000 square miles. The seasonal migration pattern is shaped by the physical environment. There is winter snow in the Northern mountains, a well-watered middle region around 5000 feet elevation (where most of the agriculturists are settled), and lower pasture land to the south that becomes arid in summer. Each of the nomadic tribes of South Iran has its own traditional migration pattern. The Basseri Economy rests squarely on their herds of sheep and goats. Milk, meat, wool and hides come from these herbs and can be traded with villagers to meet other needs. Transportation is provided by horses, donkeys, camels. During the summer, when pastures are rich, the Basseri remain temporarily settled. Food surpluses are built up, in the form of cheese and meat on the hoof, that provide subsistence in the leaner winter months. The Basseri also eat agricultural produces. Most are obtained by trade, but the Basseri grows some wheat at their summer camps. The mobility of the Basseri is reflected in the realm of social organisation. Family groups, conceived as "tent' are the main units of production and consumption. These tent groups, represented by their male heads, hold full rights over property and sometimes act as independent political units. All of the property of a tent group - tents, bedding, cooking equipment - must be moved, alongwith the herds, when the group migrates. The rest of the year, farger camps of 10-40 tents move together. Members of these camps comprise solidary community. The African complex of Pastoralism is based on Cattle herding. The symbolisis between hilmans and Cattle, and the symbolic elaborations of the 'cattle complex' have long attracted ecological interest. These elaborations are carried to most remarkable lengths of East Africa. The Karimojong of Uganda provide a vivid illustration. The Karimojong comprise some 60,000 Pastoralists occupying about 4000 square miles of semiarid plain in north-eastern Uganda. Cattle are property and accordingly they represent variable degrees of wealth, of social status and of community influence. First and foremost cattle provide subsistence, by transforming the energy stored in the grasses, herbs and shrubs of a difficult environment. Blood and milk products, not meat, provide the primary subsistence. Cattle are bled once every three to five months. Cows are milked morning and night; ghee (butter and curdled milk) can be stored and is centrally important in the diet. Milk, often mixed with blood, provides the main diet, especially for the men who move with herbs. Cultivation of Sorghum provides secondary subsistence. Women, based in the permanent settlements in the centre of Karimojong land, do the cultivation. Cattle are slaughtered rearly, mainly for initiations and sacrifices and those are mainly performed when drought forces reductions in the herbs. With limited technology they preclude bringing food and water to their herbs or storing most foods, the Karimojong must follow strategies that minimise risk in a harsh and unpredictable environment as well as maximise subsistence production. Rather than modifying their environment, the Karimojongs must adapt their lives to eat. Asst. Teacher Shree Jain Vidyalaya, Howrah विद्यालय खण्ड/४२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shampa Ghosh An experience with a Natural Extravaganza' September 14, 1989, at about 05:00 hrs, we were standing and shivering at Zero Point' when there was very little clairty all around. The name 'Zero Point' very rightly describes the position. It is at an abrupt end of a very narrow ridge, whose three sides slope down with a very steep gradient into the valley. Straight in front of us was the Chhanguch Peak bathed in milk white snow and standing above her attentant peaks Nandakhat, Panwalidwar and Baljouri on the left, whose foot being separated from our ridge by River Pindari, which is more a trickle of water than a river. In between Chhanguch and Nandakhat crawled up the Pindari Glacier capped above by Trail's Pass. It was most probably a few minutes past five The Sun God was rising behind Chhanguch that had a halo around its peak and streaks of rays struck the tip of Baljouri first and created a dazzling saffron effect which gradually changed colour and size with the tick of very second. Few minutes elapsed and Baljouri was a proud onwer of a resplendent golden crown. Next was Panwalidwar and ultimately Nandakhat had the identical effect. Finally all the three peaks glared at us as if molten gold was being poured on them, which slowly and proportionately engulfed the respective peaks. It was a drama and the most dramatic part was that the sun was not yet in sight. This drama or a drastically dramatic change every minute, as शिक्षा - एक यशस्वी दशक one may like to emphasize, proves rightly Shakespeare's saying, "this world is a stage". Ofcourse the very next line says, "where every man has got a part to play and mine is a sad one," and out here, right now it was Sun God's and Nature God's role and theirs is a spiritually spectacular and stupendous one. All of us stood dumb - I felt breathless, may be skipped a beat, the shiver in the cold did not have any effect, eyes were wide open without a single flip - the surrounding was incredibly pretty and Nature played havoc with colours the mountain tops were the play grounds - they were being bathed with golden, saffron, red, white, yellow, pink colours which were changing now and then like a chameleon. All were quite and the term 'noise' was applicable to the trickle of the River Pindari, the fiercely blowing cold wind, clicking of cameras and at times of sudden sigh due to haevy breath. Right at the end of the ridge, on which we were standing was a board with the inscription, "Zero Point...aagae khatra hai" and two small triangular saffron flags were fluttering wildly whispering messages of peace into the serene wilderness. On the whole it was an inexpressible perception. To believe it or to sense the magnificiant touch, the tenderness, the emotion, one has to confront the very environment. Photographs and mere words are never sufficient enough to depict the Divine display. On my return to this more materialistic world, I automatically recall the words of Eric Shipton - "He is lucky who, in full tide of life, has experienced a measure of the active environment that he most desires. In these days of upheaval and violent change when the basic values of today are in vain and shattered dreams of tomorrow, there is much to be said for a philosophy which aims at a full life while the opportunity offers. These are few treasures of more lasting worth than the experience of a way of life that is in itself more satisfying. Such, after all, are the only possessions of which no fate, no cosmic catastrophe can deprive us; nothing can alter the fact if for one moment in eternity we have really lived." With this lifetime experience of mine I would tell everyone "go out on the Himalaya and listen. You will hear much. The wind will hold for you something more than sound, the streams will not be merely babbling of hurrying water. The trees and flowers are not so separate from you as they are at other times, but very near; the same substance, the same song binds you to them. Alone amidst Nature, a person learns to be one with all and all with one." Asst. Teacher Shree Jain Vidyalaya, Howrah विद्यालय खण्ड / ४३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० बी. के. हर्ष संघर्षमय दशक की उपलब्धि किसी भी शैक्षणिक संस्था का प्रथम दशक संघर्ष से भरा होता है। यह संघर्ष अगर सम्पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ होता है तब "एक यशस्वी दशक' का प्रकाशन होता है। मेरी आंतरिक शुभकामना है कि विद्यालय अगणित दशक की सफलतापूर्ण यात्रा करे और शिक्षा क्षेत्र में अपना नाम सबसे ऊपर रखे । हमारी शिक्षा पद्धति इस समय एक विचित्र विरोधाभास के दौर से गुजर रही है। बाजार व्यवस्था ने हमारे सभी मूल्यों को झकझोरना आरम्भ कर दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में भाषा को लेकर जिस महीन तरीके से हमला आरम्भ हुआ वह एक बनी बनाई योजना है। आज सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं के समक्ष अंग्रेजी एक चुनौती के रूप में आकर खड़ी हो गई है। अंग्रेजी व्यापार की भाषा 'सकती है लेकिन भारतीय समाज के लिए वह आत्मा की भाषा नहीं हो सकती। जिनकी रगों में माँ का दूध दौड़ता है वे अपनी मातृजुबान कभी भी छोड़ नहीं सकते। मैं बोतल से दूध पीने वाले के बारे में नहीं जानता। किसी भी देश की शिक्षा-संस्कृति उसकी अपनी भाषा पर विकसित होती है। लेकिन हमारे यहाँ शिक्षा के कई स्तर हैं। शिक्षण संस्थायें जो सामाजिक जीवन को नया रूप देती हैं वे भी इन दिनों बाजार की गिरफ्त में फँस गई हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर जिसमें श्री जैन विद्यालय भी एक है। अनेक शिक्षा संस्थायें इन दिनों पाँच सितारा होटलों जैसा रूप ले चुकी हैं जो विद्यालय खण्ड / ४४ शिक्षा की दृष्टि में एक खतरनाक रूप है। यह स्थिति विभेद पैदा करती है जो हिंसा की प्रवृत्ति में परिणत होती है। वैसे भी देश के सामने अनेक समस्याएँ हैं। अगर शिक्षण संस्थायें इन्हें रोकने में सहायक नहीं हो सकतीं तो प्रोत्साहित तो न करें । शिक्षण संस्थाओं में जिन मूल्यों, आदर्शों को दिया जाता था और एक स्वस्थ नागरिक तैयार होता था, आज उसका अभाव होने लगा है। जो शिक्षण संस्थायें आज भी मूल्यों को लेकर चलती हैं उनका दायित्व दिनप्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। सामान्य आदर्श और मूल्य किसी विद्यार्थी को एक ऐसा नागरिक बना सकते हैं जिसकी आज घर, परिवार, समाज और देश को जरूरत है। शिक्षा मनुष्य में तीसरा नेत्र खोलती है जिसे विवेक का नेत्र कह सकते हैं। शिक्षा अज्ञान रूपी अन्धकार से लड़ने का शक्तिशाली प्रकाशमय हथियार है। शिक्षा अंध विश्वास के खिलाफ आदमी में चेतना जागृत करती है। शिक्षण संस्थायें आज भी चाहें तो यह कार्य फिर आरम्भ कर सकती हैं। मुझे विश्वास है यह कार्य भविष्य में आरम्भ होगा । प्रधानाचार्य : हरकचंद कांकरिया श्री जैन विद्यालय, जगतदल निकिता अग्रवाल, अष्टम् ब शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O A. K. Tiwari achievements of child are partly due to genetic factors like intelligence and partly by the nurturance at home. The way the child is treated at home influences his motivation and interests, not only before he starts going to school but throughout school life. It is the parents who can supplement and support the activities of teachers. Attitudes and actions of the parents are as important as those of teachers for proper education of children. Vice PrincipalShree Jain Vidyalaya, Kolkata Home and Education The mother is the first teacher of the child and home is the primary informal educational institution. Childhood or infancy is the most impressionable age, just like a clean slate on which anything can be written. If negative impressions are provided to the child at home, it would be very difficult to remove these during the years of schooling of the child. If the child is reared in an open, affectionate and free environment with due care and attention, later development of the child would be healthy. Home, therefore, plays the most significant role in laying the foundation of a child's personality. In today's complex society and the family have the greatest influence on growth and development of child's personality. His attitudes and values are dependent on how he is nurtured by parents. The child's intellectual abilities, aspiration and commitments are first acquired in the family. For proper development of child it is of paramount importance that parents are accordingly educated. A good parent may be one who understands and accepts the growing child with his needs and aspirations. He provides due freedom to child and avoids imposition of his views and attitudes on him. A good parent has a caring but never possessive attitude towards the child. They believe in autonomous growth of the child. This blossoms child's personality Home not only influences the socialization and aculisation of the child, but it also plays a significant role in determining the educability of the child. The differentiated शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/४५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 अमर कुमार शाही, १०-ब गोविन्द सिंघी, सप्तम ग पैसों की माया शर्म का मोल नहीं, ईमान का मोल नहीं, सच्चाई का मोल नहीं, सिर्फ.....सिर्फ पैसे का मोल है । यह पैसे की माया है, आदमी न सोचता है, न समझता है, सिर्फ पैसे की ओर भागता है, दौलत की आकांक्षा रखता है। पैसे की खातिर, हत्या, डकैती व चोरी करता है । माँ-बाप व परिवार का त्याग करता है, रिश्ते नातों का परित्याग करता है । यह पैसे की माया है, दोस्त दुश्मन बन जाते हैं। प्यार शत्रु हो जाता है, सिर्फ पैसे की खातिर । यह दुनिया बदल जाती है यह पैसे की माया है। जंगल में वन डे जंगल में वन डे क्रिकेट का, आयोजन था भारी। सभी जानवरों ने की जमकर, मैचों की तैयारी। कप्तानी का भार शेर ने, पहले पहल उठाया। उद्घाटन का मैच जीत कर, उसने नाम कमाया । शतक जमाकर बड़ी शान से, हाथी जी मुस्काये। चीते की इक तेज गेंद ने, तीनों विकेट उड़ाये। पुरस्कार बल्लेबाजी का, कंगारू ने पाया । छक्के चौके से ही उसने, दोहरा शतक बनाया। आँखों देखा हाल, रेडियो से भी गया सुनाया। जंगल टी.वी. ने भी सारे, मैचों को दिखलाया। विद्यालय खण्ड/४६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशुतोष शुक्ला, पंचम ख साक्षरता किसी देश की अशिक्षा उसकी उन्नति में एक महान् रुकावट है। जब तक कोई देश पूर्ण शिक्षित नहीं हो जाता तब तक उसकी सम्यक् उन्नति नहीं हो सकती। संसार में शिक्षित होने के उपरान्त ही किसी देश ने पूर्ण उन्नति की है। भारत के पिछड़े रहने का एक प्रमुख कारण यहाँ की अशिक्षा है। विदेशी शासन के कारण यहाँ की जनता को शिक्षित करने का अत्यल्प प्रयास किया गया। यह एक अत्यन्त आश्चर्यजनक विषय है कि १९५१ की जन गणना के अनुसार भारत में साक्षरों की संख्या लगभग साढ़े सोलह प्रतिशत थी। इनमें से कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी प्रकार हस्ताक्षर कर सकते हैं। अवशिष्ट तीस करोड़ व्यक्ति अशिक्षित हैं। निरक्षरता - एक महान् अभिशाप: यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो ज्ञात होगा कि भारत में प्राचीनकाल में भी साक्षरता कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित थी शिक्षा पर ब्राह्मणों का आधिपत्य था तथा उन्होंने शुद्रों को जो बहुत बड़ी संख्या में थेशिक्षा के अधिकार से वंचित रखा था। उन पर तो यहाँ तक प्रतिबन्ध लगाया था कि यदि वे वेद-मन्त्र को सुन लें तो उनके कान में शीशा पिघला कर डाल दिया जाय । - प्राचीन भारत शिक्षा के क्षेत्र में उन्नत था, पर सभी लोग लाभान्वित नहीं हो पाते थे। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों ने भी शिक्षा के प्रचार पर ध्यान नहीं दिया। अंग्रेजों के युग में भारतवर्ष में साक्षरों की संख्या ५ से ७ प्रतिशत तक थी । इधर साक्षरों की संख्या मे जो वृद्धि हुई है, उसका प्रमुख कारण देश की स्वतन्त्रता शिक्षा - एक यशस्वी दशक के उपरान्त राष्ट्रीय सरकार द्वारा शिक्षा का प्रचार-प्रसार है। इस प्रकार भारतवर्ष में निरक्षरता एक महान् अभिशाप बनकर यहाँ की प्रगति में बाधक रही है। जनता जब तक साक्षर नहीं हो जाती वह अपने अधिकार एवं कर्तव्य को नहीं समझ सकती किसी भी देश के नागरिकों का अज्ञानान्धकार में पड़े रहने का अर्थ देश को प्रगति के पथ से वंचित करना है। साक्षरता का प्रचार विगत् १९३७ई० में जब देश के कई प्रान्तों में प्रथम बार राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हुई तो निरक्षरता को दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था की गयी, जिसका प्रमुख लक्ष्य देश से निरक्षरता को दूर भगाना था। यह साक्षरता आन्दोलन उन दिनों जोर-शोर से चल पड़ा था और प्रायः प्रत्येक गाँव में सायंकाल के समय प्रौढों को साक्षर बनाने का कार्य होता था। सरकार ने इसके लिए काफी रुपये भी खर्च किये और प्रत्येक शिक्षक का मासिक वेतन देने के अतिरिक्त मौकों के लिए पुस्तकालय खोलने की भी व्यवस्था की इन पुस्तकालयों में प्रौदों के उपयोग के लिए विशेष प्रकार की पुस्तकें प्रकाशित की गयीं। साक्षरता- देशोन्नति का साधन : इस प्रकार रात्रि पाठशालाओं के द्वारा कई लाख व्यक्ति साक्षर बनाये गये और इस कार्य में देश के छात्र-छात्राओं ने भी सेवा की भावना से सहयोग किया। जिस क्रम में साक्षरता आन्दोलन प्रारम्भ किया था, यदि वह क्रम अब तक बना रहता तो देश के शत्-प्रतिशत लोग साक्षर हो गये होते। अभी भारतवर्ष में साक्षरों की संख्या ६२ प्रतिशत है। साक्षरता शिक्षा का प्रथम सोपान है। अविद्यान्धकार में पड़े रहने से कोई भी देश उन्नति नहीं कर सकता। शिक्षा के द्वारा ज्ञान-वृद्धि होती है तथा वे स्वयं अपनी उन्नति का मार्ग परिष्कृत करते हैं। अतः देश की भलाई को दृष्टिगत रखते हुए सभी लोगों को साक्षर बनाने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिए। हम स्वतंत्र भारत के नागरिकों का कर्तव्य है कि हर प्रकार से निरक्षरता को दूर करने में सहयोग दें। UNITY IS Strongthi रीतिका बलसारिया, ११ बी विद्यालय खण्ड / ४७ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज्योति श्रीमाल, नवम् अ देवरानी झट बोलीनहीं, सचिन-सा क्रिकेटर बनायेंगे। धीरे-धीरे वक्त बीतने लगा, पड़ने लगी फिर संबंधों में दरार, जब आ गया मन में अहंकार, पहली कक्षा का परिणाम आया था। जेठानी का पुत्र प्रथम आया था। देवरानी की बेटी ने करिश्मा दिखलाया, तीनों सेक्शनों में सबसे ऊँचा स्थान पाया। परन्तु निज सुत कक्षा में पंचम था, क्योंकि वह क्रिकेट टीम का कैप्टन था। जेठानी ने रसगुल्लों का पैकेट मँगवाया था, संग रसगुल्लों के टॉफी का रौब दिखाया था, देवरानी ने समोसों का भोज दिया था, समोसों के संग बेटी का रिज़ल्ट भेज दिया था। उसके बेटे का कप स्कूल ने रख लिया था। सिर्फ रिज़ल्ट और एक तोहफा भेज दिया था। फिर नियति बन गयी थी दिल ही दिल में घुलना, क्योंकि होने लगी थी बात-बात में तुलना। भाइयों में भी पड़ गयी दरार, कारण था पत्नियों का अहंकार; दरार का हुआ यह परिणामएक परिवार के हो गये तीन मकान। बेटा इस वर्ष सारे स्कूल में प्रथम था। यदि न पड़ी होती रिश्तों में दरार; तो आज मिलता उसे सबका प्यार। छीन लिया अहंकार नेबड़ों का दैव दुर्लभ आशीर्वाद ।। अहंकार का परिणाम बेटे ने पूछा-माँ क्यों नहीं चलती हो चाचा-चाची के पास, याद बहुत आती है दादा दादी की। माँ की आँखें बरसने लगीं, बीती बातें याद आने लगीं। उत्तर दिया-बेटा थोड़ा और वक्त निकल जाने दे। तेरा सालाना रिज़ल्ट तो आने दे।। बेटे का चेहरा कुम्हला गया, बैट बॉल उठाया और चला गया। माँ को याद आने लगा अपना वह सुखी संसार। हाँ, कभी था उसका भी हँसता खेलता संयुक्त परिवार, बीती घड़ियाँ याद आने लगीं; अँखियाँ भर के बहने लगीं। उसके गृहप्रवेश पर जेठानी ने बढ़कर गले लगाया था, देवरानी के आगमन पर स्वयं उसने इस रस्म को निभाया था, जेठानी में बड़ी बहन का रूप समाया था। देवरानी में अपनी सखी को पाया था। कैसे मिलकर मनाते थे दीवाली, रंगों की फुहार लेकर आती थी होली, पुत्र जन्म पर सारा परिवार खिलखिलाया था। सास ससुर का मानो बचपन लौट आया था। पहले जेठानी ने ही तो इसके मुँह से 'माँ' सुना था। देवरानी ने भी कितना सुंदर सपना बुना था। गोद में लेकर भाभी बोली थींभई इसे तो इंजिनियर बनायेंगे, विद्यालय खण्ड/४८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के आइने में अमर चौधरी, नवम् अ उनकी संख्या बहुत कम थी। समाज में उन्हें प्रतिष्ठा नहीं मिलती थी। इस परिप्रेक्ष्य में धर्म और धार्मिकता को बहुत महत्व दिया जाता था। सभी परम्पराओं में साधुओं की बहुलता थी। शक्ति के उपासक वीतरागता को अनिवार्य नहीं मानते थे। आध्यात्मिक धारा में वीतराग का होना अनिवार्य समझा जाता था। महावीर भगवान ने उपदेश दिया है कि जीवन की सफलता के दो विशाल स्तम्भ हैं- ज्ञान और शक्ति। आज के वर्तमान युग में यह उपदेश चरितार्थ होता है। आज के युग में वही व्यक्ति सफल होता है जो ज्ञानी होने के साथ-साथ शक्तिशाली भी हो। शक्तिहीन ज्ञान, दयनीय और ज्ञानहीन शक्ति भयंकर होती है। दोनों का योग होने पर दोनों समर्थ और अभय बन जाते हैं। ज्ञान भी पराक्रम का एक अंग है। पराक्रम-शून्य व्यक्ति ज्ञान अर्जित नहीं कर सकता और पराक्रम का उचित उपयोग अज्ञानी व्यक्ति नहीं कर सकता। दोनों की सार्थकता दोनों के समन्वय में है। इस दुनिया में कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन पर हम सहसा विश्वास नहीं करते। हम उन्हीं बातों पर विश्वास करते हैं जिनसे परिचित हैं। भगवान् महावीर ने कहा है कि 'स्थूल जगत् के साथ भगवान महावीर स्थूल व्यवहार ही अच्छा है।' जो वर्तमान के लिए सटीक है। यहाँ भगवान महावीर वर्तमान युग में भी उतने ही समीचीन हैं जितना जो जैसा करता है उसके साथ भी वैसा ही हो, वो यही चाहता है। वे उस समय थे। भगवान महावीर के जीवन का अध्ययन करने पर चेतना की ज्योति न हो तो कोई व्यक्ति ज्योतिष्मान नहीं हो हम देखेंगे कि उनका समस्त जीवन सत्य की खोज और उसके सकता। चेतना की ज्योति के साथ-साथ ध्यान एवं संयम की भावना प्रतिस्थापन में ही व्यतीत हुआ। साधना के इतिहास में भगवान जैसे का होना भी अनिवार्य है। इन दोनों के बिना वह प्रकट नहीं होती। महान तपस्वी विरले ही मिलेंगे। महावीर के सिद्धान्तों में विश्व की भगवान महावीर की भाषा में जहाँ अहिंसा है वहाँ अपरिग्रह समस्त विचारधाराओं के समन्वय की क्षमता है। भगवान महावीर ने जुड़ा हुआ है। जहाँ अपरिग्रह है वहाँ अहिंसा जुड़ी हुई है। आज राजकु-गर होते हुए भी सामान्य जाति के दुःखों को नजदीक से सत्ता और धन के संग्रह से प्रतिहिंसा होती है तब हम सोचते हैं कि समझा था। उनका जीवन सादगी भरा था। आज वर्तमान में हमलोग हिंसा बढ़ रही है। भगवान की भाषा में यह बढ़ी हुई हिंसा के प्रति व्यवहार के स्तर पर सोचते हैं और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति को विभक्त हिंसा है। आज का चिन्तन महावीर की उस भाषा को दोहरा रहा कर देते हैं। महावीर के जीवन का अध्ययन करने से पता चलता है कि हिंसा की वृद्धि को रोकने के लिए सत्ता और धन के है कि भारतीय जीवन में पुरुषार्थ की प्रेरणा देने वालों में भगवान एकाधिकार को रोकना आवश्यक है। महावीर ने इसे रोकने का महावीर अग्रणी हैं। उपाय बताया था, "हृदय परिवर्तन'। आज के राजनीतिक दार्शनिकों भगवान महावीर को इतिहास के आइने में देखने के लिए हमें ने इसका उपाय बताया है, 'दंड-शक्ति'। किन्तु दंड-शक्ति का वर्तमान की स्थितियों और महावीरजी के जीवनकाल की स्थितियों का प्रयोग होने के बाद अब यह विचार बीज अंकुरित हो रहा है कि तुलनात्मक अध्ययन करना होगा। परिवर्तन जगत् की नियति है, ऐसी जनता का विचार बदले बिना दंड-शक्ति सफल नहीं हो सकती। नियति कि जिसे कोई टाल नहीं सकता है। जहाँ परिवर्तन है वहाँ इसलिए इतिहास के साथ वर्तमान के लिए भी महावीर का उपदेश उन्नति और अवनति भी आवश्यक है। अर्थात, उतार-चढ़ाव भी बिल्कुल सत्य है। अनिवार्य है। इस नियति चक्र में कोई भी एकरूप नहीं रह सकता। महावीर मनुष्य की स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं चाहते थे। __महावीर का काल धर्म की प्रधानता का युग था। राजा और स्वतंत्रता का अपहरण हिंसा है और जहाँ हिंसा है वहाँ समस्या है, प्रजा सब धर्म में विश्वास करते थे। धर्म की सत्ता राज्य की सत्ता दुःख है। ऐसा महावीर का मानना था। इस दुःख से छुटकारा पाने से ऊपर थी। धर्म को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी थे। पर के लिए महावीर ने आत्मानुशासन का सूत्र दिया है। उन्होंने कहाशिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/४९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . SPONDI अपने आपको अनुशासित करो। अपने आपको अनुशासित करना इस समय मानव समाज को प्रकाशित करते रहे, कर रहे हैं और सबसे कठिन है। अपने आपको अनुशासित करने वाला वर्तमान करते रहेंगे। भगवान महावीर ने अपनी साधना के द्वारा धर्म और और भविष्य में जीवन की दोनों धाराओं में सुखी रहता है। संयमता की ऐसी ज्योति जलाई जो आज भी सत्य तथा कर्म के भगवान महावीर ने सत्य का साक्षात्कार किया है। उन्होंने प्रजा ईंधन से लगातार जल रही है। हित के लिए कुछ सत्यों का प्रतिपादन किया। उनकी वाणी को उस भगवान के जीवन दर्शन में शाश्वत् और सामयिक दोनों सत्य युग की जनता ने अपनाया। किन्तु कोई भी नया विचार उस समय व्यक्त हुए हैं। आज का यथार्थवादी युग उनके द्वारा अभिव्यक्त एकसाथ समाज-मान्य नहीं होता। भगवान महावीर ने अहिंसा और यथार्थ की क्रियान्वित का उपयुक्त समय है। स्वतंत्रता, सापेक्षता, संयम की जो धारा प्रवाहित की थी, वह उनके निर्वाण की दो सहअस्तित्व, समन्वय, समत्वानुभूति जैसे तत्व आज जाने अनजाने शताब्दियाँ बीतते-बीतते शिथिल होने लगी। लोकप्रिय बनते जा रहे हैं। इस सहज धारा में हम एक धारा और भगवान महावीर ने कर्म की शक्ति को स्वीकार किया, पर उसे मिलायें जिससे वह महाप्रवाह बन मानव जीवन की उर्वरा भूमि को सर्वोच्च शक्ति के रूप में मान्यता नहीं दी। कर्म का उदय समय पर अहिंसा और अनेकांत का सिंचन दे सके। वह सिंचन हम सबके ही नहीं होता, उससे पहले भी हो सकता है। यदि उसका उदय लिए, समूचे विश्व के लिए कल्याणकारी होगा। नियत समय पर ही हो तो, कर्मवाद एक प्रकार का नियतिवाद ही हो जाता है। नियतिवाद में पुरुषार्थ की सार्थकता नहीं होती। महावीर ने बताया की मनुष्य अपने आंतरिक प्रयत्न से बंधे हुए कर्म की अवधि को घटा भी सकता है और बढ़ा भी सकता है। कर्म के इस सिद्धांत ने मनुष्य को निराशा, अकर्मण्यता और पराधीनता की मनोवृति से बचाया। यदि वर्तमान का पुरुषार्थ सत् हो तो अतीत के अशुभ कर्म-संस्कारों को क्षीण कर या शुभ में बदलकर मनुष्य अन्धकार में प्रकाश ला सकता है। भगवान महावीर ने यह आभास कराया कि मनुष्य कर्म के अधीन नहीं है, कर्म उसकी अधीनता का निमित्त है। भगवान महावीर ने अध्यात्म की भूमिका पर कहा था-"मैं संयम और तप के द्वारा अपने आप पर शासन करूँ, यह मेरे लिए अच्छा है, कोई दूसरा डंडे के द्वारा मुझ पर शासन करे, यह मेरे लिए शर्मनाक बात है।" स्वतन्त्रता का यह विचार व्यवहार की भूमिका पर विकसित हुआ। उपनिवेशवाद के विरुद्ध क्रांति हुई। प्रत्येक देश स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलित हो उठा और वर्तमान विश्व का बड़ा भाग आज स्वतंत्र है। आज विषमता भी समता के आचरण में ही पल सकती है। वर्तमान में इन विचारों के साथ किसी का नाम जुड़ा नहीं है। ये या इसी कोटि के विचार विश्व के अन्य महापुरुषों ने भी दिये हैं। पर अनुसंधान करने पर पता चलेगा कि इन विचारों के पीछे भगवान महावीर के अनुभवों और वाणी का कितना बड़ा बल है। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार दूर भाग जाता है और चारों तरफ प्रकाश फैल जाता है। उसी तरह महावीर का जन्म भी ईसा पूर्व ८७७ में सूर्य की तरह हआ। उन्होंने अपने किरणरूपी उपदेशों से सारी दुनिया को प्रकाशित किया। भगवान् महावीर रूपी सूर्य के ईसा पूर्व ७७७ में अस्त हो जाने के बाद भी उनके उपदेश विद्यालय खण्ड/५० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सच्चिदानन्द दूबे, नवम् ग 0 अंकुर धानुका, षष्टम् ब गुरू (शिक्षक) मैं पहले हमारे देश के महान् कवि कबीरदासजी की एक पंक्ति प्रस्तुत करना चाहूँगा गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय । गुरू पानी की तरह निर्मल और स्वच्छ होता है। गुरू ज्ञान से परिपूर्ण होता है। ये हमें भी ज्ञान के मार्ग पर चलाना चाहते हैं और अपने सभी छात्रों को अपने से बड़ा बनाने की उम्मीद रखते हैं। ___ नदी जिस तरह से अपने लिए जल संचयन न कर प्यासों को पानी पिलाती है, उसी तरह गुरू अपने छात्रों को अपना सारा ज्ञान प्रदान कर देना चाहता है। __ जैसे पेड़ अपने लिए कुछ नहीं रखता। रास्ते के निवासियों को छाया प्रदान करता है, जीने के लिए आक्सीजन देता है और हमें खाने के लिए फल देता है, वैसे ही गुरू हमें बड़ा बनाने के लिए ज्ञान देता है। गुरू स्वार्थी नहीं होता। इसलिए गुरू को भगवान् से भी बड़ी मान्यता दी गई है। कबीर ने तो यह कहा है धरती सब कागज करूं, लेखनी सब बनराय; सात समुद्र मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय । बच्चों देशभक्त बन जाना बच्चो! देश भक्त बन जाना, भारत माँ की लाज बचाना, जिसका देश बड़ा होता है, तन कर वही खड़ा होता है, रोटी-रोटी मत चिल्लाना । रोटी तो है मात्र बहाना, पहले देश बाद में सब कुछ, यही पाठ तुम पढ़ते जाना। बच्चों! देश भक्त बन जाना, तुम ही हो राणा प्रताप, तुम ही हो इस बाग के माली । इसकी रक्षा ही जीवन है, यही अपना तन-मन-धन है। कभी न पीछे तुम मुड़ जाना बच्चों! देश भक्त बन जाना, भारत माँ की लाज बचाना। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/५१ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दीप शर्मा, दशम् ब आशीष, अंकित, षष्टम ब चुटकुले रेलगाड़ी के टिकट चेकर ने एक यात्री से कहा, भाई आपका टिकट तो कोलकाता का है पर यह गाड़ी तो मुंबई जा रही है। __यात्री- गाड़ी मुंबई जाए या दिल्ली, इससे मुझे क्या, इसमें तो गाड़ी चलाने वाले की गलती है। एक पत्नी ने अपने पति से कहा जाओ और एक-एक रुपये के आलू और प्याज लेकर आओ। पत्नी- आलू प्याज लाए। पति- नहीं। पत्नी- क्यों? पति- क्योंकि तुमने यह नहीं कहा था कि किस रुपये का आलू लाऊँ और किस रुपये का प्याज। शिक्षक छात्र को मारते हैं। छात्र कहता है कि शिक्षक महोदय आपको मालूम नहीं है कि मुझे जोर का झटका धीरे से लगता है। चुटकुले नौकरानी-खाना बनाने के बाद मेहमानों से क्या कहूँ, खाना तैयार है या खाना खा लीजिए। मालकिन-यदि कल जैसा खाना बना हो, तो कहना कि खाना बेकार है। a en gran MICKEY MOUSE रमेश- समझ में नहीं आ रहा कि चित्रकार ने यह दृश्य सूर्योदय का बनाया है या सूर्यास्त का। सुरेश-सूर्यास्त का ही होगा। इसका चित्रकार दस बजे से पहले सोकर नहीं उठता। रेखा- आज के पेपर में मुझे कुछ नहीं आता था। मैंने कोरा कागज ही जमा कर दिया। नेहा- हे भगवान, सभी समझेंगे, तूने मेरी नकल की है। अजय- क्या तुम्हारे पापा पापड़ बेलते हैं। विजय- हाँ, शायद। कल पापा मम्मी से कह तो रहे थे कि घर को चलाने के लिए मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। माँ-पप्पू, तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए कि पिटना SAS gudana पड़े। AN ___ पप्पू- ठीक है, माँ आज मैं स्कूल नहीं जाऊँगा। वहाँ मास्टरजी पिटाई करते हैं। अध्यापक- प्रकाश की किरण का वाक्य में प्रयोग करो। छात्रा- मेरे पड़ोसी प्रकाश की किरण से शादी होने वाली है। विद्यालय खण्ड/५२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 मिन्की अग्रवाल, पंचम् ब दुःख इंसान की जिन्दगी में दुःख का सैलाब आता है, तब वह अपनी वास्तविकता से बेखबर हो जाता है। दिन में तारे नजर आते हैं, रात को सूर्य दिखता है। अपनों की बातें जहर लगती हैं, खुद पर कहर बन बरसती हैं । दु:खों का क्या है निदान, बता दे ओ, भगवान । ताकि कर दूं मैं, जगत् से दु:खों का निदान । पंद्रह अगस्त पंद्रह अगस्त आया है, वीरों की याद दिलाया है। आओ मिलकर खुशी मनाएँ, खुद हँसे औरों को भी हँसाएँ । सबको प्रेम का पाठ पढ़ाएँ, हम सब मिलकर नाचें गाएँ । नाटक खेलें नृत्य करें, भाषण दें और कविता करें। देश रक्षा की शपथ लें, निरंतर आगे बढ़ते चलें। HA TO शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/५३ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणवेश मिश्र को प्रणाम कर लेता हूँ। नगर में प्रवेश से पहले गंगा माता के दर्शन होते हैं, जिन्हें देखने मात्र से मन के सारे मैल धुल जाते हैं एवं शरीर ऊर्जा-स्फूर्त हो उठता है। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम पौराणिक काल से अपने धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष माघ मास में कुम्भ स्नान में शरीक होने अनगिनत श्रद्धालु यहाँ आते हैं। हाड़ कैंपा देने वाली ठण्ड में भी श्रद्धालुओं की श्रद्धा-भक्ति देखते बनती है। गंगा जल के स्पर्श मात्र से समस्त मानसिक और शारीरिक व्याधि से मुक्ति पाने की कामना लिए धर्मानुरागी अपनी अटूट आस्था का परिचय इस मेले में देते हैं। नये और अपरिचित श्रद्धालु इस स्थान पर पहुँच कर अपना जीवन सार्थक समझते हैं। संगम तट पर अवस्थित अकबर का किला भी अपने मुगलकालीन ऐतिहासिक महत्व की याद दिलाता है। प्रयाग दर्शन के पश्चात् हम सभी अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर हुए। इलाहाबाद से चित्रकूट जाने के दो मार्ग हैं। एक इलाहाबाद से रीवाँ होते हुए सतना के पास से जिसकी दूरी १९० अनसइया का आर कि.मी. है। दसरा मार्ग इलाहाबाद से सीधे चित्रकट के लिए है मानस प्रणेता सन्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास की जिसकी दूरी १०० कि.मी. के करीब है। इलाहाबाद से चित्रकूट साधनास्थली चित्रकूट जाने और देखने की मेरी प्रबल कामना बचपन का पहाडी मार्ग प्राकृतिक सम्पदा से सम्पन्न है। बीच-बीच में से थी। पर, ऐसे सुयोग जीवन में बड़े दुर्लभ होते हैं। तमाम कोशिशों पर्वतखण्ड दिखाई पड़ जा रहे थे एवं सड़क के अगल-बगल बहने के बावजूद ऐसे सुयोग सुलभ नहीं हो पाते। मेरी इच्छा कब पूर्ण वाली नदियाँ और नाले भी बड़े मोहक लग रहे थे। जिन्हें सड़क के होगी यह मैं नहीं जानता था। वहाँ जाने की मेरी इच्छा और भी एक किनारे से दूसरी ओर पार करने की दृष्टि से सामान्य धरातल बलवती होती जा रही थी। से गहरे पुल बने हुए थे। स्थानीय बोलचाल की भाषा में वहाँ के सन् २००१ के शीतावकाश दिसम्बर महीने में अपने पैतृक लोग ऐसे पल को रपट्टा कहते हैं। इलाहाबाद से तीस-चालीस निवास पर पहुँचने का अवसर मिला। वहाँ पहुँचने पर परिवार वालों कि.मी. दक्षिण पश्चिम में जाने के बाद बहुत दूर-दूर पर गाँव के साथ अचानक चित्रकूट होते हुए अनसुइया आश्रम जाने की दिखाई पड़ते हैं, इसलिए दिन में भी सड़क वीरान, सुनसान रहती योजना बन गयी। २९ दिसम्बर को वहाँ जाने का दिन निश्चित हुआ। है। कुछ-कुछ देर बाद कुछेक गाड़ियाँ दिखाई पड़ जाती हैं। खेतिहर चिर प्रतिक्षित कामना मूर्त रूप प्राप्त करने जा रही थी। संचित पुण्य- और मजदर भी बहत कम नजर आते हैं। कहीं-कहीं छोटी पहाड़ियों पूंजी का भण्डार अपने प्राप्य का संयोग पा रहा था। मेरे लिये यह के बीच से सड़क गुजरती है तो मन शान्त हो उठता है। तरह-तरह विशेष गर्व का विषय था, क्योंकि यह मेरी पहली यात्रा थी, जबकि के प्रश्न मन में पैदा होने लगते हैं। इसी तरह मन में तरह-तरह की परिवार के सभी सदस्य वहाँ जाने का सुअवसर प्राप्त कर चुके थे। जिज्ञासा लिए हम सभी आगे बढ़ते जा रहे थे, गन्तव्य निकट आ २९ दिसम्बर को प्रात:काल हर्षोल्लास के साथ निजी वाहन के रह्य था। द्वारा हमने वहाँ के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में पड़ने वाले धार्मिक- चित्रकूट महत्वपूर्ण जगह होने के कारण जिला बना दिया गया स्थल अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध हैं। सर्वप्रथम है पर छोटी और अविकसित जगह होने के कारण उसका जिला तीर्थराज प्रयाग में पड़ाव था, जो मेरे लिए विशेष महत्व का स्थान मुख्यालय कर्बी बनाया गया है जो चित्रकूट से करीब १५ कि.मी. है, क्योंकि मेरी शिक्षा का आधार यही नगर है। इसी नगर के की दूरी पर है। इलाहाबाद से जाने पर पहले कर्बी पड़ता है, इसके विश्वविद्यालय का मैं स्नातक हूँ। जब कभी इस नगर के इर्द-गिर्द बाद चित्रकूट आता है। कर्बी भी दूसरी जगहों की तुलना में छोटा होता हूँ अध्ययन काल के बिताये हुए दिन अनायास ही स्मृति पटल शहर है, पर उस इलाके का बड़ा शहर होने के कारण जिला पर उभर जाते हैं। इसी बहाने तीर्थराज एवं शिक्षा की प्राचीन नगरी । मुख्यालय बनने का गौरव प्राप्त कर सका है। कर्बी शहर से जैसे विद्यालय खण्ड/५४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे आगे बढ़ रहे थे, मानस रचयिता गोस्वामीजी की याद मन में उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल स्थित गोरखपुर जिले के विभाजित थिरकने लगी थी, उनका चेहरा, उनकी साधना जैसे सब आँखों के देवरिया जिले के छोटे से गाँव रामकोला में जन्मे परमश्रद्धेय स्वामी सामने नाचने लग गये थे। हम चित्रकूट पहुँच गये। निस्तब्ध नीरव परमानन्दजी महाराज बचपन से ही अपने क्रिया कलापों के कारण नगरी जैसे गोस्वामीजी की साधना में व्यवधान के भय से शान्त हो लोगों में अद्वितीय बन गये थे। उनकी श्रद्धा-भक्ति जन-मानस से दूर गयी हो। लगता ही नहीं कि यहाँ जनमानस का कोलाहल होता हो। थी। कोई उनके ईश्वर-प्रेम को समझ नहीं पाता था। उसी गाँव में जन-कोलाहल से दूर होने के कारण गोस्वामीजी ने अपनी भक्ति- एक लंगडू बाबा थे जो बालक की दैवीय सत्ता को समझते थे, भावना को साकार करने के लिए तपस्यास्थली के रूप में इसे चुना जिनकी प्रेरणा से बालक परवर्ती दिनों में गृहस्थ आश्रम छोड़कर होगा, जो उनकी ईश्वर अनुरक्त भावना को पोषण देती रही होगी। सन्यास ग्रहण कर सका। चित्रकूट नगर मन्दाकिनी गंगा के उभय किनारे पर बसा हुआ है। बचपन से ईश्वर भक्ति में लीन होने के कारण किसी पथमन्दाकिनी के तट पर रामघाट अत्यन्त मोहक स्थान है। चित्रकूट प्रदर्शक की आवश्यकता तो उन्हें थी नहीं, प्रेरणास्वरूप लंगडू बाबा चौरासी कोस में फैला हुआ प्राकृतिक सुषमा सम्पन्न स्थल है। रामघाट, मिल ही गए थे। बालक गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी साधना के जानकी कुंड, हनुमान धारा, स्फटिक शिला आदि ऐसे और दृश्य हैं लिए आतुर रहता था। अन्ततः एक दिन ऐसा आया जब गृहस्थी जो चित्रकूट की पौराणिक महत्ता का परिचय देते हैं। चित्रकूट के के सम्पूर्ण दायित्व से निवृत्त होकर, सन्यास धर्म ग्रहण कर बालक चतुर्दिक पंचक्रोशी स्थान है, जो साठ-सत्तर किलोमीटर के क्षेत्रफल ने परिभ्रमण आरम्भ कर दिया। में फैला हुआ है। मन्दाकिनी के तट पर प्राय: सभी स्थान एक के बाद परिभ्रमण काल में उन्हें किसी नियत स्थान की कामना तो थी एक बसे हुए हैं, जो चित्रकूट जाने वाले धर्मानुरागियों की श्रद्धा को नहीं, जिधर आदेश होता उधर चले जाते। इसी क्रम में विचरण उद्दीप्त करते हैं एवं उस सन्त शिरोमणि की, राम भक्ति की सगुण करते उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण किया। सर्वप्रथम उन्होंने अपनी मार्गी धारा को सर्वोच्च आसनासीन करती है। हर मानस अनुरागी इस यात्रा अयोध्या से आरम्भ की, इसके बाद जो भी स्थान रास्ते में पड़ा स्थान पर पहुँच कर अपना जीवन सार्थक समझता है। उससे होते हुए वे आगे बढ़ते गए। परिभ्रमण काल में उन्होंने __ यात्रा का दूसरा पर्व शुरु होता है चित्रकूट से अनसुइया के गोरखपुर, जौनपुर, काशी, प्रयाग, अयोध्या, कलकत्ता, बम्बई, जम्मू लिए। सती अनसुइया आश्रम पौराणिक काल से महत्वपूर्ण है। ऋषि कश्मीर से होते हुए हिमालय के बर्फीले प्रदेश में समय बिताया और अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसुइया की साधना स्थली यही स्थान है। अनासक्त भाव से ईश्वर की सत्ता से साक्षात्कार करने के लिए वे उनके समकालीन अन्य ऋषि मुनियों ने भी अपनी साधना एवं भक्ति सतत् आगे बढ़ते रहे। के बल पर इस स्थान को पवित्र बनाया है। अपनी पौराणिक महत्ता इसी यात्रा क्रम में स्वामीजी ने अन्त:करण की प्रेरणा से स्फूर्त के अतिरिक्त सती अनसुइया आश्रम आज धर्मानुयायियों के लिए होकर अयोध्या में पदार्पण किया और वहाँ से चित्रकूट होते हुए एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। इसकी महत्ता कई रूपों में दिखाई अनसुइया पर्वत पर अपना स्थायी आश्रम बनाकर रहने का विचार पड़ती है। अनसुइया आश्रम की वर्तमान मर्यादा परमहंस आश्रम के किया। हर्षित मन से स्वामीजी ने चित्रकूट से अनसुइया आश्रम तक साथ जुड़ी है, जो आज वन्य प्रान्तर के बीच चहल-पहल का केन्द्र की यात्रा की थी। उन्होनें सोचा था भगवद्भक्ति का सबसे शान्त बना हुआ है। आज से कुछ वर्ष पहले तक अनसुइया स्थान जंगली स्थान यही हो सकता है। जन्तुओं का अड्डा मात्र था। पर जन कोलाहल होने के कारण पशु- चित्रकूट से अनसुइया जाने का पथ जंगली बीहड़ पथ से था, समाज वहाँ से अपनी सत्ता समेटता हुआ अन्यत्र चला गया। कँटीले रास्ते बड़े दुर्गम थे। उसी दुर्गम पथ से होते हुए स्वामीजी ने मन्दाकिनी तट पर विन्ध्य पर्वत की तलहटी में अवस्थित परमहंस अपनी कामना पूर्ति के लिए अनसुइया स्थल को चुना था, जो उस आश्रम आज विशेष रूप से भक्तों के लिए तीर्थस्थल बना हुआ है। समय केवल हिंसक पशुओं का केन्द्र था। “भौतिक मोह-माया के पौराणिक महत्व के साथ-साथ इस स्थान की साम्प्रतिक महत्ता भक्तों जाल से निवृत्त होकर मनुष्य जब समरस जीवन यापन करता है, के लिए आकर्षण का केन्द्र है। "सन्त महात्मा जिस स्थान पर पहुँचते तब पशु समाज में भी मानवता झलकती है।" इसी दृष्टिकोण से हैं, वह स्थान स्वत: तीर्थ स्थल बन जाता है।" अपनी जीवन लीला उन्होंने उस जंगल में मंगल की कामना से अपना आसन जमाया था। व्यतीत करते हुए देश परिभ्रमण करते हुए स्वामी परमहंसजी महाराज अनसुइया आश्रम में पहुँचने से पहले भी स्वामीजी निष्णात हो ने अपनी लीला और साधना स्थली के रूप में इसी स्थान को अधिक चुके थे और अपने शुद्ध सात्विक सन्तन्त्व के बल पर विभिन्न स्थानों उपयुक्त समझकर यहीं रहना उचित समझा था। पर पाखण्ड के दर्प से दीप्त तमाम बगुला-भगतों को परास्त कर शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/५५ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुके थे पर वे किसी जाति या सम्प्रदाय के साथ अपने को जोड़ना नहीं चाहते थे। अनसुइया आश्रम में जब वे स्थायी निवास करने लगे और अपनी भक्ति साधना के बल पर जनमानस में पूजे जाने लगे तो देश के समस्त भूभाग से श्रद्धालु आपकी चरण-रज के लिए यहाँ आने लगे। अपनी तेजस्वी प्रकृति के बल पर आपने जंगल को स्वर्ग बना दिया और अनायास ही उनकी भक्ति साधना से प्रभावित होकर सुदूरवर्ती गाँवों के लोग उनकी ओर आकर्षित हो गये। बड़े-से-बड़े साधु महात्मा आपके सम्पर्क में आकर 'ब्रह्म' की खोज में लीन हो गये । आपके द्वारा बसाया गया अनसुइया परमहंस आश्रम आज समस्त देश के श्रद्धालुओं और दर्शनार्थियों के लिए पूजनीय स्थान है। स्वामी परमहंसजी के सुयोग्य शिष्यों ने उनके आशीर्वचन को मर्यादा मञ्जरी के रूप में समस्त देश में फैलाना शुरू कर दिया था। स्वामीजी के वर्तमान आश्रम संचालक परम श्रद्धेय स्वामी भगवानन्दजी महाराज समस्त भारत में व्याप्त सैकड़ों आश्रमों की व्यवस्था देख रहे हैं और अपनी साधना भक्ति के बल पर शिष्यों को अपने आशीर्वाद से समृद्ध कर रहे हैं। स्वामीजी के दर्शन के लिए ही हम लोगों ने अनसुइया की यात्रा का निश्चय किया था। यात्रा के अन्तिम दौर मे चित्रकूट से अत्यधिक सँकरे मार्ग से होते हुए हम लोग अपने वाहन से अनसुइया पहुँच गए। माघ महीने की ठण्ड, दिन के तीन बजे ही सन्ध्या का स्वरूप दिखाई पड़ रहा था । विन्ध्य पर्वत की प्राकृतिक सुषमा सावन की - सी हरियाली से लदी हुई थी। पर्वत खण्ड के नीचे मन्दाकिनी तट पर बना हुआ परमहंस आश्रम जिस नैसर्गिक सुषमा की आनन्द दे रहा था उसका वर्णन कल्पनातीत है। आश्रम का समृद्ध संसार अपनी पूर्णता का परिचय दे रहा था। वन प्रान्तर की नीरवता से आभास हो रहा था कि स्वामीजी ने इसी कारण इस स्थान को चुना होगा। आश्रम में पहुँचने पर नये समाज की झलक मिलने लगी । आश्रम चारों तरफ पर्वत से घिरा हुआ तलहटी में बसा हुआ है। आज अनगिनत लोग उसी आश्रम में रहकर अपनी भक्ति साधना कर रहे हैं और दर्शनार्थियों के लिए प्रेरक हो रहे हैं। आश्रम से दो तीन मील की दूरी पर पर्वत की तलहटी में सन्तों की सारस्वत सत्ता को साकार स्वरूप देते स्वामी भगवानन्दजी महाराज अपनी साधना में तल्लीन थे। माघ महीने में कँपाने वाली ठण्ड में भी साधारण-सा वस्त्र धारण कर महल जैसे राजसिक सुख का परित्याग कर स्वामीजी साधनारत थे दूर से ही उनके दर्शन से हम सब कृत-कृत्य हो उठे। जीवन की संचित पुण्य-पूँजी से ही ऐसे सन्त महात्मा के दर्शन होते हैं। विद्यालय खण्ड ५६ पर्वत प्रदेश के उस भूखण्ड में हमलोगों की उपस्थिति से उन्होंने अपनी साधना को विराम देते हुए हमलोगों का कुशल क्षेम पूछा और प्रसाद देते हुए पुन: सुबह मिलने के ध्येय से आश्रम में रात बिताने का आदेश दिया। उनके ही एक शिष्य को छोड़कर वहाँ अन्य किसी को रहने का अवसर नहीं मिलता । सायंकाल स्वामीजी के दर्शन के पश्चात् हम सभी आश्रम की ओर लौट रहे थे। जंगल से चर कर वापस लौटती हुई रँभाती हुई गायों का अनुशासन देखकर स्वामीजी के नैष्टिक संस्कार का परिचय मिल रहा था, लगता था मनुष्यों से ज्यादा पशुओं को उन्होंने अधिक स्नेह सिंचित किया है। आश्रम में रात भर ठहरने की व्यवस्था हुई। माघ मास की पूर्णिमा की रजनी में चाँदनी समस्त वन प्रान्तर को आलोकित कर रही थी। दूर-दूर तक दिखाई पड़ने वाले वृक्ष जैसे अपनी मादकता में विश्राम कर रहे हों । आश्रम के अनुशासन स्वरूप प्रसाद ग्रहण कर रात्रिशयन किया गया। निस्तब्ध नीरव रजनी ने समस्त वन प्रान्तर की ध्वनि को अपने अंक में समाहित कर लिया था ब्राह्म वेला में ही चतुर्दिक ध्वनि संचार होने लगा। हमने भी अपने-अपने नित्यकर्म से निवृत्त होकर प्रभात वेला में मन्दाकिनी के उष्णोदक में स्नान किया। प्रकृति माता ने जैसे अपने भक्तों की चिन्ता कामना से मन्दाकिनी के उदक को शीत का प्रहार सहने के लिए उष्ण बना दिया है। प्रातः काल आश्रम की आरती में सबने भाग लिया। सूर्योदय हो जाने पर भी चारों तरफ से घिरा होने के कारण अंधेरा छाया था। धीरे-धीरे भगवान भास्कर की किरणें वृक्षों के झुरमुट को चीरती हुई पृथ्वी पर पड़ने लगीं जिनकी उपस्थिति से दिन होने का आभास होने लगा । सुबह हम सभी दर्शनार्थी अपनी मंगल कामना से प्रेरित होकर स्वामीजी के दर्शनार्थं गए। वहाँ उन्होंने हम सभी को अपने स्नेहोपहार द्वारा सिंचित कर दिया, रोम-रोम में उनका आशीर्वाद समाहित हो गया। वापस लौटते समय उन्होंने ही हम लोगों को गुप्त गोदावरी के दर्शन की आज्ञा दी। उन्हीं की आज्ञा से हम सभी गुप्त गोदावरी के दर्शनार्थ गए जो वहाँ से बारह किलोमीटर की दूरी पर है। पर्वत की गुफा के बीच यह स्थान बहुत मनोरम है। पौराणिक काल से, राम के वनवास गमन से ही यह स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुप्त गोदावरी के दर्शन करते हुए हम सब पुनः अनसुइया आश्रम के दर्शन की लालसा मन में लिए अपने निवास वापस हो गए। अन्त में यही बात मन में आती रही, बड़े शुभ मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की गई थी। सह-शिक्षक श्री जैन विद्यालय, हावड़ा शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sunbeam Manuel 7. When praying, don't give God instructions - just report on duty. 8. Don't wait for six strong men - help you on your eternal journey - 9. We don't change God's message. His message changes us. 10. When God ordains, He sustains. 11. Plan ahead - It wasn't raining when Noah built the ark. 12. Most people want to serve God - but only in an advisory position. 13. Exercise daily - Walk with God. 14. Never give the devil a ride - he will always want to drive. 15. Nothing else ruins the truth. like stretching it. 16. He who angers you, controls you. 17. Worry is the dark room in which negatives can develop 18. Give Satan an inch & he'll be a ruler. 19. God doesn't call the qualified, He qualifies the Called. Asst. Teacher Shri Jain Vidyalaya, Howrah Beautiful One Liner 1. Give God what's right - not what's left. 2. Man's way leads to a hopeless end - God's way leads to an endless hope. 3. A lot of kneeling will keep you in good standing. 4. He who kneels before God - can stand before anyone. 5. Don't put a question mark - where God puts a period. 6. Are you wrinkled with burden? Come and seek His help. शिखा तुलस्यान, अष्टम् ब शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/५७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुचि मिश्र १० — पानी एक चमत्कारिक औषधि है : मंगल भवन अमंगलहारी, द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी । दीनदयाल विरुदविहारी, हरहु नाथ मम संकट भारी ।। कई एक जानलेवा बीमारियों को दूर करने के लिए 'जापानीज सिकनेज एसोसिएसन' ने पानी द्वारा अत्यन्त सरल पद्धति की खोज की है। इस पद्धति से पानी पीने का प्रयोग करने से कई एक पुरानी जानलेवा बीमारियों को दूर किया जा सकता है। ★ सरदर्द, ब्लडप्रेसर, एनीमिया (खून की कमी) गठिया, लकवा, हृदय की धड़कन एवं बेहोशी ★ कफ खाँसी, दमा एवं टी० बी० । हाईपरएसिडिटी (अम्ल पित्त ) गैस से सम्बन्धित पेचिस, कब्जियत, अर्स, डायबिटिज (मधुमेह) लीवर से सम्बन्धित बीमारियां । पानी पीने की विधि — रोजाना सुबह जल्दी उठकर बिना मुंह धोये, बैठ कर १.२६० लिटर (चार बड़े ग्लास) पानी एक साथ पी जाना है। पानी पीने के बाद आप मुंह धो अथवा ब्रश कर सकते हैं। यह प्रयोग करने के ४५ मिनट बाद आप नाश्ता कर सकते हैं लेकिन २ घण्टे बाद ही अपनी इच्छानुसार पानी पी सकते हैं। इसी तरह दोपहर एवं रात के भोजन के २ घण्टे बाद पानी पी सकते हैं। बीमार एवं नाजुक स्वास्थ्यवाले व्यक्ति यदि एक साथ चार ग्लास पानी न पी सकें तो पहले एक या दो ग्लास पानी से प्रयोग विद्यालय खण्ड / ५८ शुरु करें, फिर धीरे-धीरे बढ़ाकर एक से चार ग्लास पी जायें। इसके बाद चार ग्लास पानी नियमित रूप से पीना जारी रखें। जिन्हें वातरोग या गठिया रोग (जोड़ों की बीमारियाँ) की तकलीफ हो, उन्हें इस प्रयोग को प्रथम एक सप्ताह तक दिन में तीन बार करना चाहिए। उसके बाद दिन में एक बार ही प्रयोग करें। पानी का यह प्रयोग अत्यन्त ही सरल एवं साधारण है। चार ग्लास पानी एक साथ पीने से शरीर पर कोई कुप्रभाव (Side effect) नहीं पड़ता है। शुरुआत के कुछ दिनों तक पानी पीने के बाद थोड़ी देर के बाद २, ३ बार पेशाब अवश्य आएगा लेकिन बाद में नियमित हो जाएगा। सच तो यह है कि इस प्रयोग की बीमार एवं तन्दुरुस्त व्यक्ति दोनों ही नियमित रूप से कर सकते हैं बीमार इसलिए कि उसे तन्दुरुस्ती मिले एवं तन्दुरुस्त इसलिए कि कभी बीमार न पड़े। अनुभवों एवं परीक्षणों के पश्चात् यह देखा गया है कि इस प्रयोग से अलग-अलग बीमारियों को निम्न अवधि में फायदा हुआ हाईपरटेनसन (ब्लड प्रेसर ) डायबिटीज (मधुमेह) गैस की तकलीफ कैन्सर कब्जियत टी.बी. १ महीना में ५ महीना में १० दिनों में ६ मीना में १० दिनों में ३ महीना में इस प्रयोग से लाभ उठाकर सभी तन्दुरुस्त हो सकते हैं। सिया राममय सब जग जानी। करउ प्रनाम जोरि जुग पानी ।। नोट : पानी रात में तांबे के बर्तन में रखा जावे और प्रात: काल उसी को पीने से अधिक लाभदायक होगा। शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → सत्येन्द्र मिश्र, बी. इ. आई. टी. (प्रथम वर्ष) काम का बँटवारा जो मनुष्य अपने कार्य को, ठीक तरह से समझ कर योग्यतापूर्वक संपादित करता है, प्राप्त दायित्वों का यथोचित संरक्षण एवं विकास करता है, वह सब जगह सफलता एवं सम्मान प्राप्त करता है। राजगृह में एक धन्ना सार्थवाह रहता था। वह वैभवशाली भी था और बुद्धिमान भी। उसकी भद्रा नाम की पत्नी बड़ी सुशील और गृहकार्य में निपुण थी । धन्ना सेठ के चार पुत्र थे- धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित । चारों पुत्रों की चार पत्नियाँ थीं- उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी । यह भरा पूरा परिवार बहुत ही सम्पन्न और सुखी था । एक दिन सार्थवाह के मन में विचार उठा- "मेरा शरीर जर्जर होने लग गया है, न जाने किस दिन यह साँस दगा दे जाए ! परिवार और घर की जिम्मेदारियाँ बहुत हैं, इधर कर्त्तव्य-शक्ति क्षीण हो रही 'है, अतः मैं अपने जीवनकाल में ही जिम्मेदारियों का कुछ बँटवारा कर दूँ, तो अच्छा हो। इससे मेरी मृत्यु के बाद भी परिवार की सब व्यवस्था ठीक बनी रहेगी। सब मिल-जुलकर आनन्द से रहेंगे।" कुटुम्ब एवं परिवार की सुन्दर व्यवस्था का मूलाधार गृहलक्ष्मियों पर है। अतः सार्थवाह ने सबसे पहले घर की जिम्मेदारी पुत्रवधुओं को सौंपने का निश्चय किया । किन्तु, कौन किस कार्य के योग्य है, यह देख लेना भी जरूरी थी। अतएव सार्थवाह ने उनकी शिक्षा - एक यशस्वी दशक रुचि और योग्यता की परीक्षा का एक मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाया । एक दिन सार्थवाह ने अपने समस्त परिजनों को एक विशाल प्रीतिभोज दिया। भोज के बाद परिजनों के समक्ष उसने अपनी पुत्रवधुओं को बुलाया। चारों पुत्रवधुएँ ससुर के समक्ष उपस्थित हुईं और उनके चरण छूकर विनम्रतापूर्वक एक ओर खड़ी हो गई । सार्थवाह ने पुत्रवधुओं को न कोई मूल्यवान आभूषण दिया और न कोई सुन्दर वस्त्र ही । उसने उनको दिये धान (चावल) के पाँच-पाँच दाने और कहा - "इन्हें सँभाल कर रखना, जब माँगूं तब मुझे वापिस ला कर देना।" पुत्रवधुओं ने दाने लिये और अपने-अपने स्थान पर जाकर विचार करने लगीं । पहली पुत्रवधू उज्झिका का मन वृद्ध ससुर के इस व्यवहार और आदेश पर हँस पड़ा। विचार किया कि "इस समृद्ध घर में चावलों का दुष्काल तो पड़ा नहीं है! धान के अनेक कोष्ठागार भरे पड़े हैं। फिर क्या जरूरत है, इन्हें संभाल कर रखने की ? ससुर के माँगने पर पाँच क्या, हजार दाने भी दिये जा सकते हैं।" अतः उसने दाने फेंक दिये। दूसरी पुत्रवधू ने सोचा- "ससुरजी ने जब इतने समारोह के साथ ये दाने दिये है, तो जरूर इनमें कुछ करामात होनी चाहिए। हो सकता है, किसी सिद्ध-पुरुष का प्रसाद ही हो, अतः खा लेने चाहिए ।" उसने धान छीलकर चावल के दाने खा लिए। तीसरी का मन भी कुछ इसी प्रकार के विचारों में लग गया कि- "ससुर ने जब इन्हें सुरक्षित रखने को कहा है, तो अवश्य ही ये चमत्कारी दाने होगे।” वह कुछ अधिक समझदार थी, उसने धान के दाने एक सुन्दर वस्त्र में बाँध कर अपनी रत्नकरण्डिका (रत्नों की मंजूषा) में सँभाल कर रख दिए, ताकि माँगने पर उन्हें तुरन्त दिए जा सकें। चौथी बहू इस उपक्रम की गहराई में उतरने लगी- "ससुरजी हजारों में एक बुद्धिमान हैं। उन्होंने पाँच दाने देने के लिए इतना बड़ा समारोह निरर्थक तो किया नहीं होगा ? अवश्य ही दानों के पीछे कोई विशेष प्रयोजन होना चाहिए। अतः इन पाँच दानों के बदले में पाँच लाख या पाँच करोड़ दाने दिये जा सकें, ऐसा उपाय करना चाहिए। ज्यों के त्यों पाँच के पाँच ही दाने लौटाए, तो क्या लौटाए ?" रोहिणी का प्रबुद्ध मानस घटना की सूक्ष्मता को पकड़ रहा था। उसने धान के पाँचों दाने अपने पिता के घर पर भेज दिये और विशेष ढंग से उन पाँच दानों की खेती कराने के लिए स्वतंत्र व्यवस्था करने के लिए भी कहला दिया। विद्यालय खण्ड / ५९ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरे चार वर्ष बीत गए, पाँचवाँ चल रहा था। वृद्ध सार्थवाह को इस वंश-वृक्ष को पल्लवित तथा पुष्पित करने की कला में वह पुरानी बात याद हो आई। अब उसने परीक्षा का परिणाम जानना निपुण है। वह सचमुच संवर्धन की देवी है।" चाहा। पुन: उसी प्रकार परिजनों एवं ज्ञातिजनों को प्रीतिभोज के "आज से रक्षिका को घर की चल-अचल सम्पत्ति की रक्षा का लिए निमन्त्रित किया। सबको भोजन आदि से सन्तुष्ट करके चारों दायित्व सौंपता हूँ। वह घर की हर चीज को सँभालती रहेगी, वह पुत्रवधुओं को बुलाया और चार वर्ष पूर्व दिये गए धान के पाँच-पाँच संरक्षण में कुशल है।" दानों की उन्हें याद दिलाते हुए, उनसे पाँचों दानों को वापिस माँगा। "भोगवती को परिवार के खान-पान, रसोई आदि व्यवस्था का बड़ी पुत्रवधू उज्झिका भीतर गई और भंडार में से धान के पाँच पूरा दायित्व दिया जाता है। खाद्य विभाग उसी के जिम्मे रहेगा।" दाने लाकर सेठ के हाथ में रख दिये। सेठ ने दाने हाथ में लेकर पूछा- “सबसे बड़ी बहू अज्झिका को घर की सफाई और स्वच्छता "पुत्री! क्या सचमुच ये दाने वे ही है, जो मैंने तुम्हें दिये थे?" का काम सौंपा जाता है। वह घर की सफाई का ध्यान रखेगी। वह उज्जिका ने हाथ जोड़कर कहा-"तात! नहीं वे दाने तो मैंने फेंकने की कला में होशियार है।" फेंक दिये थे, ये तो नए दाने हैं।" सभी परिजन एक नया विचार, एक नया अनुभव लिए लौट गए। अब भोगवती से दाने माँगे गए, तो उसने भी भंडार से लाकर “जिसमें जितनी योग्यता है, वह उतना ही अपना विकास कर सकता पाँच दाने सौंप दिए। सेठ के पूछने पर अपने मन की सही स्थिति है।" सेठ ने काम का बँटवारा अवस्था में छोटे-बड़े के आधार पर स्पष्ट करते हुए कहा-"वे दाने तो मैने खा लिए।" नहीं, बल्कि उनकी बुद्धि एवं योग्यता के आधार पर किया। रक्षिका की ओर सेठ ने देखा, तो उसने रत्न-करण्डक से पूर्व छात्र, श्री जैन विद्यालय, कोलकाता निकाल कर दाने ससुर के सम्मुख रखते हुए कहा-“ये वे ही दाने हैं, जो आपने चार वर्ष पूर्व मुझे दिए थे।" अब सबसे छोटी बहू रोहिणी से दाने माँगे गए, तो उसने विनय पूर्वक कहा-“तात! दाने तैयार हैं, पर उन्हें लाने के लिए बहुतसी गाड़ियाँ चाहिएँ।" रोहिणी की बात पर सब लोग चकित थे। सार्थवाह के चेहरे पर ब्रह्मचर्यसंबंधी सुभाषित भी आश्चर्य-मिश्रित प्रसत्रता की स्वर्ण-रेखा चमक उठी। उसने (दोहे) पूछा-"पुत्री, इसका क्या मतलब है? पाँच दानों के लिए गाड़ियों नीरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान; की क्या आवश्यकता है?" गणे काष्ठनी पूतळी, ते भगवान समान । १ रोहिणी ने बतलाया कि किस प्रकार उसने पिता के यहाँ खेत आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप; में अपनी एक अलग क्यारी बनवाकर पाँच दानों की खेती करवाई ए त्यागी, त्याग्युं बधुं, केवळ शोकस्वरूप । २ और धीरे-धीरे चार वर्ष में वे इतने हो गए हैं कि उन्हें ढोकर यहाँ तक लाने के लिए एक क्या, कई गाड़ियाँ चाहिए। एक विषयने जीततां, जीत्यो सौ संसार; सार्थवाह ने अपने परिजनों की ओर देखा। सभी के मुँह पर नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार । ३ रोहिणी की प्रशंसा थी। सबको सम्बोधित करते हुए सार्थवाह ने भावार्थ-नवयौवना को देखकर जिसके मन में विषय-विकार कहा- "मैने आप सबको इसीलिए कष्ट दिया है कि मैं अपनी का लेश भी उदय नहीं होता और जो उसे काठ की पुतली समझता पुत्रवधुओं को उनकी योग्यतानुसार काम की जिम्मेदारियाँ सौंप दूं। है. वह भगवान के समान है ।।१।। उनकी कुशलता और कार्यक्षमता का अनुमान आप लोग कर पाए इस सारे संसार की नायकरूप रमणी सर्वथा दुःख-स्वरूप है; होंगे। मैने जो उनकी योग्यता की परीक्षा की है, उसके अनुसार जिसने इसका त्याग कर दिया उसने सब कछ त्याग दिया ।।२।। उनके काम का बँटवारा किए देता हूँ।" सार्थवाह के धीर-गंभीर जैसे एक नपति को जीतने से उसका सैन्य, नगर और निर्णय को सुनने के लिए सब उत्सुक हो रहे थे। काम का बँटवारा अधिकार जीते जाते हैं. वैसे एक विषय को जीतने से सारा संसार करते हुए उसने कहा- "सबसे छोटी बहू रोहिणी है, उसे गृह जीता जाता है ।।३।। संचालन की पूर्ण जिम्मेदारी देता हूँ। इस गृह की वह स्वामिनी होगी। विद्यालय खण्ड/६० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशान्त मिश्र ११ विज्ञान , मन व कर्म राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ध्यान में बैठे हुए थे। वे ऊपर से तो ऐसे दीखते थे मानो आत्मा या परमात्मा में चित्त को लगाए हुए हैं लेकिन वास्तविक बात कुछ और ही थी। राजा श्रेणिक ने प्रसन्नचन्द्र ऋषि को इस प्रकार ध्यान में बैठे देखा। उसे आश्चर्य हुआ कि इस ऋषि का ऐसा प्रगाढ़ ध्यान है! इस प्रकार उनके ध्यान से प्रभावित होकर राजा ने भगवान् से पूछा-प्रभो ! प्रसन्नचन्द्र ऋषि का जैसा ध्यान मैने देखा है वैसा ध्यान किसी दूसरे का नहीं देखा। अगर वे इस समय शरीर का त्याग करें तो किस गति को प्राप्त हों ? राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा- अगर वे इस समय काल करें तो सातवें नरक में जाएँ। यह उत्तर सुनकर श्रेणिक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उसने पूछा-भगवान् ऐसा क्यों? और जब ऐसे ध्यानी महात्मा सातवें नरक में जाएँगे तो मुझ जैसे पापी की क्या गति होगी ? प्रभो! स्पष्ट रूप से समझाइए कि सब से अधिक वेदना वाले सातवें नरक में वे महात्मा क्यों जाएँगे ? भगवान् ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया- राजन्! अब उनकी भाव स्थिति बदली है। अतएव इस समय काल करें तो सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हों। भगवान् की वाणी पर अटल श्रद्धा रखता हुआ भी श्रेणिक राजा गड़बड़ में पड़ गया। उसने सोचा कहीं सर्वार्थसिद्ध विमान और शिक्षा - एक यशस्वी दशक कहाँ सातवाँ नरक। दोनों परस्पर विरोधी दो सिरों पर हैं। एक सांसारिक सुख का सर्वोत्तम ध्यान है और दूसरा दुःख का निकृष्ट स्थान है। एक का जीवन अगले भव में मोक्ष जाना ही है और दूसरे से निकलने वाला अगले भव में मोक्ष जा ही नहीं सकता। क्षण भर में इतना बड़ा भारी परिवर्तन। यह कैसे संभव है ? इस प्रकार सोचकर श्रेणिक ने फिर प्रश्न किया-प्रभो अभी-अभी तो आपने सातवें नरक के लिए कहा था और अब आप सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होने की बात कहते हैं, आखिर इसका कारण क्या है? राजा श्रेणिक इस प्रकार प्रश्न कर ही रहा था कि उसी समय देवदुंदुभी का श्रुतिमधुर निर्घोष राजा के कानों में सुनाई दिया। राजा ने पूछा-प्रभो! यह कुंदुभी कहाँ और क्यों बजी है? भगवान् ने कहा- प्रसन्नचन्द्र ऋषि सर्वज्ञ हो गये हैं। राजा श्रेणिक चकित रह गया। उसने कल देवाधिदेव! कुछ समझ में नहीं आया। अभी आपने कहा था कि अभी काल करें तो सातवें नरक में जाएँ, फिर कहा कि सर्वार्धसिद्ध विमान में जाएँ और अब आप कहते हैं कि वे सर्वज्ञ हो गए हैं। मैं इसका अर्थ समझना चाहता हूँ और उनका चरित सुनने की इच्छा करता हूँ । मुझ अज्ञ प्राणी पर अनुग्रह कीजिए। भगवान् ने कहा- राजन् ! प्रसन्नचन्द्र ऋषि पोतनपुर के राजा थे। उन्हें संसार से वैराग्य हो गया और वे संयम ग्रहण करने के लिए उद्यत हुए। मगर उनके सामने एक समस्या खड़ी हुई कि लड़का अभी छोटा है। इसे किसके सहारे छोड़ा जाये ? इस विचार के कारण संयम ग्रहण करने में विलम्ब हो रहा था परन्तु उनके किसी हितैषी ने अथवा उनके अन्तरात्मा ने कहा कि धर्मकार्य में ढ़ोल नहीं करना चाहिए। 'शुभस्य शीघ्रम्' होना चाहिए। प्रसत्रचन्द्र ने कहा- तुम्हारा कहना ठीक है मुझे संसार से विरक्ति हो गई है और वह विरक्ति ऊपरी नहीं, भीतरी है, क्षणिक नहीं, स्थायी है, मगर बिलम्ब का कारण यह है कि पुत्र छोटा है। उसे किसके भरोसे छोड़ा जाये ? प्रसन्नचन्द्र के इस कथन का उन्हें उत्तर मिला- अगर आज ही तुम्हें मृत्यु आ घेरे तो छोटे बालक की रक्षा कौन करेगा ? वैराग्य के साथ मोह-ममता के यह विचार शोभा नहीं देते। प्रसत्रचन्द्र राजर्षि को यह कथन ठीक मालूम हुआ और उन्होंने संयम लेने की तैयारी की। संयम लेने से पहले उन्होंने अपने पाँच सौ कार्यकर्ताओं को बुलाकर उनसे कहा- यह बालक छोटा है यह तुम्हारे सहारे है। जब तक यह बड़ा न हो जाये, इसको सँभाल कर रखना। कर्मचारियों ने आश्वासन देते हुए कहा आपकी आज्ञा प्रमाण है। हम राजकुमार की संभाल करेंगे और प्राण भले ही दे देंगे मगर इन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देंगे। विद्यालय खण्ड ६१ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नचन्द्र ने पूर्ण वैराग्य के साथ संयम ग्रहण किया। मगर ऐसे राजा श्रेणिक की उत्कंठा और बढ़ी। उसने प्रश्न कियाउत्कट वैरागी की भावना में भी दूषण लग गया था। अतएव तुम्हारे भगवन्! फिर आपने सर्वार्थसिद्ध विमान में जाने के लिए कैसे कहा? पूछने पर मैंने यह कहा था कि यदि वे इस समय काल करें तो भगवान् ने उत्तर दिया-प्रसनचन्द्र ध्यान-मुद्रा में बैठे-बैठे भी सातवें नरक में जावें। क्रोध के आवेश में आकर युद्ध करने में लगे थे। उसी क्रोधावेश राजा श्रेणिक ने फिर प्रश्न किया-प्रभो! उनकी भावना किस में उनका हाथ अपने मस्तक पर जा पहुँचा। उन्होंने अपने सिर पर प्रकार दूषित हुई? हाथ फेरा तो उन्हें विदित हुआ कि मेरे सिर पर केश नहीं हैं। यह भगवान-जिस समय तुम सेना लेकर यहाँ आ रहे थे, उस सोचते ही उन्हें सुध आई कि-अरे! मैं तो त्यागी हूँ। फिर भी ऐसे समय प्रसन्नचन्द्र ऋषि ध्यान में बैठे थे। तुम अपनी सेना के आगे- प्रपंच में पड़ा हूँ। मैने जिसे त्याग दिया है, उसी के लिए फिर संसार आगे दो आदमियों को इसलिए चला रहे थे कि वे भूमि देखते रहें में जाने की या चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? जिसे वमन और कोई जीव कुचल न जाये। दोनों आदमी मार्ग साफ करते जाते कर दिया है उसे फिर अपनाने का विचार ही अशोभनीय है। थे। उन दोनों ने भी प्रसत्रचन्द्र ऋषि को देखा। उनमें से एक ने भगवान् ने जो कुछ कहा है और मैंने आपको जो सुनाया है, वह कहा-यह महात्मा कितने त्यागी और कैसे तपस्वी हैं। देखो, किस सिर्फ प्रसचनचन्द्र ऋषि के संबंध में ही न समझिए, इस कथन का तरह ध्यान में डूबे हुए हैं। इनके लिए जगत की सम्पदा तुच्छ है। संबंध अगर उन्हीं के साथ होता और आपके साथ न होता तो आपके एक आदमी के इस प्रकार कहने पर दूसरे ने कहा-तू भूल समक्ष यह कथा रखी ही क्यों जाती? इस कथा के आधार पर आपको रहा है। यह महान् पापी और ढोंगी है। इसके समान पापी और ढ़ोंगी अपने संबंध में विचार करने की आवश्यकता है। आज अपने मन की शायद ही कोई दूसरा होगा। गति पर विचार कीजिए। आप यहाँ बैठे हैं पर आपका मन कहाँ जा पहले आदमी ने आश्चर्य से पूछा-क्यों? यह पापी क्यों हैं? रहा है? प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान में बैठे थे, परन्तु उनका मन कहाँ से दूसरा आदमी बोला-अपने नादान बालक को अपने कहाँ चला गया था। और उसका परिणाम क्या हुआ? इसी प्रकार आप कर्मचारियों के भरोसे छोड़ कर साधु हुआ है। मगर उन कर्मचारियों बैठे तो यहाँ हैं मगर आपका मन अन्यत्र चला गया तो उसका परिणाम को नियत बिगड़ गई है। वे सब आपस में मिल गये हैं और राजपुत्र क्या होगा? आपका मन स्वतंत्र है। क्या आप उपयोग करने में भी की घात करने की फिराक में हैं। जब वे लोग उसे मार डालेंगे तो स्वतंत्र हैं? जैसा आप चाहें अपने मन का उपयोग कर सकते हैं। जब यह निप्ता मरेगा। यह इसका पापीपन नहीं है? इसने कैसी भयानक यह सत्य है तो आप ऐसी जगह बैठकर भी अपने मन को बुरी जगह भूल की है। दूध की रक्षा के लिए बिल्ली को नियत करना जैसे क्यों जाने देते हैं? आपको सोचना चाहिए कि आप क्या लेने के लिए मुर्खता है, उसी प्रकार राजकुमार को कर्मचारियों के भरोसे छोड़ना यहाँ आये हैं? जो कुछ आप लेने आये हैं, वह वस्तु मन को एकाग्र मुर्खता है। इसकी मूर्खता के कारण ही अज्ञानी बालक को अपने करके आत्मा का स्वरूप देखने से और इस प्रकार आत्मबल प्राप्त प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी और यह मरकर नरक में जायेगा। करने से ही मिल सकती है। श्रेणिक, तुम्हारे दोनों आदमियों की आपस की बात ऋषि श्री जैन विद्यालय, कोलकाता प्रसन्नचन्द्र ने सुनी। यह बातें सुनकर उनके वैराग्य की भावना बदल गई। वह सोचने लगे-दुष्ट, कृतघ्न लोग मेरे पुत्र की हत्या करना चाहते हैं। मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूंगा। मुझमें बल की कमी नहीं है। अब तक मुझे राज्यबल ही प्राप्त था, पर अब मैं योगबल का भी अधिकारी हूँ। इन दोनों बलों द्वारा उन दुष्टों को बुरी तरह कुचल दूंगा। प्रसत्रचन्द्र ऋषि के चित्त में इस प्रकार अहंकार का उदय हुआ और प्रतिशोध की भावना भी उत्पन्न हुई। वे अपने मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प करने लगे। यहाँ तक कि वे मन ही मन घोर युद्ध करने लगे और अपने शत्रुओं का संहार करने लगे। जब वे ऐसा कर रहे थे तभी तुमने प्रश्न किया कि वे काल करें तो कहाँ जावें? तुम उन्हें ध्यान में समझते थे और मैं देखता था कि वे घोर युद्ध में प्रवृत्त हैं। इसी कारण मैने कहा था कि अगर वे इस समय काल करें तो सातवें नरक में जावें। विद्यालय खण्ड/६२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजन मिश्र, प्रथम वर्ष बी. कॉम कामदेव श्रावक महावीर भगवान के समय में द्वादश व्रत को विमल भाव से धारण करनेवाला, विवेकी और निशवचनानुरक्त कामदेव नाम का एक श्रावक उनका शिष्य था। एक समय इन्द्र ने सुधर्मांसभा में कामदेव की धर्म-अचलता की प्रशंसा की। उस समय वहाँ एक तुच्छ बुद्धिमान देव बैठा हुआ था। वह बोला- "यह तो समझ में आया, जब तक नारी न मिले तब तक ब्रह्मचारी तथा जब तक परिषह न पड़े हों तब तक सभी सहनशील और धर्मदृढ़। यह मेरी बात मैं उसे चलायमान करके सत्य कर दिखाऊँ ।” धर्मदृढ़ उस समय कायोत्सर्ग में लीन था । देवता ने विक्रिया से हाथी का रूप धारण किया और फिर कामदेव को खूब रौंदा, तो भी वह अचल रहा; फिर मूसल 'जैसा अंग बनाकर काले वर्ण का सर्प होकर भयंकर फुंकार किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग से लेशमात्र चलित नहीं हुआ। फिर अट्टहास्य करते हुए राक्षस की देह धारण करके अनेक प्रकार के परिषह किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग से डिगा नहीं। सिंह आदि के अनेक भयंकर रूप किये, तो भी कामदेव ने कायोत्सर्ग में लेश चैनता नहीं आने दी। इस प्रकार देवता रात्रि के चारों प्रहर उपद्रव करता रहा, परंतु वह अपनी धारणा में सफल नहीं हुआ। फिर उसने उपयोग से देखा तो कामदेव को मेरु के शिखर की भाँति अडोल पाया। कामदेव की अद्द्भुत निश्चलता जानकर उसे विनयभाव से प्रणाम करके अपने दोषों की क्षमा माँगकर वह देवता स्वस्थान को चला गया। 'कामदेव श्रावक की धर्मदता हमें क्या बोध देती है, यह बिना कहे भी समझ में आ गया होगा। इसमें से यह तत्त्वविचार लेना है। कि निर्बंध प्रवचन में प्रवेश करके दृढ़ रहना कायोत्सर्ग इत्यादि जो ध्यान करना है, उसे यथासंभव एकाग्रचित्त से और दृढ़ता से निर्दोष करना।' चलविचल भाव से कायोत्सर्ग बहुत दोषयुक्त होता है। 'पाई के लिए धर्म की सौगन्ध खानेवाले धर्म में दृढ़ता कहाँ से रखें ? और रखें तो कैसी रखें?' यह विचारते हुए खेद होता है। शिक्षा एक यशस्वी दशक प्रत्याख्यान 'पच्चवखान' शब्द बारंबार तुम्हारे सुनने में आया है इसका मूल शब्द 'प्रत्याख्यान' है, और यह अमुक वस्तु की ओर चित्त न जाने देने का जो नियम करना उसके लिये प्रयुक्त होता है। प्रत्याख्यान करने का हेतु अति उत्तम तथा सूक्ष्म है। प्रत्याख्यान न करने से चाहे किसी वस्तु को न खाओ अथवा उसका भोग न करो तो भी उससे संवर नहीं होता, क्योंकि तत्त्वरूप से इच्छा का निरोध नहीं किया है। रात में हम भोजन न करते हों, परंतु उसका यदि प्रत्याख्यानरूप से नियम न किया हो तो वह फल नहीं देता, क्योंकि अपनी इच्छा के द्वार खुले रहते हैं जैसा घर का द्वार खुला हो और श्वान आदि प्राणी या मनुष्य भीतर चले आते हैं वैसे ही इच्छा के द्वार खुले हों तो उनमें कर्म प्रवेश करते हैं । अर्थात् उस ओर अपने विचार यथेच्छरूप से जाते हैं: यह कर्मबंधन का कारण है और यदि प्रत्याख्यान हो तो फिर उस ओर दृष्टि करने की इच्छा नहीं होती। जैसे हम जानते हैं कि पीठ के मध्य भाग को हम देख नहीं सकते; इसलिये उस ओर हम दृष्टि भी नहीं करते: वैसे ही प्रत्याख्यान करने से अमुक वस्तु खायी या भोगी नहीं जा सकती; इसलिये उस ओर अपना ध्यान स्वाभाविकरूप से नहीं जाता। यह कर्मों को रोकने के लिये बीच में दुर्ग-रूप हो जाता है। प्रत्याख्यान करने के बाद विस्मृति आदि के कारण कोई दोष लग जाये तो उसके निवारण के लिये महात्माओं ने प्रायश्चित भी बताये हैं। 1 प्रत्याख्यान से एक दूसरा भी बड़ा लाभ है; वह यह कि अमुक वस्तुओं में ही हमारा ध्यान रहता है, बाकी सब वस्तुओं का त्याग हो जाता है। जिस-जिस वस्तु का त्याग किया है, उस उस वस्तु के संबंध में फिर विशेष विचार, उसका ग्रहण करना, रखना अथवा ऐसी कोई उपाधि नहीं रहती। इससे मन बहुत विशालता को पाकर नियमरूपी सड़क पर चला जाता है। अश्व यदि लगाम में आ जाता है तो फिर चाहे जैसा प्रबल होने पर भी उसे इच्छित रास्ते से ले 'जाया जाता है वैसे ही मन इस नियमरूपी लगाम में आने के बाद चाहे जैसी शुभ राह में ले जाया जाता है; और उसमें बारंबार पर्यटन कराने से वह एकाग्र, विचारशील और विवेकी हो जाता है। मन का आनंद शरीर को भी निरोग बनाता है और अभक्ष्य, अनंतकाय परस्वी आदि का नियम करने से भी शरीर निरोग रह सकता है। मादक पदार्थ मन को उलटे रास्ते पर ले जाते हैं, परंतु प्रत्याख्यान से मन वहाँ जाता हुआ रुकता है; इससे वह विमल होता है। | प्रत्याख्यान यह कैसी उत्तम नियम पालने की प्रतिज्ञा है, यह बात इस परचे से तुम समझे होगे । विशेष सद्गुरु के मुख से और शास्वावलोकन से समझने का मैं बोध करता हूँ। पूर्व छात्र श्री जैन विद्यालय, हावड़ा विद्यालय खण्ड / ६३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपक कौर, नवम ब की माँ रात कासराजा ने साल से कहा, पास में बैठी थी उसने यह सब सुना। 'अज' अर्थात् 'व्रीहि' ऐसा उसे भी याद था। शर्त में अपना पुत्र हार जायेगा इस भय से पर्वत की माँ रात को राजा के पास गयी और पूछा, "राजन्! 'अज' का क्या अर्थ है?" वसुराजा ने संबंधपूर्वक कहा, "अज का अर्थ 'व्रीहि' है।" तब पर्वत की माँ ने राजा से कहा, "मेरे पुत्र ने अज का अर्थ बकरा कह दिया है, इसलिए आपको उसका पक्ष लेना पड़ेगा। आपसे पूछने के लिए वे आयेंगे।" वसुराजा बोले, "मैं असत्य कैसे कहूँ? मुझसे यह नहीं हो सकेगा।" पर्वत की माता ने कहा, "परंतु यदि आप मेरे पुत्र का पक्ष नहीं लेंगे, तो मैं आपको हत्या का पाप दूंगा।" राजा विचार में पड़ गया-"सत्य के कारण मैं मणिमय सिंहासन पर अधर में बैठता हूँ। लोकसमुदाय का न्याय करता हूँ। लोग भी यह जानते हैं कि राजा सत्य गुण के कारण सिंहासन पर अंतरिक्ष में बैठता है। अब क्या करूँ? यदि पर्वत का पक्ष न लूँ तो ब्राह्मणी मरती है, और यह तो मेरे गुरु की स्त्री है।" लाचार होकर अंत में राजा ने ब्राह्मणी से कहा, "आप खुशी से जाइये। मैं पर्वत का पक्ष लूँगा।' ऐसा निश्चय कराकर पर्वत की माता घर आयी। प्रभात नारद, पर्वत और उसकी माता विवाद करते हुए राजा के पास आये। राजा अनजान होकर पूछने लगा-"पर्वत, क्या है?" पर्वत ने कहा, "राजाधिराज! अज का अर्थ क्या है? यह बताइये।" राजा ने नारद से पूछा-"आप क्या कहते हैं?" नारद ने कहा-" 'अज' अर्थात् तीन वर्ष के 'व्रीहि', आपको क्या याद नहीं है?" वसराजा ने कहा- "अज का अर्थ है बकरा, व्रीहि नहीं।" उसी समय देवता ने उसे सिंहासन से उछालकर नीचे पटक दिया; वसु कालपरिणाम को प्राप्त हुआ। इस पर से यह मुख्य बोध मिलता है कि हम सबको सत्य और राजा को सत्य एवं न्याय दोनों ग्रहण करने योग्य हैं। श्री जैन विद्यालय, कोलकाता सत्य सामान्य कथन में भी कहा जाता है कि सत्य इस 'सृष्टि का आधार' है; अथवा सत्य के आधार पर यह 'सृष्टि टिकी है।' इस कथन से यह शिक्षा मिलती है कि धर्म, नीति, राज और व्यवहार ये सब सत्य द्वारा चल रहे हैं और ये चार न हों तो जगत का रूप कैसा भयंकर हो? इसलिए सत्य 'सृष्टि का आधार' है, यह कहना कुछ अतिशयोक्ति जैसा या न मानने योग्य नहीं है। वसुराजा का एक शब्द असत्य बोलना कितना दु:खदायक हुआ था, उसे तत्त्वविचार करने के लिए मैं यहाँ कहता हूँ। वसुराजा, नारद और पर्वत ये तीनों एक गुरु के पास विद्या पढ़े थे। पर्वत अध्यापक का पुत्र था। अध्यापक चल बसा। इसलिए पर्वत अपनी माँ के साथ वसुराजा के राज्य में आकर रह रहा था। एक रात उसकी माँ पास में बैठी थी, और पर्वत तथा नारद शास्त्राभ्यास कर रहे थे। इस दौरान में पर्वत ने 'अजैर्यष्टव्यम्' ऐसा एक वाक्य कहा। तब नारद ने कहा, "अज का अर्थ क्या है, पर्वत?" पर्वत ने कहा, "अज अर्थात् बकरा।" नारद बोला, "हम तीनों जब तेरे पिता के पास पढ़ते थे तब तेरे पिता ने तो 'अज' का अर्थ तीन वर्ष का 'व्रीहि' बताया था; और तू उलटा अर्थ क्यों करता है?" इस प्रकार परस्पर वचन-विवाद बढ़ा। तब पर्वत ने कहा, "वसुराजा हमें जो कहें वह सही।" यह बात नारद ने भी मान ली और जो जीते उसके लिए अमुक शर्त की। पर्वत की माँ जो विद्यालय खण्ड/६४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीरज शुक्ला , १० ब विनय से तत्त्व की सिद्धि है राजगृही नगरी के राज्यासन पर जब श्रेणिक राजा विराजमान था तब उस नगरी में एक चांडाल रहता था। एक बार उस चांडाल की स्त्री को गर्भ रहा तब उसे आम खाने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने आम ला देने के लिये चांडाल से कहा। चांडाल ने कहा, "यह आम का मौसम नहीं है, इसलिये मैं निरुपाय हूँ; नहीं तो मैं आम चाहे जितने ऊँचे स्थान पर हो वहाँ से अपनी विद्या के बल से लाकर तेरी इच्छा पूर्ण करूँ।" चांडाली ने कहा, "राजा की महारानी के बाग में एक असमय में आम देनेवाला आम्रवृक्ष है, उस पर अभी आम लचक रहे होंगे, इसलिये वहाँ जाकर आम ले आओ।" अपनी स्त्री की इच्छा पूरी करने के लिये चांडाल उस बाग में गया। गुप्त रूप से आम्रवृक्ष के पास जाकर मन्त्र पढ़कर उसे झुकाया और आम तोड़ लिये। दूसरे मंत्र से उसे जैसा का तैसा कर दिया। बाद में वह घर आया और अपनी स्त्री यत्ना की इच्छापूर्ति के लिये निरंतर वह चांडाल विद्या के बल से वहाँ से आम लाने लगा। एक दिन फिरते-फिरते माली की दृष्टि आम्रवृक्ष की जैसे विवेक धर्म का मूल तत्त्व है, वैसे ही यत्ना धर्म का ओर गयी। आमों की चोरी हुई देखकर उसने जाकर श्रेणिक राजा के उपतत्त्व है। विवेक से धर्मतत्त्व को ग्रहण किया जाता है और यत्ना सामने नम्रतापूर्वक कहा। श्रेणिक की आज्ञा से अभयकुमार नाम के से वह तत्त्व शुद्ध रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया बुद्धिशाली मत्री ने युक्ति से उस चांडाल को खोज निकाला। चांडाल जा सकता है। पाँच समितिरूप यत्ना तो बहुत श्रेष्ठ हैं; परंतु को अपने सामने बुलाकर पूछा, "इतने सारे मनुष्य बाग में रहते हैं, फिर भी तू किस तरह चढ़कर आम ले गया कि यह बात किसी के गृहस्थाश्रमी से वह सर्व भाव से पाली नहीं जा सकती, फिर भी । भाँपने में भी न आयी? सो कह।" चांडाल ने कहा, "आप मेरा जितने भावांश में पाली जा सके उतने भावांश में भी असावधानी से। अपराध क्षमा करें। मैं सच कह देता हूँ कि मेरे पास एक विद्या है, वे पाल नहीं सकते। जिनेश्वर भगवान द्वारा बोधित स्थूल और सूक्ष्म उसके प्रभाव से मैं उन आमों को ले सका।" अभयकुमार ने कहा, दया के प्रति जहाँ बेपरवाही है वहाँ बहत दोष से पाली जा सकती “मुझसे तो क्षमा नहीं दी जा सकती, परन्तु महाराजा श्रेणिक को तू है। इसका कारण यत्ना की न्यूनता है। उतावली और वेगभरी चाल, यह विद्या दे तो उन्हें ऐसी विद्या लेने की अभिलाषा होने से तेरे उपकार पानी छानकर उसकी जीवानी रखने की अपूर्ण विधि, काष्ठादि ईंधन के बदले में मैं अपराध क्षमा करा सकता हूँ।" चांडाल ने वैसा करना स्वीकार किया। फिर अभयकुमार ने चांडाल को जहाँ श्रेणिक राजा का बिना झाडे, बिना देखे उपयोग, अनाज में रहे हुए सूक्ष्म जन्तुओं सिंहासन पर बैठा था वहाँ लाकर सामने खड़ा रखा; और सारी बात की अपूर्ण देखभाल, पोंछे-माँजे बिना रहने दिए हुए बरतन, अस्वच्छ राजा को कह सुनायी। इस बात को राजा ने स्वीकार किया। फिर रखे हुए कमरे, आँगन में पानी का गिराना, जूठन का रख छोड़ना, चांडाल सामने खड़े रहकर थरथराते पैरों से श्रेणिक को उस विद्या का पटरे के बिना खूब गरम थाली का नीचे रखना, इनसे अपने को बोध देने लगा; परंतु वह बोध लगा नहीं। तुरन्त खड़े होकर अस्वच्छता, असुविधा, अनारोग्य इत्यादि फल मिलते हैं; और ये अभयकुमार बोले, “महाराज! आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी महापाप के कारण भी हो जाते हैं। इसलिये कहने का आशय यह हो तो सामने आकर खड़े रहें, और इसे सिंहासन दें।" राजा ने विद्या लेने के लिये वैसा किया तो तत्काल विद्या सिद्ध हो गयी। है कि चलने में, बैठने में, उठने में, जीमने में और दूसरी प्रत्येक यह बात केवल बोध लेने के लिये हैं। एक चांडाल की भी क्रिया में यत्ना का उपयोग करना चाहिए। इससे द्रव्य एवं भाव दोनों विनय किये बिना श्रेणिक जैसे राजा को विद्या सिद्ध न हई, तो इसमें प्रकार से लाभ हैं। चाल धीमी और गंभीर रखनी, घर स्वच्छ रखना, से यह तत्त्व ग्रहण करना है कि, सद्विद्या को सिद्ध करने के लिये पानी विधिसहित छनवाना, काष्ठादि ईधन झाड़कर डालना, ये कुछ विनय करनी चाहिये। आत्मविद्या पाने के लिये यदि हम निथ गुरु हमारे लिये असविधाजनक कार्य नहीं हैं और इनमें विशेष वक्त भी की विनय करें तो कैसे मंगलदायक हो! नहीं जाता। ऐसे नियम दाखिल कर देने के बाद पालने मुश्किल नहीं विनय यह उत्तम वशीकरण है। भगवान ने उत्तराध्ययन में विनय हैं। इनसे बिचारे असंख्यात निरपराधी जन्तु बचते हैं। को धर्म का मूल कहकर वर्णित किया है। गुरु की, मुनि की, विद्वान की, माता-पिता की और अपने से बड़ों की विनय करनी यह अपनी प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक ही करना यह विवेकी श्रावक का उत्तमता का कारण है। कर्तव्य है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/६५ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा मिश्र, ९ सुदर्शन के देवपुतले जैसे छः पुत्र उसके देखने में आये। उसने कपिला से पूछा, "ऐसे रम्य पुत्र किसके हैं?" कपिला ने सुदर्शन सेठ का नाम लिया। यह नाम सुनते ही रानी की छाती में मानो कटार भोंकी गयी, उसे घातक चोट लगी। सारी धूमधाम बीत जाने के बाद माया-कथन गढ़कर अभया और उसकी दासी ने मिलकर राजा से कहा-'आप मानते होंगे कि मेरे राज्य में न्याय और नीति का प्रवर्तन है, दुर्जनों से मेरी प्रजा दुःखी नहीं है; परन्तु यह सब मिथ्या है। अंत:पुर में भी दुर्जन प्रवेश करें यहाँ तक अभी अंधेर है! तो फिर दूसरे स्थानों के लिये तो पूछना ही क्या? आपके नगर के. सुदर्शन नाम के सेठ ने मुझे भोग का आमंत्रण दिया; न कहने योग्य कथन मुझे सुनने पड़े; परंतु मैंने उसका तिरस्कार किया। इससे विशेष अंधेर कौन सा कहा जाय!" राजा मूलत: कान के कच्चे होते हैं, यह बात तो यद्यपि सर्वमान्य ही है, उसमें फिर स्त्री के मायावी मधुर वचन क्या असर नहीं करेंगे? तत्ते तेल में ठंडे जल जैसे वचनों से राजा क्रोधायमान हुआ। उसने सुदर्शन को शूली पर चढ़ा देने की तत्काल आज्ञा कर दी, और तदनुसार सब कुछ हो भी गया। मात्र सुदर्शन के शूली पर चढ़ने की देर थी। सुदर्शन सेठ चाहे जो हो परंतु सृष्टि के दिव्य भंडार में उजाला है। सत्य का प्राचीन काल में शुद्ध एकपत्नी व्रत को पालने वाले असंख्य प्रभाव ढका नहीं रहता। सुदर्शन को शूली पर बिठाया कि शूली मिट पुरुष हो गये हैं; उनमें से संकट सहन करके प्रसिद्ध होनेवाला कर जगमगाता हआ सोने का सिंहासन हो गया, और देवदुंदुभि का सुदर्शन नाम का एक सत्पुरुष भी है। वह धनाढ्य, सुन्दर नाद हुआ, सर्वत्र आनंद छा गया। सुदर्शन का सत्य शील विश्वमंडल मुखाकृतिवाला, कांतिमान् और युवावस्था में था। जिस नगर में वह में झलक उठा। सत्य शील की सदा जय है। शील और सुदर्शन रहता था, उस नगर के राजदरबार के सामने से किसी कार्यप्रसंग के की उत्तम दृढता ये दोनों आत्मा को पवित्र श्रेणि पर चढ़ाते हैं। कारण उसे निकलना पड़ा। वह जब वहाँ से निकला तब राजा की अभया नाम की रानी अपने आवास से झरोखे में बैठी थी। वहाँ से सुदर्शन की ओर उसकी दृष्टि गयी। उसका उत्तम रूप और काया देखकर उसका मन ललचाया। एक अनुचरी को भेजकर कपट भाव से निर्मल कारण बताकर सुदर्शन को ऊपर बुलाया। अनेक प्रकार की बातचीत करने के बाद अभया ने सुदर्शन को भोग भोगने का आमंत्रण दिया। सुदर्शन ने बहुत-सा उपदेश दिया तो भी उसका मन शांत नहीं हुआ। आखिर तंग आकर सुदर्शन ने युक्ति से कहा, "बहिन! मैं पुरुषत्वहीन हूँ!" तो भी रानी ने अनेक प्रकार के हावभाव किये। परंतु उन सारी कामचेष्टाओं से सुदर्शन विचलित नहीं हुआ; इससे तंग आगर रानी ने उसे जाने दिया। ___एक बार उस नगर में उत्सव था, इसलिये नगर के बाहर नगरजन आनंद से इधर-उधर घूमते थे। धूमधाम मची हुई थी। सुदर्शन सेठ के छ: देवकुमार जैसे पुत्र भी वहाँ आये थे। अभया रानी कपिला नाम की दासी के साथ ठाठबाट से वहाँ आयी थी। विद्यालय खण्ड/६६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saikat Ghosh Communication & Computer As we know human being has three basic needs. Food, Clothing and Shelter. But at this starting of twenty first century we can easily add one more need to the list of basic needs. It is communication. Can you imagine that you are alone in an island with all other facilities excepting communications? Yes! It is really tough to imagine even. Communication is an inevitable part of our life now. anywhere and reading the letters in it. And this most efficient service costs a maximum of Rs. 2 only for sending or receiving single message. Just imagine you are sending a message to your friend at London at cost of Rs. 2 with the help of this cheapest and fastest mailing service. Another service available on Internet is Chat. Although people misuse it for gossiping but it is really another useful way of communication. In chat there is a concept of room. Like in a room we can talk to any person as well as hear anyone present in that room talking. In chat room also we can send some words and get the replies from others present in that room immediately. So it is something like talking by writing. Just think how amazing it is to talk to five persons seating in five different countries at a local telephone call charge. And now this chat service even allows you to talk to others through a microphone connected with computer. All these are the means of communicating people directly. But communication is something more. It is sharing thoughts, ideas or touching ones heart. That is why medias are so important these days. Print media deals with printing matters like some text or images. We can see the print media applications in books, magazines, brochures, hording and write-ups and elsewhere. AudioVisual media deals with audio or visual or a combination of both. Like Radio and TV programmes, cassettes, films are audio-visual applications. All these media based applications touche our mind more effectively. And computer is an essential part of making of these applications. Now another media is entering our life. 'On-screen media', we can say it multimedia also. Here elements or applications are produced in computer and demonstrated in computer. Presentations, Slide shows, Animations, Movies, Sounds are the elements of this media. The most important feature of this media is interactivity. In real world most of the things are interactive, living things react whenever some action takes place and even a push button comes to depressed status while pressing it. This way onscreen media lets you feel the real world experience with its interactive nature. Industries and organisations are using it for training employees, campaigning for its' newer products or displaying important things in business meetings, Institutions are using it as assistance to the teacher, explaining lessons. And lot more. Days are coming when a man can learn a lot by seating in front of a computer communicating in an interactive manner. But how all these new technologies can help in education field? In several ways. Internet can help a teacher to gather knowledge about worldwide advancement on any topic. Web pages of star universities contain a lot of information. Teachers as well as students can get help from a research organisation or a scholar person by contacting through The process of communication started on that very day when human being discovered how to talk. Then they discovered how to write and started communicating with others by talking and writing. Probably the Post system was the first way of distant communication and gradually we have invented Telegraph, Telephone, Fax and other tools. But we are not quite satisfied. We have a tendency to extend our abilities. Like to extend the ability of eyes we have invented television, to extend our hearing ability we have invented telephones. As a continuation of this process now we have started using computers in communication. Internet is the part of computer technology, which helps us to communicate with people. It is basically a network of computers like cable TV or telephone network. Here we can connect one computer to another without any real connection and this virtual network has opened a new way to communicate people. This Internet technology offers a service named E-mail. It allows sending letters to a virtual mailbox and the person to whom the letter being sent can read from any part of the world and at anytime. It is like someone is opening mailbox from fran-975 297 481 विद्यालय खण्ड/६७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e-mails. A student can find the solution of his problems by talking to the teacher through chat and so on. Educational institution may include multimedia as a tool for teaching. It would be very easy for a teacher to explain and a student to understand the complicated topics like planetary motion or the blood circulation through human body. Topics like Interactive nature of plants would be much more easy to understand for a student who never experienced this in practical life. Developed countries have already incorporated multimedia as a way of education. In our country also some organisations have started to facilitate this advantage but yet we have to go a long way ahead. विद्यालय खण्ड / ६८ Few days before, I was talking to one of my friend. My friend is basically a confused guy. I was asking him to reach particular address and giving him the root direction. I told him "from here to go straight, take a left turn, then again turning right you will see a white building. Besides that building there is a narrow lane. Enter that lane and again turn right." He stopped me and told very clearly that he would not be able to reach there. Then I have drawn the root map in a piece of white paper and my friend got the location easily. The computer technology is also like this root map that helps you to make yourself much more communicable and acceptable to others. श्वेता पारख, सप्तम् स Centre Manager Scope Shree Jain Vidyalaya शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 लक्ष्मीशंकर मिश्र अमृत-अन्वेषण व निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया। अनुसंधान कार्य के समस्त प्रबंध को राज्य ने सुव्यवस्थित कर दिया। तत्कालीन अनेक राजवैद्यों, रसायन शास्त्रियों, आयुर्वेदज्ञों व अन्वेषकों ने आचार्य नागार्जुन को समझाया कि "आप अपने इस प्रण को विस्मृत कर दें और इस अन्वेषण कार्य को रोक दें। मृत्यु लोक में अमृत का निर्माण हो ही नहीं सकता। यह व्यर्थ का उन्माद है। इस व्यर्थ के कार्यभार से स्वयं को मुक्त कर जो सम्भाव्य नरकल्याण हेत अनुसंधान है, उसमें लगें। मृगतृष्णा के पीछे दौड़ना सिर्फ थकना ही होता है।' तत्कालीन अनेक राजाओं ने राजा चिरायु को भी चेताया कि "राज्य कोष का आप दुरुपयोग न करें और एक उन्मादी, प्रतापी, पागल व पुत्र शोक से अर्धविक्षिप्त राजवैद्य की मिथ्या कल्पना की उड़ान में प्रजा के गाढ़े पैसों को यूं न बहायें। मृत्यु लोक में अमृत उत्पन्न हो ही नहीं सकता, यह आप निश्चित समझें। क्योंकि अपने विवेक को एक कल्पनाजीवी राजवैद्य के पास गिरवी रखकर आप मूर्ख बन रहे हैं?" किन्तु अनुसंधान कार्य शुरू हुआ और चलता रहा। कोई चेतावनी, बाधा या परेशानी न आचार्य नागार्जुन को डिगा सकी और अमरता का भार न किसी व्यवधान व बहकावे से राजा चिरायु ही विचलित हुए। कोई आचार्य नागार्जुन चिरायु नामक राजा के मंत्री, मित्र, राजवैद्य, नौ वर्ष के गहन अन्वेषण व कठिन श्रम के बाद आचार्य नागार्जुन एक आयुर्वेदज्ञ, रसायन शास्त्र और विख्यात अनुसंधानकर्ता थे। उनका ऐसे रस की खोज व निर्माण करने में सफल हो गये, जो किसी भी एक पुत्र था। अचानक एक दिन वह बीमार पड़ा और कुछ ही दिनों जीव को न केवल चिरायु, बल्कि अमर तक करने में सफल सिद्ध में अपने पिता के उपचार के बावजूद उसकी मृत्यु हो गयी। नागार्जुन होता। इसके लिए किसी भी जीवित प्राणी को एक-एक वर्ष के बहुत दुखी हुए और सोचने लगे कि अपने उपचार से कितनों को अन्तराल पर लगातार तीन वर्ष तक इस रस का केवल एक-एक बार मैंने बचाया, किन्तु एक साधारण रोग से अपने पुत्र को न बचा सका सेवन करना पड़ता। यह रस जब अनुभूत व परीक्षित हुआ तथा प्रयोग और अंतत: वह धरती से उठ गया। मेरा समस्त आयुर्वेद, रसायन में सफल उतरा, तो राजा चिरायु को सूचना दी गयी। इस सुसंवाद को शास्त्र, अनुसंधान, जड़ी बूटी, पद, सत्ता की निकटता, नाम, यश सुनकर राजा चिरायु ने आचार्य को छाती से लगा लिया और इसके आदि सभी व्यर्थ हैं। दुख के भार को ढ़ोते-ढोते व चिन्तन करते अगले ही दिन प्रात:काल राजा चिरायु को आचार्य नागार्जुन ने अपने करते उन्होंने मृत्यु पर विजय पाने का संकल्प लिया और अमृत हाथ से इस अद्भुत रस की पहली खुराक का पान कराया। निर्माण करने की ठानी। दिन बीतते गये। कालांतर में राजा चिरायु ने अपने पुत्र को उनके इस संकल्प और धरती पर अमृत निर्माण के प्रण का युवराज बना दिया। युवराज प्रसन्नता से अपनी पत्नी के पास पहुँचा समाचार सुनकर राजा चिरायु बड़ा आनन्दित हुआ। राजा ने अपने और बोला, “प्रिये एक शुभ समाचार है। पिताजी ने मुझे युवराज मित्र के घर जाकर उनका उत्साहवर्धन किया और बोला कि इस घोषित किया है।" अन्वेषण में जो भी व्यय भार आयेगा, जो परेशानी होगी, जो प्रबंध पति के भोलेपन पर पत्नी हंस पड़ी। बोली, "प्रिय, तुम बहुत होगा, उन सबका दायित्व राज्य की ओर से उठा लिया जायेगा। र भोले हो। क्या तुम सोचते हो कि युवराज बनने के बाद तुम कभी राजा की कृपा से विह्वल होकर नागार्जुन ने तत्क्षण वहीं घोषणा की सिंहासन पर बैठ पाओगे। ऐसा कभी नहीं हो सकेगा।" कि मेरे द्वारा जो अमृत की खोज की जायेगी, उसके प्रथम "क्या?" उपयोगकर्ता राजा चिरायु ही होंगे और मेरे द्वारा निर्मित अमृत की "इसलिए कि तुम्हारे पिता, आचार्य नागार्जुन द्वारा निर्मित रस पहली धार का पान मेरे मित्र नृप चिरायु ही करेंगे। का पान कर अमर होने वाले हैं। वे इस रस की दो खुराक पी भी शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्यालय खण्ड/६९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुके हैं, सिर्फ एक खुराक और पीनी है। अगले वर्ष उसे भी पीकर किन्तु आचार्य नागार्जुन को कैद की कोठरी से मुक्ति नहीं मिली। वे अमर हो जायेंगे। वे कभी सिंहासन खाली नहीं करेंगे।" उनकी सुख-सुविधा की सारी व्यवस्था थी, परन्तु प्रजा से उन्हें दूर "फिर! क्या कोई उपाय नहीं?'' रखा जाता था। पत्नी ने कुछ क्षण विचार करने के बाद कहा, "हाँ, एक उपाय राज करते-करते जब नये राजा को दशक बीत गये, तो एक दिन उनकी रानी (पत्नी) ने अपने पति से आचार्य नागार्जुन के बार फिर उसने पति को बताया कि वह बिना एक क्षण विलम्ब में पूछा और उनका हालचाल जाना। बाद में रानी ने अपने पति को किये, बिना कोई घड़ी गंवाये औचक आचार्य नागार्जुन को गायब सलाह दी कि वह आचार्य को यहाँ बुला ले और पुन: उस अद्भुत करवा दे और उनके रस को तहस-नहस कर दे। यह कार्य इतनी रस के निर्माण प्रबंध की राज्य द्वारा व्यवस्था करवा कर उसकी तेजी से करना होगा कि राजा को कुछ पता भी न लगे, उन्हें आप तीनों खुराक पीकर अमर हो जाये। पर संदेह भी न हो और वे इस अद्भुत रस की तीसरी खुराक पी रानी की इस सलाह को सुनकर राजा मूक हो गया, फिर घड़ी भी न सकें। अन्यथा एक राजा के अमर हो जाने के बाद राज्य भर गम्भीर बना रहा और अंत में इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर परम्परा ही समाप्त हो जायेगी। दिया। इस संदर्भ में रानी के बार-बार के आग्रह को भी उसने ठुकरा इस बातचीत के ठीक अगले माह युवराज ने पत्नी की सलाह दिया और कहा, “प्रिये, अमरता भी एक प्रकार का भार ही है। यह के अनुसार अपने कुछ विश्वस्त साथियों, ससुराल के संबंधियों व भार भी उठाये नहीं उठेगा। अभी की प्रिय संततियां भी तब स्नेह, अपने कुछ विशेष अनुचरों के सहयोग से छल प्रपंच का सहारा श्रद्धा व लालित्य भूलकर रुक्ष हो जायेगी और कुटुम्बी जनों को ही लेकर, गुपचुप ही, अचानक आचार्य नागार्जुन को गायब करा दिया नहीं, माता व पिता को भी भार समझेने लगेंगी। मृत्यु भला करती और उस अद्भुत रस के निर्माण प्रबंध को तहस-नहस कर दिया। है कि वह धरती के लोगों में प्रेम बनाये रखती है। स्मृति व संस्मरणों इसी क्रम में उसने तैयार रस से भरी एक छोटी शीशी को भी नष्ट की दुनिया को सजीव रखती है और बिछड़ने के दुःख की कल्पना कर दिया और आचार्य को अपने ससुराल राज्य की एक अनाम से मिलन को मीठा किये रखती है। यह तो अच्छा हुआ कि पृथ्वी कोठरी में बंद करवा दिया। इस कार्य में युवराज को अपने ससुराल पर न तो अमृत की पैदाइश सम्भव है और न ही ईश्वर ने मनुष्य पक्ष से तो सहायता मिली ही, कुछ अन्य राजाओं व दो चार को कोई ऐसी मेधा दी है, जो अमरता का वर्चस्व कामय रखे। मेरी राज्यवैद्यों की भी मदद प्राप्त हुई। समझ से तो आचार्य को भी अपनी स्वाभाविक मृत्यु से मरना चाहिए राजा चिरायु इस समाचार को सुनकर शोक से मूर्छित हो गये। और ऐसा कोई अन्वेषण भी इस धरती के लिए कल्याणकारी नहीं उन्हें अपने परम प्रिय मित्र से अलग रहना असह्य जान पड़ा और होगा, जो अमरता को संबल दे। अमरता का भार जीवन के भार उन्होंने आचार्य नागार्जुन का पता लगाने के अनेक उपाय किये। से दुर्बह सिद्ध होगा। अतएव अच्छा है कि मनुष्य स्वाभाविक जीवन निर्माण प्रबंध के तहस-नहस का संवाद सुनकर राजा को इस षड़यंत्र जीये और स्वाभाविक मृत्यु मरे।" में किसी शत्रु नृप का हाथ जान पड़ा। भूलकर भी उनके मस्तिष्क में इस कांड में अपने हृदय प्रिय राजकुमार का हाथ होने का विचार नहीं आया। वे पीड़ा से छटपटाते रहे और आचार्य के पता लगाने के सभी उपायों पर राजकुमार से विचार-विमर्श करते रहे। परन्तु कोई सफलता नहीं मिली। अंतत: आचार्य नागार्जुन का पता लगाने का बीड़ा उन्होंने अपने प्रिय राजकुमार को सौंप दिया। किन्तु क्या यह संभव था कि जिस राजकुमार ने स्वयं आचार्य को गायब करवा कर दूर देश की एक अनाम कोठरी में कैद करवाया हो वहीं उन्हें मुक्त कर राजा के समक्ष उपस्थित कर देता। दिन बीत गये। कालांतर में राजा चिरायु काल के ग्रास बने और युवराज राजा बना। सब कुछ वैसे ही चलता रहा। नया राजा भी अपने पिता राजा चिरायु की भांति ही प्रजा में लोकप्रिय हुआ। विद्यालय खण्ड/७० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत खण्ड Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल मंत्र णमोकार Devnagari Script णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच णमुक्कारो, सव्व पाव पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं English Script NAMO ARIHANTANAM NAMO SIDDHANAM NAMO AYARIYANAM NAMO UVAJJHAYANAM NAMO LOE SAVVASAHUNAM ESO PANCH NAMUKKARO, SAVVA PAVA PANASANO MANGALANAM CH SAWVESIM, PADHAMAM HAVAI MANGALAM English Translation Homages to Arihantas (Saviours) Homages to Siddhas (Liberated souls, From the Cycle of Birth-death and rebirth) Homages to Acharyas (Chief of the Cults) Homages to Upadhyayas (Preceptors) Homages to all monks Homages being paid to these five 'Parmesthis' (Great Personalities), Destroy all the sins. Among all Mangalas (Holy Hymns), It is fundamental and most holy hymn. Those, who recite it regularly, achieve every sort of welfare शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० डॉ० नेमिचन्द शास्त्री झाड़ा। मन में अटूट विश्वास था कि विष अवश्य उतर जायेगा। आश्चर्यजनक चमत्कार यह हुआ कि इस महामन्त्र के प्रभाव से बिच्छू का विष बिल्कुल उतर गया। व्यथा-पीड़ित व्यक्ति हँसने लगा और बोला-"आपने इतनी देरी झाड़ने में क्यों की। क्या मुझसे किसी जन्म का वैर था? मान्त्रिक को मन्त्र को छिपाना नहीं चाहिए।" अन्य उपस्थित व्यक्ति भी प्रशंसा के स्वर में विलम्ब करने के कारण उलाहना देने लगे। मेरी प्रशंसा की गन्ध सारे गाँव में फैल गयी। भगवती भागीरथी से प्रक्षालित वाराणसी का प्रभाव भी लोग स्मरण करने लगे तथा तरह-तरह की मनगढन्त कथाएँ कहकर कई महानुभाव अपने ज्ञान की गरिमा प्रकट करने लगे। मेरे दर्शन के लिये लोगों की भीड़ लग गयी तथा अनेक तरह के प्रश्न मुझसे पूछने लगे। मैं भी णमोकार मन्त्र का आशातीत फल देखकर आश्चर्यचकित था। यों तो जीवन-देहली पर कदम रखते ही णमोकार मन्त्र कण्ठस्थ कर लिया था, पर यह पहला दिन था, जिस दिन इस महामन्त्र का चमत्कार प्रत्यक्ष गोचर हुआ। अत: इस सत्य से कोई भी आस्तिक व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है कि णमोकार मन्त्र मंगलमंत्र णमोकार : एक चिन्तन में अपूर्व प्रभाव है। इसी कारण कवि दौलत ने कहा है : "प्रात:काल मन्त्र जपो णमोकार भाई। यों तो इस महामन्त्र का प्रचार सर्वत्र है, समाज का बच्चा-बच्चा अक्षर पैंतीस शुद्ध हृदय में धराई ।। इसे कण्ठस्थ किये हुए है, किन्तु इसके प्रति दृढ़ विश्वास और नर भव तेरो सुफल होत पातक टर जाई । अटूट श्रद्धा कम ही व्यक्तियों की है। यदि सच्ची श्रद्धा के साथ विघन जासों दूर हो संकट में सहाई ।।१।। इसका प्रयोग किया जाये तो सभी प्रकार के कठिन कार्य भी सुसाध्य कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि जाई। हो सकते हैं। एक बार की मैं अपनी निजी घटना का भी उल्लेख ऋद्धि सिद्धि पारस तेरो प्रकटाई।।२।। कर देना आवश्यक समझता हूँ। घटना मेरे विद्यार्थी जीवन की है। मन्त्र जन्त्र तन्त्र सब जाही से बनाई। मैं उन दिनों वाराणसी में अध्ययन करता था। एक बार ग्रीष्मावकाश सम्पति भण्डार भरे अक्षय निधि आई।।३।। में मुझे अपनी मौसी के गाँव जाना पड़ा। वहाँ एक व्यक्ति को तीन लोक मांहिं, सार वेदन में गाई। बिच्छू ने डंस लिया। बिच्छू विषैला था, अत: उस व्यक्ति को जग में प्रसिद्ध धन्य मंगलीक भाई ।।४।।" भयंकर वेदना हुई। कई मान्त्रिकों ने उस व्यक्ति के बिच्छू के विष मन्त्र शब्द 'मन्' धातु (दिवादि ज्ञाने) से ष्ट्रन (त्र) प्रत्यय को मन्त्र द्वारा उतारा, पर्याप्त झाड़-फूंक की गयी, पर वह विष उतरा लगाकर बनाया जाता है, इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है; नहीं। मेरे पास भी उस व्यक्ति को लाया गया और लोगों ने 'मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा कहा-"आप काशी में रहते हैं, अवश्य मन्त्र जानते होंगे, कृपया आत्मा का आदेश - निजानुभव जाना जाये, वह मन्त्र है। दूसरी इस बिच्छू के विष को उतार दीजिए।" मैने अपनी लाचारी अनेक तरह से तनादिगणीय मन् धातु से (तनादि अवबोधे) ष्ट्रन प्रत्यय प्रकार से प्रकट की पर मेरे ज्योतिषी होने के कारण लोगों को मेरी । लगाकर मन्त्र शब्द बनता है, इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार- 'मन्यते अन्य विषयक अज्ञानता पर विश्वास नहीं हुआ और सभी लोग। विचार्यते आत्मादेशो येन स मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश बिच्छू का विष उतार देने के लिए सिर हो गये। मेरे मौसाजी ने भी पर विचार किया जाये, वह मन्त्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक अधिकार के स्वर में आदेश दिया। अब लाचार हो णमोकार मन्त्र मन धातु से 'ष्ट्रन' प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द बनता है। इसका का स्मरण कर मुझे ओझागिरी करनी पड़ी। नीम की एक टहनी व्युत्पत्ति-अर्थ है- 'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मान: वा मँगवायी गयी और इक्कीस बार णमोकार मन्त्र पढ़कर बिच्छू को यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में विद्वत खण्ड/२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का पुनरुक्त स्वरों को निकाल देने के पश्चात् रेखांकित स्वरों को ग्रहण सत्कार किया जाये, वह मन्त्र है। इन तीनों व्युत्पत्तियों के द्वारा मन्त्र किया तोशब्द का अर्थ अवगत किया जा सकता है। णमोकार मन्त्र-यह अ आ इ ई उ ऊ (र) ऋऋ (ल) ल ल ए ऐ ओ औ अं अः। नमस्कार मन्त्र है, इसमें समस्त पाप, मल और दुष्कर्मों को भस्म व्यंजनकरने की शक्ति है। बात यह है कि णमोकार मन्त्र में उच्चरित ण + म् + र् + ह् + त् + ण् + ण् + म् + स् + द् + ध् + ध्वनियों से आत्मा में धन और ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत् ण् + ण् + म् + य् + ण् + ण् + म् + व् + ज् + शु + य् + ण शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे कर्मकलंक भस्म हो जाता है। यही कारण है कि तीर्थकर भगवान भी विरक्त होते समय सर्वप्रथम इसी ___ + ण् + म् + ल् + स् + व् + व् + स् + ह + ण । महामन्त्र का उच्चारण करते हैं तथा वैराग्यभाव की वृद्धि के लिए घ आये हुए लोकान्तिक देव भी इसी महामन्त्र का उच्चारण करते हैं। यह अनादि मन्त्र है, प्रत्येक तीर्थंकर के कल्पकाल में इसका पुनरुक्त व्यंजनों के निकाल देने के पश्चात्अस्तित्व रहता है। कालदोष से लुप्त हो जाने पर अन्य लोगों को ण + म् + र् + ह् + ध् + स् + य् + र + ल् + व् + ज् + तीर्थकर की दिव्यध्वनि-द्वारा यह अवगत हो जाता है। घ + है। इस अनुचिन्तन में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि ध्वनिसिद्धान्त के आधार पर वर्गाक्षर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता णमोकार मन्त्र ही समस्त द्वादशांग जिनवाणी का सार है, इसमें है। अत: घ् = कवर्ग, झ् = चवर्ग, ण् = टवर्ग, ध् = तवर्ग, समस्त श्रुतज्ञान की अक्षर संख्या निहित है। जैन दर्शन के तत्त्व, म् = पवर्ग, य र ल व, स् = श ष स ह । पदार्थ, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय, निक्षेप, आस्रव, बन्ध आदि इस मन्त्र अत: इस महामन्त्र की समस्त मातृका ध्वनियाँ निम्न प्रकार हुईं। में विद्यमान हैं। समस्त मन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति इसी महामन्त्र से हुई अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख है। समस्त मन्त्रों की मूलभूत मातृकाएँ इस महामन्त्र में निम्नप्रकार ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ठ् ड् ढ् ण् त् थ् द् ध् न् प् फ् ब् भ् वर्तमान हैं। मन्त्र पाठ : म् य र ल व श् ष् स् ह् "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । उपर्युक्त ध्वनियाँ ही मातृका कहलाती हैं। जयसेन प्रतिष्ठापाठ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्ब-साहूणं ।।". में बतलाया गया है : विश्लेषण : “अकारादिक्षकारान्ता वर्णाः प्रोक्तास्तु मातृकाः । सष्टिन्यास-स्थितिन्यास-संहतिन्यासतस्त्रिधा ।।३७६।।" ण + अ + म् + ओ + अ + र् + इ + ह् + अं + त् + आ + ण् + अ + ण् + अ + म् + ओ + स् + इ + द् + ध् + - अकार से लेकर क्षकार (क् + ष् + अ) पर्यन्त मातृकावर्ण आ + ण् + अं+ ण् + अ + म् + ओ + आ + इ + र् + कहलाते हैं। इनका तीन प्रकार का क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम। इ + य् + आ + ण् + अं+ ण् + अ + म् + ओ + उ + व् णमोकार मन्त्र में मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम + अ + ज् + झ् + आ + य् + आ + ण् + अं + ण् + अ सन्निविष्ट है। इसी कारण यह मन्त्र आत्मकल्याण के साथ लौकिक + म् + ओ + ल् + ओ + ल् + ओ + ए + स् + अ + व् अभ्युदयों को देनेवाला है। अष्टकर्मों के विनाश करने की भूमिका + व् + अ + स् + आ + ह् + ऊ + ण् + अं । इसी मन्त्र के द्वारा उत्पत्र की जा सकती है। संहारक्रम कर्मविनाश इस विश्लेषण में से स्वरों को पृथक् किया तो- . को प्रकट करता है तथा सृष्टिक्रम और स्थितिक्रम आत्मानुभूति के अं + ओ + अ + इ + अं + आ + अं + अ + ओ + इ + साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति में भी सहायक है। इस मन्त्र की अ + अं + अ + एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमें मातृका-ध्वनियों का ओ + आ + इ + इ + अ + अं+ अ + ओ + 3 + अ + आ तीनों प्रकार का क्रम सनिहित है, इसलिए इस मन्त्र से मारण, मोहन और उच्चाटन तीनों प्रकार के मन्त्रों की उत्पत्ति हुई है। बीजाक्षरों की ऐई ओ निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है : + आ + अं+ अ + ओ+ ओ + ए + अ + अ + आ + ऊ "हलो बीजानि चोक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः" ।।३७७।। अ: + अं। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजन बीजसंज्ञक हैं और अकारादि स्वर शक्तिरूप हैं। मन्त्रबीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। सारस्वतबीज, मायाबीज, शुभनेश्वरीबीज, पृथिवीबीज, अग्नि बीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उक्त हल और अचों के संयोग से हुई है। यों तो बीजाक्षरों का अर्थ बीजकोश एवं बीज व्याकरण द्वारा ही ज्ञात किया जाता है, परन्तु यहाँ पर सामान्य जानकारी के लिए ध्वनियों की शक्ति पर प्रकाश डालना आवश्यक है। अ = अव्यय, व्यापक, आत्मा के एकत्व का सूचक, शुद्धबुद्ध ज्ञानरूप, शक्तिद्योतक, प्रणव बीज का जनक। आ - अव्यय, शक्ति और बुद्धि का परिचायक, सारस्वतबीज का जनक, मायाबीज के साथ कीर्ति, धन और आशा का पूरक। इ = गत्यर्थक, लक्ष्मी-प्राप्ति का साधक, कोमल कार्यसाधक, कठोर कर्मों का बाधक, वह्निबीज का जनक। ई = अमृतबीज का मूल, कार्यसाधक, अल्पशक्तिद्योतक, ज्ञानवर्द्धक, स्तम्भक, मोहक, जृम्भक। उ = उच्चाटन बीजों का मूल, अद्भुत शक्तिशाली, श्वासनलिका द्वारा जोर का धक्का देने पर मारक। ऊ = उच्चाटक और मोहक बीजों का मूल, विशेष शक्ति का परिचायक, कार्यध्वंस के लिए शक्तिदायक। ऋ = ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक, शुभ कार्यसम्बन्धी बीजों का धा बाजा का मूल, कार्यसिद्धि का सूचक। ल = सत्य का संचारक, वाणी का ध्वंसक, लक्ष्मीबीज की उत्पत्ति का कारण, आत्मसिद्धि में कारण। ए = निश्चल, पूर्ण, गतिसूचक, अरिष्ट निवारण बीजों का जनक, पोषक और संवर्द्धक। ऐ = उदात्त, उच्चस्वर का प्रयोग करने पर वशीकरण बीजों का जनक, पोषक और संवर्द्धक। जलबीज की उत्पत्ति का कारण, सिद्धप्रद कार्यों का उत्पादकबीज, शासन देवताओं का आह्वान करने में सहायक, क्लिष्ट और कठोर कार्यों के लिए प्रयुक्त बीजों का मूल, ऋण विद्युत् का उत्पादक। ओ = अनुदात्त, निम्न स्वर की अवस्था में मायाबीज का उत्पादक, लक्ष्मी और श्री का पोषक, उदात्त, उच्च स्वर की अवस्था में कठोर कार्यों का उत्पादक बीज, कार्यसाधक, निर्जरा का हेतु, रमणीय पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त होनेवाले बीजों में अग्रणी, अनुस्वारान्त बीजों का सहयोगी। औ = मारण और उच्चाटन सम्बन्धी बीजों में प्रधान, शीघ्र कार्यसाधक, निरपेक्षी, अनेक बीजों का मूल। अं = स्वतन्त्र शक्तिरहित, कर्माभाव के लिए प्रयुक्त ध्यानमन्त्रों में प्रमुख, शून्य या अभाव का सूचक, आकाश बीजों का जनक, अनेक मृदुल शक्तियों का उद्घाटक, लक्ष्मी बीजों का मूल। अः = शान्तिबीजों में प्रधान, निरपेक्षावस्था में कार्य असाधक, सहयोगी का अपेक्षक। क = शक्तिबीज, प्रभावशाली, सुखोत्पादक, सन्तानप्राप्ति की कामना का पूरक, कामबीज का जनक। ख = आकाशबीज, अभावकार्यों की सिद्धि के लिए कल्पवृक्ष, उच्चाटन बीजों का जनक। ग = पृथक् करनेवाले कार्यों का साधक, प्रणव और माया बीज के साथ कार्य सहायक। घ =स्तम्भक बीज, स्तम्भन कार्यों का साधक, विघ्नविघातक, मारण और मोहक बीजों का जनक। ङ = शत्रु का विध्वंसक, स्वर मातृका बीजों के सहयोगानुसार फलोत्पादक, विध्वंसक बीज जनक। च = अंगहीन, खण्डशक्ति द्योतक, स्वरमातृकाबीजों के अनुसार फलोत्पादक, उच्चाटन बीज का जनक। छ = छाया सूचक, माया बीज का सहयोगी, बन्धनकारक, आपबीज का जनक, शक्ति का विध्वंसक, पर मृदु कार्यों का साधक। ___ ज = नूतन कार्यों का साधक, शक्ति का वर्द्धक, आधि-व्याधि क का शामक, आकर्षक बीजों का जनक। झ = रेफयुक्त होने पर कार्यसाधक, आधि-व्याधि विनाशक, शक्ति का संचारक, श्रीबीजों का जनक। ञ = स्तम्भक और मोहक बीजों का जनक, कार्यसाधक, साधन का अवरोधक, माया बीज का जनक। ट = वह्निबीज, आग्नेय कार्यों का प्रसारक और निस्तारक, अग्नितत्व युक्त, विध्वंसक कार्यों का साधक। ठ = अशुभ सूचक बीजों का जनक, क्लिष्ट और कठोर कार्यो का साधक, मृदुल कार्यों का विनाशक, रोदन-कर्ता, अशान्ति का जनक, सापेक्ष होने पर द्विगुणित शक्ति का विकासक, वह्निबीज। ड = शासन देवताओं की शक्ति का प्रस्फोटक, निकृष्ट कार्यों की सिद्धि के लिए अमोघ, संयोग से पंचतत्वरूप बीजों का जनक, निकृष्ट आचार-विचार द्वारा साफल्योत्पादक, अचेतन क्रिया साधन। ढ - निश्चल, मायाबीज का जनक, मारण बीजों में प्रधान, शान्ति का विरोधी, शक्तिवर्धक। ण = शान्ति सूचक, आकाश बीजों में प्रधान, ध्वंसक बीजों का जनक, शक्ति का स्फोटक। विद्वत खण्ड/४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = त आकर्षक बीज, शक्ति का आविष्कारक, कार्यसाधक, सारस्वतबीज के साथ सर्वसिद्धिदायक । थ = मंगलसाधक, लक्ष्मीबीज का सहयोगी, स्वरमातृकाओं के साथ मिलने पर मोहक । द = कर्मनाश के लिए प्रधान बीज, आत्मशक्ति का प्रस्फोटक, वशीकरण बीजों का जनक । ध = श्रीं और क्लीं बीजों का सहायक, सहयोगी के समान फलदाता, माया बीजों का जनक । = न आत्मसिद्धि का सूचक, जलतत्त्व का स्रष्टा, का साधक, हितैषी, आत्मनियन्ता । प = परमात्मा का दर्शक, जलतत्व के प्राधान्य से युक्त, समस्त कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राह्य । = फ वायु और जलतत्व युक्त, महत्वपूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राह्य स्वर और रेफ युक्त होने पर विध्वंसक, विघ्नविघातक, 'फट्' की ध्वनि से युक्त होने पर उच्चाटक, कठोरकार्यसाधक । ब = अनुस्वार युक्त होने पर समस्त प्रकार के विघ्नों का विघातक और निरोधक, सिद्धि का सूचक । = भ साधक, विशेषत: मारण और उच्चाटन के लिए उपयोगी, सात्त्विक कार्यों का निरोधक, परिणत कार्यों का तत्काल साधक, साधना में नाना प्रकार से विघ्नोत्पादक, कल्याण से दूर, कटु मधु वर्णों से मिश्रित होने पर अनेक प्रकार के कार्यों का साधक, लक्ष्मी बीजों का विरोधी । मसिद्धिदायक, लौकिक और पारलौकिक सिद्धियों का प्रदाता, सन्तान की प्राप्ति में सहायक | = य शान्ति का साधक, सात्त्विक साधना की सिद्धि का कारण, महत्वपूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए उपयोगी मित्रप्राप्ति या किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी, ध्यान का साधक । र अग्निबीज, कार्यसाधक, समस्त प्रधान बीजों का जनक, शक्ति का प्रस्फोटक और वर्द्धक। = ल लक्ष्मीप्राप्ति में सहायक श्रीबीज का निकटतम सहयोगी = और सगोती, कल्याणसूचक। मृदुतर कार्यों वसिद्धिदायक, आकर्षक, हर और अनुस्वार के संयोग से चमत्कारों का उत्पादक, सारस्वतबीज, भूत-पिशाच शाकिनीडाकिनी आदि की बाधा का विनाशक, रोगहर्ता, लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए अनुस्वार मातृका का सहयोगापेक्षी, मंगलसाधक, विपत्तियों का रोधक और स्तम्भक शनिरर्थक, सामान्यवीजों का जनक या हेतु, उपेक्षाधर्मयुक्त, शान्ति का पोषक शिक्षा-एक यशस्वी दशक ष आह्वानबीजों का जनक सिद्धिदायक, अग्निस्तम्भक, = " जलस्तम्भक, सापेक्षध्वनि ग्राहक, सहयोग या संयोग द्वारा विलक्षण कार्यसाधक, आत्मोन्नति से शून्य, रुद्रबीजों का जनक, भयंकर और वीभत्स कार्यों के लिए प्रयुक्त होने पर कार्यसाधक । > स = सर्व समीहित साधक, सभी प्रकार के बीजों में प्रयोग योग्य, शान्ति के लिए परम आवश्यक पौष्टिक कार्यों के लिए परम उपयोगी, ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदि कर्मों का विनाशक, क्लींबोज का सहयोगी, कामबीज का उत्पादक, आत्मसूचक और दर्शक = ह शान्ति, पौष्टिक और मांगलिक कार्यों का उत्पादक, साधना के लिए परमोपयोगी, स्वतन्त्र और सहयोगापेक्षी, लक्ष्मी की उत्पत्ति में साधक, सन्तान प्राप्ति के लिए अनुस्वार युक्त होने पर जाय में सहायक, आकाशतत्त्व युक्त, कर्मनाशक, सभी प्रकार के बीजों का जनक । 1 उपर्युक्त ध्वनियों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि मातृका मन्त्र ध्वनियों के स्वर और व्यंजनों के संयोग से ही समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति हुई है तथा इन मातृका ध्वनियों की शक्ति ही मन्त्रों में आती है णमोकार मन्त्र से मातृका ध्वनियाँ निःसृत है अतः समस्त मन्त्रशास्त्र इसी महामन्त्र से प्रादुर्भूत हैं। इस विषय पर अनुचिन्तन में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। अतः यह युग विचार और तर्क का है; मात्र भावना से किसी भी बात की सिद्धि नहीं मानी जा सकती है। भावना का प्रादुर्भाव भी तर्क और विचार द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होने पर होता है। अतः णमोकार महामन्त्र पर श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए विचार आवश्यक है। विद्वत खण्ड/ ५ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जवाहर ब्रह्मचारी बना है, उसे अखण्ड ब्रह्मचारी कहते हैं। अखण्ड ब्रह्मचारी का मिलना इस काल में अत्यन्त कठिन है। आजकल तो अखंड ब्रह्मचारी के दर्शन भी दुर्लभ हैं। अखंड ब्रह्मचारी में अद्भुत शक्ति होती है। उसके लिए क्या शक्य नहीं है? वह चाहे सो कर सकता है। अखंड ब्रह्मचारी अकेला सारे ब्रह्माण्ड को हिला सकता है। अखंड ब्रह्मचारी वह है जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों को और मन को अपने अधीन बना लिया हो-जो इन्द्रियों और मन पर पूर्ण आधिपत्य रखता हो। इन्द्रियाँ जिसे फुसला नहीं सकतीं, मन जिसे विचलित नहीं कर सकता, ऐसा अखण्ड ब्रह्मचारी ब्रह्म का शीघ्र साक्षात्कार कर सकता है। अखंड ब्रह्मचारी की शक्ति अजबगजब की होती है। २-ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ परमात्मा के प्रति विश्वास स्थिर क्यों नहीं रहता? यह प्रश्न अनेकों के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। इसका उत्तर ज्ञानी यह देते हैं कि आन्तरिक निर्बलता ही परमात्मा के प्रति विश्वास को स्थायी नहीं रहने देती। परमात्मा के प्रति विश्वास न होने के जो कारण हैं, उनमें से एक कारण है ब्रह्मचर्य का अभाव। जीवन में यदि ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा हुई तो निसन्देह ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धाभाव स्थायी रह ब्रह्मचर्य सकता है। ब्रह्मचर्य शब्द कैसे बना है और वह क्या वस्तु है? सर्वप्रथम इस ज्ञानीजन कहते हैं-समस्त इन्द्रियों पर अंकुश रखना और बात पर विचार करना चाहिए। हमारे आर्यधर्म के साहित्य में ब्रह्मचर्य विषयभोग में इन्द्रियों को प्रवत्त न होने देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है और वीर्य शब्द का उल्लेख मिलता है। जिन दिनों अवशेष संसार यह भी नहीं की रक्षा करना अपूर्ण ब्रह्मचर्य है। आज वीर्य रक्षा तक ही ब्रह्मचर्य जानता था कि वस्त्र क्या होते हैं और अन्न क्या चीज है तथा नङ्ग- की सीमा स्वीकार की जाती है। पर वास्तव में सब इन्द्रियाँ और मन धडंग रहकर, कच्चा माँस खाकर अपना पाशविक जीवन-यापन कर को विषयों की ओर प्रवृत्त न होने देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है। केवल वीर्यरक्षा रहा था, उन दिनों भारत बहुत ऊँची सभ्यता का धनी था। उस समय अपूर्ण ब्रह्मचर्य है। अलबत्ता अपूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना के द्वारा पूर्ण भी उसकी अवस्था बहुत उन्नत थी। यहाँ के ऋषियों ने, जो संयम, ब्रह्मचर्य तक पहँचा जा सकता है। योगाभ्यास, ध्यान, मौन आदि अनुष्ठानों में लगे रहते थे, संसार में . ३-वीर्य का दुरुपयोग ब्रह्मचर्य नाम को प्रसिद्ध किया। ब्रह्मचर्य का महत्व तभी से चला आता देश में आज जो रोग, शोक, दरिद्रता आदि जहाँ-तहाँ दृष्टिगोचर है-जब से धर्म की पुनः प्रवृत्ति हुई। भगवान् ऋषभदेव ने धर्म में होते हैं उन सबका एकमात्र कारण वीर्यनाश है। आज बेकार वस्तु की ब्रह्मचर्य को भी अग्रस्थान प्रदान किया था। साहित्य की ओर दृष्टिपात तरह वीर्य का दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग यह नहीं जानते कि कीजिए तो विदित होगा कि अत्यन्त प्राचीन साहित्य-आचारांग सूत्र वीर्य में कितनी अधिक शक्ति विद्यमान है। इसी कारण विषय-भोग में तथा ऋग्वेद में भी ब्रह्मचर्य की व्याख्या मिलती है। इस प्रकार आर्य वीर्य का नाश किया जा रहा है। उसी में आनन्द माना जा रहा है। ऐसा प्रजा को अत्यन्त प्राचीन काल से ब्रह्मचर्य का ज्ञान मिल रहा है। करने से जब अधिक सन्तान उत्पन्न होती है तो घबराहट पैदा होती १- ब्रह्मचर्य की शक्ति है। पर उनसे मैथुन त्यागते नहीं बनता। भारतीयों को इस प्रश्न पर आजकल ब्रह्मचर्य शब्द का सर्वसाधारण में कुछ संकुचित-सा गहरा विचार करना चाहिये। विदेशी लोग ब्रह्मचर्य की महत्ता को भले अर्थ समझा जाता है। पर विचार करने से मालूम होता है कि वास्तव ही न समझते हों या स्वीकार न करते हों परन्तु भारत में तो ऐसे महान् में उसका अर्थ बहुत विस्तृत है। ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत उदार है ब्रह्मचारी हो गये हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य द्वारा महान शक्ति लाभ कर जगत अतएव उसकी महिमा भी बहुत अधिक है। हम ब्रह्मचर्य का के समक्ष यह आदर्श उपस्थित कर दिया है कि ब्रह्मचर्य के प्रशस्त महिमागान नहीं कर सकते। जो विस्तृत अर्थ को लक्ष्य में रखकर पथ पर चलने में ही मानव समाज का कल्याण है। ब्रह्मचर्य ही कल्याण विद्वत खण्ड/६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मार्ग है। यह समझते-बूझते हुए भी विषय-भोग में सुख मानना और प्रकार की होती है। यह बात प्राय: सभी जानते है कि जैसी भावना जब संतान उत्पन्न हो तो उसका निरोध करने के लिए कृत्रिम उपाय होती है, वैसा स्वप्न आता है। इसी प्रकार संतान के विषय में माताकाम में लाना घोर अन्याय है। वीर्य को वृथा बर्बाद करने के समान पिता की भावना जैसी होती है, वैसी ही सन्तान बन जाती है। जिस दूसरा कोई अन्याय नहीं है। प्रकार भावना से स्वप्न का निर्माण होता है, इसी प्रकार भावना से हमारे अन्दर जो शांति और साहस है, वह वीर्य के ही प्रताप से संतान के विचारों और कार्यों का निर्माण होता है। नीच विचार करने है। अगर शरीर में वीर्य न हो तो मनुष्य हलन-चलन गमनागमन आदि से खराब स्वप्न आता है और यही बात संतान के विषय में भी समझनी क्रियाएँ करने में भी समर्थ नहीं हो सकता। चाहिये। संतान के विषय में तुम जैसी भावना लाओगे, आगे चलकर ४-ब्रह्मचर्य का महत्व संतान वैसी ही बन जायेगी। अतएव सन्तान के लिए और अपने लिए जो भाई-बहिन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे वे संसार को अनमोल ब्रह्मचर्य की भावना निरन्तर करनी चाहिये। रत्न प्रदान करने में समर्थ हो सकेंगे। हनुमानजी का नाम कौन नहीं ७-दूसरा नियम जानता? आलंकारिक भाषा में कहा जाता है कि उन्होंने लक्ष्मणजी के ब्रह्मचर्य का दूसरा नियम भोजन-सम्बन्धी विवेक है। कुछ लोग लिए द्रोण पर्वत उठाया था। उसी पर्वत का एक टुकड़ा गिर पड़ा, जो ऐसा समझते हैं कि जिस खानपान में आनन्द आता है, वही भोजन गोवर्धन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अलंकार का आवरण दूर कर दीजिए अच्छा है, पर यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। ब्रह्मचारी के भोजन में और और विचार कीजिये तो इस कथन में हनुमानजी का प्रचण्ड शक्ति का अब्रह्मचारी के भोजन में बड़ा अन्तर होता है। गीता में रजोगुणी, दिग्दर्शन आप पाएँगे। हनुमानजी में इतनी शक्ति कहाँ से आई? यह तमोगुणी और सतोगुणी का भोजन अलग-अलग बताया है। पर आज महारानी अंजना और महाराज पवनजी का बारह वर्ष की अखण्ड के लोग जिह्वा के वशवर्ती बनकर भोजन के गुलाम हो रहे हैं। यदि ब्रह्मचर्य की साधना का प्रताप था। उनके ब्रह्मचर्य पालन ने संसार को तुम अपनी जीभ पर भी अंकुश नहीं रख सकते तो तुम आगे किस एक ऐसा उपहार, ऐसा वरदान दिया, जो न केवल अपने समय में ही प्रकार बढ़ सकोगे? विद्याभ्यास और शास्त्र श्रवण का फल यही है कि अद्वितीय था, वरन् आज तक भी वह अद्वितीय समझा जाता है और बुरे कामों की प्रवृत्ति न की जाय। आजकल खान-पान के सम्बन्ध में शक्ति की साधना के लिए उसकी पूजा भी की जाती है। बड़ी भयंकर भूलें हो रही हैं और हालत ऐसी जान पड़ती है मानो बहिनों! अगर तुम्हारी हनुमान सरीखा शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न विद्याभ्यास का फल खानपान का भान भूल जाना ही हो। करने की साध है तो अपने पति को कामुक बनाने वाले साज-सिंगार ८-विनाश के कारण और हावभाव त्याग कर स्वयं ब्रह्मचर्य की साधना करो और पति को वीर्यनाश का एक कारण एक ही कमरे में, एक ही बिछौने पर भी ब्रह्मचर्य पालन करने दो। स्त्री पुरुष का शयन करना भी है। एक ही कमरे में और एक शय्या ५-ब्रह्मचर्य ही जीवन है पर सोने से वीर्य स्थिर नहीं रह सकता। शास्त्र में जहाँ स्त्री और पुरुष अपूर्ण ब्रह्मचर्य केवल वीर्यरक्षा को कहते हैं। वीर्य वह वस्तु है के सोने का वर्णन मिलता है वहाँ ऐसा ही वर्णन मिलता है कि स्त्री जिसके सहारे सारा शरीर टीका हुआ है। यह शरीर वीर्य से बना भी और पुरुष अलग-अलग शयनागार में सोते थे। पर आज इस विषय है। अतएव आँखें वीर्य हैं। कान वीर्य हैं। नासिका वीर्य है। हाथ पैर में नियम का पालन होता नजर नहीं आता। वीर्य हैं। सारे शरीर का निर्माण वीर्य से हुआ है, अतएव सारी शरीर निष्क्रिय बैठे रहना भी वीर्यनाश का एक कारण है। जो लोग वीर्य है। जिस वीर्य से सम्पूर्ण शरीर का निर्माण होता है उसकी शक्ति अपने शरीर और मन को किसी सत्कार्य में संलग्न नहीं रखते, उन क्या साधारण कही जा सकती है? किसी ने ठीक ही कहा है- लोगों का वीर्य भी स्थिर नहीं रह सकता। यदि शरीर और मन को मरण बिन्दुपातेन, जीवन बिन्दुधारणात् । निष्क्रिय न रखा जाय तो वीर्य को हानि नहीं पहँचती। ६-अपूर्ण ब्रह्मचर्य का प्रथम नियम रात्रि में देर तक जागरण करना, सूर्योदय के बाद भी सोते रहना अपूर्ण ब्रह्मचर्य के दस नियमों में पहिला नियम भावना है। माता- और अश्लील साहित्य का पढ़ना, ये सब भी वीर्यनाश के कारण हैं। पिता को ऐसी भावना लानी चाहिए कि मेरा पुत्र वीर्यवान् और जगत् अश्लील चित्र देखने से और अश्लील पुस्तकें पढ़ने से भी वीर्य स्थिर का कल्याण करने वाला बने। इस प्रकार की भावना से बहुत लाभ नहीं रहता। आज जहाँ-तहाँ अश्लील पुस्तकें पढ़ने और अश्लील होता है। आप लोगों को अलग-अलग तरह के स्वप्न आते होंगे। चित्र देखने का प्रचार हो गया है। आजकल लोग महापुरुषों और इसका कारण क्या है? कारण यही है कि सब की भावना भिन्न-भिन्न महासतियों के जीवन चरित्र पढ़ने के बदले अश्लीलतापूर्ण पुस्तकें शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/७ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़न के शौकीन हो गये हैं। उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि ऐसा करने से जीवन में कितने विकार आ घुसे हैं। कहावत है-'जैसा वाचन वैसा विचार' । इस कहावत के अनुसार अश्लील पुस्तकों के पठन से लोगों के विचार भी अश्लील बनते जा रहे हैं। नाटक-सिनेमा देखना भी वीर्यनाश का कारण है। आजकल नाटक-सिनेमा की धूम मची हुई है। जहाँ देखो वहाँ गरीब से लेकर अमीर तक-सबको नाटक-सिनेमा में फंसाने का प्रयत्न किया जा रहा है और इस प्रकार सिनेमा वीर्यनाश के साधन बन रहे हैं। ९-सिनेमा और ग्रामोफोन आजकल के सिनेमा तो नैतिकता से इतने पतित और निर्लज्जतापूर्ण होते सुने जाते हैं कि कोई भला मानुष अपने बालबच्चों के साथ उन्हें देख नहीं सकता। सिनेमा के कारण आज लाखों नवयुवक आचरणहीन बन रहे हैं। इन सिनेमाओं की बदौलत भारतीय नारी अपनी महत्ता का विस्मरण कर भारतीय सभ्यता के मल में कुठाराघात कर रही है। यह अत्यन्त खेद की बात है। इसी प्रकार ग्रामोफोन को भी आनन्द का साधन समझा जाता है पर उसके द्वारा संस्कारों में कितनी बुराइयाँ घुस रही हैं, इस ओर कितने लोगों का ध्यान जाता है? १०-ब्रह्मचर्य साधन ब्रह्मचर्य पालने वालों को अथवा जो ब्रह्मचर्य पालन चाहते हैं उन्हें विलासपूर्ण वस्त्रों से. आभूषणों से, आहार से सदैव बचते रहना चाहिये। मस्तिष्क में कविचारों का अंकर उत्पन्न करने वाले साहित्य को हाथ भी नहीं लगाना चाहिए। जो पुस्तकें धर्म, देश-भक्ति की जना जागत करने वाली और चरित्र को सधारने वाली होती है उनमें अंग्रेज सरकार राजनीति की गंध सूंघती है और उन्हें जब्त कर लेती है। पर जो पुस्तकें ऐसा गंदा और घासलेटी साहित्य बढ़ाती हैं, प्रजा का सर्वनाश कर रही हैं, उनकी ओर से वह सर्वथा उदासीन रहती है। यह कैसी भाग्यविडम्बना है? ११-वीर्य की महिमा स्वप्न में भी वीर्य का नाश होता है। कुछ लोग कहा करते हैं कि वीर्य रक्षा से स्वप्नदोष होता है पर यह कथन भ्रमपूर्ण है। इस भ्रामक विचार का परित्याग करके स्वप्नदोष के असली कारण का पता लगाना चाहिये। फिर उस कारण से बचकर दोषनिवारण का प्रयत्न करना चाहिये। जब तुम सो रहे हो, तब तुम्हारी जेब में से अगर कोई रत्न निकाल कर ले जाने लगे और उस समय तुम जाग उठो तो आँखों देखते क्या रत्न ले जाने दोगे? नहीं, तो फिर स्वप्नदोष के कारण जानबूझ कर वीर्य को नष्ट होने देना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है? १२-ब्रह्मचर्य और रसनानिग्रह ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए, साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जिह्वा पर अंकुश रखने की आवश्यकता है। जिह्वा पर अंकुश न रखने से अनेक प्रकार की हानियाँ होती हैं। इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी जीभ पर काबू रखता है उसे प्राय: वैद्यों और डॉक्टरों के द्वार पर भटकने की आवश्यकता नहीं रहती। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके लिए जीवन की अपेक्षा भोजन अधिक महत्व की वस्तु है। वे जीने के लिए नहीं खाने के लिए जीते हैं। भले ही कोई सीधी तरह इस बात को स्वीकार न करे मगर उसके भोजन-व्यवहार को देखने से यह सत्य साफ तौर से प्रगट हए बिना नहीं रहेगा। यही कारण है कि अधिकांश लोग जीवन के शुभ-अशुभ की कसौटी पर भोजन की परख नहीं करते। वे जिह्वा को कसौटी बनाकर भोजन की अच्छाई-बुराई की जाँच करते हैं। जो जीवन की दृष्टि से भोजन करता है वह स्वास्थ्य नाशक और जीवन को भ्रष्ट करने वाला भोजन कैसे कर सकता है? कुशल मनुष्य अज्ञात व्यक्ति को सहसा अपने घर में स्थान नहीं देता। तब जिस भोजन के गुण-दोष का पता न हो उसे पेट में स्थान देना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है? जो ऐसे भोजन को पेट में लूंस लेता है, उसके पेट को भोजनपिटारे के सिवा और क्या कहा जा सकता है? एक विद्वान का कथन है कि दुनिया में जितने आदमी खाने-पीने से मरते हैं, उतने खाने-पीने के अभाव से नहीं मरते। लोग पहले ठेसलूंस कर खाते हैं, फिर डॉक्टर की शरण लेते हैं। आज जो आदमी जितनी अधिक चीजें अपने भोजन में समाविष्ट करता है वह उतना ही बड़ा आदमी गिना जाता है, मगर शास्त्र का आदेश यह है कि जो जितना महान त्यागी है वह उतना ही महान् पुरुष है। शास्त्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बारह करोड़ स्वर्ण मोहरों का और चालीस हजार गायों का धनी होने पर भी उसने अपने खानेपीने के लिए कुछ गिनती की चीजों की ही मर्यादा कर ली थी। इस प्रकार खान-पान के विषय में जो जितना संयम रखता है वह उतना ही महान् है। जिह्वासंयम से स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। नागरिकों को जितना और जैसा भोजन मिलता है, उतना और वैसा किसानों को नहीं। फिर भी अगर दोनों की कुश्ती हो तो किसान ही विजयी होगा। यह कौन नहीं जानता कि सभ्य और बड़े कहलाने वाले लोगों की अपेक्षा किसान अधिक स्वस्थ और सबल होता है। इसका एक कारण सादा और सात्विक भोजन है। इस तरह अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य सुधरने की जगह बिगड़ता है। विकृत भोजन करने में स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है और चरित्र को भी. इसी कारण विकृत (विगय) भोजन करने का शास्त्र में निषेध किया गया है। विद्वत खण्ड/८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का भोजन के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। भोगी का भोजन ब्रह्मचर्य पालन से किसी को किसी रोग का शिकार होना पड़ा है और और योगी का भोजन एक-सा नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य की साधना न ऐसा कोई उदाहरण ही देखा गया है। हाँ, ठीक इससे उल्टे जो लोग करने वालों को ऐसा और इतना ही भोजन करना चाहिये जिससे शरीर विषयी होते हैं, वे ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। यह बात तो प्रत्यक्ष की रक्षा हो सके और जो ब्रह्मचर्य में बाधक न होकर साधक हो। दिखाई देती है। अतएव अपने हृदय से इस भ्रान्ति को निकाल फेंको अधिक गरिष्ठ, तेज, मसालेदार और परिमाण से अधिक भोजन सर्वथा कि ब्रह्मचर्य से रोग पैदा होते हैं। ब्रह्मचर्य जीवन है। उससे शक्ति का हानिकारक है। विकास होता है। जहाँ शक्ति है, वहाँ रोगों का आक्रमण नहीं होता। १३-ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में लोगों की भ्रान्त धारणा अशक्त और दुर्बल पुरुष ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। विषय-भोग की कामना का नियन्त्रण नहीं हो सकता, यह कामना खेद है कि लोगों के मन में यह भ्रम उत्पन्न हो गया है कि विषय अजेय है, इस प्रकार की दुर्भावना पुरुष-समाज में एक बार पैठ पाई, भोग की इच्छा का दमन करना अशक्य है। परन्तु जैसे नेपोलियन ने तो भयंकर अनर्थ होंगे और उन अनर्थो की परम्परा का सामना करना। असम्भव शब्द कोश में से निकाल डालने को कहा था उसी प्रकार सहज नहीं होगा। तुम अपने हृदय में से निकाल बाहर करो। ऐसा करने से तुम्हार यद्यपि आजकल भी अनेक लोग हैं, जिनकी यह भ्रान्त धारणा मनोबल सुदृढ़ बनेगा और तब विषय-भोग की कामना पर विजय प्राप्त हो गई है कि मनुष्य कामभोग की वासना पर विजय नहीं प्राप्त कर करना तनिक भी कठिन न होगा। सकता। संभवत: वे लोग मनुष्य को काम वासना का कीड़ा समझते त्रिविध ब्रह्मचर्य हैं। पर प्राचीन आर्य-ऋषियों का अनुभव इस धारणा का विरोध करता है। कोई व्यक्ति विशेष ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ रहे, यह १-ब्रह्मचर्य शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त एक बात है और यह कहना कि ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करना 'ब्रह्मचर्य' एक ही शब्द नहीं है, किन्तु 'ब्रह्म' शब्द में 'चर्य' संभव नहीं है, दूसरी बात है। किसी व्यक्ति की असमर्थता के आधार कृत प्रत्ययान् से बना हुआ संस्कृत शब्द है। ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य। पर किसी व्यापक सिद्धान्त का निर्माण कर बैठना, सच्चाई के साथ 'ब्रह्म' शब्द के वैसे तो कई अर्थ होते हैं, परन्तु यहाँ यह शब्द वीर्य, अन्याय करना है। इस प्रकार असमर्थता की ओट में विषयभोगों का विद्या और आत्मा के अर्थ में है। 'चर्य' का अर्थ, रक्षण, अध्ययन तथा विचार करना सर्वथा अनुचित है। चिन्तन है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्यरक्षा, विद्याध्ययन और आज भी संसार में ऐसे व्यक्तियों का मिलना असंभव नहीं है आत्म-चिन्तन है। ‘ब्रह्म' का अर्थ उत्तम काम या कुशलानुष्ठान भी जो बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जन-सेवा कर रहे होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य का अर्थ उत्तम या कुशलानुष्ठान का हैं। फिर भीष्म और भगवान् नेमिनाथ जैसे पवित्र ब्रह्मचारियों का उच्च आचरण भी है। ब्रह्मचर्य शब्द के इन अर्थों पर दृष्टिपात करने से हम आदर्श जिन्हें मार्ग-प्रदर्शन कर रहा हो, उन भारतवासियों के हृदय में इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि जिस आचरण द्वारा आतम-चिन्तन हो, न जाने यह भूत कैसे घुस गया है कि विषय वासना पर काबू रखना आत्मा अपने आपको पहचान सके और अपने लिए वास्तविक सुख शक्य नहीं है। साधु हुए बिना ब्रह्मचर्य का पालन हो ही नहीं सकता प्राप्त कर सके, उस आचरण का नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इस अर्थ में और गृहस्थ-जीवन में ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान एकदम अशक्यानुष्ठान ब्रह्मचर्य शब्द के ऊपर कहे हुए सभी अर्थ आ जाते हैं। है! वास्तव में यह धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण है। मनोबल दृढ़ होने पर पूर्ण २-ब्रह्मचर्य की परिभाषा या नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। यही नहीं वरन् आत्मचिन्तन के लिए, इन्द्रियों और मन पर विजय पाना विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए गृहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य का आवश्यक है। प्राकृतिक नियमों के अनुसार इन्द्रियाँ मन के, मन बुद्धि पालन किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य पालने से किसी भी प्रकार की के और बुद्धि आत्मा के अधीन एवं आत्मा की सहायिका होनी हानि की सम्भावना नहीं है। यही नहीं किन्तु अनेक प्रकार के लाभ होते चाहिये। ऐसा होने पर ही आत्मा अपने आपको जान सकता है, इन्द्रियाँ हैं। कहा भी है : मन और बुद्धि का कर्तव्य, आत्मा को बलवान् तथा पुष्ट बनाना है। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । बलवान् आत्मा ही अपना स्वरूप जान सकता है, विद्याध्ययन में समर्थ कुछ महानुभावों ने एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया है। हो सकता है और उत्तम काम तथा कुशलानुष्ठान कर सकता है। उनकी अनोखी सी समझ यह है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने से शरीर । इसलिये इन्द्रियों, मन और बुद्धि का काम आत्मा को बलवान् बनाना, में रोग उत्पन्न होते हैं। पर न तो आज तक यह सना गया है कि आत्मा के हित को दृष्टि में रखना, आत्मा का अहित करने वाले कामों शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/९ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से दूर रहना है। इन्द्रियों और मन का अपने इस कर्तव्य पर स्थिर रहने इन्द्रियाँ और मन दुर्विषयों की ओर न दौड़ें। यदि एक भी इन्द्रिय का नाम ही 'ब्रह्मचर्य' है। दुर्विषय की ओर दौड़ती है-उसे चाहती है और उसमें सुख भी आत्मा का हित अपना स्वरूप जानने में है। आत्मा अपना मानती है तो सम्पूर्णतया वीर्यरक्षा कदापि नहीं हो सकती। इसलिये स्वरूप तभी जान सकता है-जब उसके सहायक एवं सेवक इन्द्रियाँ पूर्ण रीति से वीर्यरक्षा का अर्थ भी वही है, जो ऊपर कहा गया है तथा मन, उसके आज्ञावर्ती और शुभचिन्तक हों। विपरीतावस्था में अर्थात् सर्वप्रकार के असंयम-परित्याग-रूप इन्द्रियों और मन का आत्मा का अहित स्वाभाविक ही है। आत्मा के सहायक तथा सेवक संयम। वे ही इन्द्रियाँ और मन हैं, जो सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर ५-ब्रह्मचर्य के तीन भेद और उनका सम्बन्ध न दौड़ें। इन्द्रियों का सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर दौड़ना ब्रह्मचर्य मन, वचन और शरीर से होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य तथा मन का इन्द्रियानुगामी होना आत्मा के लिए अहितकारक है। के तीन भेद होते हैं अर्थात् मानसिक-ब्रह्मचर्य, वाचिक-ब्रह्मचर्य और आत्मा का हित तभी है, जब न तो इन्द्रियाँ दुर्विषयों की ओर दौड़े और शारीरिक-ब्रह्मचर्य। मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा पालन किया न इन्द्रियों के साथ ही साथ मन भी आत्मा का अशुभ-चिन्तक बने। गया ब्रह्मचर्य ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है अर्थात् न मन में ही अब्रह्मचर्य की इन्द्रियाँ और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ना, दुर्विषयों की चाह न भावना हो, न वचन द्वारा ही अब्रह्मचर्य प्रगट हो और न शरीर द्वारा करना और सुख की लालसा से उन्हें न भोगना ही 'ब्रह्मचर्य' है। ही अब्रह्मचर्य की क्रिया की गई हो इसका नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है। इन्द्रियाँ पाँच है-कान, आँख, नाक, जीभ और त्वचा। इन याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा हैपाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श कायेन मनसा वाचा, सविस्थासु सर्वदा । अर्थात् सुनना, देखना, सूंघना, स्वाद लेना और छूना। यद्यपि ये सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ।। इन्द्रियाँ हैं सुनने, देखने, सूंघने, स्वाद लेने और स्पर्श करने के लिए शरीर, मन और वचन से, सभी अवस्थाओं में सर्वदा और ही-इसी कारण इनका नाम ज्ञानेन्द्रियाँ भी है- लेकिन ये ज्ञानेन्द्रियाँ सर्वत्र मैथुन-त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है। तभी होती हैं और तभी आत्मा का हित भी कर सकती हैं, जब कायिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जिसके सद्भाव में, शरीर द्वारा दुर्विषयों में लिप्त न हों, उनके भोग में सुख न माने और अपने आप अब्रह्मचर्य की कोई क्रिया न की गई हो अर्थात् शरीर से अब्रह्मचर्य को दुर्विषय-भोग के लिए न समझें। इसी प्रकार मन भी आत्मा का में प्रवृत्ति न हुई हो। मानसिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव हित करने वाला तभी है, जब वह अपने पद से भ्रष्ट होकर, इन्द्रियों में दुर्विषयों का चिन्तन न किया जावे, अर्थात् मन में अब्रह्मचर्य की का अनुगामी न बन जावे और न इन्द्रियों को ही दुर्विषयों की ओर भावना भी न हो। वाचिक-ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में जाने दे। मन का काम इन्द्रियों को सुख देना नहीं, किन्तु आत्मा को अब्रह्मचर्य के सद्भाव को पूर्ण ब्रह्मचर्य कहते हैं। सुख देना है और इन्द्रियों को भी उन्हीं कामों में लगाना है, जिनसे कायिक, मानसिक और वाचिक ब्रह्मचर्य का परस्पर कर्ता आत्मा सुखी हो। इन्द्रियों और मन का, इस कर्तव्य को समझ कर क्रिया और कर्म का सा सम्बन्ध है। पूर्ण ब्रह्मचर्य वहीं हो सकता इस पर स्थिर रहना ही 'ब्रह्मचर्य' है। है जहाँ उक्त प्रकार के तीनों ब्रह्मचर्य का सद्भाव हो। एक के ३-गाँधीजी कृत ब्रह्मचर्य की परिभाषा अभाव में दूसरे और तीसरे का-एकदम से नहीं तो शनैः शनैः ___ गाँधीजी ने 'ब्रह्मचर्य' के अर्थ में लिखा है- "ब्रह्मचर्य का अभाव स्वाभाविक है। अर्थ है सभी इन्द्रियाँ और सम्पूर्ण विकारों पर पूर्ण अधिकार कर सारांश यह कि इन्द्रियों का दुर्विषयों से निवृत्त होने, मन का लेना। सभी इन्द्रियों को तन, मन और वचन से, सब समय और सब दुर्विषयों की भावना न करने, दुर्विषयों से उदासीन रहने, मैथुनाङ्गों क्षेत्रों में संयमित करने को 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।' सहित सब प्रकार के मैथुन त्यागने और मानसिक शक्ति को ४-ब्रह्मचर्य की व्यावहारिक परिभाषा आत्मचिन्तन, आत्महित-साधन तथा आत्मविद्याध्ययन में लगा देने यद्यपि सब इन्द्रियाँ और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ने का ही नाम 'ब्रह्मचर्य' है। का नाम ब्रह्मचर्य है, लेकिन व्यवहार में, ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल 'वीर्यरक्षा' ही लिया जाता है। इस व्यावहारिक अर्थ-अर्थात् पूर्ण रुपेण वीर्यरक्षा- से भी इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की ओर दौड़ना ही मतलब निकलेगा। पूर्णतया वीर्यरक्षा तभी हो सकती है, जब सभी विद्वत खण्ड/१० शिक्षा-एक यशस्वी दशक . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभ और माहात्म्य 'ब्रह्मचर्य, धर्म रूप पद्मसरोवर का पाल के समान रक्षक है। यह तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं। दया, क्षमा आदि गुणों का आधार-भूत एवं धर्म की शाखाओं का आधार- सूत्रकृतांग सूत्र स्तम्भ है। ब्रह्मचर्य चर्म रूप महानगर का कोट है और धर्म रूप महानगर "ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप है'। का प्रधान रक्षक-द्वार है। ब्रह्मचर्य के खण्डित होने पर सभी प्रकार के ब्रह्मचर्य से क्या लाभ होता है और ब्रह्मचर्य का कैसा महात्म्य धर्म, पहाड़ से गिरे हुए कच्चे घड़े के समान चूर-चूर हो जाते हैं।' है, यह संक्षेप में नीचे बताया जाता है। ब्रह्मचर्य, धर्म का कैसा आवश्यक अंग है, यह बताते हुए और १-शरीर और धर्म का सम्बन्ध ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए एक मुनि ने कहा हैआत्मा का ध्येय, संसार के जन्म-मरण से छूट कर, मोक्ष प्राप्त पंच महव्वए-सुव्वयमूलं, समणामणाइल साहुसुविणं । करना है। आत्मा इस ध्येय को तभी प्राप्त कर सकता है, जब उसे वेरविरामण पज्जवसाणं, सव्वसमुद्द महोदहितित्थ ।।१।। शरीर की सहायता हो-अर्थात् शरीर स्वस्थ हो। बिना शरीर के धर्म तित्थकरेहिं सुदेसिय मग्गं, नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं । नहीं हो सकता और बिना धर्म के आत्मा अपने उक्त ध्येय तक नहीं सब्बपवित्तसुनिम्मियसारं, सिद्धिविमाण-अवंगुयदारं ।।२।। पहुँच सकता। काव्य ग्रंथों में कहा है देवनरिंदनमंसियपूइयं सव्वजगुत्तममंगलमग्गं । शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् । दुद्धरिसं गुणनायकमेक्कं मोक्खपहरसवडिंसगभूयं ।।३।। - कुमारसम्भव 'ब्रह्मचर्य, पाँच महाव्रत का मूल है अत: उत्तम व्रत है अथवा पंच 'शरीर ही सब धर्मों का प्रथम और उत्तम साधन है'। महाव्रत वाले साधुओं के उत्तम व्रतों का ब्रह्मचर्य मूल है। ऐसे ही श्रावकों धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । के सुव्रतों का भी ब्रह्मचर्य मूल है। ब्रह्मचर्य, दोष रहित है, साधुजनों द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आरोग्य ही मूल साधन है। भलीभाँति पालन किया गया है, वैरानुबन्ध का अन्त करने वाला है और २-ब्रह्मचर्य से शारीरिक स्वस्थता स्वयंभूरमण महोदधि के समान दुस्तर संसार से तरने का उपाय है।' आत्मा को अपने ध्येय तक पहुँचने के लिए शरीर की ब्रह्मचर्य तीर्थंकरों द्वारा सदुपदेशित है, उन्हीं के द्वारा इसके आवश्यकता है और वह भी आरोग्यता के साथ। अस्वस्थ शरीर, पालन का मार्ग बताया गया है और इसके उपदेश द्वारा नरक गति तथा धर्म-साधन में असमर्थ रहता है। ब्रह्मचर्य से इस अंग की पूर्ति होती तिर्यक-गति का मार्ग रोक कर सिद्ध-गति तथा विमानों के द्वार खोलने है, अर्थात् शरीर स्वस्थ रहता है, कोई रोग पास भी नहीं फटकने पाता। का पवित्र मार्ग बताया गया है। वैद्यक ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य से शारीरिक लाभ बताने के लिए यह ब्रह्मचर्य देवेन्द्र और नरेन्द्रों से पजित लोगों के लिए भी कहा है पूजनीय हैं, समस्त लोकों में सर्वोत्तम मंगल का मार्ग है। सब गुणों का मृत्युव्याधिजरानाशि, पीयूषपरमौषधम् । अद्वितीय तथा सर्वश्रेष्ठ नायक है और मोक्ष-मार्ग का भूषण रूप है। ब्रह्मचर्य महायत्नः, सत्यमेव वदाम्यहम् ।। ४-ब्रह्मचर्य ही तप है 'मैं सत्य कहता हूँ कि मृत्यु, व्याधि और बुढ़ापे का नाश करने मोक्ष के प्रधान साधन-तप में भी ब्रह्मचर्य को पहला स्थान है। वाली अमृत के समान औषध ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य, मृत्यु रोग और जैन-शास्त्रों में ब्रह्मचर्य सब से उत्तम तप माना गया है। इसका एक बुढ़ापे का नाश करने वाला महान् यज्ञ है।' प्रमाण इस प्रकरण के प्रारम्भ में दिया जा चुका है। प्रश्नव्याकरण सूत्र ३-ब्रह्मचर्य से धर्म-रक्षा में भी कहा हैतात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है, जिससे धर्म जम्बू! एत्तो य बंभचेरं तव-नियम-नाण दंसण-चरित्तसम्मत्तविणयमूलं. का पालन होता है। इतना ही नहीं कि ब्रह्मचर्य का पालन करना भी यम-नियम-गुणमप्पहाणाजुत्तं, हिमवन्तमहंत तेयमंत धर्म ही है। यह धर्म का प्रधान अंग एवं धर्म का प्रधान रक्षक है। इसके पसत्थगंभीरथिमियमज्झं। लिए प्रश्रव्याकरण सूत्र में कहा है हे जम्बू! यह ब्रह्मचर्य, उत्तम तप नियम, ज्ञान, दर्शन, चरित्र, पउमसरतलागपालिभूयं, महासगढअरगतुंवभूयं, महानगरपागारक सम्यक्त्व और विनय का मूल है। जिस प्रकार सब पर्वतों में हिमालय वाडफलिहभूयं, रज्जु-पिणद्धो व्चइंदकेऊ, विसद्धगेणगुण संपिणधं, महान् और तेजस्वी है, उसी प्रकार सब तपस्याओं में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा सव्वं अन्य ग्रन्थों में भी ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना गया है। वेद संभागमहियचणियकसल्लियपलट्टपडि-यखंडियपरिसडियविणासियं . भी ब्रह्मचर्य को ही तप मानते हैं। जैसेविणयसीलतवनियमगुण-समूहं । शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो वै ब्रह्मचर्यम् । ब्रह्मचर्य हो तप है। गीता में भी ब्रह्मचर्य को तप माना है। उसमें कहा हैब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं तप उच्यते । अर्थात् ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर का उत्तम तप है। इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकारों ने भी ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना है। ५- ब्रह्मचर्य से पारलौकिक लाभ पारलौकिक लाभ का ब्रह्मचर्य एक प्रधान साधन है। ब्रह्मचर्य से आत्मा परलोक सम्बन्धी सभी सुखों को प्राप्त कर सकता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है अज्जव साहुजणाचरिये मोक्खमाणं विसुद्ध सिद्धि गइनिलये सासयवव्वावाह मपुणाब्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवममक्खयकरं । जवरसारक्खियं सुपरियं सुभासियं नवरिमुणिवरे हिं महापुरिसधीर सूरधम्मियधिइमंताणा य सया विसुद्धं भव्वं भव्वजणाणुचिण्णां निस्संकियं निब्भयं नित्तुसं निरायासं । 'ब्रह्मचर्य' अन्त:करण को पवित्र एवं स्थिर रखने वाला है. साधुजनों से सेवित है, मोक्ष का मार्ग है और सिद्धगति का गृह है, शाश्वत है, बाधा रहित है, पुनर्जन्म को नष्ट करने के कारण अपुनर्भव है, प्रशस्त है, रागादि का अभाव करने से सौम्य है, सुखस्वरूप होने से शिव है, दुःख सुखादि द्वन्द्रों से रहित होने से अचल है, अक्षय तथा अक्षत है, मुनियों द्वारा सुरक्षित एवं प्रचारित है, भव्य है, भव्यजनों द्वारा आचरित है, शङ्का-रहित है, निर्भयता का देने वाला, विशुद्ध तथा झंझटों से दूर रखने वाला एवं खेद और अभिमान को नष्ट करने वाला है। - प्रश्नव्याकरण सूत्र में आगे कहा है जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं । सीलं तवो य विणओ य संजोय य खंती गुत्ती मुत्ति तहेव इहलोइय पारलोइय जसेय कित्ती य पच्चओ य । 'ब्रह्मचर्य की आराधना से सभी व्रत आराधित होते हैं। तप, शील, विनय, संयम, क्षमा, गुप्ति और मुक्ति सिद्ध होती है तथा इस लोक और परलोक में यश-कीर्ति की विजय पताका फहराती है।' अन्य ग्रन्थकार भी ब्रह्मचर्य से परलोक सम्बन्धी लाभ बताते हुए कहते हैं समुद्रतरणे यद्वत् उपायो नौः प्रकीर्तित। संसारतरणे यद्वत् ब्रह्म प्रकीर्तितम् || - स्मृति । समुद्र से पार जाने के लिए, जिस प्रकार नौका श्रेष्ठ- साधन है, उसी प्रकार संसार से तरने के लिए ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट साधन है। विद्वत खण्ड / १२ ग्रन्थकारों ने यज्ञ भी ब्रह्मचर्य को ही माना है। जैसेअथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव । (छान्दोग्योपदनिशद्) "जिसे यज्ञ कहते हैं वह ब्रह्मचर्य ही है।' संसार - बन्धन से छूटकर, मोक्ष प्राप्ति के लिए चारित्र धर्म बताते हुए भगवान् ने जिन पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है उनमें ब्रह्मचर्य चौथा महाव्रत है। ब्रह्मचर्य के बिना, चारित्र-धर्म का पूर्णरूपेण पालन नहीं हो सकता। आत्मा को संसार बन्धन से छुड़ा कर मोक्ष दिलाने वाले चारित्र धर्म का ब्रह्मचर्य एक प्रधान और आवश्यक अंग है ब्रह्मचर्य के बिना न तो अब तक कोई मुक्त हुआ ही है, न हो ही सकता है सिद्धात्माओं को सिद्ध गति प्राप्त कराने वाला यह ब्रह्मचर्य ही है। इस प्रकार पारलौकिक लाभ का ब्रह्मचर्य एक प्रधान साधन है। ६ - ब्रह्मचर्य से इहलौकिक लाभ ब्रह्मचर्य से पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक लाभ भी है। ऊपर बताया जा चुका है कि ब्रह्मचर्य से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। स्वास्थ्य अच्छा रहने से ही इहलौकिक कार्य सुचारु रूप से सम्पादन हो सकते हैं। सांसारिक जीवन में, शरीर स्वस्थ, सुन्दर, बलवान् एवं चिरायु रहने की, विद्या की, धन की कर्तव्य दृढ़ता की और यशादि की अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ने ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए कहा है चिरायुषः सुसंस्थानां दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ।। ब्रह्मचर्य से शरीर चिरायु सुन्दर दृढ़ कर्त्तव्य तेजपूर्ण और पराक्रमी होता है।. वैद्यक ग्रन्थों में भी कहा गया है ब्रह्मचर्य परं ज्ञानं ब्रह्मचर्य परं बलं । ब्रह्मचर्यमयो ह्यात्मा ब्रह्मचर्येव तिति ।। 'ब्रह्मचर्य ही सब से उत्तम ज्ञान है, अपरिमित बल है, यह आत्मा निश्चय रूप से ब्रह्मचर्यमय है और ब्रह्मचर्य से ही शरीर में ठहरा हुआ है। ' इन प्रमाणों से यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि ब्रह्मचर्य से शरीर सुन्दर भी रहता है, बलवान् भी रहता है, दीर्घजीवी भी होता है और यश कीर्ति भी प्राप्त होती है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य, इहलौकिक सुखों का भी साधन है। लौकिक वैभव, विद्या, धन आदि तभी प्राप्त होते हैं, जब शरीर स्वस्थ हो और उसमें बल तथा साहस हो ब्रह्मचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है और शरीर में बल तथा साहस भी रहता है। शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों का मत है कि ब्रह्मचर्य के बिना विद्या प्राप्त नहीं होती। विद्या प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का होना आवश्यक है। अथर्ववेद में कहा है ब्रह्मचर्येण विद्या | 'ब्रह्मचर्य से विद्या प्राप्त होती है।' विदुर नीति में कहा है विद्यार्थी ब्रह्मचारी स्थात् ! 'यदि विद्या के इच्छुक थे तो ब्रह्मचारी बनो।' तात्पर्य यह कि ब्रह्मचर्य, लौकिक और लोकोत्तर, दोनों ही सुखों का प्रधान साधन है। इसकी पूर्ण रूपेण प्रशंसा करना तो समुद्र को हाथों के सहारे तैरने का साहस करना है। ७- ब्रह्मचर्य पर अपवाद कुछ लोगों का कथन है कि पूर्ण ब्रह्मचारी को मोक्ष या स्वर्ग प्राप्त नहीं होता क्योंकि पूर्ण ब्रह्मचारी निःसंतान रहते हैं औरअपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । 'पुत्रहीन की गति नहीं होती और स्वर्ग तो कभी भी नहीं मिलता है।' इस श्लोक से पूर्ण ब्रह्मचारी को स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति से वंचित बताया जाता है, लेकिन इस श्लोक को खण्डन करने वाला दूसरा यह प्रमाण भी है शिक्षा एक यशस्वी दशक स्वर्गे गछन्ति ते सर्वे ये केचिद् ब्रह्मचारिणः । "जितने भी ब्रह्मचारी है, वे सब स्वर्ग को जाते हैं और भी कहा है कि अनेकानि सहस्त्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि राजेन्द्र, अकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥ हे राजन् ! हजारों मनुष्य ऐसे हुए हैं जो आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रह कर कुल सन्तति को न बढ़ाते हुए भी दिव्य गति को प्राप्त हुए हैं। जैन- शास्त्रानुसार स्वर्ग प्राप्ति कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात तो मोक्ष प्राप्त करना है। ब्रह्मचर्य से संसार की सभी ऋद्धि मिल जाय, स्वर्ग का राज्य भी प्राप्त हो जाय तब भी यदि इसके द्वारा मोक्ष प्राप्त न हो सकता होता तो जैन शास्त्र इसे धर्म का अंग न मानते, क्योंकि जैनशास्त्र उसी वस्तु को उपयोगी और महत्व की मानते हैं, जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त हो। लेकिन उक्त प्रमाण जिन ग्रन्थों के हैं, वे ग्रन्थ स्वर्ग को ही अन्तिम ध्येय मानते हैं फिर भी ऊपर दिये हुए श्लोकों में से पहला श्लोक दूसरे श्लोक से अप्रामाणिक उतरता है। विद्वत खण्ड / १३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का अन्तर्हदय 1 उपाध्याय कविरत्न श्री अमर मनि मनुष्य का जो सही रूप है, वह इतना ही नहीं है कि वह शरीर से सुन्दर है और सुगठित है! एक आकृति है, जो सजी-सँवरी है। यदि यही कुछ मनुष्य होता, तो रावण, दुर्योधन और जरासंध भी मनुष्य थे। उनका शरीर भी बड़ा बलिष्ठ था, सुन्दर था। पर, संसार ने उन्हें बड़े लोगों में गिनकर भी सत्पुरुष नहीं माना, श्रेष्ठ मनुष्य नहीं कहा। पुराणों में रावण को राक्षस बताया गया है। दुर्योधन और जरासंध को भी उन्होंने मानव के रूप में नहीं गिना। ऐसा क्यों? इसका कारण है, उनमें आत्मिक सौन्दर्य का अभाव ! देह कितनी ही सुन्दर . हो, पर, जब तक उसके अन्दर सोयी हुई आत्मा नहीं जागती है, आत्मा का दिव्य रूप नहीं चमकता है, तब तक वह देह सिर्फ मिट्टी का घरौंदा भर है, वह सूना मन्दिर मात्र है, जिसमें अब तक देवता की योग्य प्रतिष्ठा नहीं हुई है। इस देह के भीतर आत्मा अंगड़ाई भर रही है या नहीं? जागृति की लहर उठ रही है या नहीं? यही हमारी इन्सानियत का पैमाना है। हमारे दर्शन की भाषा में देवता वे ही नहीं हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं, बल्कि इस धरती पर भी देवता विचरण किया करते हैं, मनुष्य के रूप में भी देव हमारे सामने घूमते मानव जीवन एक ऐसा जीवन है, जिसका कोई भौतिक रहत ह। राक्षस आर दत्य व हा नहा है, जो जगला, पहाड़ी मूल्य नहीं आंका जा सकता। बाहर में उसका एक रूप में रहते हैं और रात्रि के गहन अन्धकार में इधर-उधर चक्कर दिखाई देता है, उसके अनुसार वह हड्डी, माँस और मज्जा लगाते फिरते हैं, बल्कि मनुष्य की सुन्दर देह में भी बहुत से आदि का एक ढाँचा है, गोरी या काली चमडी से ढंका है. राक्षस और पिशाच छुपे बैठे हैं। नगरों और शहरों की कुछ विशिष्ट प्रकार का रंग-रूप है, आकार-प्रकार है, किन्तु सभ्यता एवं एकाचौंध में रहने वाला ही इन्सान नहीं है, हमारी यही सब मनुष्य नहीं है। आँखों से जो दिखाई दे रहा है, वह इन्सानियत की परिभाषा कुछ और है। तत्त्व की भाषा में, तो किवल मिट्टी का एक खिलौना है. एक ढाँचा है. आखिर इन्सान वह है, जो अन्दर की आत्मा को देखता है और कोई न कोई रूप तो इस भौतिक शरीर का होता ही। उसकी पूजा करता है, उसकी आवाज सुनता है और उसकी भौतिक तत्त्व मिलकर मनुष्य के रूप में दृश्य हो गए। आँखें बताइ राह पर चलता है। क्या देखती हैं? वे मानव के शरीर से सम्बन्धित भौतिक 'जन' आर 'जिन' : रूप को ही देख पाती हैं। अन्तर की गहराई में अदृश्य को जिस हृदय में करुणा है, प्रेम है परमार्थ के संकल्प हैं देखने की क्षमता आँखों में नहीं है। ये चर्मचक्षु मनुष्य के और परोपकार की भावनाएँ हैं, वही इन्सान का हृदय है। आन्तरिक स्वरूप का दर्शन और परिचय नहीं करा सकते। आप अपने स्वार्थों की सड़क पर सरपट दौड़े चले जा रहे __ शास्त्र में ज्ञान दो प्रकार के बताए गए हैं, एक ऐन्द्रिय हैं, पर चलते-चलते कहीं परमार्थ का चौराहा आ जाए, तो और दूसरा अतीन्द्रिय। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों वहाँ रूक सकते हैं या नहीं? अपने भोग-विलास की काली का ज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा होता है, जो भौतिक है, __ घटाओं में घिरे बैठे हैं, पर क्या कभी इन काले बादलों के उसे भौतिक इन्द्रियाँ देख सकती हैं। पर, इस भौतिक देह के बीच परोपकार और त्याग को बिजली भी चमक पाती है या भीतर, जो चैतन्य का विराट रूप छिपा है, जो एक अखण्ड नहीं? यदि आपकी इन्सानियत मरी नहीं है, तो वह ज्योति लौ जल रही है, जो परम देवता कण-कण में समाया हुआ है. अवश्य ही जलती होगी! उस अतीन्द्रिय को देखने की शक्ति आँखों में कहाँ है? विद्वत् खण्ड/१४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपको मालूम है कि हमारा ईश्वर कहां रहता है? वह क्या उससे ही वह अन्तर का चैतन्य जाग उठेगा? केवल कहीं आकाश के किसी वैकुण्ठ में नहीं बैठा है, बल्कि वह बाह्य साधना को पकड़ कर चलने से तो सिर्फ बाहर और आपके मन के सिंहासन पर बैठा है, हृदय मन्दिर में बाहर ही घूमते रहना होता है, अन्दर में पहुँचने का मार्ग एक विराजमान है वह। जब बाहर की आँख मूंदकर अन्तर में दूसरा है और उसे अवश्य टटोलना चाहिए। आन्तरिक देखेंगे, तो उसकी ज्योति जगमगाती हुई पाएँगे, ईश्वर को साधना के मार्ग से ही अन्तर के चैतन्य को जगाया जा विराजमान हुआ देखेंगे। सकता है। उसके लिए आन्तरिक तप और साधना की ईश्वर और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं। आत्मा और जरूरत है। हृदय में कभी राग की मोहक लहरें उठती हैं, तो परमात्मा सर्वथा भिन्न दो तत्त्व नहीं हैं। नर और नारायण दो कभी द्वेष की ज्वाला दहक उठती है। वासना और विकार भिन्न शक्तियाँ नहीं हैं। जन और जिन में कोई अन्तर नहीं के आँधी-तूफान भी आते हैं। इन सब दून्द्रों को शान्त करना है, कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है। आध्यात्मिक दर्शन की भाषा हो अन्तर की साधना है। आँधी और तूफान से अन्तर का में कहा जाए, तो सोया हुआ ईश्वर जीव है, संसारी प्राणी महासागर क्षुब्ध न हो, समभाव की जो लौ जल रही है, वह है, और जागृत जीव ईश्वर है, परमात्मा है। मोहमाया की बुझने नहीं पाए, बस यही चैतन्य देव को जगाने की साधना निद्रा में मनुष्य जब तक अन्धा हो रहा हो, वह जन है, और है। यही हमारा समत्व योग है। समता आत्मा की मूल स्थिति जब जन की अनादि काल से समागत मोह-तन्द्रा टूट गई, है, वास्तविक रूप है। जब यह वास्तविक रूप जग जाता है, जन प्रबुद्ध हो उठा, तो वही जिन बन गया। जीव और जिन तो जन में जिनत्व प्रकट हो जाता है। नर से नारायण बनते में, और क्या अन्तर है? जो कर्म-लिप्त दशा में अशुद्ध जीव फिर क्या देर लगती है? इसलिए अन्तर की साधना का है, कर्म-मुक्त दशा में वही शुद्ध जीव जिन है। मतलब हुआ समता की साधना। राग-द्वेष की विजय का _ 'कर्मबद्धो भवेज्जीव: कर्ममुक्तस्तथा जिन:' अभियान! __ बाहर में बिन्दु की सीमाएँ हैं, एक छोटा-सा दायरा है। क्या कर्म ने बाँध रखा है? पर, अन्तर में वही विराट सिन्धु है, उसमें अनन्त सागर साधकों के मुंह से बहुधा एक बात सुनने में आती है कि हिलोरें मार रहा है, उसकी कोई सीमा नहीं, कोई किनारा हम क्या करें? कर्मों ने इतना जकड़ रखा है कि उनसे नहीं। एक आचार्य ने कहा है - छुटकारा नहीं हो पा रहा है! इसका अर्थ है कि कर्मो ने बेचारे "दिक्कालाधनवच्छिन्नाऽनन्त-चिन्मात्रमूर्तये। साधक को बाँध रखा है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या कर्म स्वानुभूत्येकमानाय, नम: शान्ताय तेजसे!" कोई रस्सी है, साँकल है, जिसने आपको बाँध लिया है? यह जब तक हमारी दृष्टि देश-काल की क्षुद्र सीमाओं में बँधी प्रश्न गहराई से विचार करने का है कि कर्मों ने आपको बाँध हुई है, तब तक वह अनन्त सत्य के दर्शन नहीं कर पाती रखा है या आपने कर्मों को बाँध रखा है? यदि कर्मो ने और जब वह देश-काल की सीमाओं को तोड़ देती है, तो आपको बाँध रखा है, तो फिर आपकी दासता का निर्णय उसे अन्दर में अनन्त, अखण्ड, देशातीत एवं कालातीत कर्मों के हाथ में होगा और तब मुक्ति की बात तो छोड़ ही चैतन्य ज्योति के दर्शन होते हैं। एक दिव्य, शान्त, तेज का देना चाहिए। ऐसी स्थिति में जप, तप और आत्मशुद्धि की विराट् पुंज परिलक्षित हो जाता है। आत्मा की अनन्त अन्य क्रियाएँ सब निरर्थक हैं। जब सत्ता कर्मों के हाथ में शक्तियाँ प्रकाशमान हो जाती हैं। हर साधक उसी शान्त सौंप दी है, तो उनके ही भरीसे रहना चाहिए। कोई प्रयत्न तैजस रूप को देखना चाहता है, प्रकट करना चाहता है। करने की क्या आवश्यकता है? वे जब तक चाहेंगे, आपको साधक के लिए वही नमस्करणीय उपास्य है। बाँधे रखेंगे और जब मुक्त करना चाहेंगे, आपको मुक्त कर चैतन्य कैसे जगे? देंगे। आप उनके गुलाम हैं। आप का स्वतन्त्र कर्तृत्व कुछ हमें इस बात पर भी विचार करना है कि जिस विराट् अर्थ नहीं रखता। किन्तु, जब यह माना जाता है कि आपने चेतना को हम जगाने की बात कहते हैं, उस जागरण की कर्मों को बाँध रखा है, तो बात कुछ और तरह से विचारने प्रक्रिया क्या है? उस साधना का विशुद्ध मार्ग क्या है? हमारे की हो जाती है। इस से यह तो सिद्ध हो जाता है कि कर्म जो ये क्रियाकाण्ड चल रहे हैं, बाह्य तपस्याएँ चल रही हैं, की ताकत से आपकी ताकत ज्यादा है। बँधने वाला गुलाम शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१५ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, बाँधने वाला मालिक गुलाम से मालिक बड़ा होता है। तो, जब हमने कर्म को बाँधा है, तो फिर उन्हें छोड़ने की शक्ति किसके पास है, जिसने बाँधा है उसी के पास ही है। न ? स्पष्ट है, कर्मों को छोड़ने की शक्ति आत्मा के पास ही है, चैतन्य के पास ही है, मतलब यह कि आपके अपने हाथ में ही है। हमारा अज्ञान इस शक्ति को समझने नहीं देता है, अपने आपको पहचानने ही नहीं देता है, यही तो हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता है। अध्यात्म दर्शन ने हमें स्पष्ट बतला दिया है कि जो भी कर्म हैं, वे सब तुमने बाँधे हैं, फलतः तुम्हीं उन्हें छोड़ भी सकते हो 'बंधपमोक्खो तुज्ज अज्झत्थेव '- बंधन और मुक्ति हर व्यक्ति के अपने अन्तर में ही है। बन्धन क्या है ? कर्म के प्रसंग में हमें एक बात और विचार लेनी चाहिए कि कर्म क्या है और जो बन्धन होता है, वह क्यों होता है ? । अन्य पुद्गलों की तरह कर्म भी अचेतन जड़- पुद्गल है, परमाणु पिण्ड है। कुछ पुद्गल अष्टस्पर्शी होते हैं, कुछ चतुःस्पर्शी कर्म चतुःस्पर्शी पुद्गल हैं आत्मा के साथ । । चिपकने या बँधने की स्वतन्त्र शक्ति उनमें नहीं है, न वे किसी दूसरे को बाँध सकते हैं और न स्वयं ही किसी के साथ बँध सकते हैं। हमारी मन, वचन आदि की क्रियाएँ प्रतिक्षण चलती रहती हैं। खाना-पीना, हिलना-डोलना, बोलना आदि कुछ क्रियाएँ तो महापुरुषों के जीवन में भी चलती रही हैं। जीवन में क्रियाएँ कभी बन्द नहीं होतीं । यदि हर क्रिया के साथ कर्म बन्ध होता हो, तब तो मानव की मुक्ति का कभी प्रश्न ही नहीं उठेगा। चूंकि जब तक जीवन है, संसार है, तब तक क्रिया बन्द नहीं होती, पूर्ण अक्रियदशा (अकर्म स्थिति) आती नहीं। और जब तक क्रिया बन्द नहीं होती, तब तक कर्म बँधते रहेंगे, तब तो फिर यह कर्म एक ऐसा सरोवर हुआ, जिसका पानी कभी सूख ही नहीं सकता, कभी निकाला ही नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में मोक्ष क्या होगा ? और कैसे होगा ? सिद्धान्त यह है कि क्रिया करते हुए कर्मबंध होता भी है, और नहीं भी। जब क्रिया के साथ राग-द्वेष का सम्मिश्रण होता है, प्रवृत्ति में आसक्ति की चिकनाई होती है, तब जो पुद्गल आत्मा के ऊपर चिपकते हैं, वे कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। जिस-जिस शुभ या अशुभ विचार और विद्वत् खण्ड/ १६ अध्यवसाय के साथ वे कर्म-ग्रहण होते हैं, उसी रूप में वे परिणत होते चले जाते हैं। विचारों के अनुसार उनकी अलग-अलग रूप में परिणति होती है। कोई ज्ञानावरण रूप में, तो कोई दर्शनावरण आदि के रूप में। किन्तु जब आत्मा में राग-द्वेष की भावना नहीं होती, प्रवृत्ति होती है, पर आसक्ति नहीं होती, तब कर्म- क्रिया करते हुए भी कर्म - बँध नहीं होता। भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि इस जीवन-यात्रा को किस प्रकार चलाएँ कि कर्म करते हुए, खाते-पीते, सोते-बैठते हुए भी कर्म बन्ध न हो, तो उन्होंने कहा"जयं चरे जयं चिट्ठे, जयं मासे जयं सए । जयं भुजन्तो भासन्तो, पावकम्मं न बंधई।" - दशवैकालिक, ४, ८ तुम सावधानी से चलो, खड़े रहे तब भी सावधान रहो, सोते-बैठते भी प्रमाद न करो। भोजन करते और बोलते हुए भी उपयोग रखो कि कहीं मन में राग और आक्रोश की लहर न उठ जाए। यदि जीवन में इतनी जागृति है, सावधानी है, अनासक्ति है, तो फिर कहीं भी विचरण करो, कोई भी क्रिया करते रहो, पापकर्म का बँध नहीं होगा। इसका मतलब यह हुआ कि कर्म-बंध का मूल कारण प्रवृत्ति नहीं, बल्कि राग-द्वेष की वृत्ति है। राग-द्वेष का गीलापन जब विचारों में होता है, तब कर्म की मिट्टी का गोला आत्मा की दीवार पर चिपक जाता है। यदि विचारों में सूखापन है, निस्पृह और अनासक्त भाव है, तो सूखे गोले की तरह कर्म की मिट्टी आत्मा पर चिपकेगी ही नहीं । वीतरागता ही जिनत्व है : - एक बार हम विहार काल में एक आश्रम में ठहरे हुए थे । एक गृहस्थ आया और गीता पढ़ने लगा। आश्रम तो था ही । इतने में एक सन्यासी आया, और बोली - "पढ़ी गीता, तो घर काहे को कीता ?" मैने पू "गीता और घर में परस्पर कुछ बैर है क्या ? यदि वास्तव में वैर है, तब तो गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण का भी घर से बैर होना चाहिए और तब तो गृहस्थ को तो छोड़िए, आप साधुओं को भी गीता के उपदेश से मुक्ति नहीं होगी।” साधु बोला मैंने कहा हमने तो घर छोड़ दिया है। 1 घर क्या छोड़ा है, एक साधारण घोंसला छोड़ा, तो दूसरे कई अच्छे विशाल घोंसले बसा लिए हैं। शिक्षा एक यशस्वी दशक - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं मन्दिर, कहीं मठ और कहीं आश्रम खड़े हो गए। फिर घर कहाँ छूटा है? सन्यासी ने कहा - हमने इन सब का मोह छोड़ रखा है। मैंने कहा - हाँ, यह बात कहिए। असली बात मोह छोड़ने की है। घर में रहकर भी यदि कोई मोह छोड़ सकता है, तो बेड़ा पार है। घर बन्धन नहीं है, घर का मोह बन्धन है। कभी-कभी घर छोड़ने पर भी घर का मोह नहीं छूटता है और कभी घर नहीं छोड़ने पर भी, घर में रहते हुए भी, घर का मोह छूट जाता है। बात यह है कि जब मोह और आसक्ति छूट जाती है, तो फिर कर्म में ममत्व नहीं रहता। अहंकार नहीं रहता। उसके प्रतिफल की वासना नहीं रहती। जो भी कर्म, कर्तव्य करना है, वह सिर्फ निष्काम और निरपेक्ष भाव से करना चाहिए। उसमें त्याग और समर्पण का उच्च आदर्श रहना चाहिए। सच्चा निर्मल, निष्काम कर्मयोगी जल में कमल की तरह संसार से निर्लिप्त रहता है। वह अपने मुक्त जीवन का सुख और आनन्द स्वयं भी उठाता है और संसार को भी बाँटता जाता है। मनुष्यता का यह जो दिव्य रूप है, वही वास्तव में नर से नारायण का रूप है। इसी भूमिका पर जन में जिनत्व का दिव्य भाव प्रकट होता है। इन्सान के सच्चे रूप का दर्शन इसी भूमिका पर होता है। इस माँसपिण्ड के भीतर जो सुप्त ईश्वर और परमात्म तत्त्व है, वह यहीं आकर जागृत होता है। बनेचन्द माल आदमी नहीं था किसी बेचारे का एक्सीडेंट हो गया। कार तो भाग गई पर लोगों को भी नहीं आई दया। खून से लथपथ पड़ा था सड़क पर। कोई पास के अस्पताल नहीं ले जा रहा था, क्योंकि पुलिस का था डर। सवालों का जवाब देना होगा। __ कैसे हुआ, किसने देखा, कहना होगा। बाद में थाना भी जाना होगा, कोर्ट में देनी होगी गवाही। इस तरह घसीटा जाना पड़ेगा, क्यों लें ऐसी वाह वाही। समय बीत गया, बेचारा ढेर हो गया। किसी नवयुवती का सिंदूर, नन्हें बच्चों की आशा, चिर निद्रा में सो गया। घर में कोहराम मच गया, मातम छा गया। हंसी-खुशी भरे जीवन को काल-चक्र खा गया। आने जाने वाले सान्त्वना दे रहे थे। पूछ-पूछ कर घटना का जायजा ले रहे थे। एक औरत अफसोस जता रही थी, कह रही थी व्यस्त सड़क थी भीड़ तो बहुत थी। फिर पड़ा क्यों रहा, अस्पताल भी पास में वहीं था। मैंने कहा भीड़ तो बहुत थी, अस्पताल भी पास में वहीं था, पर भीड़ में कोई आदमी नहीं था। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यारल हेमप्रभा श्रीजी नवतत्त्व · जैन दर्शन में पदार्थ या वस्तु को तत्त्व कहा गया है। लाक्षणिक अर्थ में वस्तु स्वरूप (तत्व) होने का साथ 'सत् से युक्त तत्त्व के तीन लक्षण हैं- उत्पाद, व्यय, धौव्य' अर्थात् उत्पत्ति नाश एवं ध्रुव गुण धारण करने वाला तत्व है। यह तत्व (सत् सहित) अनादि एवं अनन्त है जो सर्वथा असत् है वह तत्व नहीं हो सकता। सार, भाव या रहस्य को भी तत्व का पर्यायवाची कह सकते हैं परन्तु वास्तव में सद्भूत वस्तु को ही तत्व कहते हैं। तत्व नवीन पर्यायों की उत्पत्ति एवं पुरानी अवस्था का विनाश होने पर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता । | आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा से मुख्य तत्व है जो पूर्ण एवं शुद्ध अवस्था में परमतत्व से विभूषित हो परमात्मा है और कर्मयुक्त होकर संसारी रूप में विविध योनियां धारण करता है। तत्व को कई रूपों में वर्गीकृत एवं विभाजित किया जा सकता है- प्रथम शैली (१) जीव (२) अजीव द्वितीय शैली - (१) जीव (२) अजीव (३) आश्रव (४) संवर (५) बंध (६) निर्जरा (७) मोक्ष। इसमें पुण्य और पाप इन दोनों को और जोड़ देने से नव तत्व बन जाता है। तृतीय शैली - (१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य (४) पाप (५) आश्रव (६) संवर (७) निर्जरा (८) बंध (९) मोक्ष उपरोक्त वर्गीकरण में भी जीव एवं अजीव मुख्य तत्व हैं जो अन्य तत्वों के आधार हैं। जीव पुद्गल (अजीव) के संयोग-वियोग से विविध विद्वत खण्ड / १८ जन्म धारण करते हुए निरन्तर आत्मनिष्ठ होकर विकास की ओर बढ़ता जाय तो परम और चरम तत्व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। प्रथम शैली के विभाजन से यह संसार षटद्रव्यात्मक कहा जा सकता है : -- जीव अजीव (१) (२) धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय काल द्वितीय शैली में पुण्य एवं पाप को स्वतन्त्र तत्व न मान कर आत्मा अर्थात् जीव के आश्रित माना है अतः तत्वों की संख्या सात ही रह जाती है। तृतीय शैली में तत्व नव माने गये हैं। इसमें से जीव एवं अजीव ये दो तत्व धर्मी है अर्थात् आश्रव आदि तत्वों के आधार हैं और शेष उनके धर्म हैं। इनको पुनः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। : ज्ञेय = जानने योग्य-जीव, अजीव । उपादेय = ग्रहण करने योग्य-संवर, निर्जरा, मोक्ष हेय त्याग करने योग्य आश्रय, बंध, पुण्य पाप उक्त तत्वों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है :-- = - १. जीव जीव का लक्षण उपयोग अर्थात् चेतना है। उपयोग के दो भेद हैं: (१) साकारोपयोग (ज्ञान) और (२) निराकारोपयोग (दर्शन) अतः जिसमें ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग पाया जाय, वह जीव है। जीव सुख-दुःख और अनुकूलता प्रतिकूलता की अनुभूति करने में सक्षम है। इसीलिए इसे चेतन कहा गया है। स्व पर का ज्ञान, विवेक आदि गुण अन्य पदार्थों में नहीं पाये जाते हैं। जीव को सत्व, प्राणी, भूत, आत्मा आदि शब्दों से भी जानते हैं। स्थावर जीव एकेन्द्रिय होते हैं अतः उनके चर्म अर्थात् त्वचा रूप इन्द्रिय के अतिरिक्त इन्द्रियाँ नहीं होतीं जो हमारी आँखों से दिखाई नहीं देते, वे सूक्ष्म हैं और जो हमें दृष्टिगोचर होते हैं, वे बादर हैं। जिनको आहार शरीर, भाषा आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण प्राप्त हों वे पर्याप्त और जिन्हें प्राप्त न हो सके वे अपर्याप्त कहलाते हैं वनस्पतिकाय का विभाजन इस प्रकार है > : सूक्ष्म बादर अपर्याप्त पर्याप्त प्रत्येक प्रत्येक - एक शरीर में एक जीव हो । साधारण - एक औदारिक शरीर में अनन्त जीव एक साथ जन्म लें, आहार लें और श्वासोच्छ्वास करें इनके अनेक प्रकार हैं- जैसे प्याज, आलू, रतालू, गाजर, अदरख आदि । शिक्षा-एक यशस्वी दशक साधारण Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद हैं १. रुक्खा (वृक्ष) दो प्रकार के होते हैं— = (क) एगडिया एक गुठली वाले, जैसे-आम, नीम, जामुन, नारियल आदि । (ख) बहुविया बहुबीजी जैसे अमरूद, अनार, अंजीर, सीताफल आदि । २. गुच्छा - बैगन, टोंडोरी, तुलसी आदि । ३. गुम्मा (गुल्म) - गुलाब, जूही, चम्पा, मोगरा, मरवा आदि । लया (लता) - पद्म लता, अशोकलता, नागलता । ४. ५. वल्ली (वेल) तोरइ, तुम्बी, करेला, अंगूर । ६. पव्वगा (गांठ में बीज) - गन्ना, वेत आदि । ७. ८. तणा (तृण) - दूब, कुश । वलया (गोलाकार) तमाल, नारियल, खजूर। हरिया (हरी, काम वाली शाक भाजी)-मेथी, पालक, बथुआ । १०. जलरूहा (जल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति) - उत्पल, कमल, पुंडरीक कमल, सिपाड़ा। = १२. कुणा पृथ्वी को फोड़कर पैदा होनेवाली वनस्पति जैसे- भूफोड़ा आदि। दीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के औव त्रस कहलाते हैं। चूँकि ये जीव अपने हिताहित हेतु स्थान परिवर्तन करते हैं अतः गतिशील है और स कहे जाते हैं। त्रस के भेद इस प्रकार हैं = १. द्वीन्द्रिय- स्पर्श (शरीर) एवं रसन (जीभ) इन्द्रियों वाले जीव जैसे लट, शंख, जोंक आदि । २. त्रीन्द्रिय- स्पर्श, रसन एवं भ्राण इन्द्रियों से 'युक्त जीव जैसे-जूं, लीख, कीड़ी, चींटी आदि । ३. चतुरीन्द्रिय- स्पर्श, रसन, भ्राण एवं चक्षु इन्द्रियों वाले जीव जैसे मक्खी, मच्छर, बिच्छू, भंवरा आदि । ४. पंचेन्द्रिय-स्पर्श, रसन, प्राण, चक्षु एवं श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों वाले जीव जैसे पशु-पक्षी, मनुष्य, नारक एवं देवता । एकेन्द्रिय से चतुरीन्द्रिय तक के जीव (नियंच) मन रहित होते हैं अत: असंज्ञी (अमनस्क) कहलाते हैं और पंचेन्द्रिय तिर्यंच मन वाले होने से संज्ञी कहलाते हैं। इसी प्रकार गर्भज मनुष्य, औपपातिकदेव और नारक जीव भी मन वाले होने के कारण संजी कहलाते हैं। तिर्यच पंचेन्द्रिय जीवों के पाँच प्रकार हैं १. मगर, ग्राह। जलचर- जल में रहने वाले जीव जैसे मछली, कछुए. शिक्षा एक यशस्वी दशक २. स्थलचर (क) ठोसखुर वाले (एगखुरा) घोड़ा, गधा । (ख) दो खुर वाले (बिखुरा) भैंस, बकरी, ऊँट (ग) कई खुर वाले (गंडीपया) हाथी । (घ) सण्णफया = नख वाले पंजे जैसे सिंह, चीता, बिल्ली, कुत्ता । ३. नभचर - आकाश में उड़ने वाले । (क) चर्मपक्षी - झिल्लीदार पंख चिमगादड़, भारंड पक्षी । (ख) रोमपक्षी - रोंए के पंख चिड़िया, कबूतर, मोर, तोता, मैना । (ग) समुग्ण पक्षी डिब्बे की तरह बंद पंख वाले। (घ) वित्तत पक्षी सदा पंख खुले हुए। समुग्ग पक्षी और वितत पक्षी अढाई द्वीप में नहीं होते हैं। ४. उर सरि सर्प (छाती के बल चलने वाली सर्प जाति) (क) अहि (अ) फण करने वाले आशी विष, उग्र विष आदि (आ) फण नहीं करने वाले - दिव्वागा, गोणसा । निगल सकने वाले अजगर । असालिया गाँव या नगर का नाश करने वाले। (ख) (ग) (घ) (ङ) महोरग (अढाई द्वीप के बाहर ) । भुजपरिसर्प भुजा से चलने वाले जैसे नेवला, चूछ, छिपकली आदि। ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन में जीवों का वैज्ञानिक और विस्तृत वर्गीकरण किया गया है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में वनस्पति के बारे में वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद आज सभी मानते हैं कि वनस्पति में भी जान है परन्तु शताब्दियों पूर्व पेड़-पौधों में चेतना बताकर प्रभु महावीर ने हमें अहिंसा का महत्व बताया था। इसी प्रकार नारक जीवों के भेद, मनुष्य व देवता के भी भेद बताकर जीव का स्वरूप बताया गया है। अजीव - अजीव को जड़ और अचेतन भी कहते हैं जो चेतना रहित है और सुख-दुःख की अनुभूति नहीं करता, उसे अजीव कहते हैं। इनमें मूर्त और भौतिक पदार्थ जैसे चूना, चाँदी, सोना, ईंट आदि और अमूर्त तथा अभौतिक पदार्थ जैसे काल, धर्मास्तिकाय आदि का समावेश हो जाता है। अजीव के पाँच भेद हैं १. पुद्गल - जो स्पर्श, गंध, रस एवं वर्ण से युक्त हों और पूरण तथा गलन पर्यायों से युक्त हों, पुद्गल हैं। परस्पर मिलना, बिखरना, सड़ना, गलना आदि पुद्गल की क्रियाएँ हैं। विद्वत खण्ड / १९ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ऋतु पुद्गल के चार भेद हैं (१,६७, ७७, २१६ आवलिका = १ मुहूर्त) स्कन्ध-परस्पर बद्ध प्रदेशों का समुदाय। ३० मुहूर्त = १ दिन रात देश-स्कन्ध का एक भाग। १५ दिन रात = १ पक्ष प्रदेश-स्कन्ध या देश से मिला हुआ द्रव्य का सूक्ष्म भाग। २ पक्ष १ माह परमाणु-पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश (परम+अणु) जिसका अन्य २ माह विभाग न किया जा सके। ३ ऋतुएँ १ अयन अन्धकार, छाया, प्रकाश, शब्द आदि पुद्गल की अवस्थाएँ हैं। २ अयन = १ वर्ष पुद्गल सदा गतिशील रहता है और जीव से मिलकर तदनुसार गति पण्य प्रदान करता है। पुद्गल के चार धर्म हैं, जिसके निम्न भेद हैं- जो आत्मा को शभ की ओर ले जाए. पवित्र करे और सख प्राप्ति स्पर्श (८) मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष। का सहायक हो, पुण्य है। पुण्य शुभ योग से बन्धता है। पुण्य का फल रस (५) तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर, कषैला। मधुर है। इसे बाँधना कठिन है और भोगना सहज है। गंध (२) सुगन्ध, दुर्गन्ध। आत्मा की वृत्तियाँ अगणित हैं। अत: पुण्य-पाप के कारण भी वर्ण (५) नील, पोत, शुक्ल, कृष्ण, लोहित। अनेक हैं। शुभ प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ-प्रवृति पाप का कारण २. धर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल द्रव्यों को गति करने में । बनती है। पुण्य नौ प्रकार से बाँधा जाता है और ४२ प्रकार से भोगा सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहा जाता है। यह गति का प्रेरक नहीं, जाता है। सहायक तत्व है। जिस प्रकार मछली के लिए जल सहकारी है उसी पुण्य के नौ भेद प्रकार धर्मास्तिकाय है। इसके तीन भेद हैं स्कंध, देश और प्रदेश। १. अन पुण्य - अन्न दान। ३. अधर्मास्तिकाय-जीव और पुद्गल को गतिशीलता से २. पान पुण्य - जल या पेय दान। स्थिर होने या ठहरने में सहायक द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं। ३. लयन पुण्य - स्थान या जगह देना। इसके भी तीन भेद हैं-स्कंध, देश और प्रदेश। ४. शयन पुण्य - शय्या, पाट, पाटला देना। ४. आकाशास्तिकाय-जो सब द्रव्यों को अवकाश या ५. वस्त्र पुण्य - वस्त्र दान। आकाश देता है। इसके दो भेद लोकाकाश और अलोकाकाश हैं। ६. मन पुण्य -शुभ चिन्तन, गुणी जन को देख प्रसन्नता एवं लोकाकाश में सभी द्रव्य हैं परन्तु अलोकाकाश में केवल आकाश मन का शुभ योग प्रवर्तन। द्रव्य है। इसको भी स्कंध, देश और प्रदेश में विभाजित किया जा ७. वचन पुण्य - शुभ-हितकारी वचन, मधुर वचन। सकता है। ८. काय पुण्य - शरीर द्वारा जीवों की सेवा आदि करना। ५. काल-जो द्रव्यों की वर्तना (परिवर्तन) का सहायक है, उसे ९. नमस्कार पुण्य - गुणीजनों, गुरुजनों आदि का विनय व नमन। काल द्रव्य कहते हैं। नए, पुराने, बचपन, जवानी आदि की पहिचान पुण्य कर्म भोगने की ४२ प्रकृतियाँ काल द्रव्य से होती है। काल अस्ति (सत्ता) तो है परन्तु बहुप्रदेशी न वेदनीय के उदय से होने के कारण 'काय' रहित है अर्थात् अप्रदेशी है। (१) साता वेदनीय = सुख जैनागमों में काल को विशेष रूप से निरूपित किया गया है। जहाँ आयुकर्म के उदय से (३) देव-मनुष्य-तिर्यंच आयु आज संख्याएँ दस शंख तक मानी जाती हैं, जैन शास्त्रों में उससे बहुत गौत्रकर्म के उदय से (१) उच्चगौत्र आगे तक वर्णित हैं। काल की सूक्ष्मतम इकाई 'समय' को माना गया नामकर्म के उदय से (३७) है और आँख झपकने में असंख्यात समय व्यतीत होते हैं। समय से गति/जाति (३) मनुष्य गति, देव गति व पंचेन्द्रिय जाति। लेकर वर्ष तक काल की निम्नलिखित पर्यायें हैं : शरीर (५) औदारिक-औदारिक (उदर) शरीर मनुष्य, पशु-पक्षी (समय = सूक्ष्मतम इकाई) आदि। ४४४६ आवलिका = १ श्वासोच्छ्वास वैक्रिय-नानारूप शरीर बनाना- देवता, नारकी, जीव लब्धिधारी ७ श्वासोच्छ्वास = १ स्तोक मनुष्य एवं तिर्यञ्च भी। ७ स्तोक = १ लव आहारक-शरीर में से शरीराकार सूक्ष्म शरीर निकालना। ७७ लव १ मुहूर्त तेजस-तपोबल से तेजोलेश्या निकालने की शक्ति। विद्वत खण्ड/२० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मण-अष्ट कर्मों के विकार से संबंधित शरीर। ज्ञातव्य है कि तेजस और कार्मण शरीरों का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से है और मोक्ष पाये बिना अलग नहीं होते। अंग, उपांग, अंगोपांग (३) अंग-भुजा, पैर, सिर, पीठ आदि। उपांग-अंगुली आदि। अंगोपांग-अंगुलियों की पर्व रेखाएँ। संहनन (१) वज्र ऋषभनाराच-विशेष आकार युक्त मजबूत अस्थि रचना। संस्थान (१) सम-चतुरस्र-पर्यकासनवत् संस्थान युक्त शरीर शुभवर्ण, गन्ध रस स्पर्श, युक्त शरीर (४) ___ आनपूर्वी (२) देवानुपूर्वी-कर्मक्षय के अंतिम दौर में जीव को अन्यगति की ओर आकृष्ट होते हुए बचा कर देवगति में ले जाना। मनुष्यानुपूर्वी-विग्रह गति के समय पुन: मनुष्य गति में खींचने वाले कर्म पुद्गल। शुभ विहायोगति (१) हंस, हाथी, वृषभ की चाल। बस दशक (१०) त्रस नाम, बादर नाम, पर्याप्त नाम, प्रत्येक नाम, स्थिर नाम, शुभ नाम, सुभग नाम, सुस्वर नाम, आदेय नाम एवं यश: कीर्ति नाम। ३१. अगुरुलघु ३२. पराघात नाम (अजेय पराक्रम) ३३. आतप नाम ३४. उद्योत नाम ३५. श्वासोच्छवास नाम ३६. निर्माण नाम ३७. तीर्थंकर नाम। पाप जो आत्मा को पतन की ओर ले जाए, मलीन करे और जिसके कारण दुःख की प्राप्ति हो, पाप कहते हैं। अशुभ योगों से बन्ध कर पाप कटु फल प्रदायक हैं। पाप उपार्जन के अठारह कारण हैं :१. प्राणातिपात-जीवों की हिंसा या उन्हें दुःख देना। २. मृषावाद-असत्य भाषण। ३. अदत्तादान-स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु लेना। ४. अब्रह्मचर्य-कुशील सेवन। ५. परिग्रह-धन लिप्सा ममत्व । ६. क्रोध-कोप एवं गुस्सा। ७. मान-अहंकार जिसके कारण चित्त की कोमलता और विनय लुप्त हो जाय। ८. माया-छल-कपट। ९. लोभ-तृष्णा, असंतोष। १०. राग-माया और लोभ के कारण आसक्ति एवं मनोज्ञ वस्तु के प्रति स्नेह। ११. द्वेष-अमनोज्ञ वस्तु से द्वेष। क्रोध एवं मान के वश होकर द्वेष की जागृति। १२. कलह-लड़ाई-झगड़ा। १३. अभ्याख्यान-झूठा दोषारोपण। १४. पैशुन्य-दोष प्रगटन, चुगली। १५. परपरिवाद-दूसरों की बुराई एवं निन्दा करना। १६. रति अरति-सावध पापयुक्त क्रियाओं में चित्त लगाना, रुचि एवं निरवद्य शुभ क्रियाओं के प्रति उदासीन, अरुचि भाव रहना। १७. माया मृषावाद-कपट युक्त झूठ। १८. मिथ्यादर्शन-कुदेव, कुगुरु, कुधर्म के प्रति श्रद्धा रखना। पाप का बंधन १८ प्रकार से है तो इसके फल का भोग ८२ प्रकार से होता है। आश्रव जीव रूपी तालाब में कर्म रूपी जल का आ + श्रव अर्थात् प्रवाह होता है। संसारी जीव में प्रतिक्षण मन, वचन, काय के परिस्पन्दन के कारण कर्म पुद्गल का एकीकरण होता है। इसका उदाहरण अनेक छिद्रों वाली नाव को पानी में डालना है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूपी पाँच द्वारों से कर्म ग्रहण कर आत्मा मल युक्त होती है और तदनुसार विविध जन्म धारण करती है। मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा अथवा तत्व ज्ञान का अभाव। अविरति-त्याग के प्रति निरुत्साह एवं भोग के प्रति उत्साह। प्रमाद-मद्य, विषय, निद्रा एवं विकथा युक्त आचरण। कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ की वृत्तियाँ। योग-मन, वचन, काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति। संवर__ अध्यात्म-साधना में संवर महत्वपूर्ण तत्व है। आत्मा को कर्म बन्धन से मुक्त करने के लिये सर्वप्रथम आश्रवों को रोकना आवश्यक है। जब तक आश्रवरूपी द्वार खुला रहेगा, तबतक पूर्व आबद्ध कर्म के साथ नये कर्मों का आना भी चालू रहेगा। यदि पूर्व-कर्म फल देकर आत्मा से पृथक हो भी जाय तो नव अजित कर्म अपना प्रभाव डालने को तैयार हो जायेंगे। इसके मुख्य छ: भेद हैं-समिति, गुप्ति, परीषह, यतिधर्म, भावना और चारित्र। समिति आदि वास्तविक संवर तभी बन सकते हैं जबकि वे जिनाज्ञापूर्वक हों। अत: संवर में सम्यक्त्व का समावेश हो ही जाता है। आश्रव का निरोध करना संवर है, अत: सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व आश्रव रुकता है। यति धर्म और चारित्र से अविरति आश्रव रुकता है। गुप्ति, भावना और यतिधर्म से कषाय आश्रव रुकता है। समिति, गुप्ति, शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२१ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह वगैरह से योग और प्रमाद आश्रव रुकता है। इस प्रकार संवर ७. अरति-प्रतिकूलता आने पर भी विचलित न होना। किन्तु से आश्रव का निरोध होता है। भावी कर्म-विपाक का विचार कर, 'प्रतिकूलता को सहन कर लेने में ५ समिति महान् लाभ है' यह सोचकर प्रतिकूलता को समभाव पूर्वक सहन प्रभु महावीर ने 'जयं चरे, जयं चिढे' (यतनापूर्वक चलो...यतना। कहना। पूर्वक बैठो...) के माध्यम से साधु को प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक ८.स्त्रीपरिषह-स्त्री को देखकर मन को विचलित न होने देना। करने का उपदेश दिया है। अत: विवेक एवं ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति करना ९. चर्यापरिषह-गाँव-गाँव विचरण करते हुए रास्ते में काँटेही 'समिति' है। कांकरे, खड्डे आदि से होने वाले कष्ट को सम्यक् सहन करना। १. इर्यासमिति-जीवदया का ध्यान रखते हुए उपयोग पूर्वक १०. निषद्या परिषह-श्मशानादि में कायोत्सर्ग आदि करते हुए चलना। यदि देव मानव सम्बन्धी उपद्रव हों तो उसे समतापूर्वक सहन करना। २. भाषासमिति-हित, मित, सत्य एवं प्रिय वाणी ११. शय्या परिषह-ऊँचे-नीचे आँगनवाला, धूलवाला, सर्दीउपयोगपूर्वक बोलना। गर्मी के लिये प्रतिकूल उपाश्रय मिले फिर भी आकुल-व्याकुल न ३. एषणा समिति-विवेक-पूर्वक निरीक्षण कर, निर्दोष होना। आहार-पानी, वस्त्रादि ग्रहण करना। १२-१३ आक्रोश-वध-तिरस्कार करने, कटु शब्द बोलने ४. आदान-निक्षेपणा समिति-जीवदया का उपयोग रखते हुए अथवा प्रहार करने पर भी शान्त रहना। वस्त्र पात्रादि को विवेकपूर्वक रखना एवं उठाना। १४. याचना-संयम के लिये उपयोगी वस्तु की याचना करते ५. परिष्ठापनिका समिति-मल-मूत्र आदि को निर्जीव स्थान हुए शर्म या दीनता न होना। पर विवेकपूर्वक विसर्जन करना। १५. अलाभ-उपयोगी वस्तु माँगने पर भी यदि गृहस्थ न दे तो ३ गुप्ति भी मन में रोष या शोक नहीं करना। किन्तु अपने अन्तराय कर्म का गुप्ति का अर्थ है गोपन करना...संयमन करना..नियमन करना। उदय है, ऐसा सोचकर शान्त रहना। १. मनोगुप्ति-अशुभ विचारों से मन को रोकना अर्थात् १६-१७-१८. रोग-तृणस्पर्श-मल-परीषह-रोग तृणादि के आर्तध्यान, रौद्रध्यान न करना। धर्मध्यान, शुक्लध्यान में मन को कठिन स्पर्श एवं मैल आने पर खेद न करना। जोड़ना। १९. सत्कार-सत्कार-सम्मान मिले तो खुश न होना, न मिले २. वचनगुप्ति-दुषित वचन न बोलना। निर्दोषवचन भी बिना तो नाराज न होना। कारण नहीं बोलना। २०-२१. प्रज्ञा-अज्ञान-अच्छी प्रज्ञा हो तो गर्व न करना। ज्ञान ३. कायगुप्ति-शारीरिक अशुभ प्रवृत्ति से बचना। निष्कारण न आवे तो दीनता नहीं लाना। शारीरिक क्रिया को रोकना। २२. सम्यक्त्वपरीषह-अन्य धर्मों के मन्त्र-तन्त्र चमत्कार १०. यतिधर्म :- (१) क्षमा (सहिष्णुता) (२) नम्रता (लघुता) आदि को देखकर वीतराग-प्ररूपित धर्म से विचलित न होना किन्तु (३) सरलता (४) निर्लोभता (५) तप (बाह्यअभ्यन्तर) (६) संयम जैनधर्म में स्थिर रहना। (प्राणिदया व इन्द्रियनिग्रह) (७) सत्य (निरवद्य भाषा) (८) शोच (मानसिक पवित्रता) (९) अपरिग्रह किसी पर भी ममत्त्व न रखना (१०) ब्रह्मचर्य पूर्णरूप से पालन करना। २२. परीषह- भूख-प्यास आदि से जन्य कष्ट को कर्म निर्जरा एवं संयम की दृढ़ता के लिये समतापूर्वक सहन करना परीषह है। १-५ = भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी एवं मच्छर आदि से जन्य कष्ट को कर्मक्षय में सहायक व सत्ववर्धक मानकर समतापूर्वक सहन करना। ६. अचेलक = जीर्ण-शीर्ण, मल मलिन वस्त्र हो तो भी मन में खेद न करना। अच्छे वस्त्र की चाह न करना। विद्वत खण्ड/२२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० विष्णुकांत शास्त्री अपने नाम में, अपने व्यवहार में वे अंग्रेजों के अधिकाधिक अनुकरण द्वारा अपने को अंग्रेज साबित करने की चेष्टा करते थे। निश्चय ही यह रास्ता भारत के लिए स्वाभिमान का रास्ता नहीं था। कुछ ऐसे विद्वान भी थे जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा का बहिष्कार करना चाहा और उसके द्वारा अपने पुरातन जीवन मूल्यों से चिपटे रहने का प्रयास किया। निश्चय ही यह रास्ता भी सही रास्ता नहीं था क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हम केवल भौगोलिक सीमा के आधार पर जानने, या न जानने का निर्णय नहीं कर सकते। हमारे ही वेद की उक्ति है : 'आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:' अर्थात् सब दिशाओं से मिले शुभ ज्ञान। जो शुभ ज्ञान है वह किसी भी देश से क्यों न आए हमको स्वीकार करना चाहिए। हमारे पुरखों की एक तीसरी श्रेणी थी जिसने अंधानुकरण करने से भी इन्कार किया और पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान के उज्ज्वल पक्ष का बहिष्कार करने से भी इन्कार किया। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। यह जो तीसरा मार्ग है इस तीसरे मार्ग को आज तक उचित मानते हैं, क्योंकि यही सही रास्ता है। शिक्षा का भारतीय आदर्श हम यह जानते हैं कि हम अपने पुराने ज्ञान-विज्ञान को आज के युग प्राय: कहा जाता है कि एक समय था जब भारत को जगद्गुरु में अगर स्वीकार करें तो उसको हम युगानुकूल बनाएँ। प्राचीन की उपाधि प्राप्त थी और हमारे विश्वविद्यालयों में, तक्षशिला में, परंपरा को युगानुकूल बनाकर और विदेशी शैली से ली गई ज्ञान नालन्दा में, विक्रमशिला में या और दूसरे विश्वविद्यालयों में विदेशों राशि को अपन देश के अनुकूल बनाकर हम अपने विकास के से भी बड़े-बड़े विद्वान शिक्षा ग्रहण करने आते थे। बाद में रास्ते पर चल सकते हैं। विकास और शिक्षा इन दोनों का ऐतिहासिक विपर्यय के कारण हमारी स्थिति में परिवर्तन हुआ और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में पीछे रहेंगे तो हमारी शिक्षा का विकास-क्रम अवरुद्ध-सा हो गया। १८५७ में हम विकास के क्षेत्र में भी आगे नहीं बढ़ सकते। हमारे देश की अंग्रेजों ने लंदन विश्वविद्यालय के अनुकरण पर कलकत्ता आज की स्थिति बहुत प्रशंसनीय नहीं है। आज भी हमारे देश की विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय और बम्बई विश्वविद्यालय की बहुत बड़ी जनसंख्या निरक्षर है। आज भी हमारे देश में बहुत बड़ी स्थापना की। उनकी स्थापना के पीछे एक कूट योजना भी थी। संख्या प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाई है। बहुत कम मैकाले ने जो टिप्पणी (मिनट) लिखी थी उसमें उन्होंने बताया था लोग उच्चतर शिक्षा प्राप्त कर सके हैं। उनके ऊपर कितना बड़ा कि अगर हम अंग्रेजी माध्यम से भारत के विद्वानों को प्रशिक्षित उत्तरदायित्व है सारे देश के पुनर्निर्माण का, सारे देश के राष्ट्रीय करने का प्रयास करें तो एक दिन ऐसा आएगा कि वे केवल रंग विकास का, इस बात का हमको अनुभव करना चाहिए। में भारतीय रह जाएँगे। अपने चिन्तन में, व्यवहार में वे हमारा हमें इस बात को समझना चाहिए कि आखिर वे कौन-से गुण अनुकरण करने की चेष्टा करेंगे। उनकी यह चेष्टा थी कि वे अंग्रेजी हैं जिन गुणों ने हमारे देश को जगद्गुरु बनाया था और उन गुणों को के माध्यम से शिक्षा देकर भारतीयों को मुख्यत: क्लर्क बनाने के आज हम किस रूप में स्वीकार कर सकते हैं। हमें विचार करना लिए तैयार करें। हमारे उस समय के पुरखों ने इसकी तीन प्रकार चाहिए कि हम अपने देश की परम्परा से जुड़े रह कर कैसे की प्रतिक्रियाएँ कीं। कुछ लोग थे जो बिलकुल अंग्रेजीदाँ हो गए, आधुनिक हो सकते हैं, कैसे हम वास्तव में अपनी उस वैदिक उक्ति अंग्रेजी की नकल में अंग्रेज बनने की चेष्टा करने लगे। यदि उनका को चरितार्थ कर सकते हैं कि विश्वविद्यालय का मतलब होता है नाम था रतन दे तो वे अपने को लिखते थे डी. रैटन और अगर 'यत्र विश्वं भवत्येक नीड़म्', जहाँ सारा संसार एक घोंसला बन उनका नाम था आशुतोष तो अपने को लिखते थे ए, टोष यानी जाए। सारे संसार के विद्वान जहाँ आ सकें और जिसकी दृष्टि क्षेत्रीय शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हो, जिसकी दृष्टि संकीर्ण न हो, जिसकी दृष्टि के सामने सारा प्रवचन करना। सभी ऋषियों ने अपनी सहमति ज्ञापित करते हुए विश्व हो। विश्व मानवता को स्वीकार करते हुए अपने देश की कहा, हाँ वही तप है, वही तप है। यही अच्छे शिक्षक का धर्म है। राष्ट्रीयता, अपने देश का सर्वतोमुखी विकास करने के लिए अपने स्वाध्याय जितना उत्तम होगा प्रवचन उतना उत्कृष्ट होगा। इसलिए को समर्पित करने की दृष्टि हममें कैसे विकसित हो यही हमारे तैत्तिरीय उपनिषद ने आदेश दिया 'स्वाध्यायन्मा प्रमदः', स्वाध्याय से अध्यापकों के, हमारे विद्यार्थियों के, हमारे शोधार्थियों के चिन्तन का यानी अच्छे ग्रन्थों के निरन्तर अनुशीलन से कभी प्रमाद मत करना। विषय होना चाहिए और इस दिशा में हमको अग्रसर होना चाहिए। जो भी अध्यापक होगा वह अगर तपस्या करना चाहता है तो उसको मैं यह जानता हूँ कि अपने कार्य के प्रति गौरव-बोध हमें किसी निरन्तर स्वाध्याय करना होगा और जितना अधिक स्वाध्याय वह कर काम को भली-भाँति सम्पन्न करने की प्रेरणा देता है। जब हम सकेगा उसका प्रवचन उतना प्रामाणिक होगा। कालिदास ने शिक्षकों जगद्गुरु थे तो हमने अध्ययन-अध्यापन के कार्य को किस रूप में की एक अद्भुत श्रृंखला बताई है कि बड़ा शिक्षक कौन है, धुरि- . देखा था। उस समय की स्थिति यह थी कि हमने इस कार्य को प्रतिष्ठा का अधिकारी शिक्षक कौन है। उन्होंने कहा : तपस्या के रूप में देखा था। हमारी मान्यता थी : 'छात्राणां अध्ययन श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था, तपः', यह कथन इस बात को साबित करता है कि अध्ययन संक्रान्तिरन्यस्य विशेष युक्ता । अध्यापन को हमने उच्चतर भूमिका पर प्रतिष्ठापित करने की चेष्टा यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, की थी। हमारी दृष्टि केवल अर्थकारी विद्या प्राप्त करने की नहीं थी। धुरिप्रतिष्ठापयितव्य एव ।। हमारा तत्कालीन अध्यापक सगौरव कहता था : __ अर्थात् कुछ विद्वान होते हैं जो ज्ञान तो बहुत अर्जित कर लेते नाहं विद्या-विक्रयं शासनशतेनापि करोमि । हैं लेकिन ज्ञान का संक्रमण करने में, अपने विद्यार्थियों को ज्ञान दे सैकड़ों शासन का अधिकार प्राप्त होने पर भी मैं विद्या-विक्रय पाने में वे कुशल नहीं होते। संक्रान्ति की विद्या से वे रहित होते हैं। नहीं करूंगा। यह दृष्टि हमारे अध्यापकों की दृष्टि थी। अच्छा कुछ विद्वान होते हैं जो संक्रमण में जो बहुत कुशल होते हैं, जितना अध्यापक कौन होता है? अच्छा अध्यापक वही होता है जो जानते हैं उतना दूसरों को सिखा देते हैं लेकिन वे जानते ही कम आजीवन छात्र रहे। जब तक साँस चलती रहे तब तक सीखने की हैं। . प्रवृत्ति अगर बनी रहेगी तब तक अच्छे अध्यापक हो सकेंगे। ये दोनों प्रकार के विद्वान धुरिप्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं है। आधुनिक युग के महान् उपदेशक, महान् गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, देव ने कहा था, 'जतो दिन बाँची ततो दिन शीखी' (जितने दिन धुरिप्रतिष्ठापयित्य एव ।। जीऊँगा उतने दिन सीखूगा)। यह लगातार जो सीखते रहने की जिसमें ये दोनों गुण हों अर्थात् वह स्वयं ज्ञानी भी हो, और ज्ञान परम्परा है, यह परम्परा विद्या के क्षेत्र को उन्नत मान देती है। कैसे के संक्रमण की कला में भी कुशल हो वही विद्वान धुरिप्रतिष्ठा का, हम विद्या को प्राप्त करें? शिक्षा का मतलब क्या होता है? 'शिक्षा वास्तविक प्रतिष्ठा का अधिकारी होता है। हमारे देश में धुरिप्रतिष्ठा विद्योपादाने', शिक्षा का मतलब होता है विद्या देने की प्रक्रिया। के अधिकारी विद्वान थे, वे जब भिक्षा देते थे, तब हमारे विद्यार्थी 'शिक्षते उपदीयते विद्या यया सा शिक्षा', शिक्षा वह जिससे विद्या आगे बढ़ते थे। आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे धुरिप्रतिष्ठा के प्रदान की जाती है। हमारे देश में विद्या के दो भाग किए गए हैं एक अधिकारी विद्वान हैं लेकिन मेरी अपेक्षा है कि हममें से प्रत्येक पराविद्या, एक अपराविद्या। पराविद्या का मतलब है परमात्म विद्या, शिक्षक इस धुरिप्रतिष्ठा को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो। अध्यात्म विद्या और अपराविद्या माने लौकिक विषयों की विद्या। इन। शिक्षक का यही आदर्श था। आज यह बात आश्चर्यजनक लग दोनों प्रकार की विद्यायों के अर्जन को तपस्या की संज्ञा दी गई है। सकती है, लेकिन हमारे देश का आदर्श शिक्षक डंके की चोट पर एक बार ऋषियों से एक प्रश्न पूछा गया कि सबसे बड़ा तप कौन- अपने विद्यार्थियों से कहता था : सा है? ऋषियों में एक नाकोमौद्गल्य ऋषि थे, उन्होंने कहा : यान्यस्माकं सुचरितानि स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाकोमौद्गल्य: तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि । तद्धितपस् तद्धितप: तद्धितपस् तद्धितपः ।। हमारे देश का शिक्षक कहता था कि 'जो हमारा सुचरित है, विभिन्न ऋषियों ने अलग-अलग तप बताए, लेकिन विद्यार्थियों! केवल उस सुचरित का तुम अनुगमन करना। जो नाकोमौद्गल्य ने कहा कि सबसे बड़ा तप है स्वाध्याय करना और सुचरित से भिन्न है उसका अनुगमन मत करना।' हमारे देश के विद्वत खण्ड/२४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहप शिक्षक की अद्भुत दृष्टि थी। वह कहता था, 'सर्वत्र जयमन्विच्छेत् आज भी अगर भारतवर्ष बड़ा होगा तो इन्हीं आकाशधर्मी गुरुओं के पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।' मनुष्य को सर्वत्र विजय की कामना द्वारा होगा जो अपने शिष्यों से मतभेद की चिन्ता किए बिना उनको करनी चाहिए लेकिन मेरा पुत्र मुझको हरा दे, मेरा विद्यार्थी मुझको सही रास्ते बताते हुए उनकी प्रवृत्ति के अनुसार उनके विकास की हरा दे, यह कामना भी भारत का शिक्षक करता था। अगर मेरा सुविधा देते रहेंगे। शिष्यों की क्षमता के अनुसार उनके विकास की विद्यार्थी मुझको पराजित करेगा तो कैसे पराजित करेगा? ज्ञान की दिशा बताने वाला आकाशधर्मी गुरु हमारा आदर्श होना चाहिए। सीमा को जहाँ तक मैने बढ़ाया है जब उससे आगे वह बढ़ा के ले हम अध्यापकगण यदि आकाशधर्मी गुरु के रूप में जीवन जियें, जायेगा, तब मेरी बात में वह कहीं खोट निकालेगा और उसको दूर तब हम अपने शिष्यों को भी अपनी भूमिका पर ला सकेंगे। हमारे करेगा, जब मुझसे भी ज्यादा वह ज्ञानी हो जाएगा तब न मुझे कबीर दासजी ने कहा है, पारस में और गुरु में बहुत अन्तर होता पराजित करेगा? अगर कोई शिष्य किसी गुरु को अपने ज्ञान से है। 'पारस पत्थर लोहे को सोना बना सकता है लेकिन गुरु, पराजित करता है तो गुरु की छाती फूल जाती है। हमारे आदर्श गुरु आकाशधर्मी गुरु, शिष्य को भी आकाशधर्मी गुरु बना सकता है।' की चेष्टा होती थी कि हमारे शिष्य हमसे भी योग्य बन जाएँ, यह गुरु की वास्तविक सफलता शिष्य की श्रद्धा अर्जित करने में है। नहीं कि हम अपने शिष्यों को दबाते रहें। एक बढ़िया श्लोक है : ___हमारे देश में कहा गया है कि दो प्रकार के गुरु होते हैं। एक बहवः गुरवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकः । प्रकार का गुरु होता है आकाशधर्मी गुरु और दूसरे प्रकार का गुरु दुर्लभ: स गुरुलोक शिष्यचित्तापहारकः ।। होता है शिलाधर्मी गुरु। शिलाधर्मी गुरु कैसा होता है? आप लोगों ऐसे तो गुरु बहुत हैं जो शिष्यों के वित्त का, अर्थ का अपहरण ने मैदानों में देखा होगा कि हरी घास के ऊपर अगर कोई एक ईंट कर लेते हैं। आजकल हम लोग फीस लेते ही हैं, प्राय: हर विद्यार्थी रख दे, एक शिला रख दे और एक महीने के बाद उस ईंट को को फीस देनी पड़ती है तो वित्त का अपहरण करने वाली शिक्षा हटाये तो दिखेगा कि ईंट से दबी घास पीली पड़ गई, निस्तेज हो गई, संस्थाएँ और गुरु बहुत हैं। 'दुर्लभ: स गुरुकि शिष्यचित्तापहारकः', विकलांग हो गई। जो गुरु शिलाधर्मी गुरु के रूप में अपने विद्यार्थियों किन्तु वैसा गुरु दुर्लभ है इस लोक में जो शिष्य के चित्त का पर लद जाए और कहे कि मैं जो कहता हूँ वही तुमको मानना अपहरण कर सके, जो शिष्य की श्रद्धा अर्जित कर सके। शिष्य पड़ेगा, वही सत्य है, तो वह अपने विद्यार्थियों का विकास नहीं कर श्रद्धेय के रूप में किसी गुरु को क्या केवल इसलिए स्वीकार कर सकता। शिलाधर्मी गुरु हमारे यहाँ त्याज्य, हमारे यहाँ निन्द्य माना लेगा कि वह अध्यापक है, वह प्रोफेसर है। ऐसा नहीं होता। केवल जाता है। हमारे यहाँ जिस गुरु की आदर्श कल्पना की गई है उस पद से सम्मान प्राप्त नहीं होता। शिक्षक में कुछ वैशिष्ट्य होना गुरु की संज्ञा आकाशधर्मी है। आकाशधर्मी गुरु कैसा होता है? चाहिए, जिससे शिष्य के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो और वह वैशिष्ट्य आकार चाहता है कि उसके नीचे जो वनस्पतियाँ हैं वे विकसित जब तक हमारा शिक्षक वर्ग अजित करता रहेगा तब तक हमारे हों, जिनकी जितनी क्षमता हो वह उतनी विकसित हों। घास को विद्यार्थी आगे बढ़ते रहेंगे। उगने की क्षमता प्रायः सतह तक है और देवदारु की उगने की हमको इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि अध्यापक के क्षमता बहुत ऊँची है, बरगद बहुत फैल सकता है। आकाशधर्मी गुरु समान ही शिष्य का क्या स्वरूपभूत लक्षण होना चाहिए। शिष्य कैसे प्रत्येक शिष्य को प्रकाश देता है, प्रत्येक शिष्य को वायु देता है, ज्ञान प्राप्त करे, इसके बारे में गीता में दो बहुत अच्छी उक्तियाँ कही प्रत्येक शिष्य को अवकाश देता है बढ़ने का ताकि जिसकी जितनी गईं हैं : क्षमता है वह उतनी विकसित भूमिका को अर्जित कर सके। यह तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । आकाशधर्मी गुरु का लक्षण है। आकाशधर्मी गुरु शिष्य की क्षमता शिष्य का आधारभूत लक्षण है ज्ञान प्राप्त करने के लिए अग्रणी को पहचानता है। जैसे चिकित्सा रोग की नहीं हो जाती, चिकित्सा होना। शिष्य ज्ञान प्राप्त कर सके, इसके लिए उनको परिप्रश्न करने रोगी की की जाती है, वैसे विद्या विद्या के लिए नहीं दी जाती विद्या का अधिकार मिलना चाहिए। परिप्रश्न माने बार-बार प्रश्न, परिप्रश्न व्यक्ति को दी जाती है। उस व्यक्ति की जो क्षमता है, उस व्यक्ति माने चारों तरफ से प्रश्न, परिप्रश्न माने जब तक विषय समझ में के जो विशेष गुण हैं, उन विशेष गुणों को कैसे विकसित किया न आए तब तक प्रश्न करने का अधिकार शिष्यों का है, इसकी जाए, यह कुशलता जिस गुरु में होती है उसको आकाशधर्मी गुरु स्वीकृति लेकिन परिप्रश्न को सम्पुटित किया गया है, प्रणिपात यानी कहते हैं। आकाशधर्मी गुरुओं के द्वारा भारतवर्ष बड़ा हुआ है और विनम्रतापूर्वक नमस्कार और सेवा के द्वारा। विद्यार्थी अध्यापक से शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न करने के अधिकारी हैं, अगर सचमुच उस विषय को वे जानने, क्रिया। श्रवणम् का मतलब हुआ कि अपनी जिज्ञासा को लेकर, समझने की इच्छा रखते हैं, किन्तु उस विषय का ज्ञान प्राप्त करने अपने प्रश्न को लेकर किसी योग्य अधिकारी गुरु के पास गये उनसे के लिए उन्हें विनम्र होना चाहिए। इस सन्दर्भ में एक अच्छी उक्ति : विनम्रतापूर्वक प्रश्न किया और उन्होंने जो उत्तर दिया, जो उन्होंने पैये असीस लचैसे जो सीस, समझाया, उसको सुना। श्रवणम् का मतलब हुआ जानने की, ज्ञान लची रहिये तब ऊँची कहैये। अर्जित करने की चेष्टा। आज हमारे मन में शुश्रुषा हो तो हम जब तक विद्यार्थी का सिर श्रद्धा से झुकता नहीं है गुरु के इनसाइकलोपीडिया से समझ सकते हैं, हम इन्टरनेट से समझ सकते सामने, तब तक वह विद्या अजित नहीं कर सकता। साथ ही हमें हैं लेकिन आधारभूत बात यह है कि जानने की इच्छा होनी चाहिए निश्छल सेवा के द्वारा गुरु को प्रसन्न भी करना चाहिए। इस प्रकार और जानने की इच्छा के बाद जानने की क्रिया होनी चाहिए। सेवा और प्रणिपात के द्वारा हम अनेकानेक प्रश्न करने का अधिकार श्रवणम् माने जानने की क्रिया। जानने के लिए अध्यापक के पास प्राप्त कर सकते हैं। एक और बात है, एक उक्ति बहुत बार उद्धृत गए, आपने अपने अध्यापक से सवाल किया, उनका बताया हुआ की जाती है 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्', श्रद्धावान को ज्ञान प्राप्त होता उत्तर सुना, लेकिन समझ में नहीं आया तो मतलब हुआ कि बुद्धि है लेकिन इतनी ही बात आधी बात है। पूरी उक्ति है गीता की : मन्द है। बुद्धि की तीसरी भूमिका है ग्रहणम्। जो कुछ आपको श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतोन्द्रयः । बताया गया वह आपकी समझ में आना चाहिए। वह आपको समझ उस व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है जो अपने गुरु एवं विषय में आया कि नहीं, अगर समझ में आया तो आप बुद्धि की तीसरी के प्रति श्रद्धा तो रखता ही है साथ ही उसको अर्जित करने के लिए भूमिका पर हैं और समझ में नहीं आया तो आपकी बुद्धि मंद है। तत्पर है, जुटा हुआ है, उसी के प्रति समर्पित है। दूसरी ओर उसका बुद्धि की चौथी भूमिका है धारणम्। आपने किसी विद्वान का ध्यान ही नहीं जाता। दूसरी ओर उसका ध्यान जाए इसके लिए व्याख्यान सुना, घर में आकर कहा, आज का व्याख्यान बहुत उसको संयतेन्द्रिय होना चाहिए, अपनी इन्द्रियों पर संयम करना। अच्छा था, वाह-वाह, वाह-वाह कितना अच्छा व्याख्यान था आज चाहिए। अपनी इन्द्रियों पर संयम करके जब हम अपना पूरा ध्यान का। किसी ने पूछा क्या कहा गया था व्याख्यान में, उत्तर दिया, भाई, अपने अध्येतव्य विषय की ओर लगायेंगे तब हम श्रद्धा के द्वारा ज्ञान यह तो याद नहीं, तो यह बुद्धि की मन्दता है। बुद्धि की चौथी भूमिका अर्जित कर सकेंगे। विद्यार्थियों के लिए एक बहुत अच्छा श्लोक है, धारणम् अर्थात् जो हमने सुना जिसको हमने समझा उसको हमने याज्ञवल्क्यीय शिक्षा का। उसका अभिप्राय यह है कि हम अपनी धारण किया कि नहीं किया। अगर हमको वह याद नहीं है तो हमारी भूमिका को सतत नापते रहें कि हम कहाँ खड़े हैं। विद्या-बुद्धि की बुद्धि मन्द है। हमको बुद्धि की चौथी भूमिका पर जाना चाहिए कि कौन-सी भूमिका है जिस पर अभी हम खड़े हैं और जिससे अग्रसर हम पढ़ें उसको स्मरण रख सकें, धारण कर सकें। होना चाहते हैं, उच्चतर भूमिका पर जाना चाहते हैं। यह अद्भुत ऊहापोहार्थविज्ञानाम्। 'गंगा गए गंगादास, यमुना गए यमुनादास' ऐसा श्लोक है : नहीं होना चाहिए। इन्होंने कहा यह भी सही, उन्होंने कहा वह भी । शुश्रुषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । सही, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो विषय सुना है, जो विषय समझा ऊहापोहाविज्ञानं तत्वज्ञानं च धी गुणाः ।। है या जो विषय पढ़ा है उसके ऊपर ऊहापोह किया कि नहीं, विचार धी माने बुद्धि। बुद्धि के सात गुण हैं अर्थात् बुद्धि की सात किया कि नहीं, वह सही है तो क्यों सही है, वह गलत है तो क्यों भूमिकाएँ हैं। हम सब विचार करें कि हम किस भूमिका पर खड़े गलत है। यह जो सही और गलत के बारे में विश्लेषण करना, हैं। बुद्धि की पहली भूमिका है शुश्रुषा। शुश्रुषा माने श्रोतुमिच्छा। वितर्क करना, विवेचन करना है यह बुद्धि की पाँचवीं भूमिका है। श्रोतुमिच्छा माने जानने की इच्छा, सुनने की इच्छा। पुराकाल का यह अन्ध श्रद्धा की बात भारतीय दृष्टि में नहीं है। ऊहापोह करना चाहिए, श्लोक है। पुराकाल में तो छपी हुई किताबें होती नहीं थीं, विचार करना चाहिए और विचार करने के बाद जो सही लगे उसे हस्तलिखित ग्रन्थ होते थे उनकी संख्या भी बहुत कम थी। इसलिए स्वीकार करना चाहिए, जो गलत लगे उसे छोड़ देना चाहिए और गुरु के निकट जाकर पूछा जाता था। कोई बात जानने की इच्छा हुई जो कुछ सीखा है उस सीखे हुए को काम में लाना चाहिए। तो उसे कहते थे शुश्रुषा। सुनने की, जानने की इच्छा। यदि इच्छा 'अर्थविज्ञानम्' यह बुद्धि की छठी भूमिका है। जो भी हमने सीखा के स्तर पर ही रुक गई तो समझिए कि बुद्धि बहुत मंद है। शुश्रुषा है, जो हमने ज्ञान प्राप्त किया है वह अगर काम में नहीं आया तो श्रवणं चैव। बुद्धि की दूसरी भूमिका है जानने की चेष्टा, जानने की किस काम का! मीमांसा का सूत्र है, 'सर्वमपि ज्ञानं कर्मपरम्' अर्थात् विद्वत खण्ड/२६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीखा हुआ ज्ञान, हमारे आचरण में, हमारे कर्म में उतरना चाहिए। निरूपित किया गया है। अभिनवगुप्त ने अपूर्व वस्तु का निर्माण करने हमको सही दिशा देने वाला ज्ञान हमसे ठीक-ठीक काम करवाए। में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिभा कहा है, 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा वेदान्त ने इसमें एक अपवाद बताया है, 'ऋते आत्मज्ञानात्' अर्थात् प्रतिभा' । हमारे शोधार्थी प्रतिभाशाली हों और नई-नई शोधों, नए-नए आत्मज्ञान को छोड़कर, आत्मज्ञान के बाद कर्म अनिवार्य नहीं आविष्कारों द्वारा ज्ञान की परिधि को बढ़ाते रहें। रहता। किन्तु अभी तो हम लौकिक ज्ञान की बात कर रहे हैं। तो हमारी परम्परा यह भी मानती है कि अपनी मान्यताओं की हमें अर्थ विज्ञानम् अर्थात् ज्ञान का उपयोग हो। जैसे कोई अनुसंधान हुआ बार-बार जाँच-पड़ताल करनी चाहिए इसके लिए सही रास्ता विद्वानों तो उस अनुसंधान के द्वारा, विविध तकनीकों के द्वारा हम कैसे यंत्र से विचार-विमर्श करते रहना। 'वादे वादे जायते तत्वबोध:', इस बना सकते हैं, कैसे उसका उपयोग समस्याओं का समाधान करने दिशा में हमारा मार्ग निर्देशक सूत्र है। कई बार ऊँचा पद प्राप्त कर में कर सकते हैं, यह अर्थ विज्ञान आना चाहिए। यह बुद्धि की छठी लेने के बाद प्राध्यापकगण विचार-विमर्श से कतराने लगते हैं। उन्हें भूमिका है। तत्वज्ञानं च धी गुणा; और तत्त्वत: किसी विषय को लगता है कि यदि उनकी बात गलत साबित हो जाएगी तो उन्हें समझ लेना, उस विषय को पूर्णत: समझ लेना है, जैसे मिट्टी को अपमानित होना पड़ेगा। अत: विवाद से...शास्त्रों या विचार-विमर्श तत्वत: समझ लिया तो मिट्टी से बनी हुई सभी चीजों को समझ से वे कन्नी काटते हैं। कालिदास ने इस प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए लिया, सोने को तत्वतः समझ लिया तो सोने से बनी हुई सब चीजों एक मार्मिक श्लोक लिखा है : को समझ लिया। किसी चीज का तात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेना उस लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरो: विषय की समझदारी की सातवीं भूमिका है। हमारे विद्यार्थियों को तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम् । सातवी भूमिका तक जाने की तैयारी करनी चाहिए। यस्यागमः केवल जीविकायै बड़ा काम कैसे होता है? बड़ा काम केवल इच्छा से नहीं तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति ।। होता। बड़ा काम उस बड़ी इच्छा को पूर्ण करने के लिए अपने अर्थात् सम्मानजनक पद प्राप्त हो जाने के बाद जो विवादभीरु, जीवन को होम देने से होता है। जीवन की सारी शक्तियों को एकाग्र आत्मविश्वासहीनता के कारण दूसरों के द्वारा की गई निन्दा को करके अपने विषय को उपलब्ध करने के लिए जब हम अपने आप सहता रहता है, जिसका ज्ञान केवल जीविकोपार्जन के लिए ही होता को समर्पित कर देंगे, तब बड़ा काम कर सकेंगे। है वह तो ज्ञान बेचने वाला बनिया है, विद्वान नहीं। विद्वान सब समय अनुसंधान या शोध कार्य के लिए भी यह स्थापना सत्य है। ज्ञान विवाद ही करता रहे, इसका अर्थ यह भी नहीं। इसका अभिप्राय का प्रदर्शन कर सस्ती वाहवाही लूट लेना अलग बात है और किसी यही है कि अपनी मान्यता विचार की कसौटी पर खरी उतरती रहे, विषय की तह में जाकर उसकी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाना, इसकी ओर सजग रहना चाहिए। अन्यथा विद्वत्ता तेजस्विनी नहीं हो उस विषय के ज्ञान को आगे बढ़ाना, बिल्कुल दूसरी बात है। नवीन सकती। हमारी पारम्परिक प्रार्थना यही है कि हमारा अधीत (हमारा शोधों के द्वारा ज्ञान की समृद्धि कौन कर सकता है, कैसे कर सकता प्राप्त किया हुआ ज्ञान) तेजस्वी हो... 'तेजस्विनावधीतमस्तु'। यह है, इस पर एक बहुत ही अच्छा श्लोक है : तेजस्विता खंडित तभी होती है जब हम अपना ज्ञान बेचने लगते हैं। तरन्तो दृश्यन्ते बहव इह गंभीर सरसि, जायसी की हृदयस्पर्शिणी उक्ति है, 'पंडित होई सो हाट न चढ़ा। ससाराभ्यां दोा हृदि विदधत: कौतकशतम् । चहौं बिकाइ भूलि गा पढ़ा'। मेरी मंगलकामना है कि हमारे तेजस्वी प्रविश्यान्तीनं किमपि सुविविच्योद्धरति यश, विद्वान प्राध्यापक आत्मविक्रय की स्थिति से बचें। एक बात और। चिरं रुद्धश्वास: स खलु पुनरेतेषु विरल: । ज्ञान प्राप्त करने की तेजस्वी परम्परा यह मानती थी कि केवल एक अर्थात् इस गहरे और विशाल ज्ञान-सरोवर में तैरते हुए बहुत विषय का ज्ञान रखने वाले वास्तव में ज्ञानी नहीं होते। उनकी मान्यता से तैराक अपनी पुष्ट भुजाओं से नाना प्रकार के कौतुक करते हुए थी, “एक शास्त्रं अधीयान: न चिंचिदपि शास्त्रं विजानाति' । अर्थात् दीख पड़ते हैं किन्तु इन सबमें वह (विद्वान) विरला ही है जो देर एक ही शास्त्र को जानने वाला कुछ भी शास्त्र नहीं जानता। सम्यक् तक साँस रोक कर, गहरे डूब कर गंभीर विवेचन के बाद किसी ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत से शास्त्र जानने चाहिए, भले ही दुर्लभ रत्न का उद्धार कर लाता है। आत्मप्रदर्शन विमुख, गंभीर, विशेषज्ञता एक शास्त्र की हो। क्योंकि सभी शास्त्र, सभी विषय निष्ठापूर्ण, ऐकान्तिक वस्तुनिष्ठ विद्या साधना ही मौलिक शोधपरक परस्पर सम्बद्ध हैं। एक शास्त्र की ग्रन्थि दूसरे शास्त्र के प्रकाश से उपलब्धि का आधार है, यह सत्य इस श्लोक में बहुत अच्छी तरह सुलझाई जा सकती हैं। अत: विद्वान को बहुश्रुत होना चाहिए। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२७ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय शैक्षणिक दृष्टि यह रही है कि हम तो अपने जीवन की सार्थकता के लिए पढ़ रहे हैं, हम तो अपने जीवन में ऋषि ऋण उतारने के लिए जो कुछ हमने बड़ों से सीखा है उसको सामान्य जितेन्द्रियता जनता तक पहुँचा देने के लिए काम कर रहे हैं। अत: हमारी चिन्ता जब तक जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जब तक नासिका होनी चाहिए कि कैसे हम उच्चतम ज्ञान-विज्ञान भारतीय भाषाओं में सुगंध चाहती है, जब तक कान वारांगना के गायन और वाद्य चाहते ले आएँ, कैसे हम उच्चतम विद्या को निम्नतम में ले आएँ, कैसे हैं, जब तक आँखे वनोपवन देखने का लक्ष्य रखती हैं, जब तक हम उच्चतम विद्या को निम्नतम वर्ग तक पहुंचाने की धारावाहिकता त्वचा सुगंधीलेपन चाहती है, तब तक यह मनुष्य नीरोगी, निग्रंथ, उत्पन्न करें। निष्परिग्रही, निरारंभी और ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। मन को वश मैं यह भी मानता हूँ कि हमारे देश के पुनर्निर्माण का जो करना यह सर्वोत्तम है। इससे सभी इन्द्रियाँ वश में की जा सकती हैं। महायज्ञ चल रहा है, उसकी वास्तविक आधारभूमि विश्वविद्यालय । मन को जीतना बहुत-बहुत दुष्कर है। एक समय में असंख्यात योजन हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में जैसे प्राध्यापक, प्रशासक रहेंगे, हम वैसे चलनेवाला अश्व यह मन है। इसे थकाना बहुत दुष्कर है। इसकी गति ही पाठ्यक्रम रखेंगे, वैसा ही वातावरण बनाएँगे, वैसे ही विद्यार्थी ___ चपल और पकड़ में न आ सकनेवाली है। महाज्ञानियों ने ज्ञानरूपी उत्पन्न करेंगे। स्वाभवत: देश वैसा ही बनेगा। अगर हम अपने राष्ट्र लगाम से इसे स्तंभित करके सब पर विजय प्राप्त की है। को महान् बनाना चाहते हैं तो अपनी गौरवपूर्ण परम्परा से प्रेरणा लेते उत्तराध्ययनसूत्र में नमिराज महर्षि ने शकेन्द्र से ऐसा कहा कि हुए आगामी सहस्त्राब्दी में आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने दस लाख सुभटों को जीतनेवाले कई पड़े हैं, परन्त स्वात्मा को में समर्थ प्राध्यापक नवीनतम ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध पाठ्यक्रम और जीतनेवाले बहत दुर्लभ हैं, और वे दस लाख सभटों को जीतनेवालों परिवेश की संयोजना हमें करनी होगी जिससे सभी चुनौतियों का की अपेक्षा अति उत्तम हैं। समुचित प्रत्युत्तर देने में समर्थ विद्यार्थियों का निर्माण हम कर सकें। मन ही सर्वोपाधि की जन्मदात्री भूमिका है। मन ही बंध और (कानपुर विश्वविद्यालय में दीक्षांत भाषण) मोक्ष का कारण है। मन ही सर्व संसार की मोहिनीरूप है। यह वश हो जाने पर आत्मस्वरूप को पाना लेशमात्र दुष्कर नहीं है। मन से इन्द्रियों की लोलुपता है। भोजन, वाद्य, सुगंध, स्त्री का निरीक्षण, सुन्दर विलेपन यह सब मन ही माँगता है। इस मोहिनी के कारण यह धर्म को याद तक नहीं करने देता। याद आने के बाद सावधान नहीं होने देता। सावधान होने के बाद पतित करने में प्रवृत्त होता है अर्थात् लग जाता है। इसमें सफल नहीं होता तो सावधानी में कुछ न्यूनता पहुँचाता है। जो इस न्यूनता को भी न पाकर अडिग रहकर मन को जीतते हैं, वे सर्वसिद्धि को प्राप्त करते हैं। मन अकस्मात् किसी से ही जीता जा सकता है, नहीं तो अभ्यास करके ही जीता जाता है। यह अभ्यास निग्रंथता में बहुत हो सकता है, फिर भी गृहस्थाश्रम में हम सामान्य परिचय करना चाहें तो उसका मुख्य मार्ग यह है कि यह जो दुरिच्छा करे उसे भूल जायें, वैसा न करें। यह जब शब्द, स्पर्श आदि विलास की इच्छा करे तब इसे न दें। संक्षेप में, हम इससे प्रेरित न हों, परन्तु हम इसे प्रेरित करें और वह भी मोक्षमार्ग में। जितेन्द्रियता के बिना सर्व प्रकार की उपाधि खड़ी ही रहती है। त्यागने पर भी न त्यागने जैसा हो जाता है, लोक-लज्जा से उसे निभाना पड़ता है। इसलिए अभ्यास करके भी मन को जीतकर स्वाधीनता में लाकर अवश्य आत्महित करना चाहिये। विद्वत खण्ड/२८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की सार्वभौमिकता प्रो० सागरमल जैन परिपातु विश्वत:' अर्थात् व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करें। ऋग्वेद का यह स्वर यजुर्वेद में और अधिक विकसित हुआ। उसमें कहा गया - मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे ।। - यजुर्वेद ३६.१८ अर्थात् मैं सभी प्राणियों को मित्रवत् देखू और वे भी मुझे मित्रवत् देखें 'सत्वेषु मैत्री' का यजुर्वेद का यह उद्घोष वैदिक चिन्तन में अहिंसक भावना का प्रबल प्रमाण है। उपनिषद् काल में यह अहिंसक चेतना आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के आधार पर प्रतिष्ठित हुई। छान्दोग्योपनिषद् (३/१७/४) मे कहा गयाअथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता तस्य दक्षिणाः । ___ अर्थात् इस आत्म-यज्ञ की दक्षिणा तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य वचन है। इसी छान्दोग्योपनिषद् (८.१५.१) में स्पष्टत: यह कहा गया है ...अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्य: स खल्वेवं .. ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते । अर्थात् धर्म तीर्थ की आज्ञा से अन्यत्र प्राणियों की हिंसा नहीं अहिंसा की अवधारणा के विकास का इतिहास मानवीय अवधारणा के विकास का इतिहास मानवीय करता हुआ यह निश्चय ही ब्रह्मलोक (मोक्ष) को प्राप्त होता है, सभ्यता और संस्कृति के विकास के इतिहास का सहभागी रहा है। उसका पुनरागमन नहीं होता है, पुनरागमन नहीं होता है। जिस देश, समाज एवं संस्कृति में मानवीय गुणों का जितना विकास आत्मोपासना और मोक्षमार्ग के रूप में अहिंसा की यह प्रतिष्ठा हआ, उसी अनुपात में उसमें अहिंसा की अवधारणा का विकास औपनिषदिक ऋषियों की अहिंसक चेतना का सर्वोत्तम प्रमाण है। हुआ है। चाहे कोई भी धर्म, समाज और संस्कृति हो, उसमें व्यक्त वेदों और उपनिषदों के पश्चात् स्मृतियों का क्रम आता है। या अव्यक्त रूप में अहिंसा की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती है। स्मतियों में मनस्मति प्राचीन मानी जाती है। उसमें भी ऐसे अनेक मानव समाज में यह अहिंसक चेतना स्वजाति एवं स्वधर्मी से प्रारम्भ संदर्भ हैं, जो अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं। यहाँ हम उसके होकर समग्र मानव समाज, सम्पूर्ण प्राणी जगत और वैश्विक कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत कर रहे हैंपर्यावरण के संरक्षण तक विकसित हुई है। यही कारण है कि विश्व अहिंसयैव भतानां कार्य श्रेयोऽनशासनम । -मनुस्मृति २/१५९ में जो भी प्रमुख धर्म और धर्म प्रवर्तक आये उन्होंने किसी न किसी अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसक आचरण ही श्रेयस्कर रूप में अहिंसा का संदेश अवश्य दिया है। अहिंसा की अवधारणा ___ अनुशासन है। जीवन के विविध रूपों के प्रति सम्मान की भावना और सह अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते । --मनुस्मृति ६/६० अस्तित्व की वृत्ति पर खड़ी हुई है। अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसा के भाव से व्यक्ति अमृतपद हिन्दूधर्म में अहिंसा (मोक्ष) को प्राप्त करता है। वैदिक ऋषियों ने अहिंसा के इसी सहयोग और सह-अस्तित्व अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । के पक्ष को मुखरित करते हुए यह उद्घोष किया था - एतं सामासिकं धर्मं चतुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः ।।-मनुस्मृति १०/६३ 'सगच्छध्व, सवदध्व स वा मनासि जानताम्, समाना मत्र, अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता और इन्द्रिय निग्रह- ये समिति समानी' अर्थात् हमारी गति, हमारे वचन, हमारे विचार, मन के द्वारा चारों ही वर्गों के लिये सामान्य धर्म कहे गये हैं। हमारा चिन्तन और हमारी कार्यशैली समरूप हो, सहभागी हो। मात्र हिन्दु परम्परा की दृष्टि से स्मृतियों के पश्चात् रामायण, यही नहीं ऋग्वेद (६.७५.१४) में कहा गया कि 'पुमान पुमांस महाभारत और पुराणों का काल माना जाता है। महाभारत, गीता शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२९ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर और पुराणों में ऐसे सैकड़ों सन्दर्भ हैं, जो भारतीय मनीषियों की निधाय दण्डं भूतेषु तसेसु थावरेसु च । अहिंसक चेतना के महत्वपूर्ण साक्ष्य माने जा सकते हैं यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। अहिंसा सकलोधर्मो हिंसाधर्मस्तथाहित । अर्थात् जो त्रस एवं स्थावर प्राणियों को पीड़ा नहीं देता है, न - महाभारत शां.पर्व अध्याय २७२/३० उनका घात करता है और न उनकी हिंसा करता है, उसे ही मैं अर्थात् अहिंसा को सम्पूर्ण धर्म और हिंसा को अधर्म कहा गया ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार पिटक ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों बुद्धवचन हैं, जो बौद्ध न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्तथाहित । धर्म में अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। - महाभारत शा. पर्व २९२/३० जैन धर्म में अहिंसा अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति अहिंसा की भावना से श्रेष्ठ कोई धर्म जैनधर्म में अहिंसा को धर्म का सार तत्व कहा गया है। इस . नहीं है। सम्बन्ध में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, अहिंसा परमोधर्मस्तथाहिंसा परो दमः । मूलाचार आदि अनेक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उल्लेख हैं, जो जैनधर्म अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ।। की अहिंसा प्रधान जीवन दृष्टि का सम्पोषण करते हैं। इस सम्बन्ध अहिंसा परमोयज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् । में आगे विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ हम मात्र दो तीन सन्दर्भ अहिंसा परम मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।। देकर अपने इस कथन की पुष्टि करेंगे। दशवैकालिक सूत्र में कहा - महाभारत अनुशासन पर्व ११६/२८-२९ गया हैअर्थात् अहिंसा सर्वश्रेष्ठधर्म है, वही उत्तम इन्द्रिय निग्रह है। धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो तवो।-दशवैकालिक १/१ अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ दान है, वही उत्तम तप है। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ अर्थात् अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही सर्वश्रेष्ठ मंगल है। यज्ञ है और वही परमोपलब्धि है। अहिंसा, परममित्र है, वही सूत्रकृतांग में कहा गया हैपरमसुख है। एयं खु णाणिणो सारं जंण हिंसति कंचण । इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक एवं हिन्दूधर्म में ऐसे अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया ।।-सूत्रकृतांग ११/१० अगणित संदर्भ हैं, जो अहिंसा की महत्ता को स्थापित करते हैं। ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करते। बौद्ध धर्म में अहिंसा अहिंसा ही धर्म (सिद्धान्त) है- यह जानना चाहिये। मात्र यही नहीं भारतीय श्रमण परम्परा के प्रतिनिधिरूप जैन एवं अन्यत्र कहा गया हैबौद्ध धर्म भी अहिंसा के सर्वाधिक हिमायती रहे हैं। बौद्धधर्म के सव्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं । पंचशीलों, जैनधर्म के पंच महाव्रतों और योगदर्शन के पंचयमों में तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं ।। अहिंसा को प्रथम स्थान दिया। धम्मपद में भगवान बुद्ध ने कहा है- अर्थात् सभी सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। इसीलिए न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति । निर्ग्रन्थ प्राणी वध (हिंसा) का निषेध करते हैं। अहिंसा सव्वपाणानं अरियोति पवुच्चति ।। सिक्खधर्म में अहिंसा - धम्मपद धम्मट्ठवग्ग १५ भारतीय मूल के अन्य धर्मों में सिक्खधर्म का भी महत्वपूर्ण अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य (सभ्य) नहीं स्थान है। इस धर्म के धर्मग्रन्थ में प्रथम गुरू नानकदेवजी कहते हैंहोता, अपितु जो सर्व प्राणियों के प्रति अहिंसक होता है, वही आर्य जे रत लग्गे कपडे जामा होए पलीत । कहा जाता है। जे रत पीवे मांसा तिन क्यों निर्मल चित्त ।। अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवुता । अर्थात् यदि रक्त के लग जाने से वस्त्र अपवित्र हो जाता है, ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गत्वा न सोचरे । तो फिर जो मनुष्य मांस खाते हैं या रक्त पीते हैं. उनका चित्त कैसे - धम्मपद कोधवग्ग ५ निर्मल या पवित्र रहेगा? अर्थात् जो मुनि काया से संवृत होकर सदैव अहिंसक होते हैं, अन्य धर्मों में अहिंसा वे उस अच्युत स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करते हैं, जिसे प्राप्त करने न केवल भारतीय मूल के धर्मों में अपितु भारतीयेतर यहूदी, के पश्चात् शोक नहीं रहता। धम्मपद में अन्यत्र कहा गया है- ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी अहिंसा के स्वर मुखर हुए हैं। यहूदी .. . विद्वत खण्ड/३० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खैर! लड़कियों की शिक्षा का प्रतिशत जो चाहे रहा हो, उनकी और अंग्रेजी पर उनकी पकड़ से बेहद प्रभावित हैं। मेलों के स्थिति निश्चित रूप से परिवर्तित है। वे लड़कों के साथ कदम-से- आयोजकों का मानना है कि देश की प्रतिभाओं पर आरक्षण की कदम मिलाकर शिक्षित हो रही हैं और कहीं-कहीं तो उन्हें पीछे पड़ती मार ने उन्हें विदेशों की ओर भागने के लिए मजबूर किया छोड़कर आगे निकल रही हैं। उनमें आत्मबोध का विकास हुआ है। है। वहाँ छात्र-छात्राओं को सब्ज़बाग नहीं दिखाये जाते बल्कि प्रशिक्षित नारी ने व्यावसायिक योग्यताएँ अर्जित की हैं। उसने रोजगारोन्मुख शिक्षा प्रदान की जाती है। वैश्वीकरण के दौर में आर्थिक स्वतन्त्रता का सुख भोगा है। उसमें निर्णय लेने का साहस प्रतिभा-पलायन का रोना बेमानी है। पैदा हुआ है। आत्मरक्षा के लिए जूडो-कराटे के शिक्षण ने कम्प्यूटर के उदय ने शिक्षा के क्षेत्र में हलचल मचा दी है। इस निपुणतापूर्वक आक्रामक होने के तेवर भी पैदा किये हैं। क्रांतिकारी घटना ने संपूर्ण विश्व को एक ग्राम में तब्दील कर दिया सशक्तिकरण के दौर में संतुलित, दूरदर्शी एवं विवेकसम्पन्न बोध ही है। समय की रफ्तार के साथ चलने के लिए 'सरवाइवल ऑफ द नारी-छवि को गरिमा प्रदान करेगा एवं शिक्षा के नये प्रतिमान फास्टेस्ट' की नीति ने चाहे-अनचाहे कम्प्यूटर-शिक्षण को अनिवार्य स्थापित करने में सशक्त भूमिका निभायेगा। बना दिया है। नेटवर्क के प्रवेश ने शिक्षण-प्रशिक्षण की नई प्रणालियाँ शिष्टाचार में परिणत होते भ्रष्टाचार, बाजारवाद और आरक्षण के ईजाद की हैं। यह सच है कि कम्प्यूटर घर बैठे अल्प समय और भँवर में फँसा विद्यार्थी दिग्भ्रमित है। राजनीति में उसका इस्तेमाल अल्प श्रम के माध्यम से असीम ज्ञान उपलब्ध करवा सकता है, किया जा रहा है, उसे भागीदार नहीं बनाया जा रहा। वह डरा-डरा, पर, इसके लिए मशीन के सामने बैठने की मानसिकता, व्यवस्था सहमा-सहमा है, कभी एक दिशा में दौड़ रहा है तो कभी दूसरी और स्थान की अनुकूलता की कवायद से गुजरना पड़ता है। सोयेदिशा में। एक के बाद एक प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं में बैठता, चारों बैठे- किसी भी स्थिति में पुस्तक की उपलब्धता और सुविधा का तरफ हाथ-पाँव मारता अपने लिए स्थान सुरक्षित करना चाहता है। सुख अलग ही होता है। मनुष्य और मनुष्य के बीच कहे-अनकहे दो-तीन तरह के पाठ्यक्रमों (कोर्सेज़) का बोझ लेकर चलने के जो संवाद होता है वह मनुष्य और यंत्र के बीच संभव नहीं। इसी कारण एक के प्रति भी पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाता एवं संदर्भ में मैं रमशे दवे का कथन उद्धृत करना चाहूँगी- "स्लेट चाहे परीक्षाफल मनोनुकूल नहीं हो पाता। कोचिंग सेंटर एवं स्कूल- कम्प्यूटर के परदे में बदल जाए, किताबें इन्टरनेट और वेबसाइटों कॉलेज की दुहरी मार झेलते हुए विद्यार्थी की मानसिकता रुग्ण हो का रूप धारण कर लें और शिक्षक चाहे दूरदर्शन या प्रौद्योगिकी जाती है। कभी वह आक्रामक हो उठता है तो कभी दयनीय। कभी संसाधनों के एंकर्स में बदल जाएँ और मशीन, मशीन की पराकाष्ठा वह शिक्षक के अनुपस्थित होने पर कक्षाएँ न होने की शिकायत भले हो जाए, मगर द्रष्टा नहीं हो सकती। इसलिए मनुष्य की भूमिका करता है तो कभी शिक्षक से गुहार लगाता है कि बिना पढ़ाये ही दृष्टि और द्रष्टा की भूमिका है, विचार और ज्ञान की भूमिका है। छोड़ दिया जाये। कभी पाठ्यपुस्तक न लाने पर विद्यार्थियों का ढीठ इसलिए आशा की जा सकती है कि चाहे शिक्षा मनुष्य का भविष्य बने रहना और कभी किसी भी गल्ती पर लज्जित होने के बजाय हो या न हो, मनुष्य शिक्षा का भविष्य अवश्य होगा ("इक्कीसवीं पूरी कक्षा का ठहाके लगाना - यह आम दृश्य है। न जाने विद्यार्थी शती में शिक्षा का भविष्य"-सितम्बर २००१, वागर्थ)।" स्वयं पर हँसते हैं या शिक्षक पर। और कभी किसी शिक्षिका को शिक्षा बहुआयामी प्रक्रिया है। इसमें ज्ञान के साथ श्रम एवं देखकर 'लाल छड़ी मैदान खड़ी.....', 'ओ मनचली कहाँ शारीरिक स्वास्थ्य के साथ नैतिक उन्नयन का समन्वय आवश्यक है। चली.....' जैसे फिल्मी गीतों की कड़ियों के माध्यम से फिकरे जानकारी या सूचनात्मक ज्ञान को ही शिक्षा का पर्याय न समझकर, कसते हुए वे अपने दुस्साहसी व्यक्तित्व का आतंक जमाते देखे जीवन के लिए, जीवन के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। जाते हैं। उच्च शिक्षा के बावजूद भी बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह क्या ये संदर्भ फिर गाँधी की ओर मुड़ने का संकेत नहीं देते? बाये खड़ी रहती है और बहुत बार आतंकवाद की राह पर ले वृन्दावन गार्डेन्स चलती है। किसी अखबार में एक खबर छपी थी कि भारतीय छात्रों ९८, क्रिस्टोफर रोड, कोलकाता-७०० ०४६ को लुभाने के लिये ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों ने हाल ही में दिल्ली में मेले आयोजित किये हैं। इन मेलों का उद्देश्य है कि ब्रिटेन की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा और उसकी विविधता को भारतीय छात्रा के सामने रखना। ब्रिटेन के विश्वविद्यालय भारतीय छात्रों के मेहनती स्वभाव शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ महेन्द्र भानावत राजधानियों में बैठकर सरकार और गैर सरकारी उच्च संस्थाओं के लिए परियोजनाएं तैयार करते समय उच्च पदस्थ अधिकारी सर्व सामान्य तक अपनी बात पहुंचाने के जो स्पप्न संजोते हैं वे सर्वप्रथम पारम्परिक लोकमाध्यमों पर ही दृष्टि निक्षेप करते हैं, क्योंकि शहरी और अभिजात्य अथवा मध्यवर्गीय परिवारों तक तो आधुनिक माध्यमों से बात पहुंच जाती है किन्तु आधारभूत सुविधाओं के अभाव में जीवन जीने वाले लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हर क्षेत्र के अपने अपने आंचलिक लोक माध्यमों का सहारा लेना पड़ता है। . लोक माध्यमों का वर्गीकरण यूं तो पहले के हर क्षेत्र में अपने अपने लोक माध्यम है जिनके साथ जहां आंचलिक परम्परा जुड़ी होती है वहीं आंचलिक भाषा, अंचल जन्य उत्पादों से सजे मढ़े वाद्य होते हैं और फिर वे उस अंचल के लोक जीवन की अपनी पसन्द भी होते हैं तथापि उनका मूल स्वरूप या मूल लक्ष्य एक ही होता है। लक्ष्य और उद्देश्य के अनुसार पारम्परिक लोकमाध्यमों के तीन स्वरूप है - लोक माध्यम : १) सूचनात्मक जनशिक्षण और चुनौतियाँ - २) शिक्षात्मक ३) अनुरंजनात्मक भारत परम्पराओं का देश है और यहां की परम्पराएं लोक माध्यमों के प्रत्येक रूपानुरूप के साथ चाहे वे मनुष्य के विवेक के उद्भव अथवा सभ्यता के आदिकाल से रामलीला हो. रासलीला हो. माच. तमाशा. गवरी. जुड़ी हुई हैं। यहां के समाज की पहचान आज भी चविड्डनाटकम्, भवाई, जात्रा, ख्याल, यक्षगान, कठपुतली, परम्पराधर्मी समाज के रूप में है। लोक ने जिसे अपनी भगत, तेरुकुत्तु, रमखेलिया, गोंधल, भागवतमेल, विदेशिया, परिपाटी कहा, शास्त्रों ने उसे अपने विशिष्ट सम्प्रदायों के मुटियाट्टम, करियाला, अंकिया, नौटंकी, कुरवंजि, स्वांग साथ जोड़ते हुए मर्यादा की संज्ञा से अभिहित किया। स्वदा भांडपथर हो अथवा लोक माध्यमों का और कोई रूप लोक परम्परा के संवाहक के रूप में लोक की ही हो, उनके साथ सूचना शिक्षा और अनुरंजन उद्देश्यों का पारम्परिक विधियां रही हैं जिन्हें लोक माध्यमों के रूप में निहितार्थ व्याप्त मिलता है। देखा जा सकता है। आज लोक माध्यम चाहे जिस नवीकृत ये पारम्परिक लोकमाध्यम एक प्रकार से किसी अंचल रूप में हमारे सामने हो लेकिन पारम्परिक लोक माध्यम की रसवंती कलाओं का माधुर्य लिए होते हैं। ये कहीं समूह उनके मूलाधार रहे हैं। लोक जीवन इन माध्यमों से और समुन्नत मिलते हैं तो कहीं हास्यभाव भी इनमें देखा साम्प्रदायिक सम्पर्क ही नहीं, सामुदायिक संवाद और जाता जाता है। ये माध्यम लोक की संजीवनी हैं। कई बार लोक नो की जीतती है। ना, सामुदायिक सह-शिक्षण भी प्राप्त करता है। की यह धरोहर लोक को पुनर्जीवित करती है तो कई बार लोक ने इन माध्यमों को अनुरंजनपरक आवरण देकर लोक इन्हें श्रीहीन होने से बचाता है। उन्हें चिरस्थायी बना दिया है। यद्यपि आज ये माध्यम लोक के ये माध्यम कहीं आल्हादक होते हैं तो कहीं आधनिकता का संकट झेल रहे हैं लेकिन देहात में अब भी अनाल्हादक भी किन्तु ये शास्त्रीय अनुष्ठातिक जटिल चक्रों अपनी विरासत को महत्त्ववान बनाये हुए हैं। देहातवासी आज से अलग-अलग अपनी लोक पगडण्डी पर ही अनवरत नजर की उपग्रहीय संचार और सम्प्रेषण प्रणाली से अनभिज्ञ हैं। आते हैं। इन माध्यमों की कछ विशेषताएं भी हैं - विद्वत् खण्ड/३६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १) ये लोकभाषा पर आधारित होते हैं। २) लोक की अपनी समझ और स्तर के समानान्तर चलते हैं। (३) लोकोक्तियों के सहारे ये अपना विकास करते हैं। और कई बार सूत्र शैली में भी अपनी यात्रा करते हैं। ४) लोग संग्रह या लोकराधना इनका प्राणिक आधारित हैं। भारत के प्रमुख पारम्परिक लोग माध्यम चाहे वे अभिनेय, प्रदर्शनात्मक या गेय अथवा कथनात्मक हों, मुख्य रूप से निम्न हैं १) लोककथा २) लोकनाटय ३) लोकनृत्य ४) लोकगीत लोककथा लोककथा वह है जो परम्परा से चली आई है। वह तथ्यात्मक भी हो सकती है और कथ्यात्मक भी। यूं तो आदिम युग से मानव ने अपनी अनुभूतियों को कथा के रूप में अथवा रूपक बांधकर समझाने का प्रयास किया है। शास्त्रों में ऐसी कथाओं के कई रूपक मिलते भी हैं किन्तु शास्त्रों में भी बारम्बार लोक की महिमा कर अपने से अधिक महत्त्व लोक को दिया है और वहां श्रुत परम्परा अथवा पुरोवाक्य के रूप में इतिहास पुराण की युक्ति का मिलना लोककथा परम्परा की समृद्धि को ही दर्शाता है। इस प्रकार कथाभिव्यक्ति तीन रूपों में नजर आती है। १) कथा रूपकात्मक २) पौराणिक ३) लोककथात्मक अथवा लोककंठ पर जीवंतएति । भारत में लोककथाएं मुख्य रूप से धार्मिक विकास, व्रत अनुष्ठान, प्रणबद्धता और भय और कौतुक के साथ-साथ रहस्य रोमांच की स्मरणीयता के साथ रसावयवों को लेकर काल के प्रवाह में जीवंत रही हैं। ये ही कथाएं पारम्परिक मिथक, अवदान, चरित्र वर्णन, संस्कारारम्भ, पेड़ प्रकृति वीराख्यान आदि के रूप में भी अपना आकार दर्शाती हैं। यहां पारम्परिक कथाकार रहे हैं जिन्होंने अपनी निराली परम्परा को जीवन दिया है। राजस्थान में कथक्कड़ों या बातपोशी की परम्परा देखने को मिलती है। यहां राणीगंगा, राव, भाट, चारण सहित रावल, मोतीसर, बड़वा, ढादी, शिक्षा - एक यशस्वी दशक नगारची, सरगड़ा, वीरम आदि समुदायों में जजमानों को कहानी द्वारा रिझाकर उनसे यथेष्ट नेग प्राप्त करने की परम्परा रही है। ये कहानियां कौतुक अभिवर्धन करने वाली तथा इतनी सजीव और जानदार होती हैं कि रसिक को सदैव अधीर बनाये रखती हैं। " यहां कथा को केणी, वार्ता बात आदि भी कहा जाता है। यहां कथाओं के कहने के चार रूप देखने को मिलते हैं १) कथास्थल २) कथावाचन ३) कथा गायक • ४) कथा मर्तन | कथाओं के साथ हुंकारे की भी अपनी महिमा है। लोक माध्यमों में हुंकारा अथवा सजीवता की सहमति वह रूप है जो तत्काल सम्प्रेषणीयता की प्रतिक्रिया और कथ्य-तथ्य की पुष्टि का प्रतीक हैं। यह किसी भी आधुनिक माध्यमों में संभव नहीं है फिर हंकारे की ये परम्पराएं इतनी सजीव और जीवन से नैकट्य लिए होती हैं कि उनमें तात्कालिक समझ और स्वीकारोक्ति प्रस्तोताओं के लिए पृष्ठपोषण का कार्य भी करती हैं। लोकथाओं के साथ ही लोकगाथाओं का भी अपना महत्त्व है जो एक प्रकार से लोक का प्रबन्ध काव्य है। इनमें भी लोकमानसीय प्रवृत्तियां, लोक के आदर्श का निरूपण स्वाभाविक प्रवाह तो होता ही है साथ ही साथ चरित्र नायक की जीवन कथा, गेयता में परम्परित होती हैं। ये एक प्रकार से जातीय संस्कृति का अनुभव चित्र प्रस्तुत करती हैं। पवाड़ा भी इसी का एक रूप है। 1 लोकनाट्य लोकजीवन में जन्म लेकर लोक को शिक्षित प्रशिक्षित करने, लोकोद्वार अथवा लोक के लिए आदर्शपरक कार्य करने वाले नायकों के चरित्र का कथात्मक चित्रण तो होता ही है, उसका मंचन भी होता आया है। लोक की यह विशिष्ट थाती है कि उसमें पौराणिक पात्रों से लेकर विभिन्न युगों में जन्म लेकर अपने चरित्रों से अपने श्रेष्ठ उपलब्धिमूलक आदर्शपरक कार्यों से अपनी अमिट छाप कायम करनेवाले चरित्रों की नाट्यपत्र प्रस्तुतियां होती आई हैं। लोक जीवन उन्हें अपने ढंग से मंचित करता है। लोक का अपना मंच है लोक के अपने ही कलाकार उसको मंचित करते हैं। इन लोकनाट्यों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दर्शकों में से ही कई बार पात्र उभरकर आते हैं और अपने अनुभव को दर्शा जाते हैं। विद्वत् खण्ड/ ३७ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये लोकनाट्य सर्वसाधारण के जीवन से अपना सम्बन्ध सम्प्रेषण माध्यम के रूप में मानव शरीर के उपयोग की रखते हैं और मनोरंजन के साथ ही जनशिक्षण का कार्य भी प्राचीनतम कला भी। इनकी प्रस्तुति में सामाजिक जीवन की करते हैं। लोक के नाटकों की यह सबसे बड़ी विशेषता है महत्त्वपूर्ण घटनाएं अथवा महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियां उजागर कि वे दुर्गुणों पर सद्गुणों की विजय की अभिव्यक्ति होते होती हैं। भावनाओं की अभिव्यक्ति और भावोद्रेक के लिए हैं और प्रायः स्थापन इसी फलिर्ता के साथ होता है। मानव जीवन को नृत्य एक नैसर्गिक माध्यम है। यह किसी एक लोकनाटकों की भी अपनी लोकभाषा है। इनमें रूढियां, व्यक्ति की उपज नहीं बल्कि समष्टि की संरचना है। सदियों पूर्व लोकाचार, परिपाटियां, कथा-आख्यान के साथ-साथ वार्ता मनुष्य अपने आनन्द मंगल के कारण अंग भंगिमाओं का जो और विश्वास भी संवाद रूप में उपस्थित होते हैं। लोक के अनियोजित प्रदर्शन करता रहा, वही धीरे-धीरे आयोजन नाटकों की यह भी एक विशिष्टता है कि उनमें बनाव और नियोजन के साथ लोकनृत्यों के रूप में सामने आया। श्रृंगार के मुकाबले वागाभिव्यक्ति की वरीयता हासिल होती लोक नृत्यों के कई रूप हैं - है। लोकनाट्यों के कलाकार वाग्विदग्धता तथा तात्कालिक १) स्वान्तसुखाय लोकनृत्य संवाद सर्जन एवं बारस्खलन में दक्ष होते हैं और यह भी अति २) आनुष्ठानिक लोकनृत्य वैशिष्ट्य है कि वे कहीं प्रशिक्षण प्राप्त किये नहीं होते हैं। ३) श्रम साध्य लोकनृत्य आज के नाट्यकर्मी जहां एक-एक संवाद को रटने अथवा ४) सामाजिक लोकनृत्य डबिंग का सहारा लेते हैं, वहीं लोकजीवन के कलाकार ५) मनोरंजनात्मक लोकनृत्य स्वयंमेव सिद्ध होते हैं। इन रूपों के बावजूद लोकनृत्यों के लिए यह कहा जा राजस्थान में लोकनाट्यों के मूलतः दो रूप होते हैं - सकता है कि उनमें लोकजीवन की परम्परा, उसके संस्कार १) लघु प्रहसन, जिसमें रम्मत, भवाई, रावल, रासधारी, तथा जनता का आत्मिक विश्वास निहित होता है जिसे बाद हेला, स्वांग, महरण तथा बहुरूपियों के संवादी ख्याल । में आध्यात्मिक विश्वास का नाम दे दिया गया। ये लोकनृत्य लिए जा सकते हैं। सामूहिक अभिव्यक्ति होते हैं और सर्वगम्य तथा सर्व २) गीतिनाट्य, जिसमें वैवाहिक अवसरों पर किये जाने सुलभता योग्य सहजता लिए होते हैं। एक प्रकार से ये वाले टूटियां के ख्याल, गवरी के गीताधारित खेल, माच लोकनृत्य सामूहिक अनुरंजन के साथ-साथ लोकशिक्षण के के खेल व अन्य ख्याल शामिल हैं। भी सशक्त माध्यम हैं। यहां तुर्राकलंगी के ख्याल, कुचामणी ख्याल, शेखावाटी राजस्थान में घूमर, घाटाबनाड़ा, पणिहारी, तेराताली, के ख्याल, मेवाड़ी ख्याल, नौटंकी के ख्याल, कलाबक्षी गणगौर, मोरबंद, कांगसिया जैसे नृत्य गुजरात के भवाई, ख्याल, किशनगढ़ी ख्याल, चिड़ावी ख्याल, कठपुतली ख्याल, डांडिया, गरबारास, कश्मीर के रुफ, वाट्टल, घूमाल, बांड, हत्थरसी ख्याल, गंधर्वो के ख्याल, नागौरी ख्याल, कड़ा ख्याल पाथेर व मुखौटा नृत्य, पंजाब के भांगड़ा, गिद्दा, लूद्दी झूमर एवं झाड़शाही ख्यालों की अपनी विशिष्ट विरासत रही है। और चीना, हरियाणा के डंडा, छठी, हिमाचल प्रदेश के नाटी, इसी प्रकार यहां लीलाओं की भी अपनी सुदीर्घ परम्परा घोड़ायी, डांगी, नाट, फुरेही व फराटी, किन्नौर के बोयांग्चू, देखने को मिलती है। सम्भवत: ये लीलाएं धार्मिक अथवा गद्दी, उत्तरप्रदेश के चांचरी, रसिया, चरकुला, रास, रासक, भक्ति आन्दोलनों की प्रेरणाएं लिए रही हैं क्योंकि इनके मूल झूला, फेरा, डांगरिया आसन, रणासो, उड़ीसा के डंडानाट, में देव अथवा भगवन्त लीलाएं मुख्य हैं। यहां - रामलीला, लागुड़ा, केलाकेलूनी, घंटा पटुआ, छाऊ व घूमरा, पश्चिमी रासलीला, समकालिक लीला, नरसिंह लीला, समया, बंगाल के गंभीरा, रायबेश, ढाली, जात्रा, पालागान, असम के रासधारी, गरासियों की गौर लीला, भीलों की शिवलीला बीहू, दुलिया, भंवरिया व खुलिया, मणिपुर के लाइहारोबा, अथवा गवरी आदि। माइबा, रास, संकीर्तन च चौलम जैसे कई नृत्य यह बताते लोकनृत्य हैं कि लोक जीवन इन नृत्यों को एक सशक्त माध्यम के रूप लोकनृत्य लोक माध्यमों की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण है। में रंजन और शिक्षण का आधार बनाये हए हैं। ये लोक जीवन के उल्लास की सशक्त अभिव्यक्ति है और विद्वत् खण्ड/३८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के धर्मग्रन्थ Od Testament में पैगम्बर मोजेज ने जिन करो। जो तुम्हें शाप दे उसे वरदान दो, जो तुम्हारा बुरा करे, उसका दस धर्मादेशों का उल्लेख किया है, उनमें छठा धर्मादेश है- भला करो।" ईसा के इन कथनों से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने "Thou shall not kill' अर्थात् 'तुम किसी को मत मारो'। यहूदी धर्म की अपेक्षा भी अहिंसा पर अधिक बल दिया है और वस्तुतः यहूदी धर्म में न केवल हिंसा करने का निषेध किया गया, उसके निषेधात्मक पक्ष कि 'हत्या मत करो' की अपेक्षा 'करुणा, . अपितु प्रेम, सेवा और परोपकार जैसे अहिंसा के विधायक पक्षों पर प्रेम, सेवा' आदि विधायक पक्षों को अधिक महत्व दिया है। भी बल दिया गया है। इस्लाम धर्म में कुरान के प्रारम्भ में ईश्वर (खुदा) के गुणों का यहूदी धर्म के पश्चात् ईसाई धर्म का क्रम आता है। इस धर्म उल्लेख करते हुए उसे उदार और दयावान (रहमानुर्रहीम) कहा गया के प्रस्तोता हज़रत ईसा माने जाते हैं। यह सत्य है कि ईसामसीह है। उसमें बिना किसी उचित कारण के किसी को मारने का निषेध ने ओल्ड टेस्टामेन्ट में वर्णित दस धर्मादेशों को स्वीकार किया, किया गया है और जो ऐसा करता है वह ईश्वरीय नियम के अनुसार किन्तु मात्र इतना ही नहीं, उनकी व्याख्या में उन्होंने अहिंसा की प्राणदण्ड का भागी बनता है। मात्र यही नहीं, उसमें पशुओं को कम अवधारणा को अधिक व्यापक बनाया है। वे कहते हैं- "पहले भोजन देना, उन पर क्षमता से अधिक बोझ लादना, सवारी करना ऐसा कहा गया है कि किसी की हत्या मत करो..... लेकिन मैं आदि का भी निषेध किया गया है, यहाँ तक कि हरे पेड़ों के काटने कहता हूँ कि बिना किसी कारण अपने भाई से नाराज मत होओ।" की भी सख्त मनाही की गई है। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है इससे भी एक कदम और आगे बढ़कर वे कहते हैं कि "यदि कोई कि इस्लाम धर्म में भी अहिंसा की भावना को स्थान मिला है। तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मार देता है, तो दूसरा गाल भी उसके इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राय: विश्व के सभी प्रमुख धर्मों सामने कर दो।" पुराना धमदिश कहता है- “पड़ोसी से प्यार करो में अहिंसा की अवधारणा उपस्थित है। और शत्रु से घृणा करो", मैं तुमसे कहता हूँ कि “शत्रु से भी प्यार शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में 1 डॉ० किरण सिपानी विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, चरित्र एवं उनके मानसिक-आध्यात्मिक विकास को भी परिधि में समेटना है। आध्यात्मिक और नैतिक विकास से ही जीवन मूल्यों की रक्षा हो सकती है। अर्थकरी विद्या आजीविका से जोड़ती है, कर्मक्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित करने के अवसर देती है। आज की शिक्षा में परमार्थकरी रूप आँख की ओट हो गया है, अर्थकरी उद्देश्य हावी हो गया है। संपूर्ण विश्व अर्थ और शक्ति की क्रीड़ा में आनंदमग्न है। हर क्षेत्र चाहे वह शिक्षा का ही क्यों न हो, 'पावर' और 'मनी' से जुड़ गया है। आजीविका से जुड़े पाठ्यक्रमों (जॉब ओरिएण्टेड कोर्सेज़) की धूम मची है। शिक्षा के परम्परागत विषय साहित्य, दर्शन, इतिहास एवं भाषाशास्त्र आदिद बाजार की परिभाषा पर खोटे उतर रहे हैं। शिक्षा के प्रतिमान बदल गये हैं। पहले जहाँ श्रेष्ठता कसौटी थी, आज पैसे न आसन खिसका लिया है। प्रतिभासम्पन्न को अंगूठा दिखाते हुए कम अंक पाने वाला धनाढ्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा के अवसरों को अपने लिए सुलभ बना लेता है और अब तो बाँहें फैलाकर आमंत्रण देते बाजारवाद ने सबको पीछे धकेल दिया है। अपने ही घर में क्रेडिट पर पढ़िए, प्रतिभा को बंधक रखिये, कैरियर बनाइये और उधार चुकाइये। मीठी आवाज में पुकार-पुकार कर अपने प्रलोभनों में फाँसते नित नये इन्स्टीच्यूट गली-कूचों में उग रहे हैं। क्या मजाल तेजी से बदलता विश्व-परिदृश्य एक ओर तो संभावनाओं के कि आप सोने और पीतल में फर्क कर पायें। अच्छे से अच्छे. बडे नित नये द्वार खोल रहा है और दूसरी ओर नये विश्वविद्यालयों एवं से बड़े स्कूल-कॉलेज में चेक बुक लेकर पीछे के दरवाजे से घुसने शिक्षण संस्थानों के माध्यम से व्यावसायिक, तकनीकी, इंजीनियरी, की सहूलियत हो गयी है। बड़े कदों के स्कूल-कॉलेज-इन्स्टीच्यूट में कृषि एवं विज्ञान संबंधी नवीन पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की गयी है। पढ़नेवालों की डिग्रियों की कीमत कई गुना बढ़ जाती है और खुले विद्यालयों के तहत मुख्यधारा से कटे एवं समस्याग्रस्त विवाह-बाजार में डिमांड भी ऊँची हो जाती है। मान्यता प्राप्त विद्यार्थियों को शिक्षा की सुविधाएँ दी जा रही हैं। नारी शिक्षा एवं विद्यालयों से सांठ-गांठ कर कई निजी (प्राइवेट) विद्यालय लाखों प्रौढ़ शिक्षा से संबंधित उल्लेखनीय प्रयास किये गये हैं। विदेशों में कमा रहे हैं। शिक्षा तंत्र में पनपती इस माफिया संस्कृति के षड़यन्त्रों अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ सुलभ हुई हैं। परन्तु इतने विकास के के कारण परीक्षा न दे पानेवाले विद्यार्थियों की खबरों से अखबार बावजूद शिक्षा सामाजिक, नैतिक, मानवीय एवं आध्यात्मिक के पन्ने रंग रहते हैं। सरोकारों से दूर होती जा रही है। विद्यार्थियों में अकेलापन, कुंठा, परीक्षा को अनिवार्य बुराई मानते हुए भी शिक्षाविद् इसका कोई असुरक्षा एवं भय की भावनाएँ घर कर रही हैं। हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ विकल्प नहीं खोज पाये हैं। परीक्षार्थी बनने में ही विद्यार्थी को अपना रही है और बुरी आदतें पनप रही हैं। जीवन अधिक बोझिल, मोक्ष नजर आ रहा है। परीक्षोपयोगी प्रश्नों के 'नोट्स' ही अध्ययन अधिक उच्छंखल और जटिल हो गया है। गुणवत्ता का स्थान अध्यापन का काम्य हो उठे हैं। जो शिक्षक 'नोट्स' नहीं दे सकता . विस्तार ने ले लिया है। पूरा विश्व शिक्षा की समस्याओं और वह पुराणपंथी (आउटडेटेड) मान लिया जाता है। ऊँची फीस समाधानों में विचारमग्न है। लेनेवाले ट्यूशनी शिक्षक पूजनीय हैं। एक ही ढाँचे में ढ़ले उत्तर सभी शिक्षाविदों की मान्यता है कि 'सा विद्या या विमुक्तये'- परीक्षक के लिए काफी सुविधाजनक होते हैं-एक जैसा माल, एक विद्या व्यक्ति को सीमाओं से मुक्त करती है। विद्या की परमार्थकरी जैसी जाँच! बिना फीस लिए पढ़ाने वाला शिक्षक मन्दबुद्धि, दयापात्र एवं अर्थकरी रूप उसके विभिन्न लक्ष्यों को स्पष्ट करते हैं। एवं त्याज्य होता है। फीस लिए बिना भला कहीं बुद्धि का द्वार परमार्थकरी विद्या का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त कराना ही नहीं बल्कि खुलता है? परीक्षा और अध्ययन-अध्यापन का यह मेल कितना विद्वत खण्ड/३२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थपूर्ण होता है - इसी संदर्भ में बाबा तुलसीदास की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -- "गुरु सिस अंध-बधिर का लेखा एक न सुनइ एक नहिं देखा ।" नोट्स जीरोक्स करवाने के चलन ने विद्यार्थियों का अपकार ही किया है। जीरोक्स के माध्यम से अपना समय बचाकर कुछ ही क्षणों में नोट्स की प्रतिलिपियाँ (कॉपीज़) - ज्ञान के पन्ने संचित कर विद्यार्थी बहुत प्रसन्न होते हैं। पहले अपने हाथ से उतारने के कारण विद्यार्थियों को विषय-वस्तु की एक झलक मिल जाती थी । लिखते रहने के अभ्यास के कारण उनके लिखने की गति भी तीव्र हो जाती थी। अक्षरों को सुडौल बनाने के अवसर भी उन्हें सहज सुलभ हो जाते थे, वर्तनी की अशुद्धियाँ भी कम होती थीं। इधर वर्तनी की अशुद्धियों की बाढ़ आ गयी है, चाहे लिखनेवाला ऑनर्स का विद्यार्थी ही क्यों न हो। लिखने की गति धीमी होने के कारण अक्सर विद्यार्थी प्रश्नपत्र के सम्पूर्ण उत्तर नहीं लिख पाते । अनियमित परीक्षाएँ, वर्ष- दर वर्ष मनमाने परीक्षकों का चुनाव, मनचाहे स्कूल-कॉलेजों की उत्तर पुस्तिकाओं के प्रति पक्षपात आदि तरह-तरह के आरोपों से घिरी परीक्षा-प्रणाली आडम्बर बनकर रह गयी है। अधिकांश परीक्षा-कक्षों में विद्यार्थियों को उन्मुक्त साँस लेने, हाथ-पांव-गर्दन हिलाने एवं लघुशंका निवारण की बेलगाम लम्बी छूट सिद्ध करती है कि स्वतंत्रता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। परीक्षा स्थलों में सरस्वती के प्रताप में इतनी वृद्धि होती है कि शौचालय तक विद्यामंदिरों में परिणत हो जाते हैं और चोर दरवाजे से प्रवेश कर लक्ष्मी भी विराजने लगती है। आलम यह है कि किसी-किसी परीक्षा-कक्ष में परीक्षार्थियों की आँखों से बरसते तीरों को फौलादी सीने पर झेलता निरीक्षक रणभूमि में डटा रहता है। उसकी शहादत का आखिर क्या मोल है ? जो डिग्रियों के रास्ते में आयेगा, वह चूर-चूर हो जायेगा ! धीरे-धीरे सुस्ताता, कछुआ चाल से चलता परीक्षा तंत्र लम्बे अंतराल के पश्चात् परीक्षकों तक पहुँचता है। कुछ को इस दायित्व से मुक्त होने की खुली छूट है तो कुछं पर अतिरिक्त बोझ लाद दिया जाता है। कभी परीक्षकों के निकम्मेपन के प्रशस्तिपत्र पढ़े जाते हैं तो कभी आनन-फानन उनसे माँग की जाती है कि इतनी पुस्तिकाएँ इतने दिनों में जाँच कर दो-गोया परीक्षक हाड़-माँस का पुतला न होकर मशीन हो । स्विच दबाया और नियत समय में फैक्ट्री में इतना प्रोडक्शन तैयार ! आजकल अधिकारीगणों की जागरूकता के चर्चे हैं। परीक्षकों की जन्मकुंडलियाँ पढ़ी जा रही हैं और आचार-संहिताएँ घोषित की जा रही हैं। आशा की जानी चाहिये कि इस समुद्र मंथन के बेहतर परिणाम होंगे। शिक्षा - एक यशस्वी दशक घरों परिवारों में परीक्षा उन्माद का रूप धारण कर चुकीं है। बच्चा और सारा परिवार एक तनाव की स्थिति में जीते हैं। त्योहारों पर पहरे बैठा दिये जाते हैं। माँ-बाप, घर-दफ्तर के जरूरी कामों को तिलांजलि दे परीक्षा-स्थलों पर योगासन की मुद्रा में बैठे-खड़े रहते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा भी तो गया है- " एकै साधै सब सधै ।" बाह्य परीक्षा के साथ आंतरिक मूल्यांकन (इन्टरनल एसेसमेन्ट) एवं वार्षिक परीक्षा के साथ सतत मूल्यांकन के प्रयोग भी शुरू किये गये हैं। आंतरिक मूल्यांकन के लिए स्कूलों में हर विषय में एक 'प्रोजेक्ट' बनाने का प्रावधान किया गया है। इन प्रोजेक्ट फाइलों के लिये सामग्री जुटाने एवं तैयार करने में बच्चों साथ माँ-बाप भी जुट जाते हैं और कभी-कभी तो विषय के 'प्रोफेशनल' को मोटी रकम देकर फाइलें तैयार करवायी जाती हैं। परिणामस्वरूप ऐसे प्रयास अपने उद्देश्यों तक पहुँचने में असमर्थ रहते हैं, विद्यार्थी यथार्थ ज्ञान ( प्रैक्टिकल नॉलेज) को जीवन में उतार नहीं पाते। शिक्षक की छवि मैली हुई है । कर्त्तव्य पर अधिकार हावी हो गया है । राजनीति और व्यक्तिगत बैर भाव से संचालित होनेवाले शिक्षक विद्यार्थियों के कल्याण को भूल कर अपनी गोटियाँ बैठाने में मशगुल रहते हैं। उनका व्यवहार विद्यार्थियों की मौलिकता और रचनात्मकता को कुंठित कर देता है। कुछ शिक्षक विद्यार्थियों से दूरी बनाये रखना श्रेयस्कर समझते हैं। उनसे विद्यार्थी इतने आतंकित रहते हैं कि न्यायपूर्ण बात कहने में भी हकलाते हैं । जहाँ संवादहीनता होती है, वहाँ दूरियाँ बढ़ती हैं। सीधा-सच्चा-आत्मीय संवाद समस्याओं को सुलझाने में कारगर साबित होता है। नये वेतनमान के साथ शिक्षकों को अनेक नियमों में बाँध दिया गया है। यह ठीक है कि एक मछली तालाब को गंदा करती है, परन्तु शिक्षकों पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाना उनकी सृजनात्मकता को बंदी बनाना है। मस्तिष्क की उर्वरता - ऊर्जा को प्रशासनिक एवं दफ्तरी कार्यों में खर्च करना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता । पाठ्यक्रमों पर पुनर्विचार के तहत कहीं तो ताजी हवा को प्रवेश मिला है और कहीं नवीनता के बहाने अल्पज्ञतावश जरूरी विषयों को भी बदल दिया गया है। एक ओर संस्कृत अध्ययनअध्यापन की दुर्गति है और दूसरी ओर ज्योतिष विद्या को पढ़ाने के नगाड़े बजाये जा रहे हैं, इतिहास के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है । कभी जरूरी एवं नवीन पुस्तकों की खरीद के समय पुस्तकालयों के लिए धन का रोना रोया जाता है और कभी सरकारी अनुदान के तहत पाठ्यक्रम की परिधि के बाहर अवांछित पुस्तकों की भीड़ के कारण पुस्तकालयों में उपयोगी पुस्तकों के लिए स्थान का अभाव विद्वत खण्ड / ३३ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है। उचित देख-रेख की कमी के कारण न तो शिक्षक और पड़ोस और समाज से काट कर। शुरु से ही उसे एक संकीर्ण घेरे न ही विद्यार्थी पुस्तकालयों का लाभ उठा पाते हैं। में कैद होने का अभ्यास डाल दिया जाता है। थोड़े बड़े होने पर आज़ादी के बाद शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या शिक्षा के बच्चे को होस्टल में भेज कर हम विशिष्ट बना देना चाहते हैं। माध्यम की है। माध्यम का प्रश्न जटिल से जटिलतर होता जा रहा। होस्टली या स्कूली शिक्षा के पश्चात् उच्चतर-शिक्षा के लिये विदेश है। भारतीय भाषाएँ अभिशप्त हैं। अंग्रेजी ने उनके अधिकार छीन यात्रा की योजनाओं में हम तन-मन-धन समर्पित करने के लिये लिये हैं। हिन्दी, मातृभाषा एवं क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की बातें ___ आकुल-व्याकुल रहते हैं। इस पूरी व्यवस्था में क्या महत्व है पिछड़ेपन की निशानी है। उनके माध्यम से चलने वाले विद्यालय या भावनात्मक परिवेश का! कितना सटीक कहा था प्रसाद ने :तो बंद होते जा रहे हैं अथवा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें “किन्तु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही निश्शेष, अंग्रेजी माध्यम की वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ी है। भारतीय छूट कर पीछे गया है रह हृदय का देश।" भाषाओं के माध्यम से शिक्षित हाशिये पर डाल दिये गये हैं। इन इस तंत्र में संस्कारों का कोई स्थान नहीं। इस खतरे को भाषाओं के विद्वानों का गंभीर चिंतन अपने ही देश में दो कौड़ी का महसुसते हुए बच्चों को संस्कारित करने के लिये संस्कार-शिविर साबित हो रहा है, उसका बाजार में कोई मूल्य नहीं। वे शिक्षक ही आयोजित किये जा रहे हैं। इनके महत् उद्देश्य में कोई संदेह नहीं विद्वान समझे जाते हैं जो पग-पग पर अंग्रेजी के उदाहरण देकर है, परन्तु वर्तमान परिवेश में ये मात्र घटना बन कर रह जाते हैं, अपनी धाक जमाते हैं। अंग्रेजी आधुनिकता और प्रतिष्ठा के साथ जीवन में उतर नहीं पाते। पारम्परिक उत्सव और त्योहार हमें जुड़ गयी है। अंग्रेजीदाँ ही नौकरियों के लिये चुने जाते हैं, देशज शिक्षित नहीं कर पा रहे हैं, महज कर्मकाण्ड बनकर रह गये हैं। चरित्रों की कोई कद्र नहीं। इस देशज पीड़ा को निदा फाजली ने दीपावली के ठीक बाद वाले दिन परीक्षा में बैठनेवाला विद्यार्थी क्या बखूबी व्यक्त किया है : तन-मन से त्योहार को जी पाता है? टी०वी० पर त्योहार मना कर "पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है, बच्चों को संस्कारित नहीं किया जा सकता। त्योहारों के अनुकूल अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।" परिवेश का निर्माण होना चाहिये। स्कूल-कॉलेजों की छुट्टियाँ हमारे देश के अतिरिक्त किसी भी स्वाधीन देश का बच्चा भारतीय जीवनशैली को दृष्टिगत रखकर तैयार की जानी चाहिये। विदेशी भाषा या अंग्रेजी भाषा से शिक्षारंभ नहीं करता। जापान जैसा देश के महत्वपूर्ण मुद्दों में शिक्षा को सम्मिलित नहीं किया उन्नत देश भी अपनी भाषा के माध्यम से चरम ऊँचाइयों का स्पर्श जाता। सकल राष्ट्रीय आय का बहुत छोटा सा प्रतिशत (छ: कर पाया है। हमारे देश के उच्चतम शिक्षण संस्थान अंग्रेजी माध्यम प्रतिशत) शिक्षा पर खर्च किया जाता है। अपने दायित्व से मुक्त से अपने विद्यार्थियों को विश्वोन्मुख बनाने में मगन हैं क्योंकि अंग्रेजी होकर सरकार निजी शिक्षण संस्थानों को प्रोत्साहन दे रही है। परन्तु के बिना विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे राष्ट्रीय परिवार की आय में बढ़ोतरी करनेवाले बच्चे को विद्यालय भेज नेताओं ने खुली सम्पूर्ण बहस से हमेशा बचने का प्रयास किया। वोट पाना एक दुष्कर कार्य है। यदि माँ-बाप भेज भी पाये तो छोटे से हिन्दी और प्रांतीय भाषाओं में माँगे और राज्य अंग्रेजी में किया। कमरे में ढूंसे गये पचास-साठ बच्चों को छ:-सात सौ के वेतन पर बुद्धिजीवियों का एक वर्ग अंग्रेजी के माध्यम से लोकतंत्र की लड़ाई नियुक्त शिक्षक/शिक्षिका के हवाले कर देना कितना अमानवीय है। लड़ना चाहता है। लोकतंत्र की लड़ाई लोकभाषा के बिना संभव नहीं भौतिक-शैक्षणिक-मानवीय साधनों के अभाव में ऐसी योजनाएँ है। वर्तमान शासन व्यवस्था की भाषा अंग्रेजी है और राष्ट्रभाषा हिन्दी दिवा-स्वप्न बन कर रह जाती हैं। ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी इस व्यवस्था से बाहर है। इस व्यवस्था के टूटे बिना हिन्दी एवं कोई समझ के बिना शिक्षा के गन्तव्य को पाया नहीं जा सकता। सन् भी प्रादेशिक भाषा सिर उठाकर जी नहीं सकती। भारतीय भाषाओं २००१ को नारी सशक्तिकरण वर्ष की संज्ञा दी गयी। रिपोर्टों के से कटना अपने परिवेश से कटना है, सामाजिक रिश्तों की गरमाहट आधार पर ६ से १४ वर्ष के बच्चों के लिये अनिवार्य शिक्षा के का ठंडे होते जाना है। तहत ३८.५२ प्रतिशत लड़कियाँ ही पाँचवीं कक्षा से ऊपर शिक्षित स्वतंत्र भारत की स्वतन्त्र शिक्षा नीति विकसित नहीं हुई। वह हैं। इस प्रतिशत में कमी का कारण है- लड़कियों पर अतिरिक्त मैकाले के पदचिह्नों का अनुसरण करती हुई नौकरी तक सीमित काम का बोझ एवं समय की कमी। ग्रामीण अभिभावक भयभीत हैं। रही. जीवन से दूर होती गयी। दो-अढाई वर्ष का बच्चा नर्सरी और उनका दृढ़ विश्वास है कि स्कूली लड़कियों पर होनेवाले यौन हमलों केजी शिक्षा-व्यवस्था में भेज दिया जाता है - अपने घर, आस- के विरुद्ध सरकार की ओर से सशक्त कदम नहीं उठाये जाते। विद्वत खण्ड/३४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकगीत संचार लोक व्यवहार का आधार स्तम्भ है। किसी सोच, लोकगीत लोक की धरोहर हैं, किसी व्यक्ति की नहीं। किसी संकल्प और किसी सृजन को औरों तक पहुंचाने या ये केवल शब्दरचना ही नहीं लोक का पूरा शास्त्र लिए होते समष्टिगत करने के प्रयासों में संचार सेतु का कार्य करता हैं। उनमें सामूहिक मंगलेच्छा निहित मिलती है। वे अपने मूल है। प्राचीन काल में संचार को प्रथमतः 'नाद' नाम दिया गया में समूह की संरचना भी है। इनमें शब्द भी समूह का, स्वर और उसकी कल्पना श्रेष्ठ सत्ता या ईश्वरीय रूप में की गई। भी समूह का, ताल, लय, छंद भी समूह का होता है। ये इसके पीछे धार्मिक भाव चाहे जो रहा हो किन्तु मूलत: किसी भी समाज, सभ्यता, संस्कृति के दर्पण, रक्षक व विचारों की संप्रेषणीयता ही थी और उसे येन-केन-प्रकारेण पोषक होते हैं। लोक जीवन की सुखद भावनाओं ओर एक मन या एक हाथ से अनेक मना या अनेक हस्ता करने कमनीय कामनाओं के सहारे उन्हें वाणी का रूप मिलता है। का चिंतन मुख्य रहा। एक प्रकार से लोक की गुंजन में कुछ निश्चित शब्दों का इसी दृष्टिकोण का परिचायक है लोकमाध्यमों के पीछे जमाव और उनके गायन से लोक का हर्षाव इन गीतों का का सोच। शब्द, वाणी, लिपि और कला-उत्पाद से लेकर महत्त्व परिभाषित करते हैं। अभिनय या प्रदर्शन भी इसी के अंग रहे हैं। इस रूप में लोकगीतों के कई रूप हैं। विभिन्न प्रान्तों में अनुष्ठान, आंगिक, वाचिक और कालिक तथा लिखित एवं वस्तुगत बनभट, उनके प्रयोग गायन समय, गायक कलाकार और सर्जित रूप संचार के मूल स्वरूप कहे जा सकते हैं। लोक अन्य विशेषताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्गीकरण हुए हैं माध्यमों में यही अवधारणा निहित मिलती है। लेकिन मूलत: लोकगीत चार श्रेणी के माने जा सकते हैं- लोक माध्यमों में चाहे लोक-कथा हो, लोकनाट्य हो, १) संस्कार सम्बन्धी लोकगीत लोकनृत्य हो, लोकगीत हो अथवा और कोई लोकशिल्प, वे २) सामाजिक लोकगीत कहीं न कहीं एक संकल्प और एक विचार को एक से ३) धार्मिक लोकगीत अनेक तक प्रसारित करने का निहितार्थ लिए होते हैं। ४) मनोविनोद के लोकगीत लोकमाध्यमों के लिए कहा जा सकता है कि वे सामाजिकता लोकगीतों की ही कोटि का एक भेद भजन, हरजस, के विस्तार का पूरा वाङ्मय लिए होते हैं। इन माध्यमों ने प्रभाती, साख-सबद आदि भी हैं। इन लोकगीतों की प्रभावना न केवल परिवार और परिवार के बीच ही बल्कि समाज और अति व्याप्ति जीवन के प्रत्येक छोर पर देखी जा और समाज के बीच सम्बन्धों और संवादों का सिलसिला सकती है। इसीलिए यह मान्यता चली आई है कि बिना गीत शुरू किया तथा विभिन्न चीजों, शिल्पों, विचारों, मान्यताओं के कोई रीत नहीं होती है। भारत में जन्म से लेकर मृत्यु और आज के सोच से मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित तक लोकगीतों की परम्पराबद्ध श्रृंखला को देखा जा सकता संचालित किया। है। सरलता, समरसता, सरसता के साथ मधुरता और एक प्रकार से पारस्परिक लोक माध्यम सर्जन से लेकर लयबद्धता लोकगीतों के वे गुण हैं जिनके कारण वे शीघ्र ही आलोड़न-बिलोड़न और चिंतन तक की अवधारणा अपने मूल कंठस्थ हो जाते हैं। लोक जीवन में ये लोकशिक्षण के में लिए होते हैं। इसीलिए इन्हें संचयी कहा जाता है क्योंकि महत्त्वपूर्ण आधार बने हुए हैं। आधुनिक युग के चिंतकों और ये माध्यम हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित और प्रचारकों ने भी लोकगीतों की शक्ति का लोहा माना है। समाहित किये अपने स्वरूप को सुविधानुसार विकसित एवं आधुनिक माध्यमों की सर्वसाधारण की पहुंच के लिए भी वर्धित करते रहे हैं। आज के विचारों ने इन्हें सांस्कृतिक लोकगीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। धरोहर कह दिया और यही विचार एक हद तक इन्हें स्थगित इस प्रकार भारत के पारम्परिक लोक माध्यम अपना और सीमित करने का हथकण्डा ही कहा जायेगा। स्वरूप और विस्तार बनाये हुए हैं। आधुनिकता की चमक यहां विचार यह भी है कि अति यांत्रिक युग में देहाती में यद्यपि चकाचौंध होकर अपने स्वरूप को खोते जा रहे हैं या लोक माध्यमों को भले ही जंगली, नामसझ या शताब्दियों तथापि इनकी अपनी समृद्ध परम्परा रही है और इसी परम्परा पूर्व के सोच वाले लोगों के अनुरंजन के अलावा कुछ नहीं ने इन माध्यमों को कालजयी भी बना रखा है। माना जाता है अथवा दिन-ब-दिन परिवर्तित होते परिवेश में शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/३९ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन माध्यमों को फैशन की तरह देख लेने की कल्पना बढ़ उसने नागरिकीय मानसिकता यें यह सवाल खड़ा कर दिया चली हो परन्तु ग्रामीण या पारम्परिक लोक माध्यम अपने कि कल कोई नई तकनीक आने वाली है। म्पराओं के जन्मदाता और नये माध्यमों के इसका आलम यह हुआ कि इन माध्यमों में भी विकसित बीच भी रहे हैं। अति विकसित और नव विकसित माध्यमों की रेलमपेल रही इस प्रकार देखा जाय तो आज पारम्परिक लोक माध्यम और अब सद्य तकनीक अथवा लेटेस्ट टेक्नोलॉजी एक कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। यह भी सोचा जा सकता है कहावत के रूप में सामने है। संचार माध्यमों में आज रेडियो कि कई माध्यम तो अर्थहीन या नकारा करार दिये गये हैं। और दूरदर्शन की बात क्या करें, उपग्रहीय संचार माध्यम इसी कारण जहां लोक कलाकारों का अभाव होता जा रहा सामने हैं और विश्व के किसी भी कोने में होने वाली घटना, है वहीं लोगों का अथवा पूरे समुदाय का भी रवैया, दृष्टिकोण दुर्घटना अथवा आयोजन को तत्काल अथवा साथ-साथ किसी . बदलता जा रहा है। अन्य कोने में देखा जा सकता है। ___ . पारम्परिक लोकमाध्यम आज के दौर में जिन चुनौतियों फिल्मों में भी आज कई तकनीकें सामने हैं तथा सदियों से लोहा ले रहे हैं अथवा जिन चुनौतियों से हार मान रहे हैं, पुराने जीवों को भी सजीव और साकार रूप में फिल्माये जाने वे तीन विचारों पर निर्भर है - की आधुनिककृत पद्धतियां सामने आई हैं जिनके मूल में १) बदलाव कम्प्यूटर है। आज दूर संवेदी तकनीक भी संचार माध्यमों के अ) तकनीक के स्तर पर साथ है। ब) जीवन स्तर पर इसके विपरीत पारम्परिक संचार माध्यमों के साथ यह २) पलायन विकासक्रम नहीं देखा जा सकता। इसी कारण जमाने की अ) कलाकारों की पराङ्मुखता हवा वाले किसी व्यक्ति के सामने यदि पारम्परिक या ठेठ ब) दर्शक या श्रोता समुदाय का दिशा हीन होना । देहात की बात की जाती है तो बेमानी लगाती है। ३) दिखावा ___ यह भी एक युगीन सच है कि नवीकृत माध्यमों को क) आयोजन के नाम पर अधुनातन करने की दशा में सरकारें और वैज्ञानिक कितना ब) सामुदायिक सोच के स्तर पर चिंतन और अर्थ नियोजन या अर्थ निवेशन कर रहे हैं उतना इस प्रकार देखा जाये तो आज पारम्परिक लोक माध्यम पारम्परिक माध्यमों के साथ देखना तो दूर, सोचना भी सम्भव सीमित या स्थगित होते जा रहे हैं जबकि इनका विकास और नहीं है। कालक्रम बहुत लम्बा नजर आता है। यह जान पड़ता है कि जीवन शैली में नवीनता ये माध्यम सैकड़ों और हजारों वर्षों के कालक्रम में जो भारत की ही क्या बात करें, विश्व की ही जीवन शैली अपना स्वरूप तय कर पाये, वह आधुनिक संचार क्रांति के में एकदम बदलाव आया है। न केवल पारिवारिक सम्पदाओं आते ही विगत चार पांच दशकों में बौने और वामनाकार बल्कि सामाजिक रिश्तों पर भी इस बदलाव का असर देखा होते होते अंडाकार होते चले जा रहे हैं। जा सकता है। आज की जीवन शैली नवीनता की अनुगामिनी यदि विस्तार से इनके समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर है। परम्परा या पौराणिकता को वह छोड़ देना चाहती है। नजर डालें तो मुख्य चुनौतियां निम्न जान पड़ती हैं- नवीनता की अनुशायिनी होने से जहां जीवन को अर्थ मिला इलेक्ट्रॉनिक क्रांति है वहीं वह अपनी परम्परा से टूटे पत्ते की तरह कट गई है। बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध विद्युत क्रांति के बाद आज के जीवन के पास पैसा है किन्तु समय नहीं है। वह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति का रहा और इस दौर में सर्वाधिक लोकशिक्षण की बात भूल चुका है जबकि पारम्परिक माध्यम विकसित रूप संचार माध्यमों का सामने आया। इस दौर में लोकशिक्षण के बहुआयाम लिए उपस्थित होते रहे हैं। जहां अति यांत्रिकता बढ़ी वहीं श्रव्य और दृश्य माध्यम भी बदलाव के इस दौर ने पारम्परिक माध्यमों पर न केवल नवीन रूप और और तड़कभड़क लेकर सामने आये। नब्बे आघात किया अपितु उनका सर्वदृष्टि दमन भी किया है। के दशक में संचार माध्यमों का जो स्वरूप सामने आया विद्वत् खण्ड/४० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतियोगितात्मक वातावरण परम्परा के नाम पर घूमर, गवरी, हमेलो, पणिहारी, चिरमी, आज हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। गणगौर जैसे सांस्कृतिक नामों से आयोजन रखे जाते हैं पर व्यापार, व्यवसाय, उद्यम, चिकित्सा और संस्कारों तक में उनमें आधुनिकता अथवा भोंडापन ही देखने को मिलता है। नवीनता के साथ-साथ प्रतियोगितात्मक भावनाएं देखने को इसे भी एक फैशन परस्ती का रूप कहा जा सकता है कि मिल रही हैं। हर व्यक्ति पड़ोसी के मुकाबले अपने को लोकगीतों के साथ आधुनिक मानसिकता की मांग को अत्याधुनिक और अति यांत्रिकता से युक्त बताने के उपक्रम आवश्यक करार देते हुए बड़े स्तर पर छेड़छाड़ की जा रही में लगा है। ऐसे में पारम्परिक माध्यमों और उनके कलाकारों है। एक और जहां इसमें कलाकार की असीमित यशलिप्सा या संचालकों में प्रतिस्पर्धी मानसिकता का विकास नहीं हुआ का भाव है वहीं ओडियो-वीडियो निर्माताओं का विपणन है, फलतः वे एक भयंकर चुनौती से जूझ रहे हैं। और अर्थार्जन का दृष्टिकोण भी देखने को मिलता है। आज यजमानी प्रथा की समाप्ति हर चीज एक उत्पाद के रूप में देखी जाने लगी है। पारम्परिक लोक माध्यमों का विकास बहुत हद तक पारम्परिक कल्पनाएं और पारम्परिक माध्यम इस मानसिकता यजमानी प्रथा की देन रहा। लोक कलाकार अपने यजमानों से बुरी तरह चोट खाये हुए हैं। अथवा आश्रयदाताओं के गांव और घर तक जाते तथा अर्थपूक आयोजन एवं सरकारीकरण उनका अनुरजंन करते हुए लोक शिक्षण का प्रयास करते थे। वर्तमान दौर में हर आयोजन अर्थसाध्य हो गया है। बड़े आज उपभोक्ता संस्कृति का दौर है जिसने यजमानी प्रथा को आयोजनों का सरकारीकरण भी होता चला जा रहा है। सदियों पीछे छोड़ दिया है। इस बात को इस दोहे से भी सार्वजनिक हित के नाम पर लोक कलाकारों को तरजीह नहीं समझा जा सकता है - दी जाती और तथाकथित अभिजनों के संगठन, क्लब किसी वैश्या काते कातणो, भाट करे व्यौपार। फिल्म, एलबम के कलाकार के नाम पर सांस्कृतिक संध्या वांका मर गया रातिया अन वांका मरया दातार ।। एवं नाइट आयोजित करने की मानसिकता लिए बैठे हैं। इसी कारण लोक कलाकारों में भी अपनी कला के प्रति आज छोटे से लेकर बड़े शहर तक उन कलाकारों के विरक्ति जागी है। यह एक तरह से न केवल कलाकारों की आयोजन रखे जाने लगे हैं जो स्क्रीन पर नजर आते हैं। दो अपितु निखिल समुदाय की भी पलायनता को दर्शाता है। चार ठुमकों और मनलुभावने अर्धनग्न नृत्यों की प्रस्तुतियों साक्षरता का दौर के साथ-साथ भारी भरकम आर्केस्ट्रा के बीच लोक का समाज में कल तक जो निरक्षरता थी वह लोकोन्मुखी अपना साजोसामान बौना जान पड़ता है। एक प्रकार से लोक भाव से लोक माध्यमों को संरक्षण दे रही थी अथवा यह कहा की और लोकजीवन से जुड़े माध्यमों की आज भारी उपेक्षा जा सकता है कि अपने सहज भाव में वह कलाओं को होने लगी है। लोक कलाकारों को यदि किसी बड़े आयोजन आश्रय दे रही थी किन्तु साक्षरता ने जमाने की हवा का काम में बुलाया जाता है तो वे दया के पात्र से ज्यादा कुछ नजर किया है और उसने सहजता को असहजता का जामा पहना नहीं आते। शादी, जन्मदिन, नामकरण या विवाह-वर्षगांठ के दिया है। समाज में बेनकाबी बढ़ी और छोटी कलाओं को साथ ही सेवानिवृत्ति पर दी जाने वाली पार्टियों में लोक क्षुद्र करार देते हुए आधुनिकता की डगर पर अपने कदम कलाकारों को बुलाना भी एक फैशन हो गया है और वहां बढ़ाये हैं। भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों, सीडी आदि माध्यमों के आगे वे फैशन परस्ती वामनाकार नजर आते हैं। पारम्परिक माध्यम फैशन परस्ती की मानसिकता से सरकार ने अपने स्तर पर जहां सांस्कृतिक केन्द्रों की जूझ रहे हैं। आज परम्परा को फैशन के रूप में देखा जाने स्थापना की वहीं संगीत नाटक अकादमियां, कलाकेन्द्र, लगा है। घरों की सजावट पारम्परिक उत्पादों से की जाने लोककला वीथियां भी स्थापित की। लोककला मेलों के लगी हैं।विद्यालयों, महाविद्यालयों और अन्य संस्कारों के आयोजन भी शुरू किये किन्तु इनमें भी लोकनृत्य माध्यमों की आयोजनों को पारम्परिक प्रवृत्तियों के नाम तो दिये जाते हैं उपेक्षा ही हुई क्योंकि कलाकार अपना समग्र जौहर नहीं दिखा लेकिन वहां बैठा कुछ देखने को नहीं मिलता जैसे कि आज सकते। वे संचालक अथवा संयोजक के सूत्र में लिपटे संकोची शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/४१ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व के धारक हो जाते हैं फिर एक विडम्बना यह भी देखने को मिल रही है कि सांस्कृतिक आयोजनों के ठेकेदार पारम्परिक कला साधकों या कलापक्ष परिवारों की उपेक्षा कर डुप्लीकेसी का खेल खेलते नजर आते हैं। लोक कलाकारों के प्रशिक्षण का अभाव कल तक बातपोशी, लोकगीतों का गायन, नर्तन, वादन, कथा कथन जैसी कलाओं का प्रशिक्षण कलाकार अपने घर पर ही कर लिया करते थे, आज वह परम्परा नहीं रही। नई पीढ़ी अपनी परम्परा को हेय दृष्टि से देखने लगी। उसे नया कुछ करने की जुगत में एबीसीडी से कार्यारम्भ करना पड़ता है एक प्रकार से वे अपने पारम्परिक कर्म और धर्म से हीन होकर नवीन अनुशासन में अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं जो न केवल उन्हें महंगा पड़ता है बल्कि पारम्परिक कला माध्यमों पर भी भारी पड़ रहा है। पिछले कुछ समय से कुछ कला संस्थानों में लोक कलाकारों के प्रशिक्षण की चिंता उठने लगी है किन्तु यह भी एक विडम्बना है कि ये कला प्रशिक्षण समयबद्ध होते हैं जबकि लोककलाकारों के लिए सतत प्रशिक्षण और सुधिदर्शक समुदाय की आवश्यकता होती है। लोक कलाकारों को प्रशिक्षण वे लोग देने लगे है जो कला रूपों को जानते ही नहीं हैं। आज बड़े शहरों में कई संस्थाएं लोक कला प्रशिक्षण के नाम पर ग्रीष्मकाल आदि अवकाश के समय शिविर आयोजित करते हैं किन्तु उनका परिणाम एक-दो नृत्य तक ही सीमित होकर रह जाता है। अन्य कई माध्यम हैं जिनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है यथा पड़गायन, कावड़ वाचन, कथा कथन अथव बातपोशी, कथा गायन, लोकचित्रायण का अंकन आदि विधाओं के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं होते क्योंकि ये बेहद श्रम और समय साध्य कला माध्यम रहे हैं। इसी प्रकार लोकवाद्यों के वादन के प्रशिक्षण शिविर भी नहीं लगाये जाते खड़ताल, रावणहत्था, सिंपी, सारंगी, अपंग, गिरगिड़ी, भूगल, डोंसका, मोरचंग, नड़, घोरयू आदि वाद्यों का वादन तो लुप्त ही होता चला गया। माठ वादन की बातें तो देखते ही देखते खत्म हो गई हैं। शादी समारोहों में शहनाई, बांकिया और नक्काड़ा वादन के ओडियो टेप आ गये हैं। विद्वत् खण्ड / ४२ लोककथा उपकरणों का निर्माण रुकना कल तक जो कलाकार अपने हाथों से पसंदीदा वाद्यों या कला सहयोगी सामान का निर्माण करते थे वे अपनी कला को छोड़ चुके हैं । पुतलीकार, नट, भाट अपने माध्यम स्वयं नहीं बनाते बल्कि बने बनाये सामान से ही अपना काम चलाकार यह कहते सुने जाते हैं कि हमने तो अपनी जिन्दगी जी ली अब आने वाली पीढ़ी खुद अपनी चिंता करेगी क्योंकि आगन्तुक पीढ़ी कुछ नया कर दिखाना चाहती है। सिंघी, सारंगी का निर्माण बन्द हो गया, मोरचंग का वादन और निर्माण थम सा गया है। नड़, अलगौंजे, चंग, तारपी पावरी, घोरयू, बांकिया, नरसिंगे केवल संग्रहालयों की शोभा होकर रह गये। मशक और अरबी ताण के बाजे अब समारोहों की शोभा नहीं बढ़ाते बल्कि विवाह वाद्यों में भी सिन्थेसाइजर बजाया जाने लगा है जो एक ही वाद्य कई वाद्यों को पूर्ति कर देता है । बस्सी जैसे काष्ठ शिल्पियों के गांव में कावड़ों, मुखौटों, पुतलियों, गणगौरों, खांडों केवाणों का निर्माण नहीं होता। खांडों को बने हुए वर्षों हो गये भरावों के शिल्प, गवारियों की कांगातिया आज लोक पसन्दगी से ही जाते रहे। यही कारण है कि घाट से गड़ाई महंगी होने लगी। पड़ों का स्थान पड़क्यों ने ले लिया फिर मुद्रण कला ने भी पड़ पर भारी प्रहार किया। एक प्रकार से मुद्रण ने जहां दुर्लभ चीजों को सरेआम लाकर रख दिया वहीं कलाकारों की उत्पादन क्षमता ओर उदरपूर्ति के माध्यम पर भी भारी चोट की है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पारम्परिक लोकमाध्यम जो कभी अपने अंचल में अपनी परम्परा की साख भरते थे, वे अपनी पहचान ही खोते जा रहे हैं क्योंकि उनके सामने चुनौती चुनौती न होकर सुरसा की तरह दिन दुगुना रात चौगुना बढ़ने वाला संकटाकार रूप लिए मुंह बायें खड़ा है। ऐसे में यदि पारम्परिक माध्यमों को बचाने के हनुमत् प्रयास नहीं हुए तो केवल चुनौतियां ही नजर आयेंगी और लोकमाध्यमों की केवल बातें ही रह जायेंगी। शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 डॉ० शिवनाथ पाण्डेय यह कहना गलत नहीं होगा कि आज समाज में वही व्यक्ति सम्मान का अधिकारी है, जो भौतिक सुख-सुविधा के साधनों से संपन्न है। इस आधार पर समाज में अपने को प्रतिष्ठित करने की दौड़ में यदि आज का शिक्षक भी शामिल है, तो व्यावहारिक दृष्टि से उसे गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग है, जो इस भावना से वंचित है। किंतु साथ ही इस तथ्य से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि इस दिशा में हमारी एक मर्यादित सीमा होनी चाहिए। युग-युग से सम्मानित शिक्षक-समुदाय की मर्यादा को अर्थ-संग्रह की अंध-दौड़ ने आज किन कारणों से इस स्थिति में पहुँचा दिया, यह एक विचारणीय विषय है, जिसे सामयिक संदर्भो से जोड़कर ही देखना उचित है। भारतीय समाज व्यवस्था के नीव-निर्माण में दो क्षेत्रों को व्यावसायिकता से बिल्कुल दूर सेवा-पक्ष के अंतर्गत रखा गयाएक शिक्षा एवं दूसरी निकित्सा। किंतु बाजारवाद के दबाव में आज व्यवसाय-जगत का सबसे फायदेमंद एवं सहज साधन है, इन क्षेत्रों से जुड़े क्रमशः प्राइवेट स्कूल एवं नर्सिंग होम खोलना। प्राय: हर क्षेत्र में आज निजीकरण की प्रक्रिया भी इसी दबाव का प्रतिफलन बदलते परिवेश में शिक्षा और शिक्षक है। भविष्य में सरकारी विद्यालयों का भी उद्योगपतियों की संपत्ति के . मनुष्य का चरित्र-निर्माण करनेवाली शिक्षा का आज प्रमुख ___ रूप में बदल जाना बिल्कुल असंभव नहीं कहा जा सकता। उद्देश्य है. अर्थोपार्जन। वर्तमान अर्थ-प्रधान-परिवेश में इसे बिल्कुल सरकारी शिक्षण-संस्थानों में भी ठीका के आधार पर नियक्तियों का गलत भी नहीं कहा जा सकता। किंतु यदि अर्थोपार्जन ही शिक्षा का मन बना चुकी सरकारों की नियत आज साफ हो चुकी है। इस क्रम एकमात्र उद्देश्य हो जाय तो निश्चित रूप से यह एक चिंता का विषय में शिक्षा के राजनीतिकरण ने और भी कई समस्याएँ पैदा की हैं। बन जाता है। कदाचित् यही वजह है कि राष्ट्र-निर्माता माने जाने आज शिक्षकों के लिए विकास का माध्यम पढ़ने-पढ़ाने से अधिक वाले शिक्षक समाज के प्रति भी 'आचार संहिता' की बात आज राजनीति प्रेरित शिक्षक-संघों की गतिविधियों में हिस्सेदारी है। ऐसे चर्चा का विषय बन गयी है। कहना न होगा कि भारतीय समाज में परिवेश में शिक्षक-शिक्षार्थियों का आदर्श की कसौटी पर मूल्यांकन कभी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कतार में स्थान पाने वाले गुरुओं के क्या परिणाम होंगे, यह स्वत: स्पष्ट है। के प्रति आज प्रशासनिक अनुशासन की बात एक युगांतकारी सिद्धांत और व्यवहार के टकराव में सिद्धांत की हार वर्तमान बदलाव है, जिसके प्रति मात्र संकेत करना हो यहाँ हमारी सीमा है। सामाजिक परिवेश का स्वाभाविक सत्य है। इस सत्य से जुड़कर ईश्वर से भी गुरु को श्रेष्ठ माननेवाले कबीर ने कभी कहा था कि- ही आरंभिक शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को मानते हुए भी आज 'गुरु तो ऐसा चाहिए सिक्ख सो कछु न लेय। बहुत कम ऐसे समर्थवान व्यक्ति हैं, जो मातृभाषा-माध्यम के सिक्ख तो ऐसा चाहिए गुरु को सरबस देय ।।' विद्यालयों में शौक से अपने बच्चों का नामांकन कराना चाहते हैं। यह पूज्य-भाव आज सिर्फ वायवीय आदर्श बनकर रह गया है। भारतीय शिक्षा-संस्कृति में अंग्रेजी एवं अंग्रेजियत का बीज-वपन यथार्थ इसके बहुत कुछ विपरीत है। वर्तमान जीवन-संदर्भो से करनेवाले मैकाले की शिक्षा-नीति की भर्त्सना करते हुए भी हम उसे जुड़कर यही स्वाभाविक भी है क्योंकि आज का शिक्षक प्राचीन अपनाने से परहेज नहीं कर पाते। राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित गुरुओं की भाँति जंगल में झोंपड़ी बनाकर फल-फूल पर जीवन होकर खोले गये हिंदी-माध्यम विद्यालयों को भी अंग्रेजी-माध्यम में व्यतीत करनेवाला त्यागी महापुरुष नहीं, बल्कि आधुनिक ग्राम या बदलने से रोक नहीं पाते। कोलकाता में आज भी कई ऐसे नगर में निवास करने वाला एक सुविधापरस्त आम आदमी है। यदि विद्यालय हैं, जो अपने नाम के बिल्कुल विपरीत अंग्रेजी एवं यथार्थ से जड़कर आधुनिक सामाजिक संबंधों का मूल्यांकन करें तो अंग्रेजियत के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। स्पष्टत: इसकी वजह से शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/४३ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का अधिक रोजगारोन्मुख होना है। क्योंकि गुरुकुल से आरंभ होकर आज इंटरनेट तक पहुँची शिक्षाजैन धर्म के अणुव्रत-अनुशास्ता, युग प्रधान आचार्य तुलसी के संस्कृति की मुख्य दिशा नैतिकता की चोटी से चलकर भौतिकता अनुसार, “शिक्षक यदि शिक्षा को जीविका का साधन मात्र मानता की खाई में ही खोते जाना है। ऐसे बदलते परिवेश में शिक्षक अपने है तो वह विद्यार्थी को पुस्तक पढ़ा सकेगा, पर जीवन-निर्माण की व्यावहारिक जीवन में कौन-सा रास्ता अख्तियार करेंगे, यह स्पष्ट कला नहीं सिखा सकेगा। इसी प्रकार विद्यार्थी यदि जीविकोपार्जन के करने की आवश्यकता नहीं है। आज ट्यूशन के औचित्यउद्देश्य से पढ़ता है तो वह डिग्रियाँ भले ही उपलब्ध कर लेगा, किंतु अनौचित्य की चर्चा इसी का परिणाम है। ज्ञान के शिखर पर नहीं चढ़ सकेगा।" किंतु आज शिक्षा का यह वर्तमान युग-धर्म, 'अर्थ-संग्रह' की दृष्टि से अतिरिक्त समय में आदर्श सिर्फ कहने भर को रह गया है। वास्तविकता यह है कि ट्यूशन के औचित्य को समझा जा सकता है, पर मूल कर्तव्यबोध को 'जैन धर्म' की भावना से प्रेरित होकर खोले गये 'जैन विद्यालय' भी नजरअंदाज कर सिर्फ ट्यूशन ही शिक्षक का लक्ष्य बन जाय तो यह शिक्षा-माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अपनाकर जीविकोपार्जन का शिक्षा-संस्कृति के विघटन की पराकाष्ठा है। इससे साथ बैठकर ही मार्ग प्रशस्त करते हैं। वर्तमान सामाजिक परिवेश में यही युग धर्म पढ़नेवाले प्रतिभावान गरीब छात्रों को मानसिक आघात भी पहुँचता है। है, जो युग-प्रधान आचार्य की कथनी और उनके अनुयायियों की क्योंकि असली परीक्षापयोगी शिक्षा तो उन्हों शिक्षकों द्वारा कक्षा से बाहर करनी में भिन्नता लाने को बाध्य करता है। दी जाती है, जो अर्थ-संपन्न छात्रों को ही नसीब हो पाती है। फलत: स्कूल ____ जगत-गुरु के रूप में विश्व-विख्यात भारत की शिक्षा-संस्कृति स्तर पर कृष्ण-सुदामा का अलगावबोध कक्षा स्तर पर भी विद्यमान में व्यावसायिकता का बीज-वपन कब और किन परिस्थितियों में रहता है। ऐसे शैक्षणिक परिवेश से निकले बच्चों से किस प्रकार का हुआ, यह कहना तो सहज संभव नहीं, परन्तु प्राचीन भारत में भी समाज बनेगा, यह एक विचारणीय विषय है। अर्थ-संपन्न अभिजात वर्ग यह भावना थी जिसके संकेत मिल जाते हैं। महाकवि कालिदास ने के मूर्ख-गंवार बच्चे भी चाँदी की सीढ़ी पर चढ़कर आधुनिक विज्ञान'मालविकाग्निमित्र' में लिखा है कि 'यस्यागमः केवलं जीविकायै तं टेक्नोलॉजी की ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं। तथाकथित पिछड़ी जातियों के ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति।' अर्थात् जिसका शास्त्रज्ञान केवल जीविका गरीब बच्चों को भी आरक्षण का एक सहारा मिल जाता है, पर कुलीन निर्वाह के लिए है, वह तो ज्ञान बेचने वाला वणिक् है। कहना न कहकर छाँट दिये जानेवाले प्रतिभावान गरीब बच्चों का भविष्य सोचनीय होगा कि आज प्राय: हर क्षेत्र में यह व्यावसायिकता ही हमारी बन जाता है। कभी-कभी तो वे अपने मूर्ख-गंवार सहपाठियों के ही आधुनिक अर्थ-व्यवस्था की देन है। 'शिक्षा-विभाग' का 'मानव दरबान-चपरासी बनने तक को अभिशप्त होते हैं। यही है अर्थ-प्रधान संसाधन विकास मंत्रालय' के रूप में परिवर्तन कदाचित् इसी अर्थ- समाज में निरंतर विघटित होती शिक्षा-संस्कृति के परिणाम, जो किसी व्यवस्था का परिणाम है। क्योंकि आधुनिक शिक्षा को भी समाज प्रेमी या व्यवस्था के लिए चिंता का विषय बन सकता है। किंतु चरित्रनिर्माणोन्मुख बनाने के बजाय रोजगारोन्मुख बनाना ही वर्तमान इस चिंता का समाधान सिर्फ शिक्षकों के लिए 'आचार-संहिता' या समय की माँग है। इस माँग के दबाव में हमारी सामाजिक संस्कृति कानून बनाकर संभव नहीं है। ऐसा सोचना समाधान के लिए सरलीकरण के अंतस में निहित नैतिक मूल्य आज नष्ट-भ्रष्ट होते जा रहे हैं, का रास्ता अख्तियार करना है। वास्तविकता यह है कि नैतिक बोध की जिसकी ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्ज का कहना गिरावट आज समाज के हर क्षेत्र में आई है, जिसका विश्लेषणपरक है कि "अभी तो आनेवाले कम से कम सौ वर्षों तक हमें अपने अनुशीलन किये बिना सिर्फ सतही सुधार की बातें अदूरदर्शिता की आपको और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो पहचान बन कर रह जाएगी। उचित है, वह गलत है और जो गलत है वह उचित है, क्योंकि जो अंग्रेजी एवं अंग्रेजियत के प्रभाव से क्रमश: विनष्ट हो रही भारतीय गलत है वह उपयोगी है, जो उचित है वह नहीं। अभी हमें कुछ अर्से शिक्षा-संस्कृति के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कभी स्वामी विवेकानंद तक लालच, सूदखोरी और एहतियात की पूजा करनी होगी, क्योंकि ने कहा था; "यदि देश के बच्चों की शिक्षा का भार फिर से त्यागी इन्हीं की सहायता से हम आर्थिक आवश्यकताओं के अंधेरे रास्ते व्यक्तियों के कंधों पर नहीं आता तो भारत को दूसरों की पादुकाओं को से निकलकर रोशनी में कदम रख सकेंगे।" यही है आज का सदा-सदा के लिए अपने सिर पर ढ़ोते रहना होगा।" बेशक आधुनिक व्यावहारिक सत्योद्घाटन। अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की शिक्षा अपने चरम विकास पर पहुँचकर भी त्याग के अभाव में ओर गमन करने का मंत्र 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का आज कोई सामाजिक रागात्मक संबंधों को छिन्न-भिन्न करती जा रही है, पर सवाल 'कीन्ज' द्वारा सांकेतिक उपर्युक्त अर्थ भी निकाले तो आश्चर्य नहीं है कि आज स्वार्थोन्मुखी शिक्षा को सामयिक यथार्थ से सामना करते हुए विद्वत खण्ड/४४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग-तपस्या पर आधारित विलुप्त होते पारंपरिक जीवन-मूल्यों से इस शिक्षा-नीति के ही निकट आज की भी शिक्षा-प्रणाली दीख रही किस प्रकार जोड़ा जाय। आधुनिक अर्थ-प्रधान परिवेश में यह एक है, जिसका मुख्य लक्ष्य ज्ञान-प्राप्ति और चरित्र-निर्माण की जगह धन कठिन चुनौती है, जिसका समाधान सिर्फ सतही स्तर पर सोचने या कमाना और नौकरशाही को बढ़ावा देना है। कानून बनाने से संभव प्रतीत नहीं होता।आज आवश्यकता है शिक्षा की शिक्षा अपने गूढ़ अर्थों में दीक्षा भी है। भारतीय शिक्षा-संस्कृति जड़ से जुड़े उन कारणों पर विचार करने की, जिनके चलते चाहकर के तहत कभी शिक्षा के समानांतर दीक्षा देने की भी एक स्वस्थ भी हम अपने को सुधार नहीं पाते। इस दिशा में प्रशासन द्वारा समय- परंपरा थी, जिसका आज प्रायः लोप-सा हो गया है। भौतिक गुणों समय पर गठित आयोगों के प्रतिवेदन भी ध्यातव्य हैं। के विकास में आज नैतिक-बोध की बातें करना मूर्खता का पर्यायआजादी के बाद गठित राधाकृष्णन आयोग (१९४९) के सा है। क्योंकि आर्थिक लाभ-हानि पर आधारित वर्तमान समाज में प्रतिवेदन में इस बात पर जोर दिया गया है कि शिक्षा का उद्देश्य सत्य जिस काम से लाभ होता है, वही प्रासंगिक है अन्यथा शेष सब के वैज्ञानिक सत्यापन के साथ-साथ विघटित होते जीवन-मूल्यों पर भी बकवास है। वर्तमान शिक्षा की प्रासंगिकता की भी यही कसौटी है। केन्द्रित होना चाहिए। प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए डॉ० राधाकृष्णन ने एक हिंदी साहित्यकार नंदकिशोर आचार्य के अनुसार “अब कहा था, "मैं उस दिन की कल्पना करता हूँ जब भारत के नैतिक-अनैतिक के बोध को भी बाजार की संप्रभुता के अंतर्गत विश्वविद्यालय राष्ट्र का बौद्धिक-सांस्कृतिक नेतृत्व करेंगे। नया आना पड़ रहा है और शायद यही कारण है कि आज हम नैतिक परिवेश बनाने में उनकी भूमिका निर्णायक होगी।" कोठारी आयोग अनैतिक से अधिक चिंता कानूनी और गैर कानूनी की करने लगे (१९६४-६६) ने भी बौद्धिक-पक्ष के समानांतर नैतिक पक्ष पर भी हैं और गैर कानूनी भी अंतत: वह है जिसे हम येन-केन-प्रकारेण ध्यान केन्द्रित करने की सिफारिश की है। इसी प्रकार सन् १९८६ कानून के दायरे में साबित न कर सकें।" बेशक इस दृष्टि से शिक्षा में 'शिक्षा की राष्ट्रीय नीति' के अंतर्गत तो इस तथ्य पर चिंता व्यक्त का व्यापारीकरण एक गैर कानूनी कार्य है, जो वर्तमान समाज की की गई है कि आज सारे विकास के बावजूद महत्वपूर्ण व आवश्यक नियत बन चुका है। अत: स्थायी समाधान इस नियत को बदलने की मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। कहना न होगा कि समग्रता में इस प्रक्रिया से जोड़ते हुए ढूँढना ही अपेक्षाकृत अधिक सार्थक होगा। सोच की दिशा मैकाले की शिक्षा-नीति से टकराते हुए एक ऐसे नीति- कहना न होगा कि इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षकों निर्धारण की ओर है, जो आनेवाली पीढ़ी को ज्ञानवान के साथ-साथ की ही है, जो भावी समाज के निर्माता विद्यार्थियों को किताबी शिक्षा चरित्रवान बनाने में भी सहायक हो, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब के साथ-साथ नैतिक आचरण की दीक्षा भी दे सकते हैं। यह दूसरी बाजारवाद के दबाव में बड़ी-बड़ी कंपनियों या उद्योगपतियों द्वारा ही बात है कि बिना अपने को सुधारे दूसरों को सुधारना सहज संभव शिक्षा-संस्थान संचालित होंगे और उनके मुनीम या उच्च पदस्थ नहीं होता; पर बहुत हद तक सामयिक परिस्थितियों को देखते हुए कर्मचारी ही यह तय करेंगे कि किन-किन विषयों की पढ़ाई हो तथा पाठ्यक्रम एवं पठन-पाठन की शैली में परिवर्तन इस दिशा में एक कैसे छात्रों एवं शिक्षकों की भर्ती कर लेन-देन की रकम तय की सार्थक प्रयास साबित हो सकता है। क्योंकि शिक्षा का मतलब सिर्फ जाय। कारण कि संपूर्ण शैक्षणिक प्रक्रिया का अनुशीलन हानि-लाभ । मस्तिष्क का विकास नहीं, व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास है। यह के चश्मे से होगा। आखिर बिना लाभ देखे कोई क्यों अपना पूँजी- तथ्य सिर्फ भारत जैसे विकासशील देशों के लिए ही नहीं बल्कि निवेश करेगा? अत: ऐसे परिवेश में ऐसी शिक्षा का विकास संभव तथाकथित विकसित समझे जाने वाले उन तमाम देशों के लिए भी है, जो आज कंप्यूटर एवं इंटरनेट से संचालित कंपनियों के योग्य उतना ही आवश्यक है. जो सिर्फ भौतिक साधन-संपन्न होकर भी अधिकारियों एवं कर्मचारियों का निर्माण करे। अपने समय की ऐसी नैतिक स्तर पर अस्तित्वहीन होते जा रहे हैं। यही वजह है कि ही माँग को स्वीकार कर तत्कालीन शिक्षा-नीति में परिवर्तन के प्रयासों ___'इमाइल दुर्थीम' जैसे प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री का भी मानना का उल्लेख करते हुए कभी अंग्रेज प्रशासक 'मैकाले' ने कहा था, "इस समय तो हमारा सर्वोच्च कर्तव्य एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिसके बिना कोई भी समाज अस्तित्व में नहीं रह सकता है।" जो हमारे तथा हमारे द्वारा शासित करोड़ों भारतवासियों के बीच अत: निष्कर्ष के तौर पर आज बदलते शैक्षणिक परिवेश में भी संपर्क-सूत्र का काम करे। यह एक ऐसे लोगों का वर्ग होगा, जो ज्ञान-विज्ञान के विकास के साथ नैतिक मल्यबोध शिक्षा एवं शिक्षक केवल रक्त एवं वर्ण से भारतीय दीखेंगे, पर रुचि, भाषा तथा आचार- दोनों के लिए अपरिहार्य है। विचार आदि की दृष्टि में अंग्रेज होंगे।" कहना न होगा कि गुलाम भारत में राजनीतिक गुलामी को और दृढ़ करने के उद्देश्य से घोषित १, वाटकिन्स लेन, हावड़ा-१ शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/४५ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्करलाल केडिया देश को स्वतन्त्र हुए ५४ वर्ष हो गये लेकिन नागरिकों के समान व्यवहार का चिंतन करें तो ऐसा लगता है हम आजादी के पूर्व जहाँ थे आज भी वहीं है। राष्ट्र की नजर आज की नयी पीढ़ी पर है और इसके निर्माण की जिम्मेवारी हम पर है। २. किताब कापी पर पुस्तकालय की तरह नम्बर लगाना : बच्चे अपने कापी किताब के कवर पर सामने ही स्टीकर लगाकर विषय का नाम लिख लेते हैं। समय सारणी के अनुसार कापी किताब छाँटने के लिए हर कापी किताब को उलट-पुलट कर देखना पड़ता है। यदि पुस्तकालय की तरह किनारे की तरफ भी नम्बर लगाकर सूची बना ली जाये तो कापी किताब छाँटने में सुविधा शिक्षा प्रेमियों के नाम एक पैगाम रहेगी। कोई कापी किताब न मिलने पर भी उसे उसकी जानकारी हो जायेगी। राष्ट्र की स्वाधीनता की स्वर्ण जयन्ती धूमधाम से हमने मनाई देश को स्वतन्त्र हुए चौवन वर्ष हो गये। स्वाधीनता दिवस आगे भी इसी प्रकार मनाते रहेंगे। इन समारोहों में स्वतन्त्रता की महत्ता एवं कर्तव्यबोध के ओजस्वी भाषण सुनने को मिलेंगे। लेकिन यदि नागरिकों के समान व्यवहार पर चिन्तन करें तो ऐसा लगता है हम आजादी के पूर्व जहाँ थे वहीं आज भी हैं। आम नागरिकों में सफाई, स्वास्थ्य, सदाचार में विशेष बदलाव नजर नहीं आ रहा है। हम सब किसी न किसी रूप से शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हैं। शिक्षक, प्रबन्धकारिणी सदस्य अभिभावक दानदाता - सामाजिक कार्यकर्तासहयोगी सभी का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध शिक्षा से है। विद्यालय चरित्रवान इन्सान निर्माण के केन्द्र हैं । चरित्र निर्माण की भूमिका में कई ऐसी छोटी-छोटी बाते हैं, जिन पर शिक्षा प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। बीज छोटा होता है पर वही बीज विराट रूप ग्रहण करता है। इसी तरह बात छोटी नजर आयेगी पर उसका असर विराट नजर आयेगा । विद्वत खण्ड / ४६ १. कागज कलम पास रखना विद्यालयों में जब भी किसी के भाषण- उद्बोधन आदि का कार्यक्रम होता है, बच्चों को सभागार में एकत्र होने की सूचना दी जाती है एवं बच्चे कागज कलम लिए बिना सभागार में उपस्थित हो जाते हैं विशिष्ट व्यक्ति अपने विचार प्रकट करके चले जाते हैं पर उसका कोई भी अंश बच्चे द्वारा नोट नहीं किया जाता है। कुछ ही दिनों में वह सब कुछ भूल जाता है। यही आदत उसके जीवन का एक अंग बन जाती है। प्रवचन पंडालों आदि कार्यक्रमों में हजारों-हजारों व्यक्ति सुनने के लिए एकत्र होते हैं पर कुछ एक को छोड़कर किसी के पास कागज कलम दिखाई नहीं देता । : यही आदत बड़े होने पर फाइलों, रजिस्टरों में किनारों पर विवरण लिखने का मार्ग प्रशस्त करेगी। घरों में सामानों को सुचारू रूप से लिखकर रखा जा सकेगा। ३. समाचार पत्र पत्रिकाओं से कटिंग काटना : समाचार पत्रपत्रिकाओं को पढ़ने के बाद अपने मन पसन्द के चुटकुले, पहेलियाँ, कविताएँ, गीत, कार्टून, लेख आदि काटकर रखने का अभ्यास कराना चाहिए। अच्छी-अच्छी रुचिकर बातें पढ़ने के बाद जल्द ही भूल जाते हैं। पुरानी कापियों पर भी कटिंग चिपकाई जा सकती है। इस विधि से अपनी पसन्द का अनमोल संग्रह हो जायेगा। ४. हाबी ( रुचि) अनुसार संग्रह : बच्चों को उनकी मन पसन्द चीज को हाबी (रुचि अनुसार संग्रह के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। पोस्टेज स्टाम्प, फर्स्ट डे कवर, सिक्के, फोटो, ऑटोग्राफ आदि । किसी भी विषय में रुचि पैदा होने से बच्चे का मन एक नये लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगा रहेगा। ५. सफाई व्यवस्था विद्यालय में कूड़ा करकट डालने की निश्चित स्थान पर समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। देखने में आता है। कि बच्चे टिफिन के समय में टिफिन करके कागज, दोना आदि इधर-उधर डाल देते हैं। बाद में सफाई कर्मचारी उन्हें एकत्र कर फेंकता है। "जहाँ खाओ वहीं गिराओ" एक आदत सी बन जाती है सड़क पर कूड़ा मत फेंको "जहाँ तहाँ मत थूको" के नारों का शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस पर कोई असर नहीं होता। कक्षा में भी कागज इधर-उधर न डालें, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। ६. सेवा दिवस गणतन्त्र दिवस, स्वाधीनता दिवस, गाँधी जयन्ती आदि किसी भी अवसर पर एक दिन विद्यालय में सेवा दिवस मनाया जाये। इस दिन कक्षा, बरामदा, सीढ़ी आदि स्थानों पर बच्चे सफाई आयोजन करें, ऐसा करने से उनमें सेवा भावना जागृत होगी। ७. प्रतियोगिताएँ : ग्रीष्मावकाश, दुर्गापूजा दीपावली एवं बड़ी छुट्टियों में पेंटिंग, निबन्ध, ड्राइंग आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा सकता है। इससे उनमें समय के समुचित सदुपयोग की आदत पड़ेगी। विलक्षण व्यक्तित्व वाले बच्चे भी सामने आयेंगे। ८. मानिटर, प्रिफेक्ट प्रशिक्षण विद्यालयों में बच्चे ही मानिटर / प्रिफेक्ट नियुक्त किये जाते हैं। इन बच्चों के स्वयं के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उन्हें अपनी जिम्मेवारी का बोध हो सके विद्यालय की प्रगति की योजना एवं अन्य कार्यक्रमों की भी इन्हें जानकारी देनी चाहिए ताकि अन्य बच्चों को वे समझा सकें। ९. प्रबन्धकारिणी समिति प्रबन्धकारिणी समिति में अधिकतर विभिन्न समस्याओं पर ही विचार विमर्श किया जाता है। छात्रों के विकास पर भी चर्चा का विषय अवश्य रहना चाहिए। : 10 राष्ट्र की नजर आज नई पीढ़ी पर है और इसके निर्माण की जिम्मेवारी हम सबकी है। आइए ! हम सब मिलकर भावी पीढ़ी को संवारने का व्रत धारण करें तथा राष्ट्र का स्वर्णिम भविष्य बनाने हेतु अपना योगदान सुनिश्चित करें। महामंत्री, श्री विशुद्धानन्द सरस्वती हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेन्टर, कोलकाता शिक्षा-एक यशस्वी दशक अलका धाडीवाल विडम्बना है संसार की जन्म दिया जिसको अपने रक्त और दूध से सींचा जिसको हमने स्नेह और प्यार से चाहा जिसको हृदय की गहराइयों से उसने ही तरेरी आँख जब चढ़ा वो परवान हुआ वो बलवान जब उसकी शाखाएँ दर शाखाएँ निकलीं नयी समस्याओं का कितनी ही खोजों के बाद कहाँ मिल पाते हैं दुःख । कहाँ खोज पाते हैं हम सुख । भोगना ही होता है हमें अपने कृत कर्मों का फल । भूल विद्वत खण्ड / ४७ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 प्रमोद नवलकर पाँचवी और बेटा दूसरी क्लास में है)। जब सुबह स्कूल बस आती है, तभी वे हर चीज के लिए दौड़-भाग मचाते हैं।' इससे पहले कि मैं बोल पाता, अमिता फिर चिल्लाई, 'टेलीविजन बंद करो। यदि तुमने अपना पाठ पूरा नहीं किया तो मैं टीचर के लिए नोट लिखकर नहीं दूंगी। वही तुम्हें दंड देगी।' उसने फिर फोन पर आकर सॉरी कहा। मैंने उससे कहा कि हम डिनर के लिए आ रहे हैं। पर वह मूड में नहीं थी। 'प्रमोद, मुझे माफ करना। मैं तुम्हें बाद में फोन करूँगी। मुझे नहीं लगता कि हम आज यह कर पाएँगें। अभी तो मैं किचन में भी नहीं गई हूँ।' यह कहते हुए वह फिर बच्चों पर चिल्लाने लगी! जिस प्रफुल्लित अमिता ने कुछ सप्ताह पहले ही मुझे डिनर पर बुलाया था, वह इतनी गुस्सैल हो गई थी। सबकुछ तो वही था। अमिता भी वही थी। जब उसने मुझसे डिनर के लिए कहा था तो बच्चों की दिवाली को छुट्टियाँ थीं और जब मैंने यह बताने के लिए फोन किया कि मैं डिनर पर आ रहा हूँ, तो उनका यूनिट टेस्ट होने वाला था। बोझ मत बनाओ शिक्षा को एक समय था, जब अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल . अमिता मेरी पुरानी दोस्त है। हालाँकि वह मुझसे बहुत छोटी जाते देखकर खुश होते थे। लेकिन आज स्कूल जाते बच्चों है, पर हमारी बहुत जमती है ज्यादा नहीं मिलते, पर का मतलब है, अभिभावकों की खुशी आ अंत। यह घर-घर टेलीफोन पर एक-दूसरे से जरूर बातें करते हैं। मैंने दिवाली की कहानी है। शिक्षक, बच्चे और अभिभावक इतने पर उसे शुभकामना देने के लिए फोन किया था। उसका मूड प्रताड़ित हैं कि वे शिक्षा से घृणा करने लगते हैं। माँ अपने बहुत अच्छा था। उसने मुझे मेरी पत्नी के साथ डिनर पर घर के काम ठीक से नहीं कर पाती। पिता को घर पर शांति बुलाया। मैंने उससे अगले सप्ताह आने का वादा किया। नहीं मिलती। बच्चों का बचपन का मजा छिन जाता है। ___ काम के बोझ के कारण मैं ऐसे वादे अक्सर पूरे नहीं शिक्षक मशीन की तरह पढ़ाते हैं। समाज का स्वास्थ्य बिगड़ कर पाता। पर अचानक ऐसा हुआ कि मुझे शाम को फुर्सत गया है। मिल गई। मैंने अपने तीन दोस्तों को फोन किया, पर वे घर शिक्षा का आजकल इतना व्यवसायीकरण हो गया है कि पर थे नहीं। तब मैंने अमिता के घर फोन किया। काफी आज उद्योगपति भी फैक्टरी लगाने के बजाए एक नया समय तक किसी ने भी फोन नहीं उठाया। फिर एक स्कूल या कॉलेज खोलने को प्राथमिकता देते हैं। कोई भी नौकरानी ने उठाया। मुझे पीछे से काफी तेज आवाज सुनाई स्कूल भारी फीस लेने के बावजूद बच्चे के सुरक्षित भविष्य पड़ी। वह अमिता की आवाज थी। जब उसने फोन लिया तो की गारंटी नहीं देता। हरेक का यह विश्वास है कि अब काफी क्रोधित थी। जब मैंने उससे बात की, वह तब भी केवल कोचिंग ही बच्चों का प्रदर्शन सुधार सकती है। स्कूल क्रोधित ही थी। उसने मुझसे पूछा कि मैंने फोन क्यों किया या उसकी शिक्षा पर से सभी का विश्वास उठ गया है। है और इससे पहले कि मैं जवाब दे पाता, वह चिल्लाई, जब मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी तो मैं गिरगाँव की शेट्ये 'तुम्हारी जुराबें कहाँ हैं? मैंने कल ही तुम्हें चेतावनी दी थी।' कोचिंग क्लास में पढ़ा था। मेरे स्कूल के शिक्षक मुझसे नाराज मैं स्तब्भ रह गया और मैंने पैरों की ओर देखा। जुराबें ठीक थे, क्योंकि उन्हें लगा कि यह तो उनका अपमान है। आज जगह पर थी। अमिता फिर फोन पर आई और बोली, 'सॉरी स्थिति बदल गई है। ज्यादातर शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन करते प्रमोद, ये बच्चे हर चीज को उलझा देते हैं (अमिता की बेटी हैं। बच्चों, उनके 'आई क्यू' या उनके मनोविज्ञान से किसी का विद्वत् खण्ड/४८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 अलका धाडीवाल मेरे पापा जीवन की मुश्किल राहों को आसान बनाना सिखाया । मेरे पापा ने ।।१।। कर्म ही कर्म कुछ लेना-देना नहीं है। परंपरागत पाठयक्रम पराना पड गया है। शिक्षा मंत्री की नियुक्ति राजनीतिक होती है। वह बिलकुल नहीं जानता कि बच्चों पर क्या गुजरती है। कोई भी ऐरा-गैरा अपने सुझाव दे देता है और उस विषय को पाठ्क्रम में शामिल कर लिया जाता है। इससे स्कूली बच्चों के पहले से दबे कंधों पर और भी बोझ बढ़ जाता है। उन्हें स्कूल या घर पर कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता। बच्चों, शिक्षकों व अभिभावकों के बीच कोई सामंजस्य नहीं होता। वह रिश्ता तो काफी पहले ही मर गया। आज की शिक्षा स्कूली बच्चों के शोषण के अलावा कुछ नहीं है। विख्यात शिक्षा विशेषज्ञ स्वर्गीय राम जोशी ने प्रणाली की पुनः संरचना के लिए सभी शिक्षा संस्थानों को एक साल के लिए बंद करने का सुझाव दिया था। हालाँकि यह संभव नहीं हो सकता, पर अब बच्चों को शिक्षा के बोझ से धीरे-धीरे निजात देने का समय आ गया है। उन्हें कॉपियों और किताबों से छूट मिलनी ही चाहिए। उन्हें केवल स्कूल के समय में ही पढ़ाया जाना चाहिए। यदि चाहो, तो स्कूल का समय आधा घंटा बढ़ा दो। उन्हें किताब-कॉपियाँ स्कूल के डेस्क में ही बंद करने दो और तितलियों की तरह उड़ते हुए घर जाने दो। बच्चों को उनका बचपन वापस मिल जाएगा। माँ को बच्चों को कुछ सिखाने का समय मिल जाएगा और पिता को भी गर्व होगा। परीक्षा होने दो। पर रैंक मिलने की गलाकाट स्पर्धा नहीं होनी चाहिए। उसका कोई मतलब नहीं है। एसएससी का टॉपर, बी.कॉम के तृतीय वर्ष में फेल हो सकता है। गाँव में बैलगाड़ियों की दौड़ की याद है? बैलों को आगे निकलने के लिए कोड़े मारे जाते हैं। विजेता बैल वापस लौटते हैं। ट्रॉफी बैल के मालिक को दी जाती हैं, बैल को नहीं। सभी शिक्षा संस्थानों को इस चूहा-दौड़ से बाहर आना चाहिए और बच्चों को उनका बचपन और पिताओं को उनका पितृत्व वापस मिलना ही चाहिए। माँ एक माँ ही रहनी चाहिए। धर्म भी है सिखाया मेरे पापा ने ।।२।। जीवन की हर दो राहों में चुनना मार्ग सत्य का सिखाया मेरे पापा ने ।।३।। मुश्किलें तुम्हारीपरीक्षा है, धैर्य न खोनासिखाया, मेरे पापा ने ।।४।। कभी न भूलेगी वो बातें काम री ही पूछ है झूठ नहीं हर परिस्थिति में समझौता, बो पाणी मुलतान गयो, कैयां कुम्हार गधे नहीं चढ़े, अक्ल शरीरा उपजै ।।५।। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/४९ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयसिंह सिद्धराज और उसकी मुद्राएँ 7 इन्द्रकुमार कठोतिया जयसिंह के नाना जयकेशी कोंकण के राजा थे जिसकी राजधानी आधुनिक गोवा थी। जयसिंह की माँ एक महान स्त्री थी। जयसिंह के आरम्भिक जीवन को सँवारने का पूर्ण श्रेय उन्हीं को जाता है। राजा कर्ण की मृत्यु के उपरान्त मायानल्ला देवी ने मंत्री शांतु की निगरानी में जयसिंह को शस्त्र विद्या की शिक्षा दिलवायी।३ मायानल्ला देवी ने एक दीर्घ जीवन जीया और अपने पुत्र की उदीयमान जीवन-यात्रा को निकटता से देखा। हेमचन्द्राचार्य अपने 'देव्याश्रय काव्य' में लिखते हैं कि जयसिंह बढ़ती उम्र के साथ युद्ध-कला एवं शासन-व्यवस्था में निपुण होता गया। हाथियों तक को वश में कर लेने की कला भी वो जानने लगा था। तरुण अवस्था को प्राप्त करते ही उसका राज्याभिषेक कर दिया गया। यह औपचारिकता वि० सं० ११५० पौष मास में सम्पन्न की गई। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार उसका राज्यकाल उनचास वर्ष (वि० सं० ११५० से ११९९ तद्नुसार १०९४ से ११४३ ई०) था।' 'विचार श्रेणी' भी इसी तथ्य का प्रतिपादन करती है परन्तु 'आइने अकबरी' के अनुसार जयसिंह ने पचास वर्षों तक जैन धर्म से अनुप्रेरित शासक : राज्य किया। इस उल्लेख का अनुमोदन वि० सं० १२०० (११४४ ई०) के बाली पाषाण शिलालेख से भी होता है। ___ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार 'कर्ण' जयसिंह का महान जैन धर्म से प्रभावित होकर न जाने कितने ही भारतीय राज्याभिषेक करके 'आशापल्लि' के विजय-अभियान के निमित्त नरेशों ने या तो जैन धर्म को अंगीकार किया अथवा उसके प्रचार चला गया और विजयोपरान्त वहीं पर कर्णावटी नामक नगरी बसा प्रसार और उत्थान में अपना महनीय योगदान दिया। अनहिलपाटण । कर स्वयं राज्य करने लगा। अथवा अनहिलवाद या अनहिलपुरा (गुजरात) के चालूक्यवंशीय जयसिंह जब राज्यारूढ़ हुआ तब अनहिलपाटण की राजनैतिक (सोलंकी) जयसिंह सिद्धराज (विक्रम संवत् ११५०-११९९ और भौगोलिक स्थिति उतनी सुदृढ़ नहीं थी। उसके पूर्वज मूलराज तदनुसार ई० सन् १०९४-११४४) उन्हीं राजाओं में से एक था। से लेकर भीम तक - शाकंभरी, सिंध, नाडूला, मालवा, सौराष्ट्र, ___ गुजरात के चालूक्यवंशीय राजाओं के लगभग साढ़े तीन सौ लाट, कच्छ और अबूंद मंडल के नरेशों से युद्ध करते रहे थे परन्तु वर्षों के इतिहास में (९६१-१३४० ई०) जैनधर्म एवं तत्सम्बन्धी ___ अन्तिम तीन क्षेत्र ही उनके अधिपत्य में आ पाए। साहित्य का अविच्छिन्न एवं द्रुत गति से विकास हुआ। जैन लेखक जयसिंह बड़ा ही जीवट का योद्धा था। उसने जो कुछ भी अपने राजघरानों एवं प्रशासन से जुड़े रहे जिसमें उनके द्वारा रचित साहित्य पूर्वजों से प्राप्त किया उसको विस्तृत करते हुए एक विशाल से हमें तत्कालीन परिस्थितियों, घटनाओं एवं राजनैतिक वातावरण साम्राज्य की स्थापना की और गुजरात की कीर्ति को चहुँ ओर का अविकल एवं अक्षरस: ज्ञान प्राप्त होता है। मूलराजा से लेकर फैलाया। कई जैन सूत्रों से हमें विदीत होता है कि जयसिंह गुजरात अन्तिम राजा तक इस राजघराने की राजधानी अनहिलपताका साम्राज्य का 'सांभर' से कोंकण सीमा रेखा तक निर्विवाद राजा बन अथवा अनहिलपुरा या अनहिलपाटण ही बनी रही। गया था। उसके साम्राज्य में आधुनिक गुजरात - लाट, सौराष्ट्र, जयसिंह कर्ण एवं मायानल्लादेवी का पुत्र था। मायानल्ला कच्छ सहित राजस्थान के कुछ भूभाग, मालवा एवं मध्य भारत चंद्रपुर के कदंब राजा जयकेशी की पुत्री थी।२ "प्रबंध चिंतामणि' निहित थे। के अनुसार यह जयकेशी 'शुभकेशी' का पुत्र था जो कर्णाटक का जयसिंह का सर्वप्रथम महत्वपूर्ण कार्य 'मालवा विजय' के साथ राजा था। हमें यह ज्ञात है कि शुभकेशी गोवा के कदंब राजघराने आरम्भ हुआ। कहते हैं जयसिंह के आरम्भिक राज्यत्वकाल में का तीसरा अधिष्ठाता शष्ठदेव था। ऐसा समझा जाता है कि परमार नरेश नरवर्मन ने अनहिल पाटण पर चढ़ाई कर दी थी। यह पर विद्वत खण्ड/५० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटना तब घटित हुई बताई जाती है जब जयसिंह अपनी माता मायानल्ला देवी के संग सोमनाथ की तीर्थ यात्रा पर गया हुआ था । उसके मुख्यमंत्री शांतु को आक्रांता के साथ अपमानजनक शर्तों पर संधि करनी पड़ी। तीर्थ यात्रा से लौटने के उपरान्त जयसिंह ने इसका बदला मालवा पर जीत हासिल करके लिया। नरवर्मन के साथ हुए युद्ध का वर्णन जैन वाङ्गमय में बड़े विस्तार से किया है। इनमें जयसिंह सूरि रचित 'कुमार पाल चरित', जिनमण्डलगणि रचित 'कुमारपाल प्रबन्ध' तथा राजशेखर कृत 'प्रबन्ध कोष' प्रमुख हैं। इन काव्यों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि इस युद्ध में जयसिंह ने नरवर्मन को बंदी बना लिया था इन रचनाओं से पूर्व की एक कृति 'कीर्ति कौमुदी' से जानकारी मिलती है कि जयसिंह ने नरवर्मन की धाः नगरी पर अपनी विजय प्राप्त कर ली। इन साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त हमें कतिपय शिलालेखों से भी इस महत्वपूर्ण विजय की जानकारी मिलती है। 'तलवार' शिलालेख से इस विषय पर प्रकाश पड़ता है कि जयसिंह ने नरवर्मन का मानमर्दन कर दिया था। इसी प्रकार ललवाड़ा के गणपति मूर्ति लेख से पता चलता है कि जयसिंह ने नरवर्मन के घमंड को चूर-चूर कर दिया।" दोहड़ स्तंभ शिलालेख से ज्ञात होता है कि जयसिंह ने मालवा के राजा को कैद कर लिया था। जैन साधु जयमंगल द्वारा रचित 'शुध १ शैल शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस युद्ध में नाडूल चाहमान अशराज ने जयसिंह का साथ दिया था। १२ कुमारपाल की बड़नगर प्रशस्ति में भी इस कथानक का उल्लेख है कि किस तरह जयसिंह ने मालवा के राजा का मानमर्दन किया था । १ ३ लगता है इस मालवा - विजय के उपलक्ष में ही जयसिंह ने 'महाराजाधिराज परमेश्वर १४ एवं त्रिभुवन गण्ड १५ की उपाधियों धारण कीं । जयसिंह का द्वितीय महत्वपूर्ण युद्ध सौराष्ट्र के साथ हुआ। आ० हेमचन्द्र ने 'सिद्ध-हेम-व्याकरण' में सौराष्ट्र विजय का वर्णन किया है । १६ 'कीर्ति कौमुदी' के अनुसार जयसिंह ने शक्तिशाली सौराष्ट्र के 'खेंगार' को युद्ध में परास्त किया । १७ विविध तीर्थ कल्प' में भी राजा का नाम 'खेंगार राय' उल्लिखित है । १८ इसी प्रकार 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' में भी इस युद्ध का उल्लेख किया गया है । १८ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार जयसिंह ने सौराष्ट्र के प्रबन्धन हेतु 'सज्जन' को अपना 'दण्डाधिपति' अथवा 'राज्यपाल' नियुक्त किया । २० जयसिंह के राज्यत्वकालीन वि० सं० १९९६ के दोहड शिलालेख में भी यह उल्लिखित है कि उसने सौराष्ट्र के राजा को बंदी बनाकर कारावास में बंद कर दिया था। २१ 'प्रबंध चिन्तामणि' के सूत्रों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सौराष्ट्र पर विजय ई० शिक्षा - एक यशस्वी दशक १९२५-२६ से पूर्व कभी भी हुई होगी। जयसिंह की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि अनार्य राक्षस राजा 'बरबरक' पर विजय प्राप्ति था इस उपलब्धि के पश्चात् ही उसे 'सिद्धराजा' की उपाधि से विभूषित किया गया । २२ इसी विजयप्राप्ति के पश्चात् उसे 'बरबरक जिष्णु' का विरूद भी प्राप्त हुआ। उज्जैन के वि०सं० १९९६ के खण्डयुक्त पाषाण शिलालेख में इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। इस युद्ध विषयक वर्णन जैन कृति २३ 'वाग भट्टालंकार' २४ में भी गुम्फित है। 'प्रबन्ध कोष' से हमें चन्देल 'मदनवर्मन' के साथ उसकी राजधानी 'महोबा' के लिए हुए युद्ध विषयक जानकारी प्राप्त होती है । अन्ततः जयसिंह ने छियानवे करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कर युद्ध को समाप्त किया। 'कालींजर' के 'पाषाण शिलालेख' से भी उपर्युक्त घटना पर प्रकाश पड़ता है (जनरल ऑफ एसियाटिक सोसाइटी, १८४८) । हेमचन्द्राचार्य कृत 'चडोनुशासन २५ तथा वागभट्ट कृत अलंकार के लेखन से उजागर होता है कि जयसिंह ने सिंधुराज को युद्ध में हराया था। 'वाग भट्टलंकार' के टीकाकार सिंह देवगण लिखते हैं कि वह 'सिंधुदेशधीप' अर्थात् सिंध का शासक था। जयसिंह के ११४० ई० के 'दोहड़ शिलालेख' में इस युद्ध के विषय में उल्लेख किया गया है। २६ संपादलक्ष के 'अनक राजा' (अर्णोराजा) (१९३९-११५३ ई०) का वर्णन 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में किया गया है। उसने अर्णोराजा से लाखों वसूल करके छोड़ा । २७ सांभर से प्राप्त एक शिलालेख में भी यह उल्लिखित है कि 'आनक' जयसिंह के अधीन हो गया था । २८ इसी प्रकार जयसिंह के दक्षिण भारतीय अभियान के विषय में भी हमें 'जिन मंडन गिरी' कृत 'कुमारपाल प्रबन्ध' से ज्ञात होता है । २९ एक हस्तलिखित जैन ग्रन्थ से जयसिंह के 'देवगिरी' अभियान के विषय में जानकारी मिलती है। वहाँ से जयसिंह 'पैठान' की ओर अग्रसर हो गया जहाँ के राजा ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 'कल्याण कटक' में उस समय 'विक्रमादित्य षष्ठ' का स्वामित्व था। इसका विरूद 'परमार्दी' था। जयसिंह के 'तालवार शिलालेख' में परमार्थी के हार जाने का उल्लेख किया गया है। ३० 'कोल्हापुर प्रबंध चिन्तामणि के सर्गों से हमें जयसिंह का उस क्षेत्र में अधिकार होने का पता चलता है । ३१ इस तरह उपर्युक्त लगभग दस युद्धों में विजय प्राप्त कर जयसिंह एक मान्यताप्राप्त योद्धा बन गया था और अपने बाहुबल से वह निर्विवादित रूप से सांभर से कोंकण तक का एकाधिपति बन चुका था। विद्वत खण्ड / ५१ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तलिखित जैन ग्रन्थों एवं तत्कालीन प्रस्तर शिलालेखों से हमें ज्ञात होता है कि जयसिंह ने अपने साम्राज्य पर ज्यो-ज्यों पकड़ मजबूत की उसे क्रमश: उन्नत उपाधियाँ प्रदत्त की गई। जयसिंह के राज्यारोहण के सात वर्षों पश्चात् वि०सं० ११५७ (११००ई०) में रचित 'निशिथ चूर्णि' में जयसिंह को केवल मात्र 'श्री जयसिंह देवराज्ये' अर्थात् 'जयसिंह के राज्य काल में' से सम्बोधित किया गया है । ३२ राजा को विरुद रहित सम्बोधन से उद्धृत किया जाना उसके अप्रभाव का परिचायक है। ऐसा आभासित होता है कि जयसिंह उस काल में केवल मात्र सिंहासन का ही अधिकारी बन सका होगा। इसके तीन वर्षोपरान्त रचयित वि०सं० ११६० (११०४ ई०) की जैन हस्तलिखित कृति 'आदिनाथ चरित' से प्रकाश पड़ता है कि जयसिंह का राज्य विस्तार 'केमबे' तक हो गया था। ३३ चार वर्षों पश्चात् हमें सं० ११६४ (११०८ ई० ) में रचित एक हस्तलिखित जैन ग्रंथ प्राप्य है। इसमें जयसिंह को 'समस्त राजाबलि-विराजिता-महाराजाधिराज - परमेश्वर श्री जयसिंह देव कल्याणे - विजयराज्ये' से सम्बोधित किया गया है। ३४ ऐसा लगता है कि उस समय तक जयसिंह ने सर्वत्र अपने पराक्रम का लोहा मनवा लिया होगा। इसके पश्चात् वि० सं० ११६६ (ई० १११०) में रचित 'आवश्यक सूत्र ग्रंथ' से जयसिंह के एक और विरूद का - ‘त्रिभुवन गंड' भान होता है । ३५ ' त्रिभुवन गंड' अर्थात् तीनों लोकों का अभिभावक ऐसा प्रतीत होता है कि जयसिंह का सैन्य अभियान उस समय में अपनी पराकाष्ठा पर था। और उसका वर्चस्व चहुँ दिशाओं में पैठ गया होगा फाल्गुन वि०सं० १९७९ में विरचित 'पंचवास्तुका ग्रंथ' में उसी विरुदावली को उद्धृत किया गया है किन्तु साथ में ‘श्रीमत्' और जोड़ दिया गया । ३६ उस समय तक 'सांतुका' जयसिंह का 'महाकाव्य' अर्थात् मुख्यमंत्री था। भाद्रपद मास वि०सं० ११७९ में रचित जैनग्रंथ 'उत्तराध्ययन सूत्र' से विदित होता है कि उस समयम में मुख्यमंत्री 'आशुका' हो चुका था तथा राजा को अतिरिक्त विरुदावली 'सिद्ध चक्रवर्ती' भी प्रदत्त की गई । ३७ वि० सं० १९९२ में लिखित 'नवपदलघुवृत्ति' एवं 'गाला शिलालेख' में जयसिंह को 'अवन्तिनाथ' के विरूद से भी नवाजा गया है। किन्तु बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि जयसिंह की ज्ञात मुद्राओं में उपर्युक्त एक भी विरूद का प्रयोग नहीं किया गया। संलग्न निखात में मैंने प्राप्य १७ सिक्कों के लेख को दर्शाया है। इन सिक्कों के उर्ध्व भाग में एक दक्षिणाभिमुख हस्ति का अंकन हुआ है और वाम भाग में तीन पंक्तियों में निम्न आलेख उकेरित किया गया है : विद्वत खण्ड / ५२ " श्रीमज् जयसिंह प्रिय" स्वर्गीय मुद्राशास्त्री डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार सिक्कों पर प्रयुक्त 'प्रिय' शब्द बड़ा ही अटपटा-सा लगता है। डॉ० गुप्त के अनुसार इस शब्द का प्रयोग 'बीसलदेव प्रिय द्रम्म' के रूप में प्राय: अभिलेखों में देखा जाता है। कदाचित् इसका अभिप्राय आत्मीयता प्रकट करना है । ३९ डॉ० गुप्त ने इन सिक्कों का तारतम्य प्रतिहार राजा वत्सराज जिसने रणहस्ति विरुद धारण किया था। उनके भी चित भाग पर दक्षिणाभिमुख हाथी और पट भाग पर 'रण- हस्ति' आलेख है। परन्तु मेरी धारणा है कि जयसिंह के सिक्कों की तुलना वत्सराज से करना समीचीन नहीं होगा। कारण चालुक्य वंशीय जयसिंह 'प्रतिहार वत्सराज' के आठवीं शताब्दी (ई० ७७८-७८८) के सिक्कों की भाँति सिक्के ५०० वर्षों उपरान्त क्यों प्रचलित करता ? द्वितीयत: प्रतिहार वत्सराज के सिक्के ६-७ ग्रेन के नन्हें आकार के सिक्के हैं जबकि जयसिंह द्वारा मुद्रित सिक्कों का वजन २० ग्रेन है। डॉ० गुप्त के अतिरिक्त न तो किसी मुद्राविज्ञ ने जयसिंह सिद्धराज के सिक्कों को उद्धृत हो किया, नहीं प्रदर्शित किया। परन्तु जैन वाङ्गमय में हमें इस तथ्य की कुछ व्याख्या मिलती है कि क्यों जयसिंह ने एक ओर हस्ति तथा दूसरी ओर 'जयसिंह प्रिय' का उपयोग किया है। हमें विदित है कि राजा भोज की मृत्यु के उपरान्त 'परमार' और चालुक्य राजघरानों के मध्य स्ष्टता बढ़ती ही गई। 'भोज' के अनुवर्ती राजाओं नरवर्मन तथा उसके पुत्र यशोवर्म्मन कभी भी उज्जैनी की भव्यता एवं कीर्ति को प्रतिष्ठापित नहीं कर सके । किन्तु उन्होंने चालुक्य राजा जयसिंह के साथ अपनी लड़ाई जारी रखी। यशोवर्म्मन एक बेहद ही कमजोर शासक था । वह सन् १९३३ ई० से पूर्व मालवा के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ उसके शासन काल में भी जयसिंह के साथ कोई समझौता नहीं हो सका । फलस्वरूप जयसिंह ने बड़ी तैयारी के साथ मालवा पर हमला कर दिया। हेमचन्द्र के अनुसार यह युद्ध बारह वर्षो तक लम्बा चला। वे लिखते हैं- "जयसिंह मालवा की ओर बड़ी ही धीमी गति से चला। रास्ते में जितने भी छोटे-बड़े राज्य मिले उन्हें धराशायी करता गया । 'भीलों' ने भी उसे अपनी सेवायें प्रस्तुत की। अन्त में उसने अपनी सेना को क्षिप्रा नदी के तट पर तैनात करते हुए धार नगरी पर हमला किया। भयभीत यशोवर्म्मन मुँह छुपाए भार के किले में पड़ा रहा। उसने किले के समस्त दरवाजों को बंद करवाते हुए उन्हें तीखे तुणिरों से आच्छादित कर दिया। जयसिंह ने शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यश:पत:' नामक एक हाथी के सहयोग से सभी दरवाजों को प्रभावित था। 'प्रबंध चिंतामणि' के अनुसार उसने सभी दर्शनों की ध्वस्त कर दिया। यशोवर्मन धार नगरी से पलायन कर गया...।४० शाखाओं को मान्यता प्रदान कर सम्मानित किया था। 'सर्वधर्म मेरुतुंग ने धार विजय की इस घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार से समभाव' में उसका अटूट विश्वास था। जहाँ उसने 'सोमनाथ' की किया है- 'राजा जयसिंह ने मालवा राज्य को विजित करने का तीर्थ यात्रा की थी वहीं जैन के दो धार्मिक स्थलों 'रेवतक' तथा 'अभियान प्रारम्भ किया। यह लड़ाई १२ वर्षों तक जारी रही। परन्तु 'शत्रुञ्जय' की तीर्थ यात्राएँ भी सम्पन्न की थी। 'देव्याश्रय काव्य' के जयसिंह धार के मजबूत किले पर अपना कब्जा नहीं जमा सका। पंद्रहवें खंड से विदित होता है कि जयसिंह सिद्धराज ने सरस्वती नदी जयसिंह वहाँ से लौट जाना चाहता था कि तभी मंत्री मुंजल ने किले के किनारे सिद्धपुरा में अन्तिम अर्हत का मंदिर बनवाया था।" वहाँ को विध्वंस करने की एक योजना बनाई। राजा को इस तरकीब के से वह सोमनाथ की पैदल यात्रा पर निकला। सोमनाथ से जयसिंह बारे में सूचित किया गया। उसने अपनी सेना को दक्षिण दरवाजे की रेवतक' पहाड़ पर गया तथा बाइसवें तीर्थंकर 'नेमिनाथ' की आदर ओर लगाया तथा महंत शामला द्वारा निर्देशित एक विशालकाय सहित पूजा की।४६ तत्पश्चात् वह 'शत्रुञ्जय' गया तथा वहाँ पर उसने हाथी 'यश: पतल' की मदद से लोहे की मजबूत काँटेदार छडों से 'नभेय' प्रथम तीर्थंकर की पूजा अर्चना की।४७ शत्रुजय के पास उसने निर्मित दरवाजे को तोड़ने में सफलता प्राप्त की। तदुपरान्त सभी 'सिंहपुर' (अर्वाचीन-सिहोर) नामक एक नगरी बसाई तथा अन्य गाँवों दरवाजों को खोल दिया गया। किन्तु इस प्रयास में उक्त हाथी सहित इसे भी दान में दे दिया। ४८ वि.सं. ११९१ के एक जैन ग्रंथ घटनास्थल पर ही वीरगति को प्राप्त कर गया। इस घटना से द्रवित के अनुसार, जैन धर्म से प्रभावित होकर उसने एकादशी वगैरह होकर उस हाथी की स्मृति में राजाज्ञा से गणपति के एक भव्य मंदिर कतिपय दिवसों पर जीवहत्या को बंद करा दिया था।४९ का निर्माण ग्राम वाडसर में करवाया गया। जयसिंह ने यशोवर्मन जयसिंह द्वारा सौराष्ट्र के प्रबंधन हेतु 'सज्जन' को को बंदी बनाया. धार में अपना प्रभत्व कायम किया और अंत में महामण्डलेश्वर अथवा राज्यपाल नियुक्त किया गया था। यह पाटण की ओर लौट गया....... ४१ उपर्यक्त वर्णन से हम इस सज्जन जैन धर्म का परम भक्त था। 'विविध तीर्थ कल्प' के संभावना को नहीं नकार सकते कि जयसिंह के सिक्कों में इसी हाथी अनुसार सज्जन ने वि०सं० ११८५ (ई० ११२९) में गिरनार को दर्शाया गया था जो राजा को अत्यधिक प्रिय था। इस सम्भावना के पहाड़ पर 'नेमिनाथ भगवान' का एक मंदिर बनवाया था।" को इस तथ्य से और भी बल मिलता है कि ये सिक्के मालवा क्षेत्र 'रेवत गिरीरासो' भी इस तथ्य की पुष्टि करता है।५१ 'प्रभावक तथा विशेषकर धार अंचल में बहलता से पाए जाते हैं। तत्कालीन चरित' से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र नौ वर्षों तक सज्जन के अधीन समय के अन्य सिक्कों के बारे में हमें जैन ग्रन्थों से जानकारी तो रहा।५२ प्रबन्ध चिन्तामणि के मतानुसार सज्जन ने तीन वर्षों की मिलती है परन्तु जयसिंह के अन्य सिक्के अभी तक प्रकाश में नहीं राजकीय आय को इस मन्दिर के निर्माण में व्यय किया था।५३ बाद राजका आए हैं। हेमचन्द्र ने अपने ग्रंथ 'देव्याश्रय काव्य' में कतिपय सिक्कों । में यही सज्जन 'कुमारपाल' के समय में भी 'दण्डनायक' नियुक्त का उल्लेख किया है। छोटे सिक्कों में उन्होंने 'सुरपा' नामक सिक्के किए गए। इसका प्रमाण हमें दिगम्बर लेखक रामकीर्ति द्वारा का उल्लेख किया है।४२ उनके अनुसार एक पुष्पहार की कीमत दो हो सीतोगढ़ में लिखित काव्य से मिलता है।५४ सा सुरपा के बराबर थी। उन्होंने 'प्रस्थ' और 'भंगिका' नामक दो अन्य एक हस्तलिखित जैन ग्रन्थ के अनुसार वि०सं० ११७९ सिक्कों का भी उल्लेख किया है। 'भंगिका' अनुपान में आधे रुपये। (ई० ११२३) में 'आशुका' को अपना मुख्यमंत्री बनाया था। वह के बराबर था।४३ महंगी स्वर्ण मुद्राओं के विषय में भी जैन ग्रंथों ने जैनधर्म का अनुयायी था। जयसिंह ने उन्हीं के परामर्श से शत्रुञ्जय प्रकाश डाला है। एक स्वर्ण मुद्रा तो २० अथवा ४० रुपये के की तीर्थ यात्रा सम्पन्न की थी।५५ प्रभावक चरित' और 'मुद्रिता बराबर थी। लगता है वह मात्रा में अत्यधिक वजन की होगी। अन्य कु: कुमुद चंद्र' के अनुसार आशुका दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्र और स्वर्ण मुद्राओं में 'निस्क', 'विस्ट' और 'पाल' का नाम प्रमुख है। - देवसूरि के शास्त्रार्थ में भी उपस्थित रहे थे।५६ प्रत्येक सेना का भी अपना मांगलिक चिह्न युक्त ध्वज होता था। वि०सं० ११९१ (ई० ११३५) के एक ग्रंथ से जानकारी जयसिंह सिद्धराज के ध्वज में 'ताम्रचूड़ा' नामक सिक्कों में कहीं मिलती है कि महात्मा गांगला जयसिंह के राज्य में राजकीय कार्यो के कर्ता थे। ये भी जैनधर्म के अनुयायी थे तथा कुमुदचंद्र और नहीं मुद्रित किया गया। यद्यपि जयसिंह का पारिवारिक धर्म शैव था किन्तु उसका अन्य देवसूरि के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ उसमें वे भी उपस्थित थे।५७ यह धर्मों के प्रति भी समान रुझान था। जैन धर्म से तो वह अत्यधिक ही शास्त्रार्थ वि०सं० १०८१ में हुआ था और उस समय गांगाल न्याय्यता अभिलेखन के प्रभारी थे। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/५३ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धराज जयसिंह ने पाटण को ज्ञान का मंदिर बना दिया था। उसने 'बहूलोढ़ा' नामक एक कर' भी अपनी प्रजा की भलाई के जैन साधुओं ने जिस धार्मिक उत्साह से अपने हस्तलिखित साहित्य लिए हटा दिया। इससे राज्य को ७२ लाख रुपये का राजस्व प्राप्त होता को प्रणीत एवं संग्रहीत किया वह अनहिलपट्टन की बौद्धिक था। जयसिंह अपनी प्रजा की पुकार को हमेशा सुनता था जो उसकी त्वरितता की छवि को और भी अधिक उजागर करती है। अच्छी शासन व्यवस्था का परिचायक है। नगर रक्षा के लिए उसने हेमचन्द्राचार्य ने भी पाटण के धार्मिक और शैक्षणिक जीवन के बारे कोतवाल अथवा नगर संरक्षक का पद बनाया था। अनहिल पुरा के में अपनी कृतियों में प्रकाश डाला है। जैनधर्म के चैत्र गच्छीय महान तत्कालीन कोतवाल जैन अनुयायी जयदेव थे। इसी प्रकार 'वाग् संत हेमचन्द्र का बहुत ही गहरा असर जयसिंह सिद्धराज पर था। भलंकार' के रचियता जैन वागभट्ट भी जयसिंह के राज्य मंत्री थे।६१ सर्वप्रथम वे राजपुरोहित बनाए गए। तत्पश्चात् उन्हें राजकीय जयसिंह सिद्धराज अपने जीवन के उत्तरार्द्ध काल में जैनधर्म से इतिहासकार बनाया गया। वे जयसिंह के नैतिक एवं धार्मिक इतना प्रभावित हो गया था कि उसने अपने अन्तिम समय में जैन .. मार्गदर्शक भी थे। तत्कालीन समय के राजकीय इतिहास लेखक विधि से समाधि पूर्वक अनशन की अवस्था में पाण्डित्यपूर्ण मृत्यु को होने के नाते हेमचन्द्र ने जयसिंह के समृद्धशाली राज्य के विषय में वरण किया। श्रीचंद्रसरि कृत प्राकृत जैन रचना 'मुनि सुव्रत स्वामी अपने 'देव्याश्रय' काव्य में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है। इस चरित'के प्रत्यक्षदर्शी वर्णन के अनुसार भी जयसिंह ने संथारा करके साहित्यिक प्रबन्ध में जयसिंह और हेमचन्द्राचार्य के आपसी मैत्री उपवास में मत्य: उपवास में मृत्यु का वरण किया।६२ सम्बन्धों के बारे में भी बहुत सारे उपाख्यानों को उद्धृत किया गया है। उन्होंने राजा जयसिंह के कहने पर बहुत सारे ग्रंथों का सृजन सन्दर्भ किया जिसमें 'सिद्ध हेम व्याकरण', 'कुमार पाल चरित'. प्राकत १. देव्याश्रयकाव्य, खण्डकाव्य प्रथम, गाथा ४ : पुरं श्रिया सदाश्लिष्टं 'देव्याश्रय महा काव्य', 'लघवरहन नीति शास्त्र', प्राकृत 'वृहद् नाम्नाणहिलपाटकम् । अर्हन नीति शास्त्र', 'चंगेनुशासन' आदि प्रमुख हैं। २. वही, खण्ड काव्य, नवम, गाथा ९९-१०० और १५३ ३. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ ३५ इस प्रकार 'वागभट्टलंकार' के जैन साहित्यकार 'वागभट्ट' भी "अष्ट वार्षिक एव स सान्तमंत्रिणा गुण श्रेणिं नीतः।" राजा के विशेष कृपापात्र थे। इस ग्रंथ के टीकाकार वागभट्ट को सोम ४. वही, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५ का पुत्र बतलाते हैं। 'प्रभावक चरित' के अनुसार उन्होंने एक जैन "सं० ११५० वर्षे पौष वदि ३ रानौ श्रवणनक्षत्रे वृषलग्ने श्री मन्दिर भी वि०सं० ११७८ में बनवाया था।५८ सिद्धराजस्य पट्टाभिषेकः" जयमंगलाचार्य जो 'कवि शिक्षा' के रचयिता थे तथा वर्धमान ५. वही, पृष्ठ ७६ सूरि जिन्होंने व्याकरण पर 'गण रतन महोदधि' नामक ग्रन्थ का “सं० ११५० पूर्वश्री सिद्धराजजयसिंहदेवेन वर्ष ४९ राज्यं कृतम्।" प्रणयन किया था ऐसे जैन साहित्यकार हए हैं जो जयसिंह के ६. 'जैन साहित्य संशोधक,' खंड द्वय, सर्ग ४, पृष्ठ ९ राज्यकाल में फलवित हुए। ७, आइने अकबरी, ब्लोचमेन एवं जनारेट द्वारा अनुवादित, भाग-२, जैनधर्म के सम्पर्क एवं प्रभाव से जयसिंह के हृदय में करुणा पृष्ठ २६० ८. 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड ११, पृष्ठ ३२-३३ का सागर आलोड़ित होने लगा था और यही कारण रहा कि उसने ९. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५ युद्ध में भी प्रतिपक्षिय राजाओं को आक्रान्त करने के पश्चात् भी "स्वयं तु आशापल्ली नवासिनमाशाभिधानं भिल्लम भिषेणयन्... रिहा ही नहीं किया वरन् अपनी पुत्रियों के संग विवाह भी करवाया। कर्णावलीपुरं निवेश्य स्वयं तत्र राज्य चकार...'' अजमेर के राजा अर्णोराज इसका ज्वलन्त उदाहरण है। युद्ध में १०.'डायनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ नॉरदर्न इंडिया, भाग २, लेखक हराकर भी उसने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करवा एच०सी० राय, कलकत्ता, पृष्ठ ९६६.११. वही दिया।५९ पृथ्वीराज विजय के अनुसार उसकी पुत्री का नाम १२. एपिग्राफिया इंडिका' खण्ड ९, पृष्ठ ७६-७७, सर्ग २६ कंचनदेवी था। इसी प्रकार 'प्रबंध चिन्तामणि' से हमें जानकारी "श्री आशाराजनामा समजनि वसुधानायकस्तम्य बन्धुः । मिलती है कि उसने युद्ध में पराजित किए हुए सपादलक्ष के साहाय्यं मालवानां भुवि यदसि कृतं वीक्ष्यसिद्धाधिराजः ।।'' आनाका राजा को न केवल सपादलक्ष ही लौटा दिया अपित लाखों १३. 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड १, पृष्ठ २९३, उद्धरण ५ (२) १४. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, जैन पुस्तक प्रशस्ति-'संग्ह' पृष्ठ १०१ रुपये भी साथ में दिए।६० . १५. वही, पृष्ठ ६५ वि०सं० ११९९ में किराडू के परमार राजा सोमेस्वर की। १६. 'पुरातत्व (गुजराती)', खण्ड ४, पृष्ठ ६७ सहायता कर जयसिंह ने उसे अपना खोया राज्य पुनः दिलवाया। "अजयत् सिद्धासौराष्ट्रन..." विद्वत खण्ड/५४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. खण्ड काव्य - द्वितीय, गाथा २५ ३८. 'भारत के पूर्व कालिक सिक्के' - डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त, १८. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, विविध तीर्थ-कल्प, पृष्ठ ९ . . पृष्ठ २९६.३९. वही' – पृष्ठ २९६ १९. सिंधी जैन ग्रंथमाला, पुरातन प्रबंध संभ्रट पृष्ठ ३४-३५ ४०. 'देव्याश्रय काव्य' सर्ग १४ २०. वही - विविध-तीर्थ-कल्प, पृष्ठ ९ ४१. "सिंधी जैन ग्रंथमाला; प्रबन्ध चिन्तामणि", पृष्ठ ५८-५९ : 'पुब्विगुर्जर धाराए जयसिंहदेवेण खंगाररायं हणित्ता सज्जणो "नृपतिः प्रयाणाम करोत्। तत्र जयकारपूर्वकं द्वादशवार्षिके विग्रहे दण्डाहिवो ठाविओ।' संजायमाने सति कथंचित् धारादुर्ग भंगं कर्तुमप्रभूष्णुः अत्र मया २१. 'इण्डियन एंटीक्वेरी', भाग १०, पृष्ठ १५८-६० धारा भंगान्तरं भोक्तव्य मितिकृत प्रतिज्ञो दिनान्तेऽपि "श्री जयसिंहदेवोऽस्ति भूपो गुर्जरमण्डले। कर्तुमक्षमतया सचिवैः काणिक्यां धारायां भज्यमानायां पत्रिभिः येन कारागृहे क्षिप्तौ सुराष्ट्रमालवेश्वरौ ।।" परमार पुत्रे विपद्यमाने-इत्थं प्रपश्चात नृपः प्रतिज्ञामापूर्य २२. 'सिद्धो बर्बरकश्चास्य सिद्धराजस्ततोऽभवत्।' जिन मंडन रचित अकृतकृत्यया पश्चाद्व्याधुटितुमिच्छुर्मुञ्जाल सचिवं ज्ञापयामास... 'कुमारपाल प्रबन्ध' से। ... दुर्ग विमृश्य यश: पटहनाम्नि बलवति दन्तावले समभिरूढ़:... २३. 'आक्रियोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया-एनुअल रिपोर्ट', सगजः पृथिव्यां पपात । सगज: सुभटतया तदा विपद्य १९२१, पृष्ठ ५४-५५ बहुसरग्रामे.....यशोधवलनामा विनायकरूपेणावततार,. २४. अध्याय ४, गाथा १२५ "येन नक्तंचर: सोऽपि युद्धे बर्बर को ४२. 'देव्याश्रय काव्य' - खंडा १७, गाथा ४८ जितः ।" ४३. 'वही' - खंड ५,गाथा ९४ और १०० २५. अध्याय ४, गाथा १२९ ४४. वही' - खंड ४, गाथा ४५, खंड १७, गाथा ८३-८४ २६. 'इण्डियन एण्टीक्वेरी,' भाग १०, पृष्ठ १५८, तल २ . ४५. 'वही' - गाथा १६-१७.४६. 'वही' - गाथा ६१-८८ "अन्येऽप्युत्सादिता येन सिन्धुराजादयो नृपाः ।" ४७. 'वही' - गाथा ८९-९५,४८. 'वही' - गाथा ९७-९८ २७. सिंधी जैन ग्रन्थमाला - प्रबन्ध चिन्तामणि - पृष्ठ ४७६ ४९.. 'विजयसिंह रचित धर्मोपदेशमाला' : २८. 'इण्डियन एन्टीक्वेरी', १९२९, पृष्ठ २३४-२३६ “यस्योपदेशादखिला च देशे सिद्धाधिपः श्री जयसिंहदेवः । २९. 'कुमारपाल प्रबन्ध,' पृष्ठ ७ एकादशी मुख्यदिनेश्च मारिमकारयच्छा सन दान पूर्वाम् ।" ३०. 'राजपूताना म्यूजियम रिपोर्ट', १९१५, पृष्ठ-२ ५०. 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला - विविध तीर्थ कल्प', पृष्ठ ९ ३१. 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' - प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ-७३ ५१. 'रेवन्तगिरी-रासु, काडवका', सर्ग १, गाथा ९ ३२. वही, 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृष्ठ-९९ "इक्कारसह सहीउ पंचासीयवच्छरि नेमि भयणु उद्धरिउ साजणि "मंगलं महाश्रीः । सं० ११५७ आषाढ़ वदि षष्ट्या शुक्र दिने श्री नरसेहरि ।" जयसिंहदेवविजयराज्ये श्री भृगकच्छनिवासिना जिनचरणाराधन- ५२. 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला - प्रभावक चरित', पृष्ठ १९५, गाथा ३३३ तत्परेण.....निशीथचूर्णिपुस्तकं लिखितम् ।" "अद्य प्राग्नवमे वर्षे स्वामिनाधिकृतः कृतः । ३३. 'केटलॉग ऑफ द मेनूस्क्रिप्ट फ्रॉम जैसलमेर', पृष्ठ-४५, पाद . भारुरोह गिरि जीर्णमद्राक्षं च जिनालयम् ।।" संदर्भ-३ ५३. 'वही'- प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ६४ : 'विक्कमनिवकालाउ सएसु एक्कारसेषु सट्टेषु। सिरि "तेन स्वामिनमविज्ञाप्यैव बर्षत्रयोद्राहितेन श्रीमदुर्जयन्तेश्रीनेमीश्वरस्य जयसिंहनरिन्दे रज्जं परिपालयं तम्मि.... काष्टमयं प्रासादमपनीय नूतन : शैलमय: मासाद: कारितः।" ३४. "सिंधी जैन ग्रन्थमाला - जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह'-पृष्ठ१०० ५४. एपग्राफया झाडका, भाग २, पृष्ठ ४२२ ३५. वही - पृष्ठ १०० ५५. 'जैन साहित्यनो इतिहास', पृष्ठ २४७ "११६६ पोष वदि २ मंगलदिने महाराजाधिराजत्रैलोक्यगंड श्री। ५६. 'सींधी जैन ग्रन्थमाला - प्रभावक चरित,' देवसूरि, पृष्ठ १८१, जयसिंहदेव विजयराज्ये....." गाथा २७०.५७. 'वही', देवसूरि, माथा १७२ ३६. 'वही' - पृष्ठ ६५, सं० ११७९ फागुण वदि १२ खौ ५८. 'वही', पृष्ठ १७३, गाथा ६७-७३ 'बड़ी देवसूरि चरितम्' के समस्तराजावलि महाराजधिराज श्रीमत् त्रिभुवनगण्ड श्री . अन्तर्गत.५९. खण्डकाव्य २,गाथा २७-२९, पृष्ठ २ जयसिंघदेवकल्याणविजयराज्ये.....सन्तकप्रतिपत्तौ । ६०. सिंधी जैन ग्रन्थमाला - प्रबन्ध चिन्तामणि'. पृष्ठ ७६ ३७. 'वही', पृष्ठ १०१ : सं० ११७९ भाद्रपद वाद..अघेह श्रीमदण- "सपादलक्ष: सह भूरिलक्षैरानाक भूपाय नताय दत्तः ।" हिलापाटकाभिधान. राजधान्यां समस्तनिजराजावलीसमलंकत ६१. 'काव्यमाला' भाग ४८. पृष्ठ १४८ महाराजधिराज-परमेश्वर-त्रिभवनगंड श्री सिद्धचक्रवर्ति श्रीमज्ज- ६२. 'गायकवाड्स ओरियण्टल सीरीज',७६, हस्तलिखित ग्रंथ. जयसिंहदेव कल्याण विजयराज्ये श्री श्रीकरणे महामात्य श्री पाटण, पृष्ठ ३१४-३२२ आशक: सकलव्यापारान करोति । . "अह सग्गचालीस दिणाई पालिऊणं समाहिणाणसणं । धम्मझाणपरायणचिन्तो जो परभवं पत्तो ।।" शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/५५ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. . जय सिंह सिद्धराज की प्राप्य ताम, रजन एवं स्वर्ण सिक्कों की निखात श्री म (द) (ज) य सिंह प्रिय जय सिं ह प्रि (य) श्री मद (ज) य सि (ह) प्रिय (ज) य सि (ह) प्रिय XX (ज) य सि (ह) प्रिय XX (श्री) मद x सिंह (प्रिय) (ज) य सिंह . प्रिय श्री म (द्) (ज) य सिंह प्रिय श्री म (द) जय सि (ह) प्रिय श्रीमद (ज) य सिंह xx श्री म (द) जय सि (ह) प्रिय १५. श्री म (द) जय सिं XX श्री म (द) जय सि (ह) प्रिय (श्री मद ज) य सिंह प्रिय श्री मद (ज) य सिंह XX श्री म (द) जय सिं (ह) श्री म (द) जय सि () XXX प्रिय xx जय सिं (ह) प्रिय विद्वत खण्ड/५६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ सुषमा सिंघवी स्वीकार करते हैं। विभिन्न दर्शनों में प्रतिपादित आत्म-स्वरूप को समझ कर, शास्त्र एवं आप्तवचन के परिप्रेक्ष्य में तर्क तथा विवेक पूर्वक अनुभव तथा. अनुभूति की निकष पर मानव धर्म और विभिन्न दर्शन प्ररूपित धर्म को परिभाषित किया जा सकता है। आत्मा और धर्म के एकाकार होने का एक उपाय यह हो सकता है कि स्थानाङ्ग सूत्र के अष्टम स्थान उत्थान पद के अनुशासन पर्व की शिक्षा का सर्वत्र स्वागत हो तथा जीवन में कर्मयोग द्वारा सामाजिक उत्थान की कर्मठता अभिव्यक्त हो। एक ओर भगवान महावीर के २६०० वें जन्मकल्याणक का यह वर्ष है तथा दूसरी ओर भारत की धरा पर गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, संस्कारहीनता, भ्रष्टाचार, संवेदनहीनता, अमानुषिक दुष्कृत्य तथा प्राकृतिक आपदाओं का अम्बार लग रहा है। क्या हमारी आत्मा, दर्शनों में अन्तनिर्हित समस्याओं के समाधान की शिक्षा को अमल में लाने हेतु जाग्रत हो सकेगी? प्रस्तुत शोध पत्र में विमर्श है ऐसी शिक्षा का जो स्वभाव के अनुकूल है, सरल, सुलभ, सुकर है, सार्वजनिक भारतीय दर्शनों में आत्मवाद है एवं पक्षपात से रहित है, नियति से बढ़कर पुरुषार्थ के प्रयत्नों आत्मा और धर्म एक अर्थ के वाचक हो सकते हैं को पुरस्कृत करती है, तथा विभिन्न दर्शनों के आगमों द्वारा क्योंकि हमारा स्वभाव ही आत्मा है और वस्त का स्वभाव प्रमाणित है। आइये! ऐसी शिक्षा की अष्टपदी को हम निष्काम ही धर्म। विभाव और विधर्म घातक हैं। विवेक मूलक प्रवृत्ति भाव से अङ्गीकार करें और कर्मयोगी बन जावें। उत्तराध्ययन आत्मा के चैतन्य तथा धर्म के स्वरूप को उजागर करने का की शिक्षा आचरणीय हैसही माध्यम है :- "विवेगे धम्ममाहिए'। किरियं च रायए धीरे अकिरियं परिवज्जए 'समयण्णे, खेत्तण्णे, कालण्णे' - समय-क्षेत्र-काल को दिट्ठीए दिट्ठिसम्पन्ने धर्म चर सुतुच्चर।। समझकर प्रवृत्ति करने के निर्देश आगमों में पदे-पदे प्राप्त अर्थात् व्यक्ति कर्म में रुचि रखे, निष्क्रियता का होते है। आत्मपरता आवश्यक है क्योंकि निवृत्ति और प्रवृत्ति परित्याग कर, दृष्टि सम्पत्र होकर सम्यकदृष्टि से दुष्कर सद्धर्म के विवेक का अधिष्ठान आत्मा है। का आचरण करे। जब क्रिया और कर्म में निष्काम भाव आ ___"उठ्ठिए नो पमायए' का उद्घोष तथा 'गोयमा! समयं जाए तो कर्म का विष समाप्त हो जाता है और पुरुषार्थ अमृत मा पमायए' का आगम उद्धरण तथा 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य बन जाता है। अर्जन में विसर्जन का सूत्र वास्तविक स्वामित्व वरान्निबोधत' इस मंत्र को एकाकार करने का केन्द्र आत्मा की पहचान है। की चेतना का पुरुषार्थोन्मुखी होना है तथा आत्मौपम्यभाव का यह आत्मा के अस्तित्व की सार्थकता है कि हम स्थानाङ्ग सूत्र विकास करना है। के उत्थान पद से उत्थान प्रारम्भ करें। प्राकृत पदों का सार - 'सव्वे जिविउं इच्छइ न मरिज्जिउं' का मनोविज्ञान है कि :आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रतिबिंब है और इसी का १। हम श्रेष्ठ धर्म को सुनें। प्रतिफलन है - 'आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यति स २। श्रेष्ठ धर्म का आचरण करें। पण्डितः'। ३। संयम की साधना द्वारा नये पापास्रव का निरोध करें। विश्व के समस्त दर्शन, समस्त नय-निक्षेप-प्रमाण, ४। निष्काम तप साधना से बद्ध कर्मों को क्षीण करने में समस्त युक्ति-श्रुति और अनुभव आत्मा का अस्तित्व तत्पर हों। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/५७ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५। अनाश्रित एवं असहायजनों को आश्रय एवं सहयोग दें। दर्शन सृष्टि के प्रत्येक जीव में गुणग्राहकता, तथा ६। अशिक्षितों को शिक्षित करने में सचेष्ट हों। संवेदनशीलता और परस्पर सुरक्षा के भाव को जगाता है। ७। प्रसन्न भाव से रोगी की सेवा में प्रस्तुत हों। विश्व में व्याप्त जीव शोषण, जीवक्रूरता एवं जीव हिंसा के ८। आपस में मतभेदं, कलह एवं विग्रह का पारस्परिक विरोध में संरक्षण, संवेदन और अहिंसा के विस्तार द्वारा एक सद्भावना से समाधान करें। स्थानाङ्ग सूत्र की इस सार्वभौम जीवन-दृष्टि के प्रसार तथा स्वयं की आत्मा को अष्टपदी में सभी दर्शनों के अध्यात्म का नवनीत है पहचानने की अन्तर्दृष्टि के विकास में यह शोध पत्र प्रभावी 'पुरिसा! बंध प्पमोक्खो तुज्झत्थमेव' हे पुरुष! बन्धन होगा। अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों में सभी चेतन स्वधर्मी जीवों मुक्ति तेरे पुरुषार्थ पर अवलम्बित है। के प्रति वात्सल्य का आलम्बन भारतीय दर्शनों में आत्मवाद बन्धन चाहे अज्ञान और अशिक्षा का हो, अभाव का हो, का प्राण है :रोग और शोक का हो, कुसंस्कारों का हो, स्वार्थान्धता का अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मी निबन्धने धर्मे। हो, या दुष्टाचरण का हो, इनसे मुक्ति का साधन पुरुषार्थ, सर्वेष्वपि च सर्मिष परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ।। सत्पुरुषार्थ है। आत्मा के शुभ और शुद्ध भावों का 'प्रकटीकरण मिट्टी से सोना बनाने के समान श्रमसाध्य तो है निदेशक : किन्तु संभव है तथा अमूल्य है। क्षेत्रीय केन्द्र कोटा खुला विश्वविद्यालय, उदयपुर उपनिषदों का अध्यात्म, शंकराचार्य का अद्वैत, पतंजलि का योग, कपिल का प्रकृतिपुरुषविवेकज्ञान, न्याय दर्शन के प्रमाणादि १६ तत्वों का ज्ञान और वैशेषिक दर्शन का सप्ततत्व-ज्ञान, यह सम्पूर्ण आत्मवाद तभी सार्थक है जब आत्मा/ जीव/पुरुष/चैतन्य/चित् की स्वभाव की स्थिति में हो। यही आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग है। इस स्वभाव के प्रकटीकरण का एक सूत्र स्थानाङ्ग सूत्र की अष्टपदी में निहित है और यह सामाजिक, सार्वजनिक और समायनुकूल उपाय है जिसका क्रियान्वयन भगवान् महावीर के २६००वें जन्म कल्याणक महोत्सव के अवसर पर अत्यन्त उपयोगी है। हमारी आत्मा का चैतन्य इस अष्टपदी की क्रियान्विति में लग जाये तो आत्मौपम्य-भाव की जागृति से संसार अवश्य निरापद होगा। । जब दर्शन और धर्म आत्मपरक हो जाते है तो वहां हिंसा का स्थान नहीं रहता, वहां करुणा प्रवाहित होने लगती है, वायुमण्डल अमृतमय हो जाता है। भारतीय संस्कृति के देवी-देवताओं का पश-पक्षियों के साथ अनन्य सम्बन्ध आत्मौपम्य भाव को दर्शाता है तभी तो भगवान विष्णु का वाहन गरूड़, शिव का वाहन नन्दी वृषभ, गणेश का वाहन मूषक, कार्तिकेय का मोर, लक्ष्मी का उल्लू, सरस्वती का हंस, दुर्गा का सिंह, तथा चौबीस तीर्थंकरों में से १७ तीर्थंकरों के चिन्ह पशु-पक्षी जिनमें वृषभ, हाथी, घोड़ा, बन्दर, हिरण, बकरा, सर्प आदि सम्मिलित हैं। जीव सभी समान हैं। चेतना और आत्मा के स्तर पर समानता का यह विद्वत् खण्ड/५८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानमल कुदाल आचारांग सूत्र समता का स्वरूप आचारांग सूत्र जैन अंग-आगमों का प्रथम अंगसूत्र है । आचारांग में जिन विषयों का उल्लेख है वे इतने व्यापक और सामान्य हैं कि ग्यारह अंगों में से प्रत्येक अंग में किसी न किसी प्रकार उनकी चर्चा आती ही है। आचारांग का समस्त दर्शन अमूर्त चिंतन का परिणाम न होकर सहज प्रत्यक्षीकरण पर आधारित है। महावीर ने कभी यह नहीं कहा कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे आँख बंद कर सही मान ही लिया जाय । महावीर बार-बार हमें संसार ( राग-द्वेष) की गतिविधियों को स्वयं देखने के लिए कहते हैं। आचारांग में इसके लिए उन्होंने "पास" शब्द का प्रयोग किया है। वस्तुतः वे हमें स्वतंत्र रूप से अपनी अनुभूतियों के द्वारा उन निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए प्रेरित करते हैं जो स्वयं महावीर ने अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से फलित किए थे। यह जैनियों का आचारदर्शन भी है। में प्रतिपादित जैन आचारदर्शन में आचरण के कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका पालन करना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए आवश्यक है। षट् आवश्यक कर्म, दस धर्मों का परिपालन, दान, शील, तप और भाव, बारह अनुप्रेक्षाएँ तथा समाधिमरण है। जैन आगमों में आवश्यक कर्म छः माने हैं- सामायिक, स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । शिक्षा - एक यशस्वी दशक सामायिक समत्ववृत्ति की साधना है। जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना जीवन का अनिवार्य तत्व है। वह नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है । समत्व साधना के दो पथ हैं, बाह्य रूप में वह सावद्य (हिंसक प्रवृत्तियों का त्याग है, तो आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव (सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखना है। सामायिक समभाव में है, रागद्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखने में है । माध्यस्थवृत्ति ही समता है। समता (सामायिक) कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्ति रूप पावन आत्मगंगा में अवगाहन है, जो समग्र राग-द्वेष जन्य कलुष को आत्मा से अलग कर मानव को विशुद्ध बनाती है। संक्षेप में सामायिक (समता) एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है तो दूसरी ओर पाप विरति । " समत्ववृति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्मवाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृति की आराधना कर सकता है। वस्तुतः जो समत्ववृत्ति की साधना करता है, वह जैन ही है चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो । ६ एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्व वृत्ति का आचरण करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है । ७ बौद्ध दर्शन में भी यह समत्ववृत्ति स्वीकृत है। " धम्मपद" में कहा गया है कि सब पापों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है।' गीता के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत दृष्टि, सुख-दुःख, लोह - कंचन, प्रियअप्रिय और निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक जीवन का लक्षण है । १० श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन! तू अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर । ११ अपने निषेधात्मक रूप में सामायिक (समता) सावद्य कार्यों अर्थात् पाप कार्यों से विरक्ति है, तो अपने विधायक रूप में वह समत्वभाव की साधना है। १२ भगवती सूत्र में कहा है कि- "आत्मा ही सामायिक (समता) है और आत्मा ही सामायिक (समता) का प्रयोजन है । ' ' १३ इस सूत्र में समत्वभाव को प्राप्त करने के लिए आत्मबोध का होना आवश्यक बतलाया गया है। आचारांगसूत्र के प्रथम उद्देश्यक में ही हमें आत्मबोध का परिचय प्राप्त हो जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है - इस जीवन के पूर्व मेरा विद्वत खण्ड / ५९ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी विजय का अधिकार है क्योंकि कषाय-लोक पर विजय प्राप्त करने या नहीं? मैं पूर्व जनम में कौन था? और मृत्यु के उपरान्त किस रूप वाला साधक काम-निवृत्त हो जाता है।२१ और काम निवृत्त साधक, में होऊँगा?१४ यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्वप्रथम उठाया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि- संसार का मल-आसक्ति है। अर्थात मनुष्य के लिए मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। जो गुण (इन्द्रिय-विषय है) वह (कषायरूप संसार का) मूल स्थान धार्मिक और नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्व बोध या है और जो मूलस्थान है, वह गुण है। २२ मेरेपन (ममत्व) में आसक्त स्वरूप बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन दृष्टि क्या और कैसी हुआ मनुष्य प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है। वह रात-दिन होगी? यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने परितप्त एवं तृष्णा से व्याकुल रहता है। २३ सूत्रकार कहते हैं कि अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्व-स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या हे पुरुष! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है। २४ यहाँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई है। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है सूत्रकार ने प्रमाद परिमार्जन की बात कही है। लोभ पर विजय प्राप्त कि- जो इस 'अस्तित्व' या 'स्व-सत्ता' को जान लेता है वही करने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि जो विषयों के दलदल से आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है।१५ जब पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं।२५ आचारांग की समता तक व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं पहचानता, स्व-स्वरूप का मान नहीं समस्त प्राणियों को सुख से जीने का संदेश देती है। सूत्रकार कहते करता, तब तक समता की ओर नहीं बढ़ पाता। जब व्यक्ति को स्व- हैं कि सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते स्वरूप व इसकी सत्ता का भान हो जाता है, तभी वह समता की ओर हैं। दुःख से घबराते हैं। उनको वध (मृत्यु) अप्रिय है, जीवन प्रिय बढ़ता है। व्यक्ति को जब इस 'स्व' और 'पर' भाव की स्वाभाविक है। वे जीवित रहना चाहते हैं। सबको जीवन प्रिय है।२६ और वैभाविक दशा का यथार्थ श्रद्धान हो जाता है, तो वह सम्यक्त्व समता का लक्ष्य दृष्टाभाव को जागृत करना है। सूत्रकार कहते सामायिक (समता) करता है। जब 'स्व' और 'पर' का वास्तविक हैं कि जो द्रष्टा है (सत्यदर्शी), उसके लिए उपदेश की आवश्यकता ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो श्रुत सामायिक (समता) करता है और जब नहीं होती।२७ समताभाव के लिए आसक्ति को दूर करने का प्रयत्न 'पर' भाव से 'स्व-भाव' की ओर लौटता है तो चारित्र सामायिक किया जाता है। आचारांग में आसक्ति को शल्य कहा है। हे धीर (समता) करता है।१६ पुरुष! तू आशा और स्वच्छन्दता करने का त्याग कर दे।२८ समता आचारांग सूत्र में स्थान-स्थान पर स्व-स्वरूप का भान करवाया का लक्ष्य एकीभाव है, आत्मा में लीन हो जाना है। सूत्रकार कहते गया है तथा समत्ववृत्ति का उपदेश किया गया है। आचारांग की हैं कि जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य (आत्मा) में अहिंसा समतामय है। आश्रव-संवर का बोध कराते हुए सूत्रकार रमण करता है। जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है, वह अनन्य कहता है कि आत्मवादी मनुष्य यह जानता है कि मैने क्रिया की थी। (आत्मा) को देखता है। २८ आगे कहा है कि जो आत्मा को जान मैं क्रिया करता हूँ। मैं क्रिया करने वाले का भी अनुमोदन करूँगा। लेता है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। अर्थात् संसार में ये सब क्रियाएँ (कर्म-समारंभ) जानने तथा त्यागने योग्य द्रष्टा के लिए (सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वालों के लिए) कोई हैं।१७ इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि तू देख। आत्मसाधक उद्देश (उपदेश) नहीं है।२९। (समतादर्शी) लज्जमान है। इन षट् जीव निकायों की हिंसा नहीं आचारांग में भ० महावीर कहते हैं कि इस संसार में व्याप्त करता।१८ अणगार का लक्षण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि आतंक और महाभय जिस व्यक्ति ने देख और समझ लिया है वही अहिंसा में आस्था रखने वाला अर्थात् समता में स्थित साधक यह हिंसा से निवृत्त होने में सफल हो सकता है।३० आतुर लोग स्थानसंकल्प करे कि प्रत्येक जीव अभय चाहता है, यह जानकर जो - स्थान पर परिताप पहुंचाते हैं वहीं दूसरी ओर देखो तो साधुजन हिंसा नहीं करता, वही व्रती है। इस अर्हत् शासन में जो व्रती है, समता का जीवन जीते हैं।३१ ऐसे शांत और धीर व्यक्ति देहासक्ति वही अणगार कहलाता है।१९ आचारांग की साधना समता की से मुक्त हो जाते हैं। ३२ इसलिए महावीर कहते हैं कि हे पंडित! साधना है। भावलोक में विचरण करने की साधना है। सूत्रकार तू क्षण को जान। ३३ सूत्रकार कहते हैं कि धैर्यवान पुरुषों को भावलोक के सम्बन्ध में कहते हैं कि भावलोक का अर्थ क्रोध, अवसर की समीक्षा करनी चाहिए और क्षण भर भी प्रमाद नहीं मान, माया और लोभ रूपी समूह है। २०. यहाँ उस भावलोक की करना चाहिए।३४ वास्तव में जिस व्यक्ति ने क्षण को पहचान लिया विद्वत खण्ड/६० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है वह एक पल का भी विलम्ब किये बिना अपने जन्म और मरण विषय में सन्देह) का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का की मुक्ति के लिए प्रयास प्रारंभ कर ही देगा। महावीर कहते हैं कि परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी कुशल व्यक्ति को प्रमाद से क्या प्रयोजन? ३५ वे कहते हैं कि उठो नहीं जानता।४५ इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि (समता में स्थित) और प्रमाद न करो।३६ यही समता आचारांग सूत्र में भावशीत और साधक (समतादर्शी) संसारवृक्ष के बीज रूप कर्मो (कर्मबन्धों) के भावउष्ण, इन दोनों को समभावपूर्वक सहन करने का उपदेश किया विभिन्न कारणों को जानकर उनका परित्याग करें और कर्मों से है। कहा है कि- अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, तथा मुनि सर्वथा मुक्त (अवधूत) बनें।४६ । (ज्ञानी) सदैव जागते हैं।३७ समता में स्थित साधक के लिए सूत्रकार आचारांग की समता अन्त में विमोक्ष का निरूपण करती है। कहते हैं कि समस्त प्राणियों की गति और अगति को भलीभाँति 'विमोक्ष' का अर्थ परित्याग करना, अलग हो जाना है और विमोह जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वेष) से दूर रहता है, वह समस्त का अर्थ है- मोह रहित हो जाना। तात्विक दृष्टि से अर्थ में कोई लोक में कहीं भी छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं अन्तर नहीं है। बेड़ी आदि किसी बन्धन रूप द्रव्य से छूट जाना जाता और मारा नहीं जाता।३८ 'द्रव्य विमोक्ष' है और आत्मा को बन्धन में डालने वाले कषायों समता की साधना सत्य की साधना है। सत्य में समुत्थान करने अथवा आत्मा के साथ लगे कर्मों के बन्धन रूप संयोग से मुक्त हो के लिए कहा है कि- हे पुरुष! तू सत्य को ही भलिभाँति समझ। जाना 'भाव-विमोक्ष' है।४७ इसे हम द्रव्य समता और भाव समता सत्य की आज्ञा (मर्यादा) में उपस्थित रहने वाला वह मेघावी मार की संज्ञा दे सकते हैं। (मृत्यु, संसार) को तर जाता है।३९ वह सत्यार्थी साधक क्रोध, समता का लेखा-जोखा हमें भ० महावीर के जीवन की मान, माया और लोभ को शीघ्र ही त्याग देता है। समता में स्थित घटनाओं से प्राप्त होता है, जो कि आचारांग सूत्र के 'उपधान-श्रुत' साधक के लिए कहते हैं कि जो एक (आत्मा) को जानता है, वह नामक अध्ययन में वर्णित है। सूत्रकार ने लाढ़देश की उत्तम सब को जानता है और जो सबको (संसार) जानता है, वह एक तितिक्षा-साधना का वर्णन करते हुए कहा है कि 'दुर्गम लाढ़देश' के आत्मा को जानता है।४° महावीर कहते हैं कि समताधारी साधक वज्रभूमि और थुभ्रभूमि नामक प्रदेश में भ० महावीर ने विचरण लोकेंषणा में न भटके।४१ जिस साधक में यह लोकेषणा बुद्धि नहीं किया था। वहाँ उन्होंने बहुत ही तुच्छ (उबड़-खाबड़) वासस्थानों व है, उसके अन्य प्रवृत्ति अर्थात् सावद्यारम्भ-हिंसा नहीं होगी। अथवा कठिन आसनों का सेवन किया था।४८ लाढ़देश के क्षेत्र में भगवान जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी ने अनेक उपसर्ग सहे, वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डंडों विवेक बुद्धि नहीं होगी। हिंसा में रचे-पचे और उसी में लीन रहने आदि से प्रहार करते थे। उस देश के लोग ही प्राय: रूखे थे, अत: वाले मनुष्य बार-बार जन्म धारण करते रहते हैं। मोक्ष मार्ग में प्रयत्न भोजन भी प्राय: रूखा-सूखा ही मिलता था। वहाँ के शिकारी कुत्ते करने वाले, सतत प्रज्ञावान-धीर साधक से कहा गया है कि उन्हें उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे।४९ कुत्ते काटने लगते या देख जो प्रमत्त हैं, धर्म से बाहर हैं। तू अप्रमत्त होकर सदा अहिंसादि भौंकते तो बहुत थोड़े से लोग उन काटते हुए कुत्ते को रोकते, रूप धर्म में पराक्रम कर।४२ नियुक्तिकार ने लोक के सार के अधिकांश लोग तो इस श्रमण को कुत्ते काटें, इस नियत से कुत्तों को सम्बन्ध में प्रश्न उठाकर समाधान किया है कि- लोक का सार धर्म बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे।५° उस समय है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है तथा संयम (समता) अणगार भ० महावीर प्राणियों के प्रति मन, वचन और काया से होने का सार मोक्ष है।४३ समता में अस्थित लोगों की दृष्टि में धन, काम, वाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का भोग-साधन, शरीर, जीवन, भौतिक उपलब्धियाँ आदि सारभूत मानी व्युत्सर्ग करके समता में विचरण करते थे। भगवान उन ग्राम्यजनों जाती हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में अर्थात् समता में रमण करने के कांटों के समान तीखे वचनों को निर्जरा का हेतु समझकर सहन वाले के लिए ये सब पदार्थ सारहीन हैं, क्षणिक हैं, नाशवान हैं, करते थे।५१ उस लाढ़देश में बहुत से लोग डण्डे से या मुक्के से आत्मा को पराधीन बनाने वाले हैं और अन्ततः दुखदायी हैं। समता अथवा भालों आदि शस्त्र से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर से की दृष्टि में मोक्ष (परम पद) परमात्मपद आत्मा (शुद्ध, निर्मल, मारते और 'मारो-मारो' कहकर होहल्ला मचाते।५२ उन अनार्यों ने ज्ञानादि स्वरूप)। मोक्ष प्राप्ति के साधन- धर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान के शरीर को पकड़ कर माँस तप एवं संयम आदि सारभूत हैं।४४ संसार स्वरूप का परिज्ञान काट लिया था। उन्हें (प्रतिकूल) परीषहों से पीड़ित करते थे फिर कराते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जिसे संशय (मोक्ष और संसार के भी भगवान समता में स्थिर रहते।५३ कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/६१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ऊँचा उठा कर नीचे गिरा देते थे। किन्तु भगवान शरीर का इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांगसूत्र में समता के व्युत्सर्ग किये हुए परिषह सहन करने के लिए प्रणबद्ध, कष्ट सहिष्णु, महत्वपूर्ण सूत्र संग्रहित हैं जो आत्म दृष्टि-अहिंसा-समता, वैराग्य, दुःख प्रतिकार की प्रतिज्ञा से मुक्त थे। अतएव वे इन परिषहों, अप्रमाद, अनासक्ति, निस्पृहता, निस्संगता, सहिष्णुता, ध्यानसिद्धि, उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे।५४ जैसे कवच पहना हुआ योद्धा उत्कृष्ट संयम-साधना, तप की आराधना, मानसिक पवित्रता और युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से बिद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता है आत्मशुद्धि-मूलक पवित्र जीवन में अवगाहन करने की प्रेरणा देते हैं। वैसे ही समता-संवर का कवच पहने हुए महावीर उस देश में पीड़ित इसमें मूल्यात्मक चेतना की सबल अभिव्यक्ति हुई है। इसका प्रमुख होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए मेरु पर्वत की उद्देश्य समता पर आधारित अहिंसात्मक समाज का निर्माण करने के तरह ध्यान में निश्चल रहकर समता (मोक्षपथ) में पराक्रम करते लिए व्यक्ति को प्रेरित करना है, जिससे समाज के आधार पर सुखथे।५५ दो मास से अधिक अथवा छ: मास तक भी महावीर कुछ शान्ति एवं समृद्धि के बीज अंकुरित हो सकें। हिंसा-अहिंसा के इतने नहीं खाते-पीते थे। रात-दिन वे राग-द्वेष रहित समता में स्थिर विश्लेषण के कारण ही 'आचारांग' को विश्व साहित्य में सर्वोपरि रहे।५६ वे गृहस्थ के लिए बने हुए आहार की ही भिक्षा ग्रहण करते स्थान दिया जा सकता है। “आचारांग" की घोषणा है कि प्राणियों के थे और उसको वे समतायुक्त बने रहकर उपयोग में लाते थे।५७ विकास में अन्तर होने के कारण किसी भी प्रकार के प्राणी के महावीर कषाय रहित थे। वे शब्दों और रूपों में अनासक्त रहते थे। अस्तित्व को नकारना अपने ही अस्तित्व को नकारना है।६० जब वे असर्वज्ञ थे तब भी उन्होंने साहस के साथ संयम पालन करते पूर्व प्रभारी एवं आगम योजना अधिकारी हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया।५८ महावीर जीवन पर्यन्त समता आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, में स्थिर रहे।५९ पश्चिमी मार्ग, उदयपुर । संदर्भ ग्रन्थ १) आचारांग सूत्र - १३-१४, १०३-१०९, २) नियमसार - २५, ३) उत्तराध्ययन - १९/९०-९१, ४) गोम्मटसार जीवकाण्ड (टीका) ३६८, ५) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययेन भाग २, पृ. ३१३ -डॉ० सागरमल जैन, ६) भगवतीसूत्र २५/७/२१-२३, ७) जिनवाणी, सामायिक अंक पृ० ५७, ८) धम्मपद - १८३, ९) गीता - ६/३२,१०) गीता - १४/२४-२५, ११) गीता - २/४८,१२) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ३९३-९४, १३) "आयाखलु सामाइए, आया सामाइ यस्स अट्ठ।"- भगवतीसूत्र, १४) "अस्थि में आया उववाइए, नथि में आया । के अहं आसी, केवा इओ चुओ इहपेच्चा भविस्सामि ।।"- आचारांगसूत्र - १/१/१/३, १५) “सोहँ से आयावाई, लोगावाई, कम्मवाई, किरियावाई।"- आचारांगसूत्र - १/१/१/४५,१६) जिनवाणी सामायिक अंक, पृ० ९७, १७) आचारांगसूत्र - १/१/१/४,१८) आचारांगसूत्र - १/१/१/५, १९) आचारांगसूत्र - १/१/१/४०,२०) भावे कसायलोगो, अहिगारो तस्स विजएण - आचारांगटीका-१७५, २१) "काम नियतमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं।" -आचारांगटीका-१७७, २२) "जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।"- आचारांग २/१/६३, २३) “इच्च त्थं गढिए लोए वसे पमत्ते।"-आचारांग-२/१/६३, २४) "णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि सेसिं णालं ताणाए वा सखाए वा।" -आचारांग-२/१/६७, २५) “विमुका हुते जणा जे जणा पारगामिणो।", आचारांग-२/२/ ७१, २६) "सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवह । पियजीविणो जीवितुकामा । सव्वेसिंजीवियं पियं ।।" -आचारांग-२/३/ ७८, २७) "उद्देसो पासगस्स णास्थि ।"- आचारांग-२/३/८०, २८) "जे अणण्णदंसी से अणण्णारामें, जे अणण्णारामे से अणण्णादंसी ।।"आचारांग-२/६/१०१, २९) "उद्देसो पासगस्म णस्थि'- आचारांग-२/३/८०, ३०) आचारांग पृ० ४३/१४५-१४६, ३१) "लज्जमाणा पुढा पासा।"- आचारांग पृ०८/१७, ३२) "इह संति गया दविया णाव कंखंति।"- आचारांग पृ० ४२/१४९, ३३) "खणं जाणाहि पंडिए''आचारांग पृ० ७४/२४, ३४) “अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुदुत्तमवि णो पमायए।" -आचारांग पृ०७२/११, ३५) “अलं कुसलस्स पमाएणं।"- आचारांग पृ०८८/९५, ३६) "उट्ठिए णो पमायए।" आचारांग पृ० १८२/२३, ३७) "सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति"आचारांग-३/१/१०६, ३८) आचारांग - ३/३/१२३, ३९) आचारांग - ३/२/१२७,४०) "जे एगं जाणति से सव्वं जाणाति, जे सव्व जाणति से एगं जाणाति।"- आचारांग-३/४/१२९,४१) "णो लोगस्सेसणं चरे।"- आचारांग-४/१/१३३,४२) आचारांगसूत्र - पृ० ११९, ४३) "लोकस्सारं धम्मो धम्मपि य नाणसारियं बिति । नाणं संजनसारं, संजनसारं च निव्वाणं।" -आ० नियुक्ति गा० २४४-टीका से उद्धृत, ४४) आचारांग पृ० १४४,४५) “संसघं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाजतो संसारे अपरिण्णाते भवति।" --आचारांग - ५/ १/१४९, ४६) आचारांग नियुक्ति गाथा २५१,४७) आचारांग नियुक्ति गाथा- २५९-२६०,४८ से ५९) आचारांगसूत्र-नवम अध्ययन-सूत्र । २९४,२९५, २९६,२९९, ३०२, ३०३,३०४,३०५, ३१२,३१५, ३२९, ३३२ क्रमानुसार,६०) आचारांग चयनिका - डॉ० कमलचन्द सोगाणी-भूमिका . विद्वत खण्ड/६२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 जतनलाल रामपुरिया का संगीत - उन बच्चों से बढ़कर, सच ही, और किस चीज की कल्पना हम करें? बच्चे सृष्टि की अनन्यतम कृति हैं - निर्विकार वृत्तियाँ, निश्छल आचरण, निष्कलुष मन। सहज, सरल और प्रकृतिगत। भीतर और बाहर समरूप। न कोई मुखौटा, न आडम्बर, न औपचारिकता। सब कुछ अनावृत और निरावरण। लड़े, झगड़ें, रूठे पर दूसरे ही क्षण फिर वही आत्मीयता। मलिनता मन को छुये ही नहीं। खामेमि सव्वजीवे - क्षमादान और क्षमायाचना के शब्द ओंठों पर नहीं, अन्तर ही उनसे आप्लावित। अध्यात्म का हर पाठ तो इनके स्वभाव में है। फिर कौन-सा ज्ञान इन्हें दें? बल्कि इनसे तो हम ही कुछ सीखें। उपदेशों की आवश्यकता तो यथार्थ में बड़ों को है। तो थोड़ा अपनी ओर मुड़ें। यह मुहूर्त सचमुच कुछ देर थमने का है, एक चिर-उपेक्षित प्रश्न का समाधान पा लेने का है - बच्चे बड़े होकर क्यों उन विकारों से ग्रस्त होते हैं जिनसे यह धरती त्रस्त है? जीव के बारे में बतला रहा व्यक्ति अनजाने ही अजीव की व्याख्या कर रहा होता है। पुण्य के विश्लेषण में पाप की परिभाषा छिपी रहती है। आश्रव (कर्म-ग्रहण) का ज्ञान निर्जरा (कर्म-क्षय) की और फिर? प्रक्रिया है। बंध और मोक्ष भी एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं और बिलकल इस क्षण तक मेरी कल्पना में बच्चे थे। उन्हें ही यहाँ भी देखिये, बच्चों से प्रारम्भ हई बात अनायास ही मुझे बड़ों के सम्बोधित करने की चाह लिये मैं ये पंक्तियाँ लिखने बैठा। पर इसी पास ले आई; सप्रयास स्वयं तक पहुँचने का उपक्रम तो सब बीच मेरी छ: वर्षीया दौहित्री समता आई और मेरे पास बैठकर बातें उपलब्धियों का प्रथम सोपान है ही। करने लगी। बड़ी सीधी-सरल बच्ची है। उच्छंखलता का नाम भी सप्रयास स्वयं तक पहुँचने का उपक्रम! दो शब्दों का संदेश नहीं। उसके चचेरे भाई को सब 'चीनू' कहकर बुलाते हैं। वह भगवान महावीर का - तिन्नाणं तारयाणं। पहले स्वयं तिरो, फिर समता से एक-दो वर्ष बड़ा है, कुछ चंचल भी। मैंने समता से पूछा- दसरों को तारो। स्वयं को तारना सार्थक जीवन की वर्णमाला के "चीन तुम्हें मारता है क्या?" वह बोली- “कभी-कभी मार देता पहले अक्षर हैं। दसरों का तारना तो उसकी अंतिम पंक्ति है। पर है।'' मैंने पूछा- "क्यों?'' उसने जो जवाब दिया वह मेरे लिये विडम्बना ऐसी कि हम अन्तिम पंक्ति से ही अपनी वर्णमाला शरु बच्चों के निर्मल-निर्विकार अन्त:करण का साक्षात् दर्शन था। उसने करते हैं। यह क्षण इस क्रम को बदलने का है। उपदेशों की जगह कहा- “कोई-कोई समय मुझसे भूल हो जाती है।" मैं अचानक आचरण को मखरित करने का है: कछ विवेकशील व्यक्तियों के जैसे गहरी नींद से जागा - कहाँ ओसकणों की पवित्रता लिये ये । चिंतन की गहराई में उतरने का है। बच्चे जिन्हें हम अबोध कहते हैं और कहाँ अहं और आग्रह में तो आगे बढ़ें अब! आकंठ डूबे हम! बच्चों के इस अन्त:स्वरूप पर जब दृष्टि पड़ी तो मेरा मन कुछ उलझ-उलझ गया। उन्हें कुछ कहने से पूर्व ही मेरे मेरे दादाजी श्री पूनमचंदजी रामपुरिया - हिम्मत के धनी, विचारों ने करवट बदल ली। पुरुषार्थ के प्रतीक, प्रत्युत्पन्नमति और दूरदर्शी। उस समय की बात प्रकृति के वरदान अनन्त हैं, उतने ही उनके रूप भी। पर बच्चों जब राजस्थान के बहुत से घरों में गाय-भैंस होती थीं। हमारे घर में से बढ़कर वह भी और कौन-सा उपहार हमें दे। पक्षियों का कलरव भी थीं। अधिकांश परिवार कलकत्ता में रहता था। महीने-दो-महीने जिनकी भाषा है और परियों का देश जिनका स्वप्नलोक, जो हमारे बाद घर का घी कलकत्ता भेजा जाता था। कुछ घी इकट्ठा हुआ। मन में इन्द्रधनुष के रंग बिखेरते हैं और आँगन में फूलों की मुस्कान, दादाजी ठाकुर रामसिंहजी को इसे पैक करने का कह कर संतों का जिनकी हर श्वास मलयज का झोंका है और हर किलकारी निर्झर व्याख्यान सुनने चले गये। रामसिंहजी डालडा घी का एक खाली शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/६३ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिब्बा खरीद लाए और उसमें घर वाला घी भर कर उसे सील कर चैन मिलता न उन्हें खिलाये बिना। यह क्रम उनकी मृत्यु के कुछ दिया। दादाजी घर लौटे। डालडा का टिन सामने ही पड़ा था। चेहरे दिन पूर्व तक रहा। पर क्रोध के भाव उभरे - "डालडा कौन लाया घर में?" एक दिन माँ के हाथ से मेरी थाली में चावल कुछ ज्यादा गिर रामसिंहजी बोले - "डालडा नहीं है। उसके खाली टिन में गये। मैंने कहा - "माँ, आपने चावल आज ज्यादा परोस दिये। वे कलकत्ता भेजने के लिये मैने घर वाला घी पैक किया है।" आदेश जानती थी कि जूठा छोड़ना मुझे अप्रिय है और, इच्छा से या अनिच्छा मिला – “घी को निकाल कर दूसरे डिब्बे में पैक करिये और से, मैं पूरे चावल खा लूँगा। कुछ बोली नहीं। जब उन्हें लगा कि जितने डालडा के टिन को बाहर फेंक दीजिए। आगे से वनस्पति घी का चावल मुझे खाने चाहिये उतने मैं खा चुका हूँ तो पास रखी गिलास खाली टिन भी कभी घर में न लायें।'' बाहर गिराया गया वह हाथ में ली और बचे हुए चावलों पर पानी उड़ेल दिया। तिरस्कृत टिन अपने अनादर से कितना क्षुब्ध हुआ, मैने नहीं देखा, अतिभोजन हानिकारक होता है - पाँचवीं या छठी कक्षा के पर दादाजी का गलत चीजों के प्रति किंचित भी ममत्व न रखने का पाठ्यक्रम में शामिल स्वास्थ्य-विज्ञान की पुस्तक में यह बात पढ़ी संकल्प - मेरे अन्तर में उस दिन जैसे एक दीप जला। मैने थी, गुना उसे माँ ने। शिक्षा और ज्ञान दो नितान्त भिन्न स्थितियाँ हैं - देह और विदेह की तरह – पहली बार मुझे यह भान हुआ। मेरे अग्रज श्री ताराचन्दजी १२-१३ वर्ष के रहे होंगे और मैं समझा-बुझाकर अथवा डाँट-डपटकर थाली में आया भोजन निगलवा १०-११ वर्ष का। चार आने में एक फिल्मी गानों की पुस्तक । देने की परम्परा सदियों पुरानी है। अन्य कई अनिष्टकारी रुढ़ियों और खरीद लाये। पिताजी (श्रीचन्दजी रामपुरिया) की दृष्टि उस पर पड़ी। रीति-रिवाजों की तरह उसमें छिपे अनर्थ को भी माँ ने देखा और पुस्तक हाथ में ली और बोले - “मैं तुम्हें अच्छी-अच्छी कहानियों विवेकपूर्वक स्वयं को उस प्रवाह से मुक्त रखा। थाली में पड़े वे की पुस्तकें ला दूँगा। सिनेमा की पुस्तकें मत पढा करो।" मुँह से तिरस्कृत चावल अपने अनादर से कितने क्षुब्ध हुए, मैने नहीं देखा, बस इतना ही। फिर हाथ गतिशील हए। दूसरे ही क्षण हमने पर गलत परम्पराओं को पोषण न देने का माँ का संकल्प - मेरे विस्फारित आँखों से पुस्तक के चार टकडे होते देखे और तीसरे अन्तर में उस दिन और एक दीप जला। क्षण वह खिड़की की राह से सड़क पर पहुँच चुकी थी। चार आने भी उस समय हम बच्चों के लिये धन था। उधर 'चन्द्रलेखा' के मेरे दादाजी, मेरे पिताजी और मेरी माँ। गलत चीजों के प्रति गानों को कण्ठस्थ करने की धुन थी। धन और धुन - दोनों की साथ। ममत्व न रखने का संकल्प, गलत प्रवृत्तियों को प्रश्रय न देने का ही धुनाई हो गई। घर के बाहर फेंकी गई वह तिरस्कृत पुस्तक अपने संकल्प, गलत परम्पराओं को पोषण न देने का संकल्प! बडे सब अनादर से कितनी क्षुब्ध हई, मैने नहीं देखा, पर गलत प्रवृत्तियों को इसी तरह बच्चों के मन में दीप जलाते रहें, जलाते रहें। और फिर? प्रश्रय न देने का पिताजी का संकल्प - मेरे अन्तर में उस दिन फिर फिर दीप से दीप जलते रहेंगे, जलते रहेंगे। एक दीप जला। फिर तो दीप से दीप जलते रहेंगे। ३१ मार्च, १९६९ - चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन पूज्या माँ का देहान्त हुआ। दिसम्बर सन् १९६३ में उन्हें हृदय का दौरा पड़ा था। तब से उनका स्वास्थ्य सदा चिन्तनीय स्थिति में ही रहा। उससे पूर्व भी उन्होंने अस्थमा, गठिया आदि शारीरिक व्याधियाँ बहुत झेली। संयुक्त परिवार के कारण गृहकार्य ने भी उन्हें सदा व्यस्त रखा। फिर भी बच्चों के लालन-पालन और उनकी सुख-सुविधाओं के प्रति वे सदा अत्यन्त सजग रहीं। सुबह का नाश्ता और दोनों समय का खाना वे हम सब भाइयों को स्वयं पास बैठ कर खिलाती। व्यापार-व्यवसाय सम्बन्धित कामकाज के अपने आग्रह होते हैं। घर पहुँचने में हमें देर-सबेर भी होती मगर वे हमारी प्रतीक्षा करती रहतीं। न हमें उनके हाथ से खाये बिना विद्वत खण्ड/६४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ सुरेश सिसोदिया जैन शास्त्रों में वर्णित शिक्षा प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाईबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्व है, वही स्थान और महत्व जैनों के लिए आगम - साहित्य का है। सम्पूर्ण जैन आगम - साहित्य में नैतिक शिक्षा से सम्बन्धित अनेक सूत्र दृष्टिगोचर होते है । अर्द्धमागधी आगम साहित्य में चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक का रचनाकाल ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी से पूर्व का माना जाता है। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में सात द्वारों के माध्यम से सात गुणों का वर्णन किया गया है। ये सभी गुण वस्तुततः व्यक्ति के चरित्र-निर्माण और उसके अन्तिम लक्ष्य समाधिमरण पूर्वक देह त्याग की प्राप्ति करने में सहायक हैं । चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में वर्णित विषय-वस्तु के शिक्षा सूत्र इस प्रकार हैं: - सूत्र ९. विनय गुण :- विनय गुण नामक प्रथम द्वार में जो कुछ वर्णन प्राप्त होता है उससे स्पष्ट होता है कि किसी शिष्य की महानता उसके द्वारा अर्जित व्यापक ज्ञान पर निर्भर नहीं है वरन् उसकी विनयशीलता पर आधारित है। गुरूजनों का तिरस्कार करने वाले विनय रहित शिष्य के लिए तो कहा है कि वह लोक में कीर्ति और यश को प्राप्त नहीं करता शिक्षा - एक यशस्वी दशक है किन्तु जो विनयपूर्वक विद्या ग्रहण करता है उस शिष्य लिए कहा है कि वह सर्वत्र विश्वास और कीर्ति प्राप्त करता है (२-६)। विद्या और गुरु का तिरस्कार करने वाले जो व्यक्ति मिथ्यात्व से युक्त होकर लोकेषणा में फँसे रहते हैं ऐसे व्यक्तियों को ऋषिघातक तक कहा गया है ( ७-९ ) । विद्या को तो इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी सुखप्रद बतलाया है (१२) । विद्या प्रदाता आचार्य एवं शिष्य के विषय में कहा है कि जिस प्रकार समस्त प्रकार की विद्याओं के प्रदाता गुरू कठिनाई से प्राप्त होते हैं उसी प्रकार चारों कषायों तथा खेद से रहित सरलचित वाले शिक्षक एवं शिष्य भी मुश्किल से प्राप्त होते है (१४-२० ) । यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में भी विनय गुण को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि विनय से पढ़ा गया शास्त्र यद्यपि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी वह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है 1 २. आचार्य गुण:- विनय गुण के पश्चात् आचार्य गुण की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी के समान सहनशील, पर्वत ती तरह अकम्पित, धर्म में स्थित चन्द्रमा की तरह सौम्यकांति वाले, समुद्र के समान गम्भीर तथा देश काल के जानकर आचार्यों की सर्वत्र प्रशंसा होती है (२१३१) । आचार्यों की महानता के विषय में कहा गया है कि आचार्यों की भक्ति से जहाँ जीव इस लोक में कीर्ति और यश प्राप्त करता है वहीं परलोक में विशुद्ध देवयोनि और धर्म में सर्वश्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करता है (३२) । आगे कहा गया है। कि इस लोक के जीव तो क्या देवलोक में स्थित देवता भी अपने आसन शय्या आदि का त्याग कर अप्सरा समूह के साथ आचार्यों की वन्दना के लिए जाते हैं (३३-३४)। त्याग और तपस्या से भी महत्त्वपूर्ण गुरूवचन का पालन मानते हुए कहा गया है कि अनेक उपवास करते हुए भी जो गुरु के वचनों का पालन नहीं करता वह अनन्तसंसारी होता है । (३५) । ३. शिष्य गुण:- आचार्य गुण के पश्चात् इस प्रकीर्णक ग्रन्थ में शिष्य गुण का उल्लेख हुआ है जिसमें कहा गया है कि नाना प्रकार से परिषहों को सहन करने वाले, लाभ-हानि में सुख-दुख रहित रहने वाले, अल्प इच्छा में संतुष्ट रहने वाले, विद्वत् खण्ड / ६५ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋद्धि के अभिमान से रहित, सभी प्रकार की सेवा-सुश्रुषा में परित्याग और गुणों का परिपालन, ये ही धर्म के साधन कहे सहज, आचार्य की प्रशंसा करने वाले तथा संघ की सेवा करने गये हैं (७२)। आगे कहा गया है कि जो ज्ञान है वही क्रिया वाले एवं ऐसे ही विविध गुणों से सम्पन्न शिष्य की कुशलजन का आचरण है, जो आचरण है वही प्रवचन अर्थात् प्रशंसा करते है (३७-४२)। जिनोपदेश का सार है और जो प्रवचन का सार है, वही आगे कहा गया है कि समस्त अहंकारों को नष्ट करके परमतत्त्व है (७७)। जो शिष्य शिक्षित होता है, उसके बहुत से शिष्य होते हैं ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि किन्तु कुशिष्य के कोई भी शिष्य नहीं होता (४३)। शिक्षा इस लोक में अत्यधिक सुन्दर व विलक्षण होने से क्या लाभ? किसे दी जाए, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि किसी शिष्य क्योंकि लोक में तो चन्द्रमा की तरह लोग विद्वान के मुख को में सैकड़ों दूसरे गुण भले ही क्यों न हों किन्तु यदि उसमें ही देखते हैं (८१)। आगे कहा है कि ज्ञान ही मुक्ति का साधन विनय गुण नहीं है तो ऐसे पुत्र को भी वाचना न दी जाए। है, क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति संसार में परिभ्रमण नहीं करता है फिर गुण विहीन शिष्य को तो क्या? अर्थात् उसे तो वाचना (८३-८४)। अन्त में साधक के लिए कहा गया है कि जिस दी ही नहीं जा सकती (४४-५१)। एक पद के द्वारा व्यक्ति वीतराग के मार्ग में प्रवृत्ति करता है, ४. विनय-निग्रह गुण :- प्रस्तुत कृति में विनय गण मृत्यु समय में भी उसे छोड़ना नहीं चाहिए (९४-९७)। और विनय-निग्रह गुण इस प्रकार दो स्वतन्त्र द्वार हैं किन्तु ६. चारित्र गुण : - चारित्र गुण नामक छठे द्वार में विनय गण और विनय-निग्रह गण में क्या अंतर है. यह उन पुरुषों को प्रशंसनीय बतलाया गया है, जो गृहस्थरूपी इसकी विषयवस्तु से स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि दोनों ही द्वारों बन्धन से पूर्णत: मुक्त होकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट की गाथाओं में जो विवरण दिया गया है उसका तात्पर्य मुनि-धर्म के आचरण हेतु प्रवृत्त होते हैं (१००)। पुन: दृढ़ विनम्रता या आज्ञापालन से ही है। यद्यपि प्राचीन आगम ग्रन्थों धैर्य मनुष्यों के विषय में कहा गया है कि जो उद्यमी पुरुष में विनय शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है - एक विनम्रता क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति और जुगुप्सा को समाप्त के अर्थ में और दूसरा आचार के नियमों के अर्थ में। प्रायः कर देते हैं, वे परम सुख को खोज पाते हैं (१०४)। सभी प्रसंगों में विनय का तात्पर्य आचार-निमय ही चारत्रशुद्धिक विषय म कहा गया है कि पाच सामात आर प्रतिफलित होता है अत: यह कहा जा सकता है कि विनय- तीन गुप्तियों में जिसकी निरन्तर मति है तथा जो राग-द्वेष नोकामोन आनियों नहीं करता है, उसी का चारित्र शुद्ध होता है (११४)। के परिपालन से रहा होगा। ७. मरण गुण :- विनय गुण, आचार्य गुण, शिष्यं गुण, विनय-निग्रह नामक इस परिच्छेद में विनय को मोक्ष का द्वार विनय-निग्रह गुण, ज्ञान गुण और चारित्र गुण का वर्णन करने कहा गया है और इसलिए सदैव विनय का पालन करने की के पश्चात् अन्त में ग्रन्थकार मरण गुण का प्रतिपादन करते प्रेरणा दी गई है तथा कहा गया है कि शास्त्रों का थोड़ा जानकार हुए समाधिमरण की उत्कृष्टता का बोध कराते हैं। वे कहते हैं पुरुष भी विनय से कर्मों का क्षय करता है (५४)। आगे कहा । कि विषय-सुखों का निवारण करने वाली पुरूषार्थी आत्मा गया है कि सभी कर्मभूमियों में अनन्त ज्ञानी जिनेन्द्र देवों के द्वारा मृत्यु समय में समाधिमरण की गवेषणा करने वाली होती है भी सर्वप्रथम विनय गुण को प्रतिपादित किया गया है तथा इसे (१२०)। आगे कहा गया है कि आगम ज्ञान से युक्त किन्तु मोक्षमार्ग में ले जाने वाला शाश्वत गुण कहा है। मनुष्यों के । रसलोलुप साधुओं में कुछ ही समाधिमरण प्राप्त कर पाते हैं सम्पूर्ण सदाचरण का सारतत्व भी विनय में ही प्रतिष्ठित होना। किन्तु अधिकांश का समाधिमरण नहीं होता है (१२३)। बतलाया है। इतना ही नहीं, आगे कहा है कि विनय रहित तो समाधिमरण किसका होता है? इस विषय में कहा गया निर्ग्रन्थ साधु भी प्रशंसित नहीं होते (६१-६३)। है कि सम्यक् बुद्धि को प्राप्त, अन्तिम समय में साधना में ५. ज्ञान गुण : ज्ञान गुण नामक पाँचवें द्वार में ज्ञान विद्यमान, पाप कर्म की आलोचना, निन्दा और गर्दा करने गुण का वर्णन करते हुए कहा है कि वे पुरुष धन्य हैं, जो वाले व्यक्ति का मरण ही शुद्ध होता है अर्थात् उसका ही जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट अति विस्तृत ज्ञान को समग्रतया समाधिमरण होता है (१३१)। साथ ही यहाँ मृत्यु के अवसर नहीं जानते हुए भी चारित्र सम्पन्न हैं (६९)। ज्ञात दोषों का पर कृतयोग वाला कौन होता है इस पर भी चर्चा की गई है (१३३-१४०)। विद्वत् खण्ड/६६ शिक्षा-एक यशस्वी कराक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जिस मनुष्य परिस्थितिवश उसके सामान को नुकसान पहुँचने लगता है तो ने करोड़ पूर्व वर्ष से कुछ कम वर्ष तक चारित्र का पालन पहले तो वह अपने सारे सामान को बचाने का प्रयास करता किया हो, ऐसे दीर्घ संयमी व्यक्ति के चारित्र को भी कषाय है किन्तु जब ऐसा कर पाना उसके लिए सहज नहीं रहता क्षण भर में नष्ट कर देते है (१४३-१४४)। है तो वह बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट होने से बचाता है और साधुचर्या का वर्णन करते हुए कहा है कि वे साधु धन्य अल्प-मूल्य वाली वस्तुओं को नष्ट होने देता है। हैं, जो सदैव राग रहित, जिन-वचनों में लीन तथा निवृत समाधिमरण का व्रत लेने वाला साधक ही ठीक उसी कषाय वाले हैं एवं आसक्ति और ममता रहित होकर व्यापारी की तरह शरीर एवं उसमें उपस्थित सद्गुणों की रक्षा अप्रतिबद्ध विहार करने वाले, निरन्तर सदगुणों में रमण करने __ करता है। शरीर भी एक प्रकार से सांसारिक वस्तु ही है वाले तथा मोक्षमार्ग में लीन रहने वाले है (१४७-१४८)। और सामान्यतया प्रत्येक प्राणी को सबसे अधिक आसक्ति बुद्धिमान पुरुष के लिए कहा गया है कि वह गुरू के अपने शरीर से ही होती है। बीमारी हो जाने की अवस्था में समक्ष सर्वप्रथम अपनी आलोचना और आत्मनिंदा करे, भी वह शरीर की रक्षा का भरसक प्रयास करता है किन्तु तत्पश्चात् गुरू जो प्रायश्चित् दे, उसकी स्वीकृति रूप जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि वह अपने शरीर की रक्षा "इच्छामि खमासमणो" के पाठ से गुरू को वन्दना करे। नहीं कर पाएगा तो वह शरीर के प्रति अपनी आसक्ति का और गुरू को कहे कि - आपने मुझे निस्तारित किया त्याग करके उसमें रहने वाले सद्गुणों की ही रक्षा करता है। (१५१-१५२)। यहाँ यह कथन करने का हमारा अभिप्राय मात्र यह है कि आगे की गाथाओं में समाधिमरण का उल्लेख करते हुए समाधिमरण के इच्छुक व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति-त्याग पर बल दिया गया है। वस्तुत: आसक्ति ही मोह का भी त्याग कर देते हैं। उनके लिए संसार के समस्त वह कारण है जो व्यक्ति को बन्धन में डालती है। जिसके वैभव, सुख-दु:ख, भोग-विलास, सोना-चाँदी, दास-दासी, कारण व्यक्ति सांसारिक मोह-माया में फँसता जाता है बन्धु-बान्धव आदि सभी कुछ आत्म-समाधि की अपेक्षा तुच्छ परिणामस्वरूप उसके कर्म बन्धन दृढ़ होते जाते हैं। यह मानव हैं। स्वभाव है कि व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं यथा- सोना-चाँदी, ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि विनय .. दास-दासी आदि भौतिक सम्पदाओं तथा स्वजन-परजन आदि गुण, आचार्य गुण, शिष्य गुण, विनय निग्रह गुण, ज्ञान गुण, के प्रति अपना ममत्व भाव रखता है और इन हेय पदार्थों को चारित्र गुण और मरण गुण विधि को सुनकर उन्हें उसी प्रकार उपादेय मान लेता है, परिणामस्वरूप वह जन्म-मरण के भव- धारण करें, जिस प्रकार वे शास्त्र में प्रतिपादित हैं। इस प्रकार चक्र में पड़ जाता है किन्तु मनुष्य की मृत्यु के समय में न तो की साधना से गर्भवास में निवास करने वाले जीवों के परिजन सहायक होते हैं और न ही नाना प्रकार की भौतिक जन्ममरण, पुनर्भव, दुर्गति और संसार में गमनागमन समाप्त सम्पदा ही उसकी सहायता कर पाती है। सम्भवत: यही कारण हो जाते हैं (१७४-१७५)। है कि प्रत्येक मतावलम्बी अपने जीवन के अन्तिम क्षण में विषय-वस्तु की दृष्टि से चन्द्रवैध्यक प्रकीर्णक एक समस्त प्रकार के क्लेषों से मुक्त होकर तथा राग-द्वेष को अध्यात्म-साधना परक प्रकीर्णक है। इसमें मुख्य रूप से छोड़कर भगवान् जिनदेव से प्रार्थना करता है कि हे भगवन्। गुरू-शिष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का एवं शिष्यों को मैं समाधिमरण के पथ पर चलना चाहता हूँ, इस दिशा में मेरा वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने वाले शिक्षा-सूत्रों का मार्गदर्शन करो तथा मुझे इतनी शक्ति प्रदान करो कि मैं संकलन है, जो इस ग्रन्थ की आध्यात्मिक महत्ता को ही स्पष्ट आसक्ति के सारे बन्धनों को काटकर बोधि प्राप्त कर सकूँ करता है। सुधिजन इन शिक्षा-सूत्रों का अध्ययन कर अपने और मानव जीवन पाने का यथार्थ लाभ प्राप्त कर सकूँ। जीवन को उन्नत-समुन्नत बनाये, यही अपेक्षा है। समाधिमरण लेने वाले की तुलना एक कुशल व्यापारी से की जा सकती है। सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाले व्यापारी को यह कभी इष्ट नहीं होगा कि उसके सामान को किसी प्रकार से नुकसान पहुँचे। कदाचित शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/६७ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० प्रेमसुमन जैन स्पष्ट करते हुए कहा है कि धर्म उन्नति और उत्कर्ष को प्रदान करने वाला है "यतोअभ्युदय नि:श्रेयससिद्धिः स धर्म:'। उन्नति और उत्कर्ष का मार्ग स्पष्ट करते हुए धर्म के अन्तर्गत श्रद्धा, मैत्री, दया, सन्तोष, सत्य, क्षमा आदि सद्गुणों के विकास को भी सम्मिलित किया गया है। समग्र दृष्टि से देखें तो पर्यावरण का तात्पर्य यही है। पर्यावरण या समग्र प्रकृति एक-दूसरे का पर्याय है। केवल नदी, जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी और हवा ही पर्यावरण नहीं है। हमारे सामाजिक-आर्थिक सरोकार और हमारी सांस्कृतिक-राजनीतिक, सम-सामयिक परिस्थितियाँ भी पर्यावरण के ही फलक हैं। बेशक प्राकृतिक पर्यावरण इन सभी फलकों को सर्वाधिक प्रभावित करता है, क्योंकि विकास की धुरी में प्राकृतिक संसाधनों का ही प्रमुख स्थान है। संतुलित पर्यावरण का अर्थ जीवन और जगत् को पोषण देना है। इस धरती पर जो कुछ दृश्यमान या विद्यमान है, वह पोषित हो, पुष्ट हो-यही पर्यावरण का अभीष्ट है। और यह दायित्व चेतनाशील मनुष्य का है। पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे मनुष्य से कम पर्यावरण के साथ धर्म के सम्बन्ध को स्थापित करने के चेतनाशील हैं? यदि मनुष्य अपने क्षद्र स्वार्थ के लिए उनका लिए धर्म के उस वास्तविक स्वरूप को जानना होगा जो विनाश करता है, तो हम न तो उसे चेतनाशील कह सकते प्राणी-मात्र के लिए कल्याणकारी है। वैदिक युग के साहित्य हैं. न विवेकशील। से ज्ञात होता है कि धर्म का जन्म प्रकृति से ही हुआ है। इस असंगति ने हमारे सम्पूर्ण जीवन-क्रम को काली प्राकृतिक शक्तियों को अपने से श्रेष्ठ मानकर मानव ने उन्हें छाया से ग्रस लिया है। हमारे जीवन-क्रम में सदा एक श्रद्धा, उपहार एवं पूजा देना प्रारम्भ किया। वहीं से वह सुसंगति, समात्मता और समादर रहा है, जो आज विकास आत्म-शक्ति को पहिचानने के प्रयत्न में लगा। प्रकृति, के नाम पर पैरों तेल रौंदा जा रहा है, जिससे विद्वेष-घणा शरीर, आत्मा एवं परमात्मा इस क्रमिक ज्ञान से धर्म का पनपने लगी है। हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण पर स्वरूप विकसित हुआ। भारतीय परम्परा में धर्म आसुरी-वृत्तियों का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह दशा यंत्र जीवन-यापन की एक प्रणाली है, केवल बौद्धिक विलास और विज्ञान के उपजे लोभ के फल-स्वरूप है। सही अर्थों नहीं है। अत: जीवन का धारक होना धर्म की पहली कसौटी से सोचा जाए तो यंत्र और विज्ञान लोभ के साधन नहीं होने है। चूँकि जीवन एवं प्राण सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी में भी चाहिए, पर ऐसा है कहाँ ? विद्यमान है। अत: उन सबकी रक्षा करने वाली जो प्रवृत्ति है, डॉ० राधाकृष्णन कहते हैं - यदि हम एक-दूसरे के प्रति वही धर्म है। महाभारत के कर्णपर्व में कहा गया है कि दयालु नहीं हैं और यदि पृथ्वी पर शान्ति स्थापित करने के समस्त प्रजा का जिससे संरक्षण हो, वह धर्म है। यह प्रजा पूरे हमारे सब प्रयत्न असफल रहे हैं. तो उसका कारण यह है विश्व में प्याप्त है। अत: विश्व को जो धारणा करता है, कि मनुष्यों के मनों और हृदयों में दुष्टता, स्वार्थ और द्वेष से उसके अस्तित्व को सुरक्षित करने में सहायक है, वह धर्म भरी अनेक रुकावटें हैं. जिनका हमारी जीवन प्रणाली कोई रोकथाम नहीं कर पाती। यदि हम आज जीवन द्वारा "धरति विश्वं इति धर्म:'' महाभारत की यह उक्ति तिरस्कत हैं. तो इसका कारण कोई दृष्ट भाग्य नहीं है। जीवन बडी सार्थक है। महर्षि कणाद ने धर्म के विधायक स्वरूप को के भौतिक उपकरणों को पर्ण कर लेने में हमारी सफलता विद्वत् खण्ड/६८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण हमारे मन में आत्मविश्वास और अभिमान की सम्पूर्ण पर्यावरण एक जीवंत इकाई है। जैन धर्म का एक ऐसी मनोदशा उत्पन्न हो गई है, जिसके कारण हमने दार्शनिक आधार यह है कि सम्पूर्ण लोकरचना में जीव तत्व प्रकृति के ज्ञान का संचय और मानवीकरण करने की बजाय की प्रमुख भूमिका है। उसी के उपग्रह से संसार का सामूहिक उसका शोषण करना प्रारंभ कर दिया है। हमारे सामाजिक जीवन स्थिर है। उसी के निमित्त से लोकरचना का सम्पूर्ण जीवन ने हमें साधन तो दिए है, पर लक्ष्य प्रदान नहीं किए। पर्यावरण जीवंत है। हमारी पीढ़ी के लोगों पर एक भयानक अंधता छा गई है। जैन धर्म का नारा है “जिओ और जीने दो"। इस इस अंधता का उपाय कौन खोजेगा? कहीं से कोई प्रकाश “जिओ और जीने दो" में पर्यावरण के जीव तत्व के प्रति किरण फूट सकती है, तो वह मनुष्य ही है। जो स्वरूप आज आदर का भाव निहित है। और पर्यावरण की जैन अवधारणा हमारे सामने है, उसी में से एक ऐसे संसार की रचना करनी में शामिल है - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, उर्जा, पेड़-पौधे, होगी, ऐसा समाज ‘गढ़ना' होगा, जो सत्य, करुणा और वनस्पतियां, हर प्रकार के कीट-पतंग, जीव-जंतु, स्वयं सृजनशीलता पर अवलंबित हो। मनुष्य, और यहां तक कि न दिखाई देने वाली देव नारक जैन धर्म संसार का वह पहला और अब तक आखिरी धर्म योनियां भी। इस समग्र पर्यावरण का आदर, तात्पर्य, इसे है जिस ने धर्म का मूलाधार पर्यावरण-सुरक्षा को मान्य किया अपनी तरह जीने और मरने का मौलिक अधिकार की है। भगवान महावीर का सब से पहला उपदेश आचारांग में स्वीकृति, दूसरे शब्दों में, पर्यावरण-सुरक्षा, स्वयं पर्यावरण संकलित किया गया। आचारांग का पहला अध्ययन षटकाय के जीव तत्व के द्वारा, पर्यावरणीय सुख के लिए उसमें जीवों की रक्षार्थ रचा गया। महावीर ने स्पष्टतः जोर दे कर किसी प्रकार की दखलदाजी दिए बिना जैन धर्माचार की निर्देशा कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रसकाय मूल अवधारणा है। जैन पर्यावरण को मनुष्य के सुख का जीव जीव हैं, साक्षात प्राणधारी जीव। इन्हें अपने ढंग से जीने उपकरण मात्र नहीं मानते। पर्यावरण की अक्षमता का लाभ देना धर्म है, इन्हें कष्ट पहुंचाना या नष्ट करना हिंसा है, पाप है। उठाते हुए उसे अपना गुलाम बनाना, अपनी लिप्सा के लिए अहिंसा परम धर्म है और हिंसा महापाप। इन्हीं षट्काय जीवों उन का विनाश या तोड़-फोड़ करना जैनों की निगाह में घोर की संतति पुरानी शब्दावली में संसार और आधुनिक मानवीय अपराध है, जिस कारण हिंसक मनुष्य घोर नारकीय शब्दावली में पर्यावरण से अभिहित है। अपने संयत और दु:खों का बंध करता है और अपनी दु:ख-श्रृंखला को कभी सम्यक् आचरण से इस षटकायिक पर्यावरणीय संहति की न समाप्त होने वाली आयु प्रदान करता है। पर्यावरण को रक्षा करना जैन धर्म का मूलाधार है। अपने ढंग से जीने देना, उस में कम से कम दखलंदाजी जैन धर्म ने ही सब से पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि करना पर्यावरण-सुरक्षा की स्वाभाविक गारंटी है। और वनस्पतियों को जीव कहा। त्रसकाय जीवों को तो और मितव्ययता जैन धर्म-दर्शन के व्यावहारिक पहलू की भी विचारक जीव या प्राणी मानते रहे। इधर आ कर विज्ञान रीढ़ है। मितव्ययता की परिभाषा है- विवेकसम्मत ने सर जगदीश चन्द्र बसु की खोज के आधार पर आवश्यकता की पूर्ति के लिए कम से कम वस्तुओं का वनस्पतियों को जीव मानना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु अब उपभोग। मितव्ययता की पूर्व शर्त है, वैराग्य और त्याग षट्कायों के पहले चार काय, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि को भाव, जिस से फलित होती है पर वस्तुओं की लिप्सा की जीव श्रेणी में केवल जैन ही रखते हैं और उन्हें अन्य जीवों कमी। कम हो चुकी या होती हुई लिप्साओं से परवस्तुओं की भांति अपने धर्माचार में स्थान दिए हुए हैं। इस आस्थागत की कम से कम आवश्यकताओं की अनुभूति पैदा होती है। अवधारणा के आधार पर न केवल यह पृथ्वी प्रत्युत् ब्रह्माण्ड कम होती हुई आवश्यकताओं का मापदण्ड है- वस्तुओं का की सारी पृथ्वियाँ, यथा-ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र, सम्पूर्ण कम से कम मितव्ययीय उपयोग। जीने के हर कदम पर जैन वायु मण्डल, जलाशय तथा अग्निस्रोत सब के सब एकेन्द्रिय मितव्ययता सूत्र को लागू करते हैं। जितनी कम से कम जीव है जिनके अधीन असंख्यात त्रसकाय जीवों की द्विन्द्रिय जरूरत हो उसी के मुताबिक खनिज, हवा, पानी, उर्जा, से लेकर पंचेन्द्रिय योनियाँ आश्रय लिए हुए हैं। इस प्रकार वनस्पतियां, त्रस जीवों के शरीर और उन की सेवाएं उपभोग जैन मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अथवा लोक-रचना में ली जाएं। जिस आचरण से किसी जीव के सर्वथा जीवतत्व से ओत-प्रोत है। सम्पूर्ण लोक जीवंत है। अत: प्राणहरण हो जाएं उससे बचा जाए। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/६९ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ने संसार के स्वरूप का विवेचन विभिन्न द्रव्यों और क्रूरता जन्म लेती है, विलासिता बढ़ती है और हम अधार्मिक पदार्थों के माध्यम से किया है। वह केवल आत्मा और हो जाते हैं। परमात्मा के स्वरूप पर ही विचार नहीं करता, अपितु मनुष्य हमने शरीर के स्वभाव को समझने में जो भूल की वही और उसके आसपास के वातावरण का भी अध्ययन प्रस्तुत भूल प्रकृति को समझने में करते हैं। प्रकृति के प्राणतत्व का करता है। प्रकृति और मनुष्य को गहराई से जानने और संवेदन हमने अपनी आत्मा में नहीं किया। हम यह नहीं जान समझने का प्रयत्न ही पर्यावरण को सही ढंग से संरक्षित सके कि वृक्ष हमसे अधिक करुणावान एवं परोपकारी हैं। करने का आधार है। मनुष्य सम्पदा, जल-समूह एवं हमने धरती की ये धड़कनें नहीं सुनी, जो उसका खनन करते वायुमण्डल के समन्वित आवरण का नाम है-पर्यावरण। समय उससे निकलती हैं। प्रकृति का स्वभाव जीवन्त वस्तुतः सम्पूर्ण प्रकृति और मनुष्य के उसके साथ सम्बन्धों सन्तुलन बनाये रखने का है, उसे हम अनदेखा कर गये। में मधुरता का नाम ही पर्यावरण-संरक्षण है। पर्यावरण के हमने प्रकृति को केवल वस्तु मान लिया, लेकिन वस्तु का विभिन्न आधार और साधन हो सकते हैं। किन्तु धर्म उनमें स्वभाव क्या है, यह जानने की हमने कोशिश नहीं की। प्रमुख आधार है। समता, अहिंसा, संतोष, अपरिग्रहवृत्ति, परिणामस्वरूप हमने अपने क्षणिक सुख और अमर्यादित शाकाहार का व्यवहार आदि जीवन-मूल्यों के द्वारा ही स्थायी लालच की तृप्ति के लिए प्रकृति को रौंद डाला, उसे क्षतरूप से पर्यावरण को शुद्ध रखा जा सकता है। ये जीवन- विक्षत कर दिया, उसका परिणाम हमारे सामने है। जैसे मूल्य जैन धर्म के आधार स्तम्भ हैं। मनुष्य जब अपने स्वभाव को खो देता है तब वह क्रोध __ धर्म के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए जैन आगमों में करता है, विनाश की गतिविधियों में लिप्त होता है, वैसे ही एक महत्वपूर्ण गाथा कही गयी है - स्वभाव से रहित की गयी प्रकृति आज अनेक समस्याएं पैदा धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। कर रही है। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। शरीर, प्रकृति एवं अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वभाव की वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस जानकारी के साथ यदि व्यक्ति आत्मा के स्वभाव को भी आत्मा के भाव धर्म हैं। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं जानने का प्रयत्न करे तो वस्तुओं को संग्रह करने एवं उनमें सम्यग्चारित्र) धर्म हैं तथा जीवों का रक्षण करना धर्म है। धर्म आसक्ति की भावना धीरे-धीरे कम हो जायेगी। क्योंकि ये की यह परिभाषा जीवन के विभिन्न पक्षों को समुन्नत करने सब वृत्तियां भयभीत, असुरक्षित, अज्ञानी व्यक्ति की निर्भरता वाली है। पर्यावरण की शुद्धता के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के । के कारण उत्पन्न हुई हैं। जब मानव को यह पता चल जाय धर्म की बड़ी सार्थकता है। कि उसकी आत्मा स्वयं सभी शक्तियों से युक्त है, उसे धर्म नाम स्वभाव का बाहर की कोई शक्ति सहारा नहीं दे सकती और न ही वस्तु के स्वभाव को धर्म कहना बड़ी असाम्प्रदायिक आत्मा को कोई नुकसान पहुंचा सकता है तब मानव स्वयं घोषणा है धर्म के सम्बन्ध में। कोई जाति, कोई व्यक्ति, निर्भय बन जायेगा, आत्म निर्भर बन जायेगा। फिर उसे किसी शास्त्र, किसी देश या विचारधारा का इस परिभाषा में वस्तुओं के ढेर और शस्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता? कोई बन्धन नहीं है। विश्व की जितनी वस्तुएं हैं, उनके मूल जो व्यक्ति अपनी आत्मा के स्वभाव को जान लेगा कि वह स्वभाव को जान लेना, उन्हें अपने-अपने स्वभाव में ही रहने दयालु है, जीवन्त है, निर्भय है तब वह यह भी जान जायेगा देना सबसे बड़ा धर्म है। हमारे शरीर का स्वभाव है- जन्म कि विश्व के सभी प्राणियों का स्वभाव यही है। तब अपनी लेना, वृद्धि करना और समय आने पर नष्ट हो जाना इत्यादि। आत्मा जैसे कीमती एवं उपयोगी प्राणियों की हत्या, दमन, किन्तु जब हम इससे भिन्न शरीर से अपेक्षा करने लगते हैं शोषण करने की क्या आवश्यकता है? इस समता के भाव तो हम अधर्म की ओर गमन करते हैं। शरीर को अधिक से ही क्रूरता मिट सकती है। आत्मा के इसी स्वभाव को सुख देकर उसे अमर बनाना चाहते हैं। बाहरी प्रसाधनों से जानने के लिए क्षमा, मृदुता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, सजाकर उसकी भीतरी अशुचिता से मुख मोड़ना चाहते हैं। तप, त्याग निस्पृही वृत्ति, ब्रह्मचर्य इन दस प्रकार के आत्मिक अपने शरीर के सुख के लिए दूसरों के शरीर को समय से गुणों को जानने को धर्म कहा गया है। इन गुणों की साधना पहले नष्ट कर देना चाहते हैं तो इससे शोषण पनपता है, से आत्मा और जगत के वास्तविक स्वभाव के दर्शन हो विद्वत् खण्ड/७० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं। इसी स्वभाव रूपी चादर के सम्बन्ध में संत कबीर चलने, ठहरने, बैठने और सोने की क्रियाओं का धरती ने कहा है के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन क्रियाओं को यदि या चादर को सुर-नर मुनि ओढ़ी विवेकपूर्वक और आवश्यकता के अनुसार सीमित नहीं ओढ़ के मैली कीनी । किया जाता तो सारे संसार की हिंसा इनमें समा जाती है। दास कबीर जतन कर ओढ़ी। दो गज जमीन की आवश्यकता के लिए पूरा विश्व ही छोटा ज्यों की त्यों धर दीनी ।। पड़ने लगता है। ये क्रियाएं फिर हमारी आंखों के दायरे से जतन की चादर बाहर होती हैं। अतः उनके लिए की गयी हिंसा, बेईमानी विश्व के चेतन, अचेतन सभी पदार्थों के आवरण से और शोषण हमें दीखता नहीं हैं, या हम उसे नजर-अंदाज देवता, मनुष्य, ज्ञानीजन सभी व्याप्त रहते हैं। पर्यावरण की कर देते हैं। अपना पाप दूसरे पर लाद देते हैं। इससे चादर उन्हें ढके रहती है, किन्तु अज्ञानी जन अपने स्वभाव पर्यावरण के सभी घटक दूषित हो जाते हैं। धरती की सारी को न जानने वाले अधार्मिक उस प्रकृति की चादर को मैली खनिज-सम्पदा हमारे ठहरने और सोने के सुख के लिए बलि कर देते हैं। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पर्यावरण को चढ़ जाती है। दूसरी महत्वपूर्ण क्रिया भोजन की है। आचार्य दूषित कर देते हैं। किन्तु कबीर जैसे स्वभाव को जानने वाले कहते हैं, यत्नपूर्वक भोजन करो। इस सूत्र में अल्प भोजन, धार्मिक संसार के सभी पदार्थों के साथ जतन (यत्नपूर्वक) शुद्ध भोजन, शाकाहार आदि सभी के गुण समाये हुए हैं। का व्यवहार करते हैं। न अपने स्वभाव को बदलने देते हैं भोजन प्राप्ति में जब तक अपना स्वयं का श्रम एवं साधन औन न ही पर्यावरण और प्रकृति के स्वभाव में हस्तक्षेप करते की शुद्धता सम्मिलित न हो तब तक वह यत्नपूर्वक भोजन हैं। प्रकृति के सन्तुलन को ज्यों का त्यों बनाये रखना ही करना नहीं कहलाता है। व्यक्ति यदि इतनी सावधानी अपने परमात्मा की प्राप्ति है। तभी साधक कह सकता है- "ज्यों भोजन में कर ले तो अतिभोजन और कुभोजन की समस्या की त्यों धर दीनी चदरिया।" अपने स्वभाव में लीन होना समाप्त हो सकती है। पौष्टिक, शाकाहारी भोजन का व्यापक ही स्वस्थ होना है। जब पर्यावरण स्वस्थ होगा तब प्राणियों का प्रचार यत्नपूर्वक भोजन दृष्टि से ही किया जा सकता है। जीवन स्वस्थ होगा। स्वस्थ जीवन ही धर्म साधना का आधार इससे कई प्रकार के स्वास्थ्य प्रदूषणों को रोका जा सकता है। अत: स्वभावरूपी धर्म पर्यावरणशोधन का मूलभूत उपाय है। यत्नपूर्वक वचन-प्रयोग करने की नीति जहाँ व्यक्ति को है। साधक है तो आत्म-साक्षात्कार रूपी धर्म विशुद्ध हित-मित और प्रिय बोलने के लिए प्रेरित करती है, वहीं पर्यावरण का साध्य है, उद्देश्य है। कबीर ने जिसे "जतन" इससे ध्वनि-प्रदूषण को रोकने में भी मदद मिल सकती है। कहा है, जैनदर्शन के चिन्तकों ने हजारों वर्ष पूर्व उसे मनोभाव एवं मानसिक प्रदूषण से वर्तमान मानव सभ्यता यत्नाचार धर्म के रूप में प्रतिपादित कर दिया था। उनका एवं प्रकृति व्यापक एवं गहन रूप से प्रभावित हुई है। मानव उद्घोष था कि संसार में चारों ओर इतने प्राणी, जीवन्त जीवन की सरलता, सज्जनता, निष्कपटता, निश्छलता, प्रकृति भरी हुई है कि मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं की परदुःखकातरता, स्वावलंबन, कर्तव्यनिष्ठा, श्रमनिष्ठा, परस्परपूर्ति करते समय उनके घात-प्रतिघात से बच नहीं सकता। सहयोग, प्राणि-मात्र के प्रति दया एवं करुणा आदि ऐसे सहज किन्तु यह प्रयत्न (जतन) तो कर सकता है कि उसके मानवीय गुण हैं जो मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठता जीवनयापन के कार्यों से कम से कम प्राणियों का घात हो। प्रदान करते हैं और जिसके संतुलन से प्रकृति-व्यवस्था संतुलित उसकी इस अहिंसक भावना से ही करोड़ों प्राणियों को एवं मर्यादित चलती रहती है। किन्तु जब इन मानवीय गुणों का जीवनदान मिल जाता है। प्रकृति का अधिकांश भाग जीवन्त ह्रास होता है या इन गुणों का प्रतिपक्षी मनोभाव मानव जीवन को बना रह सकता है। आचार्य ने कहा है आक्रान्त करते हैं तब उससे न केवल व्यक्ति किन्तु समाज भी जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सये। दुःखी होता है। इससे प्राकृतिक संतुलन भी अस्त-व्यस्त हो जय भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण वज्झई।। जाता है जैसा कि वर्तमान में मनोविकृत सामाजिक अव्यवस्था "व्यक्ति यत्न-पूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, एवं प्राकृतिक असंतुलन के दुष्परिणामों को हम अनुभूत कर रहे यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो हैं। वस्तुतः इन सब विकृतियों के लिये मानव जगत का इस प्रकार के जीवन से यह पाप-कर्म को नहीं बाँधता है।" मानसिक प्रदूषण ही उत्तरदायी है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/७१ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यावरण शुद्धि हेतु यह आवश्क है कि मानवीय जैन धर्म की बुनियाद है-अहिंसा। इसीलिए अहिंसा को मानसिक प्रदूषण को नियंत्रित, संयमित एवं संतुलित कर परम धर्म कहा गया है। केवल जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म उसे जनोपयोगी बनाया जावे, इस कार्य में सत्तासीन एवं है जिसने अहिंसा की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्चा की है। जैन धर्म प्रशासन में बैठे व्यक्तियों की मनोवृत्ति ही एकमात्र जैसा मानता है कि प्रत्येक जीव में आत्मा रहती है और सभी घटक है जो व्यक्तिगत एवं सामाजिक प्रदूषण को प्रभाव- आत्माएं समान हैं। पंचेन्द्रियधारक बड़े जीव हों या एकेन्द्रिय पूर्वक नियन्त्रित एवं संतुलित कर पर्यावरण शुद्ध कर सकता धारक जीव-सब जीना चाहते हैं। इसीलिए जैन धर्म के है। व्यक्ति एवं समाज सत्तासीनों तथा राज-प्रभुओं के मतानुसार किसी भी जीव का दमन करना, उसे दु:ख आचरण का प्रतिबिम्ब होने के कारण सुधार की प्रक्रिया पहुँचाना, उसे गुलाम बनाना, उस पर सितम ढाना या उसका उच्च सत्तासीनों से आरम्भ होना वांछनीय है। प्राण-हरण करना महापाप है, हिंसा है। सभी जीवों को जीने व्यक्ति एवं समाज की अशुभ प्रवृत्तियों, असदाचार, का अधिकार है। उन पर प्रेम, करुणा और दया रखनी असंयम को रोकने में रामकृष्ण, महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, चाहिए। जैन धर्म सर्वजीवों को जीने का प्रकृतिदत्त अधिकार ईसा, जरस्थु एवं उनके अनुयायी महर्षियों का महत्वपूर्ण स्वीकार करता है। उसमें प्रकृति के किसी भी पदार्थ के प्रति योगदान रहा, जिन्होंने वैचारिक शुद्धता-शुभता से व्यक्ति- शत्रुता, नफरत या विरोध के भाव को जरा भी स्थान नहीं सुधार द्वारा समाज-सुधार के वैज्ञनिक प्रयोग किये हैं। है। जैन धर्म जीव-सृष्टि एवं प्रकृति-सृष्टि के प्रति प्रेम, दुर्भाग्य का विषय है कि वर्तमान में भौतिकता की चकाचौंध सम्मान, करुणा, आदर, सहिष्णुता, दया, मैत्री, स्नेह, क्षमा में हमने इन महापुरुषों द्वारा बताये गये सुख के शाश्वत मार्ग और समता से व्यवहार करने का बोध देता है। को विस्मृत कर दिया है और अपने को अपटूडेट घोषित कर हम तो अनगिनत जीवों में से एक जीव हैं, अनंत दिया है। हमारी इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति एवं समाज आकाश तथा अनंत काल के चक्र में इस असीम विश्व का सहज मानवीय उदात्त भावनाओं से भटक गया है और हम अस्तित्व है और ऐसी अनंतता के एक बिन्दु के समान यह एक कृत्रिम जीवन जीने को विवश हो गये हैं जो शारीरिक- पृथ्वी है जिसके असंख्य जीवों में से हम एक क्षुद्र जीव हैं। ब्याधि, मानसिक-विक्षिप्तता एवं प्राकृतिक-प्रदूषण के रूप में कास्मोलॉजी या वैश्विक विज्ञान का यह जैन सिद्धांत समझ हमारे सामने अपनी विकरालता सहित अनुभूत हो रहा है। में आ जाय-तो हम जीवन के सभी क्षेत्रों में अहंकार या पर्यावरण का अर्थ होता है: जीव-सृष्टि एवं वातावरण का अहम् को छोड़कर विनम्र बन सकते हैं। हमें प्रकृति के पारस्परिक आकलन, जिसमें सजीव प्राणी, आबहवा, भूगर्भ नियमों और उनके अर्थों को वैज्ञनिक ढंग से सिद्ध करना और आसपास की परिस्थिति विषयक विज्ञान का समावेश चाहिए। वही हम सबकी नीति और हमारा परम धर्म बन होता है। यदि पर्यावरण को व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो सकेगा। "युनाइटेड नेशन्स वर्ल्ड चार्टर ऑन नेचर'' का भी उसमें केवल मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वनस्पति और यही संदेश है कि हमें समग्र मानव जाति के अस्तित्व तथा आकाश, अनंत सूक्ष्म जीव-सृष्टि का ही नहीं, अपितु समग्र विकास के लिए यही पद्धति अपनानी पड़ेगी। ब्रह्माण्ड, तारकवृंद, सूर्य-मंडल तथा पृथ्वी के आसपास के प्राचीन साधकों की इस यत्नपूर्वक (प्रमाद-रहित) जीवन सूर्य, चन्द्र, ग्रह और गिरि-कन्दरा, पर्वत, सरिता, सागर, पद्धति को आधुनिक मनीषियों ने भी वाणी दी है एवं लोकझरने, वन-उपवन, वृक्ष, वनस्पति, पुष्प तथा भूपृष्ठ, जलपृष्ठ जीवन ने उसे आत्मसात् कर अपने उद्गार व्यक्त किये हैं। सहित जीव-सृष्टि के सभी प्राकृतिक पदार्थ एवं पृथ्वी, हवा, बंगला कहावत में कहा गया है - पचे सोई खाइबो, रुचे अग्नि, जल, गगन जैसे पंचमहाभूत तत्वों का भी समावेश सोई बोलिबो। होता है। जैन धर्म के मूलाधार सिद्धांतों पर यदि सुचारु एवं आत्मालोचन से शुद्धि सुयोग्य तरीके से अमल किया जाय तो प्रकृति की सुरक्षा प्रदूषण का अर्थ है किसी स्वाभाविक वस्तु में विकार आ करने में उनका सहयोग प्राप्त होता है, पर हमें इस बात की जाना। असली में नकली वस्तु का, तत्व का मिल जाना शुद्ध जानकारी सर्वप्रथम प्राप्त करनी चाहिए कि जैन धर्म के वस्तु का अशुद्ध हो जाना है। मिलावट की यह प्रक्रिया शरीर मूलभूत सिद्धांत कौन-कौन से हैं? उनकी विस्तार से ऊपर में, प्रकृति में एवं आत्मा के स्वभाव में कर्मों के रजकणों चर्चा की जा चुकी है। के द्वारा, दूषित वृत्तियों (कषायों) के द्वारा निरन्तर होती विद्वत् खण्ड/७२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहती है। “कषाय" जैनदर्शन का लाक्षणिक शब्द है। यही सब जीवन के सुख बढ़े, आनन्द-मंगल होय। संसार-भ्रमण एवं कर्म-परम्परा का मूल कारण है। कषाय समस्या का मूल का अर्थ ही है-मटमैला, अशुद्ध। इसको शुद्ध करना ही धर्म की परिभाषा में जो वस्तु का स्वभाव, आत्मा के रत्नत्रय की साधना का उद्देश्य है। शुद्धिकरण की इस क्षमा आदि गुण एवं रत्नत्रय की आराधना का निरूपण किया प्रक्रिया के विकास में जैन साधना-पद्धति में एक आलोचना- गया है उसको संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कह दिया गया पाठ बहुत प्रचलित है, जिसके द्वारा श्रद्धालु श्रावक अपने द्वारा । कि- "जीवाणं रक्खणं धम्मो।" धर्म का यह सूत्र पर्यावरण किये प्रदूषणों के प्रति स्वयं की आलोचना करता है और शुद्धता के लिए बहुत उपयोगी है। क्योंकि गहराई से देखें तो उन्हें आगे न करने की प्रतिज्ञा करता है पर्यावरण को प्रदूषित करने में दो ही मूल कारण हैं - तृष्णा “करूं शुद्ध आलोचना, शद्धिकरन के काज" और हिंसा। इनके पर्यायवाची हैं- परिग्रह और क्रूरता। इनमें कवि जौहरीलाल ने इस आलोचना पाठ में जीवन में प्रथम साध्य है और दूसरा साधन। आश्चर्य की बात तो यह प्रमादवश जितने हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, क्रूरता, है कि हम हिंसा-निवारण की तो बात करते हैं, आन्दोलन लोभ आदि के अनुचित कार्य हो जाते हैं, उनकी आलोचना की चलाते हैं, प्रतिदिन पूजन-प्रार्थना में अहिंसा की साधना का है और कहा है कि हम अपने स्वभाव को भूलकर विभाव का पाठ दुहराते हैं किन्तु परिग्रह की वृत्ति को गले लगाते हैं, आचरण करते हैं इसलिए हम परम-पद को नहीं पाते हैं। परिग्रही को सम्मान देते हैं। हिंसा-निवारण या प्रदूषण-शोधन . "जतन' को स्वीकृति देते हुए कहा गया है में उस धन का उपयोग करना चाहते हैं, करते हैं, जो हिंसा किय आहार निहार विहारा, इनमें नहिं 'जतन' विचारा। और प्रदूषण के माध्यमों से ही एकत्र किया गया है। इसी बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी वसत जु खाई।। आत्मघाती विपरीत प्रक्रिया के कारण हिंसा या प्रदूषण घटने ___ इतनी सावधानी की चिन्ता यदि गृहस्थ जीवन में धार्मिक की बजाय दिनोंदिन बढ़ा है। व्यक्ति करने लग जाय तो उसकी कथनी-करनी का अन्तर आज उद्योगों के केन्द्रीकरण, यान-वाहनों के मिट जाय। वनस्पति की रक्षा की भावना उसके मन में है। अधिकाधिक प्रयोगों एवं अणुशस्त्रों और विभिन्न वैज्ञानिक किन्तु स्वार्थ और दयाहीनता के कारण उसने हरियाली को प्रयोगों से अन्तरिक्ष में इतना कचरा फैल गया है कि उससे उजाड़ दिया है। अत: अपने को वह अपराधी मानता है- आकाश में व्याप्त प्राणवायु समाप्त होने लगी है। जंगलों को हा, हा, मैं अदयाचारी, बह हरित काय तो विदारी। काटने की बढ़ोत्तरी से पर्यायवरण से ऑक्सीजन का भण्डार जल प्रदूषण का भागीदार होने का उसे आभास है। वह समाप्त हो रहा है। कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से कीड़ेकहता है मकोड़ों की कई प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं। धरती ने अपनी जलभल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कल बहुघात करोयो। उर्वरक शक्ति का रूप बदल दिया है। जल के जीवों की नदियन- बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये।। हिंसा ने स्वाभाविक जल-शोधन की प्रक्रिया में बाधा आलोचना पाठ के मात्र इस पद को यदि आज उद्योग के उपस्थित कर दी है। अनावश्यक खून-खराबे ने सारे क्षेत्र में पालन करने की अनिवार्यता हो जाय तो जल-प्रदूषण पर्यावरण को क्रूर और लोभी बना दिया है। इस प्रदूषण को का अधिकांश भाग स्वयमेव रूक जायेगा। जो धार्मिक व्यक्ति अब कृत्रिम साधनों से नहीं रोका जा सकता। क्योंकि अपने दैनिक जीवन में जलचर जीवों की रक्षा की बात सोचता पर्यावरण-संशोधन की कई प्रक्रियाएँ अब व्यापारिक हो गयी है वह अपने उद्योग-धंधे में उनके विनाश की बात कैसे हैं। स्वार्थ के कारण भ्रामक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के कारण सोचेगा? द्रव्य का अर्जन करना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। प्रदूषण-निरोध के अधिकांश उपाय अब भरोसेमंद नहीं रहे। तृष्णा की खाई को कौन भर सका है? अत: करुणा के मूल्य तब इनके कुछ अन्य विकल्प खोजने होंगे। प्रदूषण की को प्रतिष्ठा देना ही सच्चे मानव का उद्देश्य होना चाहिए। इस समस्या को हिंसा और लालच की समस्या मानकर उसका आलोचना पाठ का कवि अन्त में यही कामना करता है कि समाधान करना अधिक उपयोगी होगा। यदि मैं यत्नपूर्वक अपना जीवन चलाने लग जाऊँ और 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त को व्यवहार में अपना लूँ तो संसार अधिष्ठाता, कला संकाय के सभी प्राणी सुखी हो सकते हैं सुखाड़िया विश्व विद्यालय, उदयपुर शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/७३ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० रचना जैन . कोशिकाओं वाले हैं व कुछ असंख्यात्मक व अनन्त कोशिकाओं वाले हैं। इस प्रकार के विभाजन आधुनिक वनस्पति-शास्त्र में भी उपलब्ध हैं। भगवतीसूत्र में वृक्ष के मूल, कन्द, स्कन्ध, बीज, फल, पुष्प आदि अनेक भागों का विश्लेषण भी दिया गया है। इस ग्रंथ में वनस्पति में संवेदन क्रिया पायी जाती है। इसका उल्लेख भी है, जिसका प्रमाणीकरण विज्ञान के क्षेत्र में प्रोफेसर जगदीश चन्द्र बोस स्थापित कर चुके हैं। वनस्पति जीवों की रक्षा करने की प्रेरणा भी इस ग्रंथ में दी गई है। इन प्रमुख बिन्दुओं पर प्रस्तुत लेख में विचार करने का प्रयत्न किया गया है। वनस्पतियों में जीवन : भगवतीसूत्र में वनस्पति विज्ञान से सम्बन्धित अनेक प्रसंग हैं। वनस्पति में जीव होते हैं इस बात को प्रमाणित करने के लिये इस ग्रन्थ के उस प्रसंग से जानकारी प्राप्त होती है जिसमें भगवान महावीर और गोशालक के बीच तिल के पौधे के विषय में प्रश्नोत्तर हुआ था। जब ये दोनों सिद्धार्थ नगर से कूर्मग्राम की ओर जा रहे थे तब एक स्थान पर पत्रप्राकृत आगम साहित्य में पुष्प युक्त हरे-भरे तिल के पौधे को देख कर गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा कि इस तिल के पौधे के पुष्पों के जीव मर कर कहां उत्पन्न होंगे और यह पौधा पूरा विकास जैन आगमों में आधुनिक विज्ञान की पर्याप्त सामग्री प्राप्त करेगा या नहीं? महावीर ने कहा कि इस तिल के ये उपलब्ध है। कुछ विद्वानों ने इस क्षेत्र में कार्य भी किया है। सात फूल मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिल फली भगवतीसूत्र में भी आधुनिक विज्ञान के कई तथ्य उपलब्ध हैं। में सात तिलों के रूप में उत्पन्न होंगे। महावीर की इस बात डॉ० जे.सी. सिकदर ने इस विषय पर अपने शोधप्रबन्ध में को मिथ्या सिद्ध करने के लिए गोशालक ने थोड़ा पीछे संक्षेप में प्रकाश डाला है। भगवतीसूत्र के विभिन्न संस्करण रुककर चुपचाप उस पौधे को मिट्टी और जड़ सहित वहीं के सम्पादकों ने भी इस प्रकार के संकेत दिये हैं। उन सबका फेंक दिया और आगे निकल गया। थोड़े समय बाद वहां गहराई से अध्ययन किया जाना आवश्यक है। वर्षा हुई और वह तिल का पौधा वहीं पर फिर मिट्टी के जैन आगमों में वनस्पति-शास्त्र की पर्याप्त सामग्री बीच पनप गया और जब वह गोशालक बाद में उस रास्ते उपलब्ध है। भगवान महावीर और गौशाल मंखलीपुत्र के से वापस लौटा तो उसे उस तिल के पौधे में तिल की फली बीच हुये संवाद में पौधे और उनके विकास के सम्बन्ध में और उसमें सात तिल प्राप्त हुये। इसलिये यह सिद्ध हुया कि प्रकाश डाला गया है। विभिन्न प्रकार के धान्य, जौ, दालें एवं वनस्पतिकायक जीव मर-मर कर उसी वनस्पति काय के अन्य तिलहनों के पौधों के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में बताया शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैंगया है कि कम से कम अन्तर्मुहूर्त व अधिक से अधिक एवं खलु गोसाला। वणस्सतिकाइया पउपरिहारं परिधति सात वर्ष का समय बीज, बीज से पौधे के रूप में आने में (शतक १५ उद्देशक।) लगा सकते हैं। जैन आगमों में यह भी बताया गया है कि इस भगवतीसूत्र में अन्यत्र भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु विभिन्न ऋतुओं में कौन-कौन से पौधे उत्पन्न होते हैं। गर्म व और वनस्पतिकाय में जीवन शक्ति है, इसका प्रतिपादन ठण्डी जलवायु का भी पौधों के विकास पर प्रभाव पड़ता है। किया गया है। इसके पूर्व भी आचारांगसूत्र में वनस्पति में जैन आगमों में पौधों के भोजन के सम्बन्ध में भी सामग्री जीव होने के सात लक्षण प्रतिपादित किये गये हैं। दी गई है। ग्रंथ में कहा गया है कि कुछ पौधे संख्यात्मक विद्वत् खण्ड/७४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न संज्ञाए : भगवतीसूत्र में वनस्पतिकाय में दस आहार संज्ञा इत्यादि भी बतलाई गई हैं। इन संज्ञाओं के अस्तित्व के कारण वनस्पति में अस्पष्ट रूप से वे सब व्यवहार होते हैं जो मनुष्य या विकसित प्राणी स्पष्ट रूप से करते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस आदि ने इसी बात को वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध भी किया है। अंकुरण क्षमता का समय : भगवतीसूत्र में विभिन्न प्रकार के कृषि उत्पादनों के अन्तर्गत अनेक प्रकार के पेड़-पौधों और बीजों का विवरण प्राप्त होता है। वहां यह बतलाया गया है कि किस प्रकार विभिन्न प्रकार के बीज पौधों के रूप में विकसित होते हैं । ग्रन्थ के छठवें शतक के सातवें साली नामक उद्देशक में कहा गया है कि यदि कमल आदि जाति सम्पन्न चावल (शाली), सामान्य चावल (ब्रीहि), गेंहू (गोधूम), जौ (यव), इत्यादि धान्य कोठे में सुरक्षित रखे हों, बांस के पटले में, मंच पर, बर्तन में डालकर विशेष प्रकार से लीपकर छंदित किये हुये, लांछित करके रखे हुये हों तो उनकी अंकुरोप्ति में हेतु भूत शक्ति योनि कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिक से अधिक तीन वर्ष तक कायम रहती है। " इस प्रकार कलाय, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, बाल, कलथ, आलिसन्दक, तुअर, काला चना इत्यादि को उपर्युक्त तरीके से रखा गया हो तो उनकी उत्पादन क्षमता कम से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट योनि पांच वर्ष तक होती है। इसी प्रकार अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव, कांगणी, बरट, राल, सण, सरसों मूलक बीज आदि धान्यों की उत्पादन क्षमता कम से कम अन्तमुहूर्त एवं उत्कृष्ट योनि के कायम रहने का काल सात वर्ष है। इस निर्धारित अवधि के बाद इन सभी प्रकार के धान्यों की अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है और बीज अबीजक हो जाते हैं।" आहार संग्रहण : भगवतीसूत्र में वनस्पति विज्ञान के सम्बन्ध में जो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं उनमें से जो प्रमुख .हैं यहां उन पर विचार करना आवश्यक है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि वनस्पति कायक जीवन विभिन्न ऋतुओं में भिन्न प्रकार से अपना आहार ग्रहण करते हैं। पावस (वर्षा) ऋतु में वनस्पतियां सबसे अधिक आहार करने वाली होती है। इसके बाद शरद ऋतु व हेमन्त ऋतु में उससे कम आहार करती हैं तथा बसन्त व ग्रीष्म ऋतु में क्रमश: अल्पाहारी हो जाती हैं।" ग्रन्थ के इस कथन का अर्थ है कि वनस्पतियां जल की शिक्षा - एक यशस्वी दशक उपलब्धता, अधिकता और कमी को ध्यान में रखते हुये ऋतुओं के अनुसार अपना आहार (पोषण) ग्रहण करती हैं। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि पौधे संकट काल के लिये भी अपने अंगों में आहार संचित कर रख लेते हैं। इसी ग्रन्थ में गौतम गणधर ने यह जिज्ञासा प्रकट की है कि यदि प्रीष्म ऋतु में पौधे कम आहार लेते हैं तो उस समय अनेक पौधे हरेभरे एवं पुष्प एवं फलों से युक्त कैसे होते हैं? तब भगवान महावीर ने समाधान करते हुये कहा कि ग्रीष्म ऋतु में उष्ण योनि वाले कुछ ऐसे वनस्पतिकाय जीव होते हैं जो उष्णता के वातावरण में भी विशेष रूप में उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त करते हैं व हरे-भरे रहते हैं। वनस्पति के विकास का यह क्रम और नियम आधुनिक वनस्पति विज्ञान से भी प्रमाणित है। परासरण की क्रिया : भगवतीसूत्र में यह भी कहा गया है कि वनस्पतिकाय में जो मूल वनस्पति हैं और कन्द वनस्पति हैं, इन सबके जीव अपनी-अपनी जाति के जीवों से जुड़े होते हैं व व्याप्त होते है किन्तु वे पृथ्वी के साथ जुड़े होने से अपना आहार ग्रहण करते हैं और उस आहार को विशेष प्रक्रिया द्वारा वृक्ष के सभी अंगों को वे पहुंचाते रहते हैं । " वनस्पति की इस प्रक्रिया को आधुनिक वनस्पति विज्ञान में ला आफ आसमोसिस (परासरण की क्रिया) कहते हैं। इस क्रिया के अन्तर्गत पौधे की जकड़ा जड़ें आक्सीलरी रूट्स मूलीय दाब के द्वारा पृथ्वी से विभिन्न प्रकार के लवणों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि का जलीय रूप में अवशोषण करके पत्तियों तक पहुंचाती हैं जहां सूर्य के प्रकाश व हरितलवक की उपस्थिति में वे भोजन का निर्माण करके पौधे के प्रत्येक भाग में पहुँचा जाती हैं, जिससे पौधा विकसित होता है। वनस्पति वर्गीकरण : इसी ग्रन्थ में एक जिज्ञासा का और समाधान किया गया है कि आलू, मूला, अदरक, हल्दी इत्यादि के अन्तर्गत आने वाली विभिन्न वनस्पतियां अनन्त जीब वाली हैं और भिन्नभिन्न जीव वाली हैं। इससे कन्द मूल के अन्तर्गत आने वाली २३ वनस्पतियों का नामकरण भी यहां दिया गया है 1 १) आलू २) मूला ३) श्रृंगवेर अदरख ४ ) हिरिली ५) सिरिली ६) सिसिरिली ७) किट्टिका ८) छिरिया ९) छीर विदारिका १०) वज्रकन्द ११) सूरणक १२) खिलूड़ा १३) भद्रमोथा १४) पिंडहरिद्रा १५) हल्दी १६) रोहिणी १७) हूथीहू १८) थिरुगा १९) मृदूकर्णी २०) अश्वकर्णी २१) सिंहकर्णी २२) सिण्डी २३) मुसुण्डी । विद्वत् खण्ड / ७५ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन सबकी आधुनिक वनस्पति विज्ञान की शब्दावली में (बाल जाति), (५) इक्षु (गला आदि), पर्ववाली वनस्पति पहचान की जा सकती है। (६) दर्म (डाभ आदि तृण-घास जाति), (७) अभ्र (घास __भगवतीसूत्र में आठवें शतक के तीसरे उद्देशक का विशेष) एवं (८) तुलसी।। नाम ही रुक्ख शत्तक है। अर्थात् इसमें वृक्ष के सम्बन्ध में ही ___ इस प्रकार भगवतीसूत्र से वनस्पति विज्ञान के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है। इस विवरण में वृक्षों का वर्गीकरण और अधिक सामग्री भी एकत्र की जा सकती है। भगवतीसूत्र तीन प्रकार से किया गया है।" में केवल वनस्पति के सम्बन्ध में ही नहीं, जीवन विज्ञान एवं (१) संख्यात जीव वाले वृक्ष, (the plant with numerable परमाणु विज्ञान के सम्बन्ध में भी सामग्री उपलब्ध है। ज्योतिष beings) एवं गणित विषयक पर्याप्त उल्लेख इस ग्रन्थ में प्राप्त हैं। प्रो० ताड़ (palm treo), तमाल (dark barked xanthochymus जे. सी. सिकदर ने इस विषय में अपना शोधकार्य प्रस्तुत puctorius), तक्काली (pimentaacris), तेतलि किया है। फिर भी विस्तार से और तुलनात्मक दृष्टि से अभी {temarind), नारिकेल (coconut) आदि। शोध करने की आवश्यकता बनी हुई है। (२) असंख्यात जीव वाले वृक्ष (the plant in which there are . सन्दर्भ innumerable beings) इन्हें पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है- १. स्टडीज इन द भगवतीसूत्र-डॉ० जे०सी० सिकदर, वैशाली अ) एक अस्तिकाय (one seeded) १९६४। नीम, आम, जामुन, पलाश, बकुल, करंज, साल २. आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध, उद्देशक ५ ३. जैन आगमों में वनस्पति-विज्ञान (पं० कन्हैयालाल लोढा) ब) बहुबीजका (many seeded) ४. तेण परं जोणी पमिलाति, तेण परं जोणी पंविद्धंसति, तेण परं, अमरूद, दाडिम, तिन्दुका, आंवला, बेल, बीए अबीए भवति, तेण परं जोणिवोच्छेदे पन्नत्ते समणाउसो। आनानास, बट --भगवतीसूत्र, शत्तक - ६, उ. ७ (पृ ७३)। (३) अनन्त जीव वाले वृक्ष (The tree with infinite ५. गोया, गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पुग्गला य beings) वणस्सतिकाइयत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उववज्जति, १-आलुक, २-मूलक, ३-शृगबेर अदरक इत्यादि २३ एवं खलु गोयम । गिम्हासु बहवे वणस्सतिका इया पत्तिया पुष्फिया प्रकार की कंदमूल आदि वनस्पतियां हैं। जाव चिटंति। - भगवतीसूत्र, शत्तक - ७,उ ३ (पृ० १३७)। प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार के वृक्षों का विशेष विवरण गोयमा, मूला मूलजीवफुडा पुढविजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेति दिया गया है। पद सूत्र ४७ गाथा ३७-३८। इस प्रकार का तम्हा परिणामेंति। कंदा कंदजीवफुडा मूलजीवपडिबद्धा तम्हा वर्गीकरण आधुनिक वनस्पति विज्ञान से प्रमाणित होता है। आहारेति, तम्हा परिणामेति। एवं जाव बीया बीय जीव फुडा भगवतीसूत्र के २१, २२ एवं २३शतक विभिन्न फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेति, तम्हा परिणामेति। - भगवतीसूत्र शत्तक - ६, उ. ७ (पृ० १३८) जातियों की वनस्पतियों के विविध वर्गों के मूल से लेकर ७. भगवतीसूत्र, शत्तक-६, उ. ७ पृ० १३९ सम्पादक - युवाचार्य बीज तक के विषय में प्रकाश डालते हैं। इस प्रसंग में । श्री मधुकर मुनि, ब्यावर वनस्पति जगत के साथ कम प्रक्रिया, लेश्या, आहार, ज्ञान, गोयमा. तिविहां रूक्खा पणत्ता - तं जहा - संखेज्जजीविया, गति. मत्य आदि के सम्बन्धों का समाधान किया गया है। असंखेज्जजीविया, अणंतजीविया। - भगवतीसूत्र, शत्तक - यहां पर वृक्ष के १० अंगों का विवेचन भी है। (१) ८, उ. ३ (पृ २९५) मूल, (२) कन्द (३) स्कन्द (४) त्वचा छाल (५) शाखा ९. ए टेक्सबुक आफ इकोनोमिक बाटनी (डॉ० वी० वर्मा, दिल्ली (६) प्रवाल (७) पत्र (८) पुष्प' (९) फल एवं (१०) १९८८) बीज। ये अंग वनस्पति-विज्ञान में आज भी स्वीकत हैं। १०.सालि कल अयसि वंसे उक्खू दब्मे अब्भ तुलसीय। भगवतीसूत्र में सभी वनस्पतियों को आठ वर्गों में विभक्त अद्वैते दसवग्गा असीति पुण होति उद्देसा।। किया गया है - - भगवती सूत्र शत्तक २१ गाथा (१) शालि (धान्य जाति) (२) कलाय (मटर आदि प्राध्यापिका, जीव विज्ञान विभाग दालों का वर्णन) (३) अलसी (तिलहन जाति) (४) वंस अम० बी० पटेल साइंस कॉलेज, आनन्द (गुजरात) विद्वत् खण्ड/७६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीटर जी बीडलर मैं पढ़ाता क्यों हूँ? तुम अध्यापकी क्यों करते हो? मेरे दोस्त ने पूछा क्योंकि मैंने उसे बताया था कि मैं स्कूल में किसी प्रशासकीय पद के लिए आवेदन नहीं देना चाहता। इस बात ने उसे उलझन में डाल दिया। आखिर मैं उस रास्ते को क्यों नहीं अपनाना चाहता था जो जाहिर है उस लक्ष्य की ओर ले जाता है जिसे सब पाना चाहते हैं यानि धन और अधिकार। मैं इसलिए नहीं पढ़ाता कि पढ़ाना मेरे लिए आसान है। रोटीरोजी कमाने के लिए मैने बुलडोजर की मरम्मत, बढ़ईगीरी, विश्वविद्यालय का प्रशासन और लेखन आदि जितने भी काम किए हैं, पढ़ाना उनमें सबसे मुश्किल है। जहाँ तक मेरा सवाल है, पढ़ाने से आँखें लाल हो उठती हैं, शरीर बेजान और मन खिन्न हो जाता है। आँखें इसलिए लाल हो जाती हैं क्योंकि पढ़ाने के लिए मैं अपने को कभी तैयार नहीं पाता, चाहे रात को मैने कितनी भी देर तक बैठकर तैयारी क्यों न की हो, हथेलियाँ पसीने से इसलिए भीग जाती हैं क्योंकि कक्षा में प्रवेश करने से पहले मुझे हमेशा घबराहट होने लगती है। मुझे हमेशा लगता है कि छात्रों पर मेरी बेवकूफी जरूर जाहिर हो जाएगी। मन इसलिए बुझ जाता है क्योंकि एक घंटे बाद जब मैं कक्षा से बाहर आता हूँ तो मुझे इस बात का निश्चय हो चुका होता है कि आज मैंने छात्रों को पहले से कहीं ज्यादा उबाया है। मेरे पढ़ाने की वजह यह भी नहीं है कि मैं प्रश्नों के उत्तर जानता हूँ, या यह कि मैं इतना कुछ जानता हूँ कि उस जानकारी को दूसरों में बाँटने के लिए मजबूर हो जाता हूँ। छात्रों को अपनी पढ़ाई हुई बातों के नोट लेते देख कर मुझे सचमुच कभी-कभी बड़ा आश्चर्य होता है। फिर भी मैं क्यों पढ़ाता हूँ? मैं इसलिए पढ़ाता हूँ क्योंकि जिस ढंग से पढ़ाई का ढर्रा चलता है, वह मुझे पसंद है। जब स्कूल की छुट्टियाँ होती हैं तो मुझे चिंतनमनन, अनुसंधान और लेखन का अवसर मिलता है- ये सब मेरे पढ़ाने के ही हिस्से हैं। .मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि यह परिवर्तन पर आधारित है। पाठ्य सामग्री वही होते हुए भी मुझ में परिवर्तन आता है - और सबसे बड़ी बात यह है कि मेरे छात्रों में भी परिवर्तन आता है। ___मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि मैं खुद गलती करने, खुद सबक सीखने, अपने आप को और अपने छात्रों को प्रेरित करने की स्वतंत्रता को पसंद करता हूँ। ___मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि मैं ऐसे प्रश्न करना पसंद करता हूँ जिनसे छात्रों को उत्तर देने में मेहनत करनी पड़े। संसार बुरे प्रश्नों के अच्छे उत्तरों से भरा पड़ा है। अध्यापन के कारण कभी-कभी मेरे सामने अच्छे प्रश्न भी आ जाते हैं। मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि सीखना पसंद करता हूँ। वास्तव में, अध्यापक के रूप में मेरा अस्तित्व तभी तक है जब तक मैं सीख रहा हूँ। मेरे पेशेवर जीवन की एक सब से बड़ी खोज यह है कि मैं जो जानना चाहता हूँ, वह सबसे अच्छा पढ़ा सकता हूँ। मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि मुझे इस पेशे के स्वांग में अपने आप को और अपने छात्रों को इस मिथ्या संसार से बाहर निकालने और वास्तविक दुनिया में प्रवेश करने के उपाय खोजने में आनंद आता है। मैंने एक बार एक पाठ्यक्रम चलाया था जिसका शीर्षक था : "मशीनी समाज में आत्मनिर्भरता'। मेरे १५ छात्रों ने एमरसन, थोरो और हक्सले को पढ़ा। उन्होंने डायरियाँ लिखीं, सत्र के दौरान लंबे निबंध लिखे। यही नहीं, हमने एक कंपनी की भी स्थापना की। उसके लिए हमने एक बैंक से ऋण लिया, खस्ता हालत वाला एक मकान खरीदा और उसको नया रूप देकर आत्म-निर्भरता के सिद्धांत को अमली जामा पहनाया। अर्धवार्षिक सत्र समाप्त होने पर हमने उस मकान को बेच दिया, अपना कर्जा चुका दिया, अपने करों का भुगतान कर दिया और जो मुनाफा हुआ, उसे कंपनी के सदस्यों में बाँट दिया। निश्चय ही यह अग. जी का कोई सामान्य पाठ्यक्रम नहीं था। लेकिन भावी वकील, अकाउंटेंट और व्यवसायी के रूप में कार्य शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/७७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वाले १५ छात्रों ने अचानक ही नई दृष्टि से थोरो की 'वाल्डेन' पुस्तक पढ़नी आरंभ कर दी। वे सब जानते थे कि वह जंगल में क्यों गया, उसने अपनी झोंपड़ी कैसे बनाई और वह अपने अनुभव को इतना अच्छा क्यों मानता था कि वह उसके बारे में दुनिया को बतलाना चाहता था। उन्हें अब यह भी मालूम था कि अंत में वह उस जंगल को छोड़ कर क्यों चला आया। वह वाल्डेन ताल के पानी का स्वाद चख चुका था। अब अन्य अमृत कुंडों की ओर चल देने का समय आ गया था। मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि पढ़ाने से मुझे विभिन्न प्रकार के अमृत का स्वाद चखने, बहुत से जंगलों में जाने और फिर वहाँ से अन्यत्र चल देने, बहुत सी अच्छी पुस्तकें पढ़ने और मिथ्या तथा वास्तविक संसार के बहुत से अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिलता है। अध्यापन कार्य से मैं बराबर सीखता रहता हूँ। यह कार्य मुझे विविधता, चुनौती और अवसर प्रदान करता है। लेकिन अब भी पढ़ाने के असली कारण तो रह ही गए। __ एक लड़की है विकी। वह मेरी पहली छात्रा थी जो डाक्टरेक्ट कर रही थी। वह उत्साही युवती थी, लेकिन उसका उत्साह अकसर मंद भी पड़ जाता था। स्नातकोत्तर डिगरी के लिए जिस साहित्य का वह अध्ययन कर रही थी, उसी में कड़ी मेहनत के बावजूद उसे कोई रोमांच अनुभव नहीं होता था। लेकिन उसने १४वीं शताब्दी के एक बहुत ही कम विख्यात कवि पर शोध प्रबंध तैयार करने में अपनी जान खपा दी। उसने बड़े परिश्रम से कुछ लेख तैयार किए और उन्हें कुछ ऊँची पत्रिकाओं को भेज दिये। ये सब लेख उसने खुद ही लिखे थे। मैंने तो एकाध बार टहोका भर ही दिया था। लेकिन जब उसने अपना शोध पूरा किया, उस समय मैं वहीं था। पता चला कि उसके वे लेख स्वीकृत हो गए हैं। उसे नौकरी मिलने के साथ-साथ हार्वर्ड विश्वविद्यालय (कैंब्रिज, मासाचुसेट्स) से एक ऐसे विषय में पुस्तक लिखने के लिए छात्रवृत्ति भी मिल गई है। इस पुस्तक का विचार उसके मन में उन दिनों ही आया था जब वह मेरी छात्रा थी। दूसरा कारण है जार्ज। वह मेरा सबसे अच्छा छात्र था। पहले वह इंजीनियरिंग पढ़ रहा था, पर बाद में उसने साहित्य ले लिया क्योंकि वह जड़ पदार्थों की तुलना में लोगों को अधिक पसंद करता था। उसने एम. ए. की उपाधि प्राप्त की और अब वह एक जुनियर हाई स्कूल में अंगरेजी का अध्यापक है। जीन नाम की एक अन्य लड़की कॉलेज छोड़ गई थी। लेकिन उसके कुछ सहपाठी उसे वापस ले आए क्योंकि वे जीन को आत्मनिर्भर-भवन परियोजना का परिणाम दिखाना चाहते थे। जब वह वापस आई तो मैं वहीं था। उसने मुझे बताया कि उसकी शहर के गरीब लोगों में दिलचस्पी है। फिर वह पढ़-लिखकर नागरिक अधिकारों की वकील बन गई। इनके अलावा जैक्वी- सफाई करने वाली औरत। उसकी खास बात यह है कि हममें से अधिकतर लोग जितना विश्लेषण द्वारा सीखते हैं, उससे कहीं अधिक वह सहज ज्ञान द्वारा जान जाती है। जैक्वी ने सेकंडरी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज में जाने का निश्चय किया। ऐसे लोगों के कारण मैं पढ़ाने का काम करता हूँ। ये लोग मेरी . आँखों के सामने ही रहते-रहते बढ़ते हैं और बदलते जाते हैं। अध्यापक होने का अर्थ है जब माटी नए-नए रूप धर रही हो, सृजन के उन क्षणों में उपस्थित रहना। जन्म के बाद जब बच्चा पहली चीख मारता है, उस क्षण में उसका साक्षी होने से बढ़कर और कुछ रोमांचकारी नहीं है। पढ़ाई के क्षेत्र से बाहर ‘पदोन्नति' से मुझे पैसा और शक्ति मिल सकती है, लेकिन पैसा तो पहले ही मेरे पास है। मैं जो काम करता हूँ और जिसमें मुझे सबसे अधिक आनंद आता है, उसके लिए मुझे पैसा मिलता है। यह काम है पुस्तकें पढ़ाना, लोगों से बातचीत करना, नई-नई खोज करना और अनगिनत प्रश्न करना। केवल धनी होने में क्या तुक है? मेरे पास तो शक्ति भी है। मुझे टहोका लगाने का, किसी में चिनगारी जलाने का, परेशानकुन सवाल करने का, किसी जवाब की तारीफ करने का, सच्चाई से मुँह छिपाने पर निंदा करने का, किताबें सुझाने और राह दिखाने का अधिकार है। इसके अलावा और कौनसा अधिकार माने रखता है? किंतु अध्यापन से धन और अधिकार के अलावा कुछ और भी मिलता है और वह है प्यार। यह प्यार केवल ज्ञान, पुस्तकों और विचारों के प्रति प्यार ही नहीं है बल्कि वह प्यार भी है जो एक अध्यापक को उस छात्र से होता है जो उसके जीवन में कच्ची मिट्टी की तरह आता है और नए-नए रूप धरने लगता है। शायद इसके लिए प्यार शब्द सही नहीं है, जादू अधिक उपयुक्त होगा। मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि जो लोग सांस लेना शुरू कर रहे हैं, उनके आसपास रहते हुए कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे उनके साथ-साथ मैं भी नए सिरे से सांस लेने लगा हूँ। विद्वत खण्ड/७८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 एलेन गुडमैन तभी उसका १३ वर्षीय बेटा बल्लेबाजी के लिए सामने आता है। हफ्तों, महीनों का वक्त लगा कर उसने इस खेल पर अधिकार भी पा लिया है और बढ़िया खिलाड़ी बन गया है वह...उसकी कलाइयाँ, उसके खड़े होने के ढंग और उसकी आँखें भी यही जताती हैं। लगता है उसके शरीर का अंग अंग आज किसी अंतिम परीक्षा की तैयारी में क्रियाशील रहा है। वह बल्ला घुमा कर शानदार प्रदर्शन भी करता है-पहले बेस से दूसरे बेस में पहुँच जाने का।। पिता इस खेल को ठीक उसी तरह देख रहा है जैसे कि माँबाप देखा करते हैं। एक क्षण गौरव की अनुभूति होती है, तो दूसरे ही क्षण छिद्रान्वेषण शुरू हो जाता है। फिर अभिभावक होने का मतलब ही होता है अतिशय अपेक्षाएँ। परंतु आज उसकी अनुभूति एक भिन्न प्रकार की है-कहीं विस्मय व उत्कंठा का मिश्रण है तो कहीं स्नेह व विछोह के बीच का भी। छोटी-छोटी बातें याद आ रही हैं। स्कूल से मिलने वाले गृहकार्य का स्वरूप भी अब बदलता जा रहा है। लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर छोटी मेज बना कर लाने की जगह अब लकड़ी के शमादान का महीन काम मिलने लगा है। मोमी रंग के चित्रों का पिता की छाया में स्थान अब नागरिक शास्त्र का लंबा चौड़ा परचा ले चुका है। [हर पिता को लगता है कि उसके बेटे उसी राह चलें जिस उसका कहना है कि वह भी शायद एक प्रकार की पर वह चला है, हर बात को इस तरह सीखें जैसे आज तक किशोरावस्था के दौर से गुजर रहा है। अपने बच्चों को लेकर किसी ने नहीं सीखा है।] संभवत: माँ-बाप को उस दौर से दोबारा गुजरना ही पड़ता है जबकि बच्चे बड़े होते जा रहे हैं उसके। जब यह अपने आप में कोई एक ओर तो बच्चों के फूलते-फलते रहने की सुखद अनुभूति होती खास खबर भी नहीं, फिर भी पास वाली बेंच पर बैठी महिला को है और दूसरी ओर अपनी छाँव से उनके निकल चलने की व्यथा यही बताता है वह। यही तो करते हैं बच्चे। उनके साथ यही तो भी सालती है। लगा रहता है। ये दोनों स्त्री और पुरुष बातें कर ही रहे होते हैं कि टीमें अपनाइसके बावजूद बेसबाल के मैदान पर नजरें गड़ाए वह यही अपना स्थान बदल लेती हैं। बाप का तेरह वर्षीय बेटा लपक कर कहता है। उसका खयाल था कि बच्चे धीरे-धीरे बड़े होते जाएँगे। खेल का दस्ताना उठा लेता है और तीसरे बेस की ओर बढ़ जाता परंतु इसके विपरीत वे धचकते से एक से दूसरी उम्र की दूरी तय है, तभी कोई जोर की हिट लगाता है, बाल जमीन को छूती हुई किए जा रहे हैं। बड़े को ही लो, विचित्र ढंग से गाड़ी बदलता है उसके समानांतर उठती है और बेटे के हाथ में आकर भी उस से तो कैसी दहलाने वाली आवाज होती है। छूट जाती है। उसे याद है, बड़ा कुल तीन बरस का था और नर्सरी स्कूल पिता क्षण भर को अपनी सीट से उचकता है, फिर बैठ जाता जाता था। एक बार वह डैडी की उंगली पकड़े स्कूल जा रहा था है। वह महिला को बताता है : दो साल पहले यही नौबत आई होती तो उसने किसी को राह चलते हुए हेलो कहा। आखिर यह कैसे तो इसके आँसू निकल जाते, पर अब यह जल्दी ही संयत हो जाता संभव है कि बेटा किसी से परिचित हो और बाप नहीं। तब भी उसे है। महिला कहती : दो साल पहले तो आप भी उसे बार-बार ऐसे स्वतंत्रता की उस बिजली का हलका झटका महसूस हुआ था। खेलो, वैसे खेलो कह रहे होते; पर आज देखिये तो कैसे चुपचाप अब लड़कों की जीवनधारा बदल रही है। बड़े को कार चलाने बैठे उसका खेल देख रहे हैं। का लाइसेंस मिलने जा रहा है और सबसे छोटा भी माध्यमिक स्कूल हामी भरते हुए वह बोल उठता है, हम दोनों ही बड़े होते जा में दाखिले की ओर अग्रसर है। रहे हैं। कभी यही पुरुष सोचता था कि पितृत्व के बारे में वह बहुत शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/७९ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जानता है। आखिर वह खुद भी तो कभी बच्चा था, उसके भी पिता थे। वह कल्पना करता आया था कि वह अपनी जवानी के कंटकों से बचा कर अपने बच्चों को संभाले लिए जा रहा है। सोचता था कि उसने जो नींव रखी है, जहाँ तक निर्माण किया है; उसके बच्चे आगे का गगनचुंबी निर्माण करेंगे। परंतु उसके लड़के बहुत कुछ वैसे ही निकले जैसा कि कभी वह स्वयं था। अब धीरे-धीरे उसने सुप्रसिद्ध अंगरेजी उपन्यासकार डोरिस लेसिंग के इस कथन को स्वीकार करना भी शुरू कर दिया है : "उसके लड़के को एकदम उसी राह पर चलना होगा जिस पर वह स्वयं या उसके समकालीन चल चुके हैं ताकि वह सब बातों को इस तरह सीखे जैसे कि आज तक कोई नहीं सीखा है।" इस हिसाब से, वह स्वयं भी वही सब सीखता रहा है जिन्हें कभी स्वयं उसके पिता ने भावनाओं की गहराई, बच्चों के प्रति आसक्ति और उन्हें अंतत: उन्मुक्त छोड़ देने की आवश्यकता को हँसते हँसते जीना लेकर सीखा था। __तभी मैच खत्म हो जाता है। वह दुबला-पतला, लंबा सा बैंक में आए लुटेरे ने खजांची को एक पुरजा लिख कर थमा लडका लंबे-लंबे डग भरता उसकी ओर आता है। वह उसे अपना दिया : "सारा पैसा थैले में डाल दो और हिलो नहीं. समझी दस्ताना और गेंद थमा देता है। अब वह अपनी टीम के साथियों के बुलबुल?'' साथ जाकर पीत्सा खाने के लिए पैसे मांग कर वहाँ से उड़नछू हो संदेश पढ़ने के बाद खजांची ने कागज के उस पुरजे के पीछे लेता है। मैदान की अभी आधी ही दूरी उसने तय की होगी कि पलट कुछ लिख कर लुटेरे को वापस दे दिया। उसका संदेश था : कर चिल्लाता है, "डैड, आने के लिए थैक्स।' "अपनी टाई तो ठीक कर लो चोंच। सुरक्षाकर्मी गुप्त टी.वी. कैमरे पिता भी हाथ हिलाता है। ठीक है, ठीक है। सच यही तो पर तुम्हारा थोबड़ा देख रहे हैं।" हमेशा होता है। बच्चे देखते ही देखते बड़े हो जाते हैं। एक बड़े कंपनी समूह के अध्यक्ष की अचूक निर्णय क्षमता की बड़ी ख्याति थी। एक बार उसने कर की मार से बचने के फेर में एक योजना पर पैसा लगाया। सारी योजना धोखाधड़ी सिद्ध हुई और एक लाख डालर का नुकसान हो गया। उसके व्यावसायिक सहयोगी 'उस पर फब्तियाँ कसते और आयकर विभाग ने भी सारे मामले की जाँच पड़ताल शुरू कर दी। इस स्थिति को सहना बड़ा कठिन था सो एक दिन अपने दफ्तर के मोटे कालीन पर वह भहरा कर गिर पड़ा और रोने लगा, "मैं रोजाना लाखों करोड़ों का सौदा करता हूँ, पर शायद ही कभी नुकसान होता हो। इस बार मैंने इतनी बड़ी बेवकूफी आखिर कर कैसे की।" तभी दफ्तर का फरनीचर डोलने लगा, रोशनी मंद पड़ गई तथा उसके कम्प्यूटर से गर्जन हुई : "तुम समझते हो कि अकेले तुम्हीं तुम परेशान हो। मुझे देखो, मैं खुद इस खेल में कम से कम पाँच लाख के वारे न्यारे कर लेने के फेर में था।" विद्वत खण्ड/८० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओंकार श्री दृष्टि नहीं तो सृष्टि का साक्षात् नहीं। रूढ़ अर्थों से मुक्त, शिक्षा तो सार्वभौम सीख का नाम है। सीख सत्य की। अहिंसा की। अपरिग्रह की। सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की। सीख यही तो है हमारे धर्मअर्थ-काम-मोक्ष के साधक संसार की। सतत शिक्षा की ढोल पिटाई में हम गर्व से स्मरण रखें सदैव कि संसार में जैन समाज ही एकमात्र ऐसा सामाजिक संघटक है जिसके अनुयायियों के घर-घर में सतत शिक्षा स्वरूप स्वाध्याय-यज्ञ चेतता आया है मनवन्तरों से। ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा स्वरूप सामायिक की साधना ने विश्व को दी है हमारे मनीषियों की आगम दृष्टि। आगम दृष्टि साफ-सुथरी। एकदम स्वच्छ नितरी हुई हमें भीतर से झकझोरती हुई सदा सावचेत रखती है- स्थानांग सूत्र के अष्टम स्थान उत्थान पद पीठिका से “अभी तक नहीं सुने हुए श्रेष्ठ धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहो. सुने हुए धर्म पर आचरण करने को तत्पर रहो, अशिक्षितों को शिक्षित करने में तत्पर रहो। यदि अपने सहधर्मी, साथियों में किसी कारण मतभेद, कलह, विग्रह आदि खड़ा हो तो उसे शान्त कर परस्पर सद्भाव बढ़ाने में तत्पर रहो।" यह उपदेश भर नहीं। कोई आदेश नहीं। यह तो मानवता की सीख है - सीख स्व के अध्ययन की। मात्र साक्षरता की नहीं। यह सीख है शिक्षा की। पढ़ो और पढ़ाओ की सीख। शिक्षा की इस सृष्टि से पृथक क्या होगा। राष्ट्र जागरण लोक शिक्षा अभियान का यह आगम। शुभागम। आह्वान ! सुनो उत्तराध्ययन के शाश्वत स्वर सन् १९९३ : अक्षय तृतीया दिवस। जवाहर भवन बीकानेर गंगाशहर। आचार्य नानेश प्रणीत सिद्धान्त शाला का नवार्पण। आचार्य श्री की आज्ञा से मैंने विनम्रत: संभाला शाला-प्रबोधक का दायित्व। गुरूवाणी गूंजी - अंत:कक्ष में मुझे प्रबोधित करती हुई नीयावत्ती अचवले, अम्माई अकुतूहले, मित्तिज्जमाणो भयइ सुयं, लहंन मज्जई। न य पाव परिक्ख खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई, अप्पियस्सवि मितस्स रहे, कल्लाण भासई। कलह उभर वज्जिए, बुद्धेय अभिजाइए, हिरिमं पडिसंह लीणे, सविणी एत्ति वच्चई। ___ उत्तराध्ययन-११वाँ सूत्र-बहुश्रुत पूजा अर्थात् जो नम्र है। अचपल है। अस्थिर नहीं। दम्भी नहीं। तमासबीन नहीं। अनिदंक है जो। दीर्घ काल-क्रोधी नहीं। मित्र-कृतज्ञ है जो। अनहंकारी ज्ञानी है। मित्रों पर क्रोध नहीं करता है जो। वाक् कलही नहीं। मार-वार नहीं करता। ..... जो कुलीन है, लज्जाशील है, व्यर्थ चेष्टा नहीं करता। वह बुद्धिमान मान-ध्यान लीन रहता है। गुरूदेव ने इस प्रबोधन की कड़ी में सिद्धान्तशाला के साधु-साध्वी वृन्द को दी शाश्वत शिक्षा की जैन दृष्टि की दुर्लभ सीख आठ गुणों वाले शिक्षाशील की - गूंजी गुरूवाणी - अह अट्ठहिं ठाणेहि सिक्खा सीलेते वुच्चई। अहस्सिरे सयादन्ते न य मम्मुक्षाहरे ।। णा सीले ण वसीले, ण सिया अइलोलुए। अक्का हणे सच्चरए सिक्खा सीलेत्ति वुच्चई ।। । अर्थात्- जो हंसी ठठ्ठा नहीं करता। दान्त शान्त रहता है। जो किसी के पोत नहीं उघाड़ता। जो आचरणहीन नहीं होता। अदोषीअकलंकी जो होता है, वह अक्रोधी। वह सत्यानुरक्त अष्टगुणी शिक्षाशील होता है। यह गौरवागम सीख हर श्रावक को, शिक्षक को, शिष्य को, शाला शासक को, ज्ञानानुशासक को। गुणे सो गणे। समझ तो मेहनत देगी महात्मा गाँधी - संत विनोबा - आइन्स्टाइन सबके सब मनीषियों की युगवाणी गुंजा गए समवेत स्वरों में साधनाशील विज्ञानशिक्षक स्वाध्यायी जैन विभूति डॉ० डी०एस० कोठारी - "ज्ञान तो पाया शिष्यों ने गुरुवाणी से। समझ? पर समझ तो देगी मेहनत।" अब शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/८१ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा गहरे में उतरें, इस कथन को समझें - श्रमण संस्कृति समझें। समझें हम श्रमकर्ता श्रमणों की श्रम शिक्षा। समझें हम जीवन विज्ञान । जीवन विज्ञान की ओर आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं - नैतिकता आदि शब्द विवाद के विषय बन गये हैं। इसलिए नया शब्द ढूँढ़ना चाहिए जो आज के मानस को स्पर्श कर सके। पर कोई प्रतिक्रिया पैदा न करे। इन दृष्टियों से सोचने पर एक नया नाम जंचा - 'जीवन विज्ञान।' इसकी प्रक्रिया का किसी धर्म विशेष से सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध जीवन से है। यह नाम समग्र मानव का प्रतिनिधित्व करता है - व्यापक है और असाम्प्रदायिक। यह नैतिक शिक्षा योग शिक्षा सबको समाहित करता है। जीवन विज्ञान के इस लोक शिक्षा स्वरूप को वरदायी आशीर्वचन मिला गणाधिपति तुलसी गणि का। दो प्रेरक प्रसंग डॉ० डी० एस० कोठारी- गणाधिपति तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ - जैन मनीषियों की इस लोक शिक्षा त्रिवेणी को नमन करने का - जानकीनारायण श्रीमाली मन होता है। आज कि जैन दृष्टि सम्पन्न आज की शिक्षा सृष्टि का समूचा हियै री आँख : आचार्य द्रोण अपने १०५ शिष्यों को ज्ञान-ब्रह्माण्ड हमारी समझ में बैठे और पैठे, इसी में देश का भला है। शब्दबेधी तीर चलाना सीखा रहे थे। सब प्रयत्न निष्फल हुए। शिष्य जीवन विज्ञान शिक्षा की द्वादश श्रेणियाँ निराश हो गए। गुरू द्रोण भी चिन्तित हो उठे। एक रात्रि को गुरू १) ध्वनि २) संकल्प ३) सम्यक् व्यायाम ४) सम्यक् श्वास और शिष्य साथ-साथ पंक्तिबद्ध बैठकर भोजन कर रहे थे। सहसा ५) कायोत्सर्ग ६) ध्यान ७) शरीर शिक्षा ८) मानसिक शिक्षा ९) गुरू द्रोण ने अपने हाथ से मशाल बुझा दी। कक्ष में अंधेरा छा गया। भावात्मक शिक्षा १० मूल्यबोध ११) अहिंसा १२) शरीर विज्ञान। सेवकों ने पुन: मशाल जलाई। सभी शिष्यों की थालियाँ खाली थीं। भारत देश के कवि प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के गुरूजी ने पूछा-अरे! अंधेरे में भोजन कैसे कर लिया? शिष्यों ने 'जय विज्ञान' उद्घोष का यह अभिनव जीवन-विज्ञान द्वादशांग- कहा-गुरूदेव! नित्य अभ्यास और सही अनुमान से। भारतीय शिक्षा जगत को जैन जगत की अप्रतिम देन है। बातों से नहीं। आचार्य ने कहा-भोजन एक बार भी नाक-कान या आँख में कारज सरेगा काम से। सच कहा गया है न नहीं गया। हर बार मुँह में गया। इसी प्रकार नित्य अभ्यास और सही 'जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कर्तुम।' अनुमान से शब्दबेधी तीर चला सकते हो। शिष्यों के हृदय में नवीन जो जानने की शक्ति रखता है वह कर्म करने की शक्ति भी ज्ञान का आलोक भर गया। वे कुशल धनुर्धर बन गए। धारे। स्पर्धा : महाभारत युद्ध। सेनापति भीष्म नित्य पांडवपक्ष के सूर्यसदन, गुप्तेश्वर नगर दस हजार योद्धाओं का वध कर रहे थे। पांडव पक्ष की युद्धपरिषद उदयपुर (राज.) में अर्जुन और श्रीकृष्ण ने अप्रतिहत गति भीष्म को रोकने का वचन दिया। भीष्म-अर्जुन युद्ध प्रारंभ हुआ। सूर्य तपने लगा। भीष्म की गति रुक गई थी। वे एक भी पांडव योद्धा नहीं मार पाए। हर्षित अर्जुन ने कुछ क्षणों के लिए पसीना पोंछा और हर्षपूर्वक मित्र कृष्ण को निहारा। कृष्ण ने कहा-'हे पार्थ! इन कुछ क्षणों में भीष्म ने दो हजार योद्धा मार दिए है। तुम ५ बार पसीना पोंछोगे-विश्रांति लोगे और भीष्म हमारे दस हजार योद्धा मार डालेंगे।' विवेकवान, अविश्रांत श्रम, अनथक उत्साह का सामर्थ्य ही विजयश्री दिलाता है। ब्रह्मपुरी चौक, बीकानेर (राज०) विद्वत खण्ड/८२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mangilal Bhutoria, M.A., LL.B, Sahitya-ratna Embryo-Transfer Apropos my article on "The unique example of embryo transfer "performed practically about 2600yrs ago published in the journal of "The Asiatic Society" (Vol. XLIl Nos. 3-4,2000), it was my pleasure researching the issues raised by learned readers and thinkers. The most reverred 12th Century's Jain Acharya Hem Chandra Suri is his well known treatise "TrishastiSalaka-Purus-Carita (त्रिषष्ठि शलाकापुरूषचरित, पर्व10, सं. 2 पद 16-19) has in narration of Lord Mahavir's life described the episode of the Embryo transfer almost in a similar manner mentioned in the Jain Agamic Scriptures 'Kalpa Sutra' (कल्पसूत्र), Bhagwati Sutra (भगवती सूत्र) and Acharanga Sutra ( आचारांग सूत्र ). It seems he followed the tradition of medieval saints. It was astonishing to find a similar episode of Balram, Krishna's elder brother whose embryo-transfer as mentioned in Srimad Bhagwat-Purana ( श्रीमद्भागवत पुराण, स्कंध 10 अध्याय 2 श्लोक - 6-15) having surpassed all limits of time and imagination. भगवानपि विश्वात्मा विदित्वाकंसजे भयम् । यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् |16|| गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कतम् । रोहिणी वसुदेवस्य भार्याssस्ते नन्दगोकुले । शिक्षा- एक यशस्वी दशक अन्याश्र कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ||7|| देवक्या जठरे गर्भ शेषाख्यं धाम मामकम् । तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय |18|| अथाहमंशभागेन देवक्या पुत्रतां शुभे । प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपल्यां भविष्यसि ||9|| अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम् । धूपोपहारबलिभिः सर्वकामवरप्रदाम् 111011 नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुवि । दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ।11।। कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यक्रेति च । । माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ।।12।। गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः संकर्षणं भुवि । रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्यात् 1|13|| सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः । प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गतातत् तथाकरोत् 11141 गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणी योगनिद्रया । अहो विस्त्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुकुशुः ।।15।। (At the prayer of Deva (देव), Vishnu decided to incarnate in part (अंश) on the Earth in Devaki's womb. Visualising the possibility of Kan's (कंस) misdeeds killing six of her sons. He called his Shakti (शक्ति) Yogmaya (योगमाया ) and ordered her to transfer his incarnate-embryo from Devaki's womb to the womb of Rohini (रोहिणी), the second wife of Vasudev (वासुदेव), who was out of prison so, the Balram may be born out of Rohini's womb. He also ordered Yogmaya herself to incarnate on Earth taking birth as Yashoda's daughter. Vishnu at the same time decided to incarnate fully (अवतार) as Devaki's 8th child. The strategy being that the 7th child of Devaki, Balram would be saved by embryo-transfer and the 8th child Krishna would be replaced by Vasudev with Yashoda's daughter Yogmaya and when Kans tries to kill her she being an angelicincarnation, would vanish. Yogmaya did exactly as instructed by Vishnu, she hypnotised Devaki and Rohini into deep sleep and then transferred Balram's embryo in the 7th month of pregnancy to Rohini's womb. Thus Kan's purpose was defeated.) The noteworthy aspects of the above operation are(i) The operation takes place, when the embryo is 7 months old. (ii) The process of hypnotising the incumbents into deep sleep before the operation takes place. विद्वत् खण्ड / ८३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr. Parameswar Solanki has without questioning the possibility of such an embryo-transfer remarked (see Jain Bharti, Vol. 39.3 March 1991, pages 147-148) that the Jain Acharyas may have been guided in mentioning such an episode by the Bhagwat-Purana's example perhaps on the assumption that Bhagwat-Purana is a prior treatise. But it could be vice-versa, the origin of Agamic literature is no less older than BhagwatPurana's. The height of imagination however in Bhagwat-Purana's episode of embryo-transfer in the 7th month of pregnancy is all the more amazing and less credible than the Agamic-transfer of embryo on its 83rd day of pregnancy. The process of operation of hypnotising the incumbents in deep sleep is also void of the minutest details which are the hallmark of Agamic literature. I had in my previous article published in the Journal of Asiatic Society (Vol. XLII nos. 3-4,2000) while highlighting the excellency of such an experiment 2600 years ago, also expressed my doubt about the factual trustworthiness of the whole episode. Giving it a sociological twist I was inclined to interpret the myth differently. Those were the days of feudal Kingship. The King Supreme owned many a Queens and in the palace there were concubines from every strata including Brahmins with whom the king frequently had sexual relations. The son born to a Brahmin-concubine could found favour with the king linking the son's parentage to the Royal household for the outside world or could be adopted by the king to save the embarassment although he already had a son (FREE) from his Queen Trishala in this particular case. This angle, to look at the whole episode, may annoy many a blind followers and fanatics but needs to be explored for solving many a myths created by vested interests and to bring out historical facts as authentically as possible. The modern mind with its scientfiic aptitude cannot accept such unimaginable happenings as historic truths unless they could be rationally perceived or explained. Even the myth of Five-hooded-serpent head as canopy over the 23rd Tirthankar (atec) Parasvanath has been challenged by the modern scholars. These serpent-heads are said to be the creation of medieval Jain-Acharyas. The sculptures and literature depicting the canopy only go to explain Parsva's association with Nagraj (TRI) Dharnendra (EFE ). Sri U. P. Shah, a Jainologist of repute, in his essay on the subject while explaining the depiction of serpent-canopy (118 ) over Parsva interprets it to be a totemic symbol of his link with his ancestral Naga-tribe (T09T) and Nag-worship (TTTUIT). The eminent scholar Dr. M.A. Dhaky in his essay Arhat Parsba and Dharnendra Nexus (published 1997) supporting Shah's views suggests that in the total absence of this serpent -canopy in any of the sculptures found in kankali tila (chchisi FCSI) of Mathuraexcavations dating them to be of 1st century B.C. the so called depicition are obviously a Nirgrantha (निग्रंथ) adaptation of the Brahmanical myth of Sesh-Nag (शेषनाग) supporting Globe of Earth on his head or followed from the myth of Krishna-Govardhan episode of Hindu-scriptures. Likewise the embryo-transfer-myth could be interpreted rationally to be a creation of the later Jain-Acharyas to avoid the Brahamanical parental linkage of Lord Mahavir. The medieval period between 5th to 10th century A.D. saw a phenomenal upsurge of hatred against Boudhas (CE) and Jains generated by the followers of Adi-Guru Shankaracharya when not only vast number of Jain shrines were demolished and or destroyed and a disheartening number of Jain And Boudh Acharyas and Muni's were slain in Southern India. The possibility of one-up-manship creating such myth cannot be ruled out. The most reverred Jain scholar of the 20th century Pundit Sukhlal Sanghvi has in his critical analysis of such mythical representations in Lord Mahavir's life challenged the Embryo-transfer episode ar ath ) and suggested that it could be an addition to the Agamic literature by later Acharyas. What gave strength to his argument was the fact that the Jain scriptures of its Digamber sect have completely ignored this transfer episode. Mahavir according to them was born of Trishala and there is no mention of Devananda as Mahavir's mother of conception at all. The Archaeological finds of Kankali tila (chchisi Tec) in Mathura and the inscriptions found there support the above view. The famous Western Archaelogical and Historian Vincent Smith has in his treatise "Jaina Stupa & other Antiquities of Mathura" dated the inscriptions and sculptures to be of 1st century B.C. These sculptures faithfully depict most of the important events of Lord Mahavir's life but the total absence of the Embryo transfer-episode in those depictions clearly is a pointer to its concoction later on. विद्वत् खण्ड/८४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Some passages in Kalpa Sutra depicting hatred towards Brahmins also seem to be later-age creations giving credence to the Additon-theory. The Stanza (गाथा) 17 of Kalpa Sutra is explicit in this regard : तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थन्न एयं भूयं, न एयं भव्वं, न एयं भविस्सं, जं नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा किविणकुलेसु वा भिक्खायकुलेसु वा माहणकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा एवं खलु अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइण्णकुलेसु वा इक्खागकुलेसु वा खतियकुलेसु वा हरिवंसकुलेसु वा अन्नतरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजातिकुलवंसेसु आयाइंसुवा आयाइंति वा आयाइस्संतिवा। (Lord Indra oversees from his heavenly abode by Awadhigyan (अवधिज्ञान) that Lord Mahavir has incarnated on Earth into the womb of Devananda (देवानन्दा) Brahmani (ब्राह्मणी). He contemplates over it and thinks that Thirthankers, the enlightened ones can not take birth in low castes (अन्त्य कुल, अधम कुल, नीच कुल, तुच्छ कुल, दरिद्र कुल, कृपण कुल, भिक्षुक कुल अथवा ब्राह्मण कुल) such as the most down trodden shudras, criminals, poverty stricken, misers, beggars and the Brahmins. Therefore Indra thinks it to be his duty to transfer the embryo of Mahavir to the womb of a lady of Khsatriya Kul, a race of pure blood. Then Indra proceeds to instruct his man to execute the plan.) This kind of bias against Brahmins showing them at par with the low castes is not depicted any where else in the Agamic literature of ancient times. On the contrary Uttar Purana' contains references of some Tirthankars (eg. Shantinath, Kunthunath and Arhnath) whose spouses belonged to Mlechha community of extremely low and out castes. Muni Punyavijay (मुनि पुण्य विजय) a learned Commentator on ancient Agamic literature has in his introduction to an modern edition of Kalpa Stra expressed his doubt about the authenticity of a number of Stanzas in it. Trisala's dreams in elaborate poetic form are thought to be such doubtful additions to the original text of Kalpa Sutra. The Embryo-transfer episode could well be one of such additions by later Acharyas. This appears to be more so because the author of Kalpa Sutra Acharya Bhadrabahu was a born Brahmin. He was the 8th successor to Lord Mahavir. Brahmins in those times were ardent followers of Jins. Admittedly the Agamic literature were for the first time reduced to writing in 453 A.D. As discovered by scholars, the second and third part of Kalpa Sutra namely Sthaviravali and Sadhu Samachari contain passages definitely written by later Acharyas. Some historians go to the length of suggesting that Jamali was the son of Nandivardhan, Trishala's own son and elder brother of Lord Mahavir. According to them Mahavir's daughter Priyadarshana was given in marriage to Nandivardhan's son Jamali. If that be so, Mahavir could not have been the son of Trisala. He might have been adopted after having born to Devananda, the Brahmin lady. The most authentic proof of Devananda being the real mother of Mahavir and Mahavir having born of her comes from the most reverred Jain scripture Bhagvati Sutra itself. Lord Mahavir is said to have attained enlightenment in 557 B.C. and two years later he visited his birth place Brahman Kunda when Jamali and Priyadarshna (his son in law and daughter respectively) are said to have taken Sanyas and joined Mahavir's Religious order. There Devananda came to pay her respects to the Lord. This incident is vividly described in stanza (गाथा) 4 and 5 of parn (उद्देशक) 33 of Chapter (916C) 9 of Bhagvati Sutra as follows: तएणं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्डाया, पप्फुयलोयणा संवरिवलयबाहा, कंचुयप रिक्खित्तिया धारा हबकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी देहमाणी चिट्ठइ। (Looking at the Lord her (Devananda's) whole body shivered with ecstasy and excitement. Tears burst out of her eyes and milk oozed out of her breasts. The sensation pulsating in her limbs inflated the wet breast covering). प्रश्न - भंते! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महादीरं बंदइ णमंसइ, चंदिताणमंसित्ता एवं वयासी - किंणं भंते। एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्डया, तं चेव जाव रोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठई। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/८५ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ("Oh Lord!" addressing thus, Muni Goutam saluted and asked Mahavir - "How is it that this lady's body is shivering with excitement and milk is oozing out of her breasts and she is standing staring continuosly at you") गोथमाइ ! समणे भगवं महावीर भगवं गोयम एवं वयासी - एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहणं देवानंदाए माहाणीए अत्तए तरणं सा देवाणंदा माहणी तेण पुव्व पुत्त सिणेहरागेणं आगयपण्हया जाव समूस वियरोम कूवा मम अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठइ । तएण समणे भगवं महावीर उसभदत्तस्स माहाणस्स देवाणदाए माहणीए तीसे च महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया। (Lord Mahavir answered-"Goutam, she is my own mother. I was born of her. That is why because of Love and excitement of seeing her son after long long time her body is shivering and milk is oozing out of her breasts." The Lord then addressed the gathering including Rishabhdutta and Devananda and after hearing his sermon the gathering dispersed.) विद्वत् खण्ड / ८६ " The above mentioned narration, in my view, conclusively show that Devananda herself had given birth to Mahavir. Such an ecstatic excitement at seeing her son after a long time and in such an enlightened state could only emerge in a lady who had experienced the pangs of giving birth to him. Devananda was not an enlightened one and she or anybody else could not have knowledge of the so called transfer of embryo from her womb on the 83rd day of her pregnancy. Lord Mahavir while answering Goutam's querry does not speak either about the so called transfer. The Lord on the contrary asserts in clearest terms that he was born of her. It would be traversity of facts if we in our zeal to upgrade the perentage from the so called low caste of Brahmin to the so called upper caste of Khsatriyas and stick to a myth created with bias against Brahmins and most probably to show one-up-manship to the Brahmical myths. The husk should be sorted out of Rice. The ancient scriptures thus need to be interpreted rationally and honestly with a visionary's perception to straighten the historical records. शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० डॉ० प्रेमशंकर त्रिपाठी 'कागद की लेखी' के बजाय 'आंखिन देखी' पर भरोसा करने के कारण ही उनका साहित्य प्रभविष्णुता - संपन्न है । घुमक्कड़ी पर केन्द्रित तथा १९४८ में प्रकाशित १६८ पृष्ठ की कृति 'घुमक्कड़ शास्त्र' की भूमिका में राहुल ने लिखा है- " घुमक्कड़ी का अंकुर पैदा करना इस शास्त्र का काम नहीं, बल्कि जन्मजात अंकुरों की पुष्टि, परिवर्धन तथा मार्ग प्रदर्शन इस ग्रंथ का लक्ष्य है।" यद्यपि लेखक ने इस कृति में यह दावा नहीं किया है कि 'घुमक्कड़ों के लिए उपयोगी सभी बातें सूक्ष्म रूप से यहाँ (कृति में आ गई है, तथापि जिन शीर्षकों में कृति को विभाजित किया गया है वे भ्रमण के महत्व के साथ-साथ घुमक्कड़ी से संबंधित विविधि आयामों का विस्तृत विवेचन करते हैं। पुस्तक का पहला निबन्ध है 'अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा' । निबन्ध की शुरुआत में लेखक ने शीर्षक की संस्कृतनिष्ठ भाषा का कारण बताते हुए लिखा है- "आखिर हम शास्त्र लिखने जा रहे हैं, फिर शास्त्र की परिपाटी को तो मानना ही पड़ेगा।" "जिज्ञासा' के बारे में वे कहते -" शास्त्रों में जिज्ञासा ऐसी चीज के लिए होनी बतलाई गई है जो कि श्रेष्ठ तथा व्यक्ति और समाज के लिए परम हितकारी घुमक्कड़शास्त्री राहुल हो।" इसी क्रम में लेखक ने ब्रह्म को जिज्ञासा का विषय बनाने के लिए व्यास का उल्लेख किया है और यह घोषणा की है कि" मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता । " राहुलजी ने दुनिया को गतिशील बनाने तथा विकास के रास्ते प्रशस्त करने का श्रेय घुमक्कड़ी को ही दिया है। 'घुमक्कड़ - शास्त्र' के तीसरे पृष्ठ में वे लिखते हैं- "कोलम्बस और वास्को द गामा दो घुमक्कड़ ही थे जिन्होंने पश्चिमी देशों के बढ़ने का रास्ता खोला ।" घुमक्कड़ धर्म की आवश्यकता का बखान करते हुए उन्होंने लिखा है- "जिस जाति या देश ने इस धर्म को अपनाया, वह चारों फलों का भागी हुआ और जिसने इसे दुराया, उसके लिए नरक में भी ठिकाना नहीं । आखिर घुमक्कड़ धर्म को भूलने के कारण ही हम सात शताब्दियों तक धक्का खाते रहे, ऐरे-गैरे जो भी आये, हमें चार लात लगाते गए।" बहुआयामी कृतित्व वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इतिहास, दर्शन, धर्म, भाषाशास्त्र, विज्ञान, राजनीति आदि विविध विषयों पर अनेक महत्वपूर्ण निबन्ध लिखे हैं तथा बहुमूल्य कृतियों का सृजन किया है। उनके कहानीकार, आलोचक, निबन्धकार, नाटककार, आत्मकथा लेखक तथा जीवनीकार रूप ने हिन्दी साहित्य को विशिष्ट समृद्धि प्रदान की है। एक कट्टर वैष्णव परिवार में जन्मे राहुल ने पहले आर्य समाज और फिर बौद्ध धर्म के रास्ते से गुजरते हुए मार्क्सवाद की मंजिल तय की थी। एक साहित्यकार या लेखक के रूप में ही नहीं, विचारक और चिन्तक के रूप में भी उनकी व्यापक प्रतिष्ठा रही है। सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से विविध गतिविधियों के संचालन एवं क्रियान्वयन में रुचिपूर्वक भाग लेने के साथ-साथ उन्होंने गंभीर शोधकर्ता के दायित्व का भी भलीभाँति निर्वाह किया था। चाहे असहयोग आंदोलन या किसान आन्दोलन में जनता के साथ सक्रिय भागीदारी हो या बौद्ध दर्शन और बौद्ध साहित्य के अनुद्घाटित अंश की अनुसंधानपरक व्याख्या- दोनों भिन्न क्षेत्रों में राहुल के सहज एवम् पाण्डित्यपूर्ण व्यक्तित्व की झलक पाई जा सकती है। वास्तव में राहुल के सम्पूर्ण साहित्य में जो तन्मयता है, गांभीर्य है उसका कारण उनका व्यापक जीवनानुभव है; भ्रमण के दौरान जीवन की बहुरंगी छटाओं तथा विरूपताओं का साक्षात्कार है । शिक्षा - एक यशस्वी दशक अपने कथ्य के विवेचन में लेखक ने शैली को अत्यंत रोचक तथा भाषा को सहज बनाए रखा है। राहुल की मान्यता है कि दुनिया के अधिकांश धर्मनाक घुमक्कड़ रहे हैं। बुद्ध को सर्वश्रेष्ठ घुमक्कड़ घोषित करते हुए राहुल ने बताया है कि बुद्ध ने सिर्फ पुरुषों के लिए ही नहीं स्त्रियों के लिए भी घुमक्कड़ी का उपदेश दिया था। राहुल लिखते हैं- " घुमक्कड़ धर्म, ब्राह्मण धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्थान न हो। स्त्रियाँ विद्वत खण्ड / ८७ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें उतना ही अधिकार रखती हैं, जितना पुरुष।' उनके अनुसार भारत के नये नेता, राजस्थानी रनिवास, बचपन की स्मृतियाँ, अतीत शंकराचार्य को देश की चारों दिशाओं की यात्रा ने ही, घुमक्कड़ी से वर्तमान, स्टालिन, कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओत्से-तुंग, घुमक्कड़ धर्म ने ही, बड़ा बनाया। इसी प्रकार रामानन्द, चैतन्य, ईसा, स्वामी, असहयोग के मेरे साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चंद्रसिंह गुरुनानक, दयानन्द आदि भी इसी धर्म के बल-बूते पर महान् हुए गढ़वाली। हैं। इसीलिए राहुल ने घुमक्कड़ धर्म को संसार का 'अनादि सनातन यात्रा और भ्रमण से संबंधित अन्य कृतियाँ हैं- सोवियत भूमि धर्म' कहा है और उसे 'आकाश की तरह महान् और समुद्र की (१,२), सोवियत मध्य एशिया, किन्नर देश, दाजिलिंग परिचय, तरह निशाल' माना है। उनकी धारणा है कि "घुमक्कड़ी के लिए कुमाऊँ, गढ़वाल, नेपाल, हिमाचल प्रदेश, जौनसार-देहरादून, चिन्ताहीन होना आवश्यक है और चिन्ताहीन होने के लिए घुमक्कड़ी आजमगढ़-पुरातत्व।। आवश्यक है। दोनों अन्योन्याश्रय होना दूषण नहीं भूषण है।' इसी राहुलजी ने घुमक्कड़ी के मार्ग में धन-संपत्ति की अपेक्षा बललेख में वे स्पष्ट करते हैं कि घुमक्कड़ धर्म की 'दीक्षा वही ले बुद्धि की महत्ता पर बल दिया है- “घुमक्कड़ को जेब पर नहीं सकता है, जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस हो।' लेख अपनी बुद्धि बाहु और साहस पर भरोसा रखना चाहिए।" (घुमक्कड़ का समापन करते हुए वे इस्माइल मेरठी की दो पंक्तियाँ का हवाला शास्त्र, पृष्ठ २५)। परन्तु इसी कृति में लेखक ने घुमक्कड़ी को देते हैं हल्के रूप में ग्रहण करने वालों को सचेत करते हुए उनके दायित्व सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ, को भी रेखांकित किया है- "घुमक्कड़ को समाज पर भार बनकर जिन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी कहाँ । नहीं रहना है। उसे आशा होगी कि समाज और विश्व के हरेक देश अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़े हुए इस शेर ने राहुल को बचपन के लोग उसकी सहायता करेंगे लेकिन उसका काम आराम से से ही यात्रा की ओर उन्मुख कर दिया था। घूमने-फिरने में व्यापक भिखमंगी करना नहीं है। उसे दुनिया से जितना लेना है, उससे सौ रुचि का कारण नाना-नानी के यहाँ लालन-पालन भी माना जा गुना अधिक देना है। जो इस दृष्टि से घर छोड़ता है वही सफल और सकता है। सेना में सिपाही के रूप में उनके नाना ने दक्षिण भारत यशस्वी घुमक्कड़ बन सकता है।" का व्यापक भ्रमण किया था। अवकाश ग्रहण के बाद नाती केदार घुमक्कड़ी के लिए उपयुक्त आयु और अनिवार्य शैक्षणिक (राहुल) को नाना के मुख से अतीत के रोचक यात्रा-वृत्तान्तों को योग्यता का विवेचन करते हुए राहुलजी ने अपने अनुभव से यह सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। बताया है कि, "जिस व्यक्ति में महान घुमक्कड़ का अंकुर है, उसे घर छोड़कर यात्रा के प्रति आकृष्ट होने का एक बड़ा कारण । चाहे कुछ साल भटकना ही पड़े, किन्तु किसी आयु में भी निकलकर था अल्पावस्था में उनका बेमेल विवाह। अपनी वायु से ५ वर्ष बड़ी वह रास्ता बना लेगा। इसलिए मैं अधीर तरुणों के रास्ते में रुकावट पत्नी को पाकर वे अन्यमनस्क होकर उमरपुर के बाबा परमहंस के डालना नहीं चाहता। लेकिन ४० साल की घुमक्कड़ी के तजुर्बे ने पास बैठने लगे। बाबाजी ने राहुल को संसार भ्रमण का परामर्श मुझे बतलाया है कि यदि तैयारी के समय को थोड़ा पहले ही बढ़ा दिया। इन सभी बातों ने मिलकर केदार को घुमक्कड़ बना दिया। दिया जाय तो आदमी आगे बड़े लाभ में रहता है।'' (घुमक्कड़ भ्रमण के प्रति इस आकर्षण ने राहुल को जीवन और जगत शास्त्र पृ० ३०) के व्यापक अनुभव की जानकारी दी। इसे उलटकर यों भी कह लेखक ने घुमक्कड़ के लिए इतिहास और भूगोल-ज्ञान की सकते हैं कि जीवन और जगत के बारे में अपनी जिज्ञासा के कारण अनिवार्यता की ओर तो संकेत किया ही है, भाषाओं और जलवायु ही उन्होंने घुमक्कड़ी वृत्ति अपनायी। (जो भी हो इस रुझान ने जिन की जानकारी को भी आवश्यक बताया है। उन्होंने लिखा है कि ग्रन्थों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया, वे हैं- मेरी लद्दाख यात्रा, घुमक्कड़ का यात्रा साधनों की सुविधा के प्रति आग्रही होना लंका, तिब्बत में सवा वर्ष मेरी यूरोप यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, यात्रा अयोग्यता है। उसे तो पीठ पर सामान लादकर चलने का जीवट के पन्ने, जापान, ईरान, रूस में पच्चीस मास, घुमक्कड़ शास्त्र, रखना चाहिए और बैलगाड़ी-खच्चर से लेकर हवाई जहाज तक की एशिया के दुर्गम खण्डों में। इन कृतियों को यात्रा साहित्य के अंतर्गत यात्रा पर अवलंबित रहना चाहिए। उसका शरीर 'कष्टक्षम' ही नहीं परिगणित किया जाता है। 'परिश्रमक्षम' भी होना चाहिए। स्वावलंबन पर बल देते हुए राहुल जीवनी साहित्य के अंतर्गत उनकी निम्नलिखित पुस्तकें रखी लिखते हैं- "घुमक्कड़ में और गुणों के अतिरिक्त स्वावलंबन की जा सकती हैं- मेरी जीवन यात्रा (१, २) सरदार पृथिवी सिंह, नये मात्रा अधिक होनी चाहिए। सोने और चाँदी के कटोरों के साथ पैदा विद्वत खण्ड/८८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ व्यक्ति घुमक्कड़ की परीक्षा में बिलकुल अनुत्तीर्ण हो जाएगा, “यात्राओं के लेखक दूसरी वस्तुओं के लिखने में भी कृतकार्य हो यदि उसने अपने सोने-चाँदी के भरोसे घुमक्कड़चर्या करनी चाही। सकते हैं। यात्रा में तो कहानियाँ बीच में ऐसे ही आती रहती हैं, वस्तुत: संपत्ति और धन घुमक्कड़ी के मार्ग में बाधक हो सकते जिनके स्वाभाविक वर्णन से घुमक्कड़ कहानी लिखने की कला और हैं।..... केवल उतना ही पैसा पाकेट में लेकर घूमना चाहिए, शैली को हस्तगत कर सकता है। यात्रा में चाहे प्रथम पुरुष में लिखे जिसमें भीख माँगने की नौबत न आये और साथ ही भव्य होटलों या अन्य पुरुष में, घुमक्कड़ तो उसमें शामिल ही है, इसलिए और पाठशालाओं में रहने को स्थान न मिल सके। इसका अर्थ यह घुमक्कड़ उपन्यास की ओर भी बढ़ने की अपनी क्षमता को पहचान है कि भिन्न-भिन्न वर्ग में उत्पन्न घुमक्कड़ों को एक साधारण तल पर सकता है, और पहले के लेखन का अभ्यास इसमें सहायक हो आना चाहिए।' (घुमक्कड़ शास्त्र, पृष्ठ-३९) इसी पृष्ठ पर वे सकता है।'' (पृष्ठ १४१) इस उद्धरण से यह बात आसानी से लिखते हैं कि घुमक्कड़ धर्म की यह भी विशेषता है कि वह किसी समझी जा सकती है कि राहुल का कहानीकार या उपन्यासकार रूप जात-पांत को नहीं मानता, न किसी धर्म या वर्ण के आधार पर । इसीलिए इतना महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में पृष्ठ १४४ की इन अवस्थित वर्ग ही को।' पंक्तियों का भी उल्लेख किया जा सकता है- "घुमक्कड़ी लेखक राहुल के इस निष्कर्ष में उनके वैचारिक रुझान का स्पष्ट और कलाकार के लिए धर्म-विजय का प्रयाण है, वह कला-विजय आभास मिलता है। साम्यवाद का गहराई से अध्ययन, मनन एवं ____ का प्रयाण है, और साहित्य-विजय का भी। वस्तुत: घुमक्कड़ी को अवलंबन ग्रहण करने वाले राहुल ने घुमक्कड़ी में भी पूंजीवादी साधारण बात नहीं समझनी चाहिए, यह सत्य की खोज के लिए, प्रवृत्ति का घोर विरोध किया है- "सोने-चाँदी के बल पर बढ़िया कला के निर्माण के लिए, सद्भावनाओं के प्रसार के लिए महान् से बढ़िया होटलों में ठहरने, बढ़िया से बढ़िया विमानों की सैर दिग्विजय है।" करनेवालों को घुमक्कड़ कहना उस महान् शब्द के प्रति भारी तभी तो घुमक्कड़ स्वामी, घुमक्कड़शास्त्री राहुल का तरुणअन्याय करना है। इसलिए यह समझने में कठिनाई नहीं हो सकती तरुणियों को परामर्श है- "दुनिया में मानुष-जन्म एक ही बार होता कि सोने के कटोरे को मुँह में लिये पैदा होना घुमक्कड़ के लिए है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी और तारीफ की बात नहीं है। यह ऐसी बाधा है, जिसको हटाने में काफी मनस्वी तरुण-तरुणियों को इस अवसर से हाथ नहीं खोना चाहिए। परिश्रम की आवश्यकता होती है।" (घुमक्कड़ शास्त्र, पृष्ठ-३९) कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों। संसार तुम्हारे स्वागत के लिए - लेखक ने इस वृत्ति के लिए आत्मसम्मान को महत्वपूर्ण माना बेकरार है।" है तथा चापलूसी की निन्दा की है। उनका विचार है- 'वस्तुत: घुमक्कड़ को अपने आचरण और स्वभाव को ऐसा बनाना है, जिससे वह दुनिया में किसी को अपने से ऊपर न समझे, लेकिन साथ ही किसी को नीचा भी न समझे। समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है, आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार है।' (घुमक्कड़ शास्त्र, पृष्ठ-४०) राहुल ने घुमक्कड़ी को साधन और साध्य दोनों माना है। उनके अनुसार- "अभी तक लोग घुमक्कड़ी को साधन मानते थे और साध्य मानते थे मुक्ति - देव दर्शन को, लेकिन घुमक्कड़ी केवल साधन नहीं वह साथ ही साध्य भी है।'' (पृष्ठ-१५४) लेखक ने ग्रंथ के समापन में यह आशा व्यक्त की है कि अधिक अनुभव और क्षमता वाले विचारक अपनी समर्थ लेखनी से निर्दोष ग्रंथ की रचना कर सकेंगे। . इस निबंध के आरंभ में कहा गया है कि यात्रा के प्रति आकर्षण ने ही राहुल के कृतित्व को बहुआयामी बनाया है, इसके समर्थन में 'घुमक्कड़ शास्त्र' की इन पंक्तियों का हवाला दिया जा सकता है शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/८९ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा 1 प्रताप बाबू जब से कलकत्ते आए हैं उन्हें यहाँ एक ही चीज अच्छी लगती है, घर से रोज टहल कर लेक की तरफ आना, घूमना और बेंच पर बैठ जल को निहारना घंटों । इधर आते हुए उन्हें यह ब्रिज क्रॉस करना पड़ता है और तब ब्रिज के नीचे से आती-जाती ट्राम रोज बच्चों और माँओं की भीड़ देखते हैं अपने वजन से भी भारी बैग और पानी का फ्लास्क टाँगे हुए बच्चे प्रताप बाबू टहलते हुए प्रायः सोचते हैं महानगर की ऐसी सुबह के बारे में सुबह भी बंटी हुई है जैसे । बस- ट्राम चालकों की सुबह, बच्चों और माँओं की सुबह, चाय और मिठाई की दुकानों की सुबह और भिखारियों की सुबह मानो एक बार होती है एकदम तड़के दफ्तर, फैक्टरी आदि जाने वाले । लोग तबतक सोए रहते हैं। उनकी सुबह साढ़े आठ बजे होती है। तब हड़बड़ी शुरू होती है कि क्या कहना। लोग दौड़े-भागे बस स्टाप पर पहुँचते और अपने को लाद देते हैं बसों में प्रताप बाबू सुनते तो खूब हैं इस लाइफ के बारे में जिसे "फास्ट" कहा जाता पर समझते जरा भी नहीं। इस 'फास्टनेस' को समझने का महत्व है अपने 'स्लोनेस' को समझें। अपने बचपन से लेकर अपने बुढ़ापे तक के स्लोनेस को तब जब कहीं दूर अजान के स्वर के साथ ब्रह्म मुहूर्त । में माता-पिता दोनों ही उठ जाते थे और सम्मिलित कंठ से आराधते डॉ० मंजुरानी सिंह - शांताकारम भुजंगशयनम्, पदमनाभम्, सुरेशं... और फिर या कुन्देन्दु तुषारहार धवला वाली सरस्वती वंदना तो स्वर के — विद्वत खण्ड / ९० में 1 आरंभ के साथ पाँचों भाई बहन उठ बैठते थे। सभी तुतले उच्चारण के साथ सम्मिलित हो जाते थे प्रताप बाबू को अभी भी अपनी माँ याद आती है एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में थी। वेद-उपनिषद का ज्ञान तो उन्हें बहुत बाद में हुआ पर माँ बचपन में ही वेद से एक अनुदित पाठ मीठे - सुरीले कंठ से गाती थी, उन्हें सिखलाती थी। माँ नहाधोकर पूजा पाठ में लग जाती थी और पिता बच्चों को लेकर खेतों की तरफ निकल जाते थे तब कोई बाथरूम, लेट्रिन तो था नहीं सबको दूर गाँव के खेतों बगीचों और नदियों की तरफ निकलना पड़ता था । रास्ते भर पिता बच्चों के रंग बिरंगे सवालों का जवाब देते चलते थे और दुनिया भर की नई-नई बातें, नई-नई जानकारियाँ भी देते थे। इसी कृषक पिता और गृहस्थ माँ ने उन्हें गाँव से बाहर शहर भी भेजा था पढ़ने को शहर गाँव से पचास किलोमीटर दूर था। चार मील पैदल चल कर बस पकड़नी पड़ती थी, यह बस दिन में सिर्फ एक ही बार आती थी। तब चार बजे सुबह माँ उन्हें रोटी सब्जी बनाकर खिलाती और साथ बाँध भी देती थी। सबसे बड़े थे प्रताप बाबू और बुद्धि भी तीव्र थी उनकी वैसे भी पिता का संस्कारित विश्वास था कि अगर बड़ा पाया संभल गया तो सब संभल जाएगा। माँ की महत्वाकांक्षा थी कि बेटा बड़ा अफसर बने पिता को अपनी पत्नी से बेहद प्रेम था उनकी ऐसी इच्छाओं को पूरी करने की उन्होंने हमेशा कोशिश की कोशिश का मतलब आज की तरह बैंकिंग या धूसपास | थोड़े ही था, बस अच्छे संस्कार, सुविधा और खर्च देना भर था। जैसा कि गाँवों के लोगों के मन में एक ग्रंथि होती है कि वे गंवार हैं, अपढ़ | प्रताप बाबू के पिता में भी थी प्रतापबाबू को अपने पिता की इस भावना से ग्लानि होती थी। ये लगातार प्रथम श्रेणी पाने की कोशिश करते पाते भी उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि भारत के पच्चीस-तीस प्रतिशत साक्षर लोग यहाँ के निरक्षर लोगों के कष्ट और त्याग का परिणाम हैं। इसीलिए अफसरी मिलने और शहरों में रहने के बावजूद इनके दिल में गाँव की जमीन, गाँव की हवा, नदी, नहर, बगीचे और गाँव के लोग राज करते रहे। जहाँ शिक्षा का सवाल है, शहर तो बहुत बाद में शुरू हुआ उनके जीवन में, परन्तु जो अनुभव, जो ज्ञान गाँव की इस माटी, पानी और आकाश ने गूंथा उनके भीतर, रोपा उनके भीतर, वह क्या शहर में संभव था ? प्रताब बाबू को याद है, होश साथ ही वे धान, मकई, गेहूँ, अरहर, मूंग, मसूर, उड़द, मटर, खेसारी, चना, सरसों, राई, तिल, आलू, बैगन, टमाटर, गोभी, साग, मिर्च, जीरा, धनिया, सोआ, मेथी से लेकर आम, जामुन, कटहल, अमरूद, बेर, नारियल, खीरा, ककड़ी, तरबूज आदि तमाम खाने-पीने वाली चोजों, पेड़-पौधों के नाम न केवल जानते थे बल्कि उनके अंग-प्रत्यंगों को पहिचानते थे, उनका जीता-जागता रसानुभव था। वे जानते थे कि शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान की रोपाई कब होती है, कब कटनी होती है, कब रब्बी की फसल पर वे बहू के व्यवहार से हतप्रभ हो गए। प्रताप बाबू हिन्दी और लगायी जाती है, कब दलहन और तेलहन रोपे काटे जाते हैं। बारहों अंग्रेजी में गोल्डमेडलिस्ट थे, बहू को पता था। यह लड़की बहुत पढ़ीनक्षत्रों और महीनों के नाम कंठस्थ थे उन्हें। उन्हें आश्चर्य होता कि लिखी तो न थी पर अंग्रेजी माध्यम से इंटरमीडियट कर लिया था। यह कैसा जीवन है जहाँ लोग उन चीजों के बारे में न जानते, न जानने उनके मित्र की लड़की थी। प्रताप बाबू के लड़के का उससे प्रेम विवाह की उत्सुकता रखते कि जिन चीजों का संबंध उनके प्राणों से है, उन्हें था, जिसमें दोनों परिवारों को एक दूसरे का संबंध सहर्ष स्वीकार था। लगाने वाली जगह कहाँ है, लोग कहाँ हैं? प्रताप बाबू को बड़ा दुखद । बच्चों को बुलाने पर छूटते ही उसने कहा – बड़ा टफ है इन लोगों और हास्यास्पद लगता कि पेड़ों को किताबों में पढ़ाया जाता है, का कोसे, आप से होगा नहीं, स्वर धीमा था पर दृढ़। इधर बच्चों का टी०वी० में दिखाया जाता है, कापियों में आंका जाता है। खेलों को मूड बन गया, अपने इस नए टीचर से पढ़ने का। इन कुछ दिनों में खेला कम, टी०वी० में देखा अधिक जाता है। दादाजी उनके लिए एक मजेदार जीव सिद्ध हो चुके थे - एक दो महीने हुए थे उन्हें आये हुए। इंजीनियर बेटे ने बहुत आग्रह एडवेंचर, याकि नए-नए रहस्यों के खदान। इससे भी बड़ी बात थी कि कर बुलाया था। प्रताप बाबू स्वयं तो एस०डी०ओ० के पद से हाल वहाँ किलकने-फुदकने की छूट भी अधिक थी। टीचर के रूप में में ही रिटायर हुए थे। बाकी जीवन के लिए कोई संतोषप्रद शैली उनकी परीक्षा भी करनी थी। वे दौड़े चले गए दादाजी के पास। प्रताप ढूँढ़ने की दिशा में सोच रहे थे। कलकत्ता आते हुए सोचा था कि बाबू का बहू से आहत मन बच्चों के उत्साह में भुला गया। उन्होंने कुछ लंबी अवधि तक रहेंगे, बच्चों को पढ़ाने में मदद करेंगे। असल । बच्चों का भारी बस्ता उल्टा-पल्टा। इतनी किताब-कापियाँ तो उन्होंने मैट्रिक तक में भी न देखी थी। बड़ा पाँच साल का था. के०जी० में में सरकारी नौकरी की वजह से अपने बच्चों की पढ़ाई में खुद अपना योगदान नहीं दे पाये थे वे। इसकी कसक उनके भीतर भी पढ़ रहा था। छोटा ढाई का, दो-चार दिनों से नर्सरी जा रहा था। थी और बच्चों के मन में भी पिता के लिए एक शिकायत थी। इसलिए प्राय: रोज ही स्कूल जाते समय वह एक तमाशा खड़ा कर देता था। नहीं स्कूल नहीं जाएगा। तब तरह-तरह से मिठाइयाँ, बुढ़ापे में अपनी इस सोच और योजना के पीछे इंगेजमेंट की तलाश चाकलेट तथा अलग-अलग लोभ देकर उसे भेजा जाता था। प्रताप भी थी और शायद इस कसक से छुटकारे की भी। पर कलकत्ता बाबू के वश में होता तो वे उसे स्कूल जाने से बचा लेते। ढाई साल आकर तो कहीं इसका द्वार दरवाजा दिखायी न दिया उन्हें। वे आए। के बच्चे को स्कूल भेजकर क्या पढ़ाना है भला? उनकी सोच में काफी खातिर हुई। बेटे ने ड्राइवर और बच्चों के संग चिडियाखाना, तो माँ ही अभी पाठशाला है उसकी। अभी उसे स्कूल भेजने का म्यूजियम, विक्टोरिया मेमोरियल, प्लेनेटेरियम, बेलूरमठ और मतलब तो सिर्फ उससे निजात पाना है। बस। वात्सल्य के ऐसे दक्षिणेश्वर तमाम दर्शनीय स्थलों पर भेजा उन्हें, घुमाया कहना आधुनिकीकरण पर वे ऐसा ही सोचते हैं। पर ऐसा उनके सोचने से चाहिए। दो-चार दिनों तक उनके आने की गहमागहमी रही घर में। क्या हो सकता था। अपनी हैसियत के विलोपन का अहसास पूरी फिर घर के नियमित रूटीन में वे भी एक रूटीन हो गए। तरह से था उन्हें। उन्हें तो बहुत कुछ अच्छा नहीं लगता था और ड्राइवर सुबह बच्चों को लेकर स्कूल जाता था। बहू बच्चों को तो और इन पोतों का नाम तक लेने में परेशानी होती थी उन्हें। जैकी झटपट तैयार कर देती थी। बेटा बेड-टी लेकर भी साढ़े आठ बजे और डॉन। ये भी कोई नाम है भला? नाम एक महत्वपूर्ण संज्ञा है तक सोया रहता था या बिस्तर पर पड़े-पड़े टी०वी० न्यूज और। उनकी नजर में। वह तत्काल व्यक्तित्व का परिचायक हो न हो पर कीप-फिट देखता रहता था। टी०वी० से न्यूज सुनने की बात प्रताप उसका अपने आप में एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या सामाजिक बाबू की समझ में आती थी पर कसरत को टी०वी० में देखने की। अर्थ गांभीर्य तो प्रकट होना ही चाहिए। वह भी न सही उसके पीछे बात बिल्कुल समझ में नहीं आती थी। और तो और कसरत को कम से कम माता-पिता की महत्वाकांक्षा या कल्पना तो झांकती हो कीप-फीट क्यों कहेंगे? योग को योगा क्यों कहेंगे? देसी नामों से कहीं। उन्होंने अपने इन दोनों पोतों का नाम रक्खा था, यशवन्त क्या इनकी एनर्जी कम हो जाती है? ऐसी आधुनिकता पर कई प्रताप और दिग्विजय प्रताप। स्कूल में बच्चों के ये ही नाम सवाल थे उनके पास पर जवाब हँसकर टाला जाता था। नामांकित थे पर पुकार में ये बदल कर जैकी और डॉन हो गये थे। दोपहर में बच्चे आते - खा-पीकर थोड़ा आराम करते, फिर । इस तरह अच्छा न लगना तो कितनी-कितनी बार कितनी-कितनी शाम जुट जाते पढ़ाई में। प्रताप बाबू ने जैसा कि सोचा था, चाहा घटनाओं में घटता चला जा रहा था घर में। कि बहू का यह दायित्व अपने हाथों में ले लें। यही सोच उन्होंने आप को अच्छा नहीं लगता तो न लगे, घर की हवा प्राय: यह कल बच्चों को बुलाया अपने पास। कह कर चल देती उन्हें। मानों वह बहुत दिनों से उन्हें बिना पूछे बहती शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/९१ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 बदलती चली जा रही थी। बहुत सारे मामले उनकी सम्मति के बिना तय करती जा रही थी। जब कि ऐसा भी नहीं था कि अगर वह उनसे मशविरा करती तो हमेशा विपरीत ही पाती। बेटे ने जब गाँव की जमीन बेचकर शहर में फ्लैट बनवाया तब उन्हें विरोध कहाँ हुआ था? हाँ बासिक भूमि, बापदादों की निशानी को भले ही उन्होंने बिकने न दिया था। बासिक भूमि बेची नहीं जाती उसे किसी को बसने के लिए जरूर दान दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त पुराने पलंग, आलमारी, बर्तन सब तो बेचे गए थे, तब उन्होंने कोई रुकावट कहाँ डाली? कितना कुछ तो स्वीकारते ही चले आ रहे थे, जमाने और अगली पीढ़ी के लिए। लेकिन स्वीकारने के पीछे कोई विचार तो हो। मूल्यहीनता में मूल्य तोड़ने की बात समझ में नहीं आती थी उन्हें। खुद उन्होंने भी तो कितने पुराने मूल्य, कितने खंडहर ध्वस्त किये थे। क्या उन्होंने अपने यहाँ बलिपूजा नहीं रोकी? क्या उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली नहीं जलायी? क्या उन्होंने अपने माता-पिता को गाँधी और खद्दर का मतलब नहीं समझाया? तब पंद्रह-सोलह वर्ष के तो थे वे? सत्य, अहिंसा, चरखा और सत्याग्रह के लिए गाँधी बाबा कैसे लकुटिया लिए मानो हमेशा उनके किशोर मन के आगे-आगे चलते रहते थे। गाँधी उन्हें आधुनिकता के भी प्रतीक लगते थे और क्रांति के भी। उनकी बदौलत ही तो गाँव में जैनी बाबा के दालान में चरखा सेन्टर खुला था और गाँव की महिलाएँ दोपहर से शाम का समय सात्विक सृजन में बिताने लगी थीं। उस सेंटर से पहले तो घर की देहरी लक्ष्मण रेखा थी उनके लिए। कितना अच्छा लगता था प्रताप बाबू को वहाँ अपनी माँ का जाना। आजादी के आंदोलन की वह लहर, वह ज्वार अपनी आँखों से देखना और उसमें तन-मन से नहाना जीवन का लोमहर्षक अनुभव था उनके लिए। अविस्मरणीय अनुभव। उसका स्मरण आज भी उन्हें आपूर्ण स्वच्छ कर देता है, आलोड़ित और आर्द्र। आर्द्र इसलिए भी कि उपलब्ध आजादी के बाद क्रमश: फैलता हुआ अंग्रेजवाद उन्हें सन्न और हतप्रभ कर देने के लिए काफी था। पूरा देश पूरा युग न उनके हाथ था न उसके लिए वे अपना दोष ढूँढ़ सकते थे, पर अपनी संतानों के लिए अपनी चूक की तलाश में अक्सर पड़ जाते थे। अपने जानते तो उन्होंने अंग्रेजियत को कभी प्रश्रय नहीं दिया था, अपने घर। इंगलिश मीडियम में पढ़ाया नहीं उन्हें। रेडियो हो कि टी०वी०, फ्रिज, गाड़ी ऐसी किसी सुविधावाद को प्रवेश का अवसर न दिया था उन्होंने। बच्चे बिगड़े नहीं थे न बरबाद हुए थे, फिर भी कहीं न कहीं से पिता और संतानों की रुचि का फासला बड़ा हो गया था। किसने सिरजा था उसे? अपनी हिस्सेदारी कहाँ ? सवाल उठते थे पर जवाब कहाँ मिलता? वक्त-वक्त पर बच्चों के आरोप पहुँचते थे उनके पास। पिता ने घूस नहीं लिया, तो क्या? सरकारी सुविधाओं का घरेलू उपयोग न किया तो क्या सरकार ने कोई तमगा दे दिया? क्या रिटायरमेन्ट की उम्र बढ़ा दी? ऐसे कितने सारे दोष ढूँढ़ कर रक्खे थे उनके सामने बच्चों ने। इसलिए ऐसा कोई हक ही न बनता था उनका इन पोतों पर। उनके मम्मी-डैडी अपने ढंग से संस्कारित करेंगे उन्हें। फास्ट और मार्डन बनाएँगे उन्हें। बच्चों की किताबें उलट-पलट कर देखने लगे प्रताप बाबू कि बड़े ने इस नये टीचर की परीक्षा प्रारंभ कर दी। दादाजी! कैन यू मल्टीप्लाइ द एलेवन इंट्र एलेवन? दादाजी मुस्कराए - जवाब दिया वन हंड्रेड ट्वेन्टी वन। __एंड एलेवन इंटू ट्वेल्व? वन थर्टी टू। एंड ट्वेल्व इंटू ट्वेल्व? - वन फोर्टी फोर। अच्छा फाइव इंटू वन एण्ड हाफ - सेवन हाफ। बच्चा चिल्लाया। वेरी गुड, हाउ फास्ट। नाइस यू आर? बट वेयर इज योर कैलकुलेटर? 'इन आवर माइंड।' उन्होंने याद किया अपने रसिकलाल गुरुजी और उनके बेंतों को। कैसे लाइन लगवाते थे और कैसे लय में एक साथ सबसे पहाड़े रटवाते थे। कभी उनकी बेंत नहीं खानी पड़ी थी उन्हें, यह सोच आज भी गर्व अनुभव करते थे वे। सवय्या, डेढ़ा, ग्यारहा सब याद करवाया था उन्होंने। बीस तक के पहाड़े का प्रचलन तो बहुत बाद में हुआ। फिर केलकुलेटर और कंप्यूटर तो अब यह सब भी खत्म कर रहा है। तन-मन की इतनी बचत किसलिए, यह उनकी समझ के बाहर था। बच्चों के साथ रमते हुए उन्होंने कहा - अच्छा बेटे, चलिए अब एक कविता सुनाइये। - कविता? ह्वाट इज कविता? 'कविता नहीं जानते? पोएम जानते हो?' - यस, शुरू हो गया वह - 'ट्विन्कल ट्विंकल लिटल स्टार.....' ‘हिन्दी में कोई?' - नो इन हिन्दी। केवल, अ, आ, इ, ई बछ। 'हिन्दी में भी आनी चाहिये बेटे। यह अपनी भाषा है न। मातृभाषा।' - मातृभाषा? 'हाँ मातृभाषा है हिन्दी तुम्हारी। मदरटंग कहते हैं इंगलिश में।' । आओ एक गीत सीखो - एक कविता - पूर्व दिशा मेंबच्चों ने अनुकरण किया – पूल्व दिछा में..... विद्वत खण्ड/९२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उदित सूर्य को - दादाजी ! बच्चे के मन में जरूर सवाल खड़े हुए थे कि माँ -- उदित छूल्य को..... पहुँची। अंदर से बहू ने पुकारा बच्चों को। गीत की लड़ी बीच में ही 'चलो जैकी-डॉन। कम-कम खाना खालो बेटे।' छूटी, बच्चा भीतर भागा बच्चा जानता है उपाय नहीं है बचने को। प्रताप बाबू के कान में बहू का कड़कता स्वर पड़ा - 'डिड -'दादाजी। मॉरनिंग में मिलेंगे। तब गीत छिकाएँगे न।' यू फिनिस योर होमवर्क?' बच्चा शायद सहमा-सा गुमसुम खड़ा --'अभी आप खाना खालो, और छो जाओ। होगा - प्रताप बाबू को लगा। लगा कि उन्हें उसके संकट को शेयर दूसरे दिन रोज की तरह चार बजे प्राय: प्रताप बाबू का स्वर करना चाहिए। वे उठे और अंदर की तरफ बढ़े। तभी सहमता हुआ आरंभ हुआ - या कुन्देन्दु तुषार हार धवला..... स्वर पर साफ सुना उन्होंने - आई एम लरनिंग मातृभाषा मम्मी। बच्चा रजाई में कुनमुनाया। 'मम्मी दादाजी के पास जाऊँ।' - ह्वाट? मम्मी चिल्लायी। तब तक श्वसुर सामने थे। और थोड़ा सो जाओ बेटे, थोड़ी देर में स्कूल के लिए तैयार 'इनका होमवर्क करवाइये, वरना स्कूल से कंप्लेन आएगी।' होना है ना।' बहू ने अनुशासित होकर मगर आदेश के स्वर में कहा। नहीं और नहीं। थोड़ी देर के बाद आ जाऊँगा आपके पास,' तत्क्षण बच्चा उनको सौंपा तो गया पर उन्हें लगा कि उनसे कहता हुआ रजाई से बाहर निकल आया। छीन लिया गया है उसे। वैसे भी जो आदेश था, उसका पालन करना -'जाने दो' यह स्वर बच्चे के डैडी का था। सुबह-सुबह इस उनके लिए मुश्किल था। उनके लिए मुश्किल था कि बच्चों को तरह नींद का उचटना एकदम से अच्छा नहीं लगता जिन्हें। प्रताप आकाश, सूरज, चाँद, सितारे पहले न बताकर स्काई, सन, मन बाबू ने देखा वादे के अनुसार उनका पोता ब्रह्म मुहूर्त में उनके पास एण्ड स्टार बताए उन्हें। यह तो जाहिर था कि प्रताप बाब के लिए पहुंच चुका था। उन्होंने आह्लाद से गोद में उसे उठाया - चूमा और जितना मुश्किल नहीं था उससे कहीं तकलीफदेह था। फिर भी रजाई में गरमा कर आरंभ कियासहमे बच्चों को गोद में उठाकर ले आए वे अपने कमरे में। कमरे - पूर्व दिशा में उदित सूर्य को इन आँखों से देखते हुए, सौ में आते ही बच्चा गले चिपटा और फफककर रो पड़ा। प्रताप बाब वर्ष तक हम, जीवित रहें, जीवित रहें, जीवित रहें। ने उसे जोर से भींचा छाती से प्यार की उष्मा से सेंका। बालपन ही बच्चा अनुकरण कर रहा था। तो था। चोट और सूजन भुलाने में देर न लगी। फिर आँसू से भीगे प्रताप बाबू सामने खिड़की की तरफ अपनी तर्जनी से इशारा गालों को लगातार चंबनों से सखा दिया। इतने में बदत वाट हो कर रहे थे जहाँ सूरज अपने निकलने का रक्तिम संकेत फैला रहा चुके थे दादा और पोते में। प्रताप बाबू ने धीरे-से सलाह की उससे। था और बच्चा एकटक उस ओर निहार रहा थापहले होमवर्क, फिर कथा, कहानी, पहेली गीत सब। बच्चे ने दादा। पता नहीं कितना सच था पर प्रताप बाबू को लगा कि अपने के सहयोग से होमवर्क किया और अंदर ले गया माँ के पास। माँ बच्चों में हुई चूक का जैसे अब सुधार कर रहे है वे। देखती और वह खड़ा रहता, उतनी देर उसके पास धीरज न था, रीडर, हिन्दी भवन, विश्वभारती वापस भागा-भागा पुन: दादाजी के पास। शांतिनिकेतन-७३१ २३५, पश्चिम बंगाल __ - दादाजी! नाऊ देट सांग। दादाजी भींग गए अंदर से। पर अब रात हो चली थी, उन्हें पता था कि बच्चों की माँ अभी फिर पुकारेगी उन्हें खाना खिलाएगी। बच्चे सोएँगे फिर। उन्होंने प्यार से गोद में समेटा उसे - 'बेटे अभी आपको एक अच्छी-सी मजेदार 'कहानी सुनाते हैं, गीत सुबह।' - कहानी? 'हाँ शार्ट स्टोरी बेटे। उसे अपनी भाषा में कहानी कहते हैं।' प्रताप बाबू ने कल्याण निकाला। “मत्स्यावतार" की तस्वीर दिखाते हुए कहानी सुनायी। -'कितना मजा आया।' शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/९३ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षा O पद्मचन्द नाहटा एक योगी महात्मा उसी गाँव की ओर से निकल रहे थे। भिक्षा हेतु गाँव के भीतर घुसे। गलियों में खेल रहे बच्चों ने बताया कि आज सुब्रत बाबू के यहाँ पूरे गाँव का भोज है, सभी वहीं खाना खायेंगे। महात्मा भी उसी ओर चल पड़े। सुब्रत घर के बाहर खटिया पर अपने साथियों के साथ व्यवस्था सम्बन्धी चर्चा कर रहा था। आज खुशी से उसका सीना फुला हुआ था क्योंकि आज के बाद वह गाँव का सबसे बड़ा आदमी कहा जायेगा। पिछले कई सालों में किसी ने पूरे गाँव को खिलाने का साहस नहीं किया था। सुब्रत ने देखा कि एक महात्मा उसी के घर की तरफ चले आ रहे हैं। उसने मन ही मन सोचा मेरे भाग्य कितने अच्छे हैं कि आज एक महात्मा चल कर मेरे घर आ रहे हैं। इनका आदर सत्कार कर इन्हें भी भोजन करवाऊँगा। यह सोच वह उठने को हुआ कि महात्माजी को घर ले आऊँ। किन्तु देखता है कि घर के नजदीक आते-आते महात्मा रुक गये। उनकी दृष्टि उन चार बकरों पर पड़ी। वे घर के अन्दर न आकर बकरों के नजदीक गये। महात्मा योगी थे, उन्हें पशुओं की भाषा का भी ज्ञान था। उन्होंने देखा कि तीन बकरों की आँखों में मृत्यु का भय था। वे अपना अन्त निकट जान दु:खी थे किन्तु चौथा शान्त भाव से खड़ा था। उसकी आँखों में चमक थी। विष्णुपुर गाँव में सुब्रत नाम का एक किसान रहता था। उसके महात्मा ने उसकी ही भाषा में उस बकरे को प्रश्न किया कि क्या पिता विक्रम बाबू मरते समय सुब्रत के लिए पूँजी तो नाम मात्र ही उसे मरने का भय नहीं? बकरे ने कहा हे, महात्मा ! मृत्यु तो छोड़ गये थे। हाँ, एक बड़ा बंजर भू भाग अवश्य छोड़ गये। सुब्रत निश्चित है। फिर बकरे तो कटने के लिये ही जन्म लेते हैं किन्तु ने काफी मेहनत की और उस बंजर भूमि को उपजाऊ बना कर मैं आज बहत खश हैं। महात्मा ने अपने ज्ञान से सारी स्थिति अच्छे पैसे जोड़ लिये। वह अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ समझते हए भी बकरे से पछा- तुम्हारी खशी का क्या कारण है? शान्तिपूर्वक रह रहा था। उसका सपना था कि वह बड़ा आदमी बकरे ने कहा-हे योगीराज! मैं पूर्व भव में इसी गाँव में रहने वाला कहलाये और गाँव का मुखिया बने। एक रात भोजन करके आराम विक्रम नाम का किसान था। मेरे एक पुत्र था। मैं साधारण स्थिति करते समय उसने अपने दिल की बात पत्नी को बताई और दोनों का किसान अपने पुत्र को सारी खुशियाँ न दे सका। इस घर का मिल कर योजना बनाने लगे। यह हुआ कि वे एक भोज का मालिक सबत मेरा ही पत्र है। आज इसकी सम्पन्नता और मान आयोजन करेंगे जिसमें सभी गाँववासी आमंत्रित किये जायेंगे। इससे देखकर मैं इतना हर्षित हुआ हूँ कि मरने का गम नहीं। औरों के होने वाले मुखिया के चुनाव में उन्हें वोट मिलेंगे, बच्चों का सम्बन्ध हाथों न मर कर अपने ही घर में मर रहा हूँ। भी अच्छा होगा। तिथि ५ दिन बाद आने वाले पिताजी के श्राद्ध की महात्मा भिक्षा की आशा छोड़ वापस लौटने लगे तब तक निश्चित की गयी। सुब्रत वहाँ आ पहुँचा। उसने महात्मा के चरण स्पर्श किये और दूसरे दिन से ही सुब्रत तैयारी में जुट गया। पूरे गाँव को । निवेदन करने लगा कि महात्मन! मैं धन्य हूँ जो आप जैसे योगी निमंत्रण दिया। गाँव के नामी हलवाई को बुला कर सारी व्यवस्था हमारे गाँव ही नहीं, घर भी पधारे। आज मेरे पिताजी की बरसी है, समझा दी गई। आयोजन के दिन सुबह से ही सुब्रत के घर काफी अन्दर यज्ञ चल रहा है, आप भोजन करके ही पधारें, इससे मेरे चहल-पहल थी। सारे कार्यकर्ता भी जुट गये और बाजार से सामान दिवंगत पिता की आत्मा को बड़ी शान्ति मिलेगी। सुब्रत ने महात्मा आने लगा। घर के पास के दालान में भट्टियाँ जल रहीं थीं और पकवान बनाये जा रहे थे। साथ ही ४ बड़े बकरे भी वहाँ लाये गये महात्मा मुस्कुराये और बड़े शान्त भाव से कहा-मैं एक थे जिनको एक खूटे से बाँध दिया गया। सन्यासी हूँ, भिक्षा लेकर खाता हूँ, तुम्हारे यहाँ का भोजन मेरे अनुकूल विद्वत खण्ड/९४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। तुम इसे अन्यथा मत लो, मैं कहीं और भिक्षा ले लूँगा। एक बात और जिस पिता की आत्मा की शान्ति की कामना तुम कर रहे हो वह तो तुम्हारे घर में ही है यह जो चितकबरा बकरा बँधा है वही तुम्हारे पिता की आत्मा है जो इस बकरे के रूप में जन्मी है, इस स्वयं मुझे बताया है। महात्मा ने बकरे द्वारा बताई गई पूरी बात दोहरा दी। सुब्रत स्तब्ध रह गया। वह बकरे से लिपट कर रोने लगा फिर थोड़ी देर बाद बकरों को खोलकर महात्मा के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा आपने मेरे हाथों घोर अनर्थ होने से बचा लिया। तब तक गाँव के कई लोग वहाँ एकत्रित हो चुके थे। महात्मा ने उसे उद्बोधन दिया "यह बकरा तुम्हारा पिता है अत: तुम्हें पश्चाताप हो रहा है। हर जीव किसी न किसी जन्म में किसी न किसी के माँ-बाप या दादा दादी रहे हैं। ८४ लाख जीव योनियों में भटकती आत्माओं का वध करने से निश्चित रूपेण अपने पूर्वजों की हत्या का संयोग बन सकता है । अत: निरीह प्राणियों की हत्या त्याग कर दोहरे पाप से बचो।" सुव्रत के साथ-साथ पूरे गाँव के लोगों ने यह उद्बोधन सुना एवं प्रतिज्ञा की कि वे आज से ही मांसाहार का त्याग करते हैं। और महात्मा को घर के अन्दर आकर भिक्षा ग्रहण करने का अनुरोध किया। सभी की आँखें नम थीं। ४, जगमोहन मल्लिक लेन, कोलकाता-७ शिक्षा - एक यशस्वी दशक जब मद में चूर मानव नित नये आविष्कारों से स्वयं को देता है। उपमा ईश्वर की । तब अनहोनी होनी होती है असम्भव सम्भव होता है दुर्घटना घटती है । अहसास होता है। हमें अपनी सीमाओं का जन्म होता है बोझ हुई उसके लिये बूढ़ी हड्डियाँ सीमाएँ • अलका धाड़ीवाल अब वह ऋण चढ़ाने के लोभ में दूध का कर्ज उतारना भूल गया । विद्वत खण्ड / ९५ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जानकीनारायण श्रीमाली भा भारतीय संस्कृति में शिक्षा शब्द अत्यन्त पवित्र, आदर्श और उपकारी माना गया है। 'शिक्षैव शिक्षा' का अर्थ है - गुरु द्वारा शिष्य को दी गई सीख। इस सीख को, शिक्षा को सर्वोपकारिणी माना गया है अर्थात् यह सभी प्रकार के उपकार करनेवाली है। शिक्ष से शिक्षा का निर्माण हुआ है जो कि सीखने का प्रतीक है और सीखने की प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। इसलिये शिक्षा भी जीवन पर्यंत चलनेवाली प्रक्रिया है। सभी प्रकार की विद्याएँ सीखने से ही फलदाई होती हैं। वेद में समता को शिक्षा माना गया है। भारतीय साहित्य में वेद और उपनिषद अथाह ज्ञान के भंडार हैं। वैसे तो उपनिषद कहानियों तथा पारस्परिक संवादपूर्वक तत्व का बोध कराते हैं और इस प्रकार सभी उपनिषद शिक्षाप्रद हैं किन्तु तैत्तरीय-उपनिषद में सीधा ही शिक्षा पर प्रकाश डाला गया है। तैत्तरीय-उपनिषद में शिक्षावली नाम से एक स्वतंत्र अध्याय में शिक्षा की विवेचना करते हुए, शिक्षा प्राप्त करने के साधन, विधि और सावधानियों का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस सब विषय को समझाने के साथ उपनिषद सगर्व प्रश्न करता है - किं-किं-न साधयति कल्पलतैव विद्या - अर्थात् विद्या कल्पलता है जो कि कल्पनामात्र से वांछित फल प्रदान करती है और यह कल्पलता क्या नहीं कर सकती अर्थात् सब कुछ कर सकती है। आज हम देखते हैं कि उपनिषद की यह थोथी गर्वोक्ति नहीं है। आधुनिक विज्ञान की प्रगति, टेलीफोन, दूरदर्शन और अन्तरिक्ष की यात्रा आदि असंभव को कल्पलता विद्या ने प्रत्यक्ष संभव करके दिखा दिया है। शिक्षा से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की प्रगति होती है। आध्यात्मिक परिवेश पर, अधिष्ठान पर आधारित भौतिक शिक्षा कल्याणकारी होती है। साथ ही शिक्षा व्यक्ति का चरित्र निर्माण करती है। सतत् संस्कारों से शिक्षित हुए व्यक्ति का आचरण प्राप्त शिक्षा के अनुरूप होता है। इस प्रकार शिक्षा प्रथमत: व्यष्टि और फिर समष्टि की रचना करती है। भारतीय संस्कृति में शिक्षा का इतना महत्व है कि केवल ३२ . वर्ष की आयु में अपनी जीवनलीला पूर्ण कर लेने वाले जगद्गुरु आद्यशंकराचार्यजी ने जिन विषयों को भाष्य के लिए प्राथमिकता से चुना उनमें शिक्षा को आश्चर्यचकित कर देने वाला महत्व देते हुए चुना है। हमाये यहाँ चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। शिक्षा तीनों पुरुषार्थों को पूर्ण करते हुए व्यक्ति की चरम आकांक्षा मोक्ष को भी सुलभ कराती है। श्रीमद् शंकराचार्यजी ने मोक्ष प्राप्ति के सभी विकल्पों पर विचार करते हुए अंत में घोषणा की किकेवल ज्ञान ही मोक्ष का साक्षात् साधन है। यह भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि गुरु अपने शिष्य को सभी प्रकार की शिक्षापूर्ण हो जाने पर समावर्तन संस्कार कराते समय उसे आज्ञा देता है- 'सत्यं वद, धर्मं चर' अर्थात् सत्य भाषण करो तथा धर्म का आचरण करो। इन दोनों आदर्शों की नींव पर भारतीय समाज की कालजयी रचना हुई। यही कारण है कि विश्व की अनेक अति प्राचीन सभ्यताएँ काल के गाल में समा गई किन्तु भारतीय सभ्यता और संस्कृति आज भी चिरजीवी और सतत प्रवहमान है। आनन्दमयी शिक्षा - हमारी शिक्षा की अवधारणा कभी भी रुक्ष नहीं रही। शिक्षा को ब्रह्मविद्या कहा गया है और ब्रह्म सदैव रसस्वरूप है। उस रस की प्राप्ति होने पर यह जीव रसमयआनन्दमय हो जाता है। उस रस के परिपाक से पुरुष निर्भय हो जाता है। यह वेद की घोषणा है जो संसार को शिक्षा के माध्यम से निर्भय और आनन्दमय बनाता है। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा आनन्दमयी थी क्योंकि वह भयरहित थी। कहानी - एक बार शांतिनिकेतन की स्थापना के बाद गुरुदेव टैगोर के विद्यालय में अपने छात्रों का शिक्षण देखने कुछ अभिभावक आए। उन्होंने देखा कुछ छात्र गुरुदेव के सामने बैठे एकाग्रचित्त से पढ़ रहे हैं जबकि कुछ पेड़ पर बैठे आम चूस रहे हैं और कुछ धूल में खेल रहे हैं। उन अभिभावकों ने गुरुदेव से जिज्ञासा की तो उन्होंने बताया जिस समय छात्र को शिक्षा में रस आए उसी समय मैं उन्हें शिक्षा देता हूँ किन्त खेलना, आम खाना और मुक्त प्रकृति का आनन्द लेना भी शिक्षा है। आज आनन्दमयी शिक्षा के लिए करोडों बालक तरस रहे हैं। विद्वत खण्ड/९६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन सत्य से परिचित शिक्षा : आनन्दमयी शिक्षा आवश्यक है किन्तु भूखे पेट में आनन्द की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस सत्य से भारतीय दार्शनिक और उपनिषदकार परिचित थे। इसलिए श्रुति ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के, शिक्षा प्राप्त करने के जो स्तर तय किए उनमें प्रथम स्तर अन्न था। ब्रह्मज्ञान का प्रथम द्वार अन्न था। अन्न के लोकोत्तर आनंद को वेद के इस वाक्य - अहमन्नमहम्नमहमन्नम - मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ- यह उन्मत्त भाव एक कृतार्थ हृदय का उद्गार है। विजय का उद्घोष है। इसलिए कार्लमार्क्स ने भूख के विरुद्ध संघर्ष की जो घोषणा की थी, वह अन्यथा नहीं थी किन्तु संघर्ष का पथ शिक्षा-संस्कार विहीन होने से वह घोषणा सार्थक न हो सकी। भारतीय शिक्षा पद्धति में भूख के विरुद्ध संघर्ष है किन्तु उसका अधिष्ठान आध्यात्मिक है। यह एक आध्यात्मिक संग्राम है जिसे न्यासी भाव (ट्रस्टीशिप प्रिंसिपल) के माध्यम से सम्पत्ति समाज की, के भाव से जीता जाता है। तेन त्यक्तेन भुंजिथा' - त्यागपूर्वक उपयोग करने से यह संघर्ष जीता जा सकेगा। ___ नासिकेत उपाख्यान - वैदिक भारतीय शिक्षा किस प्रकार के बालक तैयार करती थी इसका उदाहरण देना उचित होगा। महर्षि उद्दालक ने विश्वजित नामक यज्ञ के बाद गोदान प्रारंभ किया। उद्दालक के पुत्र नचिकेता ने देखा वे गाएँ झुककर जल नहीं पी सकती थीं, घास नहीं चबा सकती थीं, उनके स्तन दूधरहित थे और इन्द्रियाँ थक चुकी थीं। ऐसी जराजीर्ण गायों के दान से पिता का अपयश होगा। ऐसा सोचकर श्रद्धा से आवेशित नचिकेता ने तीन बार पिता को गोदान से रोका तो क्रुद्ध पिता ने उस कुमार (छोटे बालक) को मृत्यु को दान कर दिया। नचिकेता यमलोक को चल पड़ा और पश्चाताप से दग्ध उसके पिता मूर्छित होकर गिर पड़े। नचिकेता ने बाद में यम से ब्रह्मविद्या का दान प्राप्त किया। यह कहानी विश्व की सर्वाधिक भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। इसमें सत्यं वद, धर्म चर के आदर्श को यथार्थ में परिणित करने, कथनी और करनी की एकता को साक्षात् जीवन में साकार करने का प्रसंग है। ऐसी थी हमारी शिक्षा। आधुनिक युग के परिवर्तनों के बीच भी सत्यं वद, धर्म चर के आदर्श पर आधारित शिक्षा एक आदर्श समाज, राष्ट्र और विश्व के निर्माण में समर्थ है। यह दायित्व छात्रों का है। उपनिषद कहते हैं - छात्र ही गुरु है क्योंकि वह प्रश्न करके उत्तर के माध्यम से ज्ञान को प्रकट करवाता है। समवेदना अमेरिका के राष्ट्रपति मि० एब्राहम लिंकन अपने अनेक लोकोत्तर गुणों के कारण काफी प्रसिद्ध हुए हैं। एक बार जाते हुए मार्ग में उन्होंने कीचड़ में एक बीमार सूअर को फँसे हुए देखा। देखकर भी वे रुके नहीं, आगे बढ़े चले गये; किन्तु थोड़ी दूर जाने के बाद वे पुन: वापस लौटे और अपने हाथों से कीचड़ से सूअर को बाहर निकाला। लोगों ने हैरानी से इसका सबब पूछा तो वे बोले, "मैं आवश्यक कार्य में व्यस्त होने के कारण इसे कीचड़ में फँसा हुआ देखकर चला तो गया, पर मेरे हृदय में एक वेदनासी बनी रही, मैने उसी वेदना को दूर करने के लिये इसे निकाला है।' दुखियों को देखकर हमारे हृदय में जो टीस उठती है, उसी को मिटाने के लिए हम दुखियों का दुःख दूर करते हैं। इसमें उपकार और एहसान की बात नहीं है। ब्रह्मपुरी चौक, बीकानेर (राज.) शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/९७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्हैयालाल डूंगरवाल आजाद होने के बाद संविधान में किये गये प्रावधानों के अनुसार हिन्दी राष्ट्रभाषा हो जानी चाहिए थी पर राज्य भाषा विधेयक लाकर अंग्रेजी को अनन्त काल के लिए चालू रखी है। आज अंग्रेजी उच्च वर्ग की पहचान बन गई है। विद्यार्थी में देश की संस्कृति, जनता के दुःख-दर्द, गरीबी मिटाने का संकल्प कुछ भी नहीं है। तोता रटंत पढ़कर परीक्षा पास करना ही मुख्य उद्देश्य हो गया है। मेरा कहने का अर्थ यह नहीं है कि देश में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ भी नहीं हुआ। विद्या, हुनर और विज्ञान के क्षेत्र में काफी कुछ काम हुआ है किन्तु आज की दुनियां के मुकाबले में हम अभी पिछड़े हैं। मैंने जब वकालत शुरू की हाईकोर्ट में तब कानून की पढ़ाई अंग्रेजी में चलती थी। अंग्रेजी हटाओ और भाषाई आंदोलनों के कारण हिन्दी और देशी भाषाओं में काम चलने लगा। आज मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में ७०-८०% काम हिन्दी में होता है किन्तु संविधान में प्रदत्त शक्ति से हिन्दी के प्रयोग की अनुमति मिल गई। जज को हिन्दी में लिखने की स्वतंत्रता तो है पर साथ में अंग्रेजी अनुवाद की अनिवार्यता के कारण सभी अंग्रेजी में ही निर्णय दे रहे हैं, फलस्वरूप कानूनी भाषा का निर्माण नहीं हो रहा है और निर्णय शिक्षा के उद्देश्य - अंग्रेजी में होने से हिन्दी माध्यम के वकीलों को तकलीफ होती है। भाषा का निर्माण किताबें लिखने मात्र से नहीं होता, उपयोग से विद्या, हुनर और विज्ञान होता है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के गुलाम देशों व मातृभाषा होने के देश को आजाद हुए करीब ५५ वर्ष होने आये किन्तु अभी भी कारण ब्रिटेन, अमरीका में अंग्रेजी है, शेष दुनियां में अंग्रेजी नहीं के शिक्षा के बारे में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ। राज्य व्यवस्था में बराबर है, केवल काम चलाऊ है। शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून और व्यवस्था उसके मूलभूत कर्तव्य हैं। हमलोग विद्या, हुनर और विज्ञान के क्षेत्र में काफी तरक्की कर किन्तु व्यवस्था इन सबमें असफल है। शिक्षा का मूलभूत सिद्धान्त है लेते यदि मातृभाषाओं में पढ़ाई होती, किन्तु अब मामला काफी उलझ कि उसे मातृभाषा में होना चाहिये। देश में भाषावार प्रांतों का गठन इसी गया है। इजराईल में स्कूलों में ४ घंटे पढ़ाई और ४ घंटे हुनर के द्वारा दृष्टि से हआ था कि देश की सभी भाषाएँ विकसित और उन्नत होंगी उत्पादन होता है जिसके कारण स्कूलों में आमदनी हो जाती है। और साथ-साथ राष्ट्रभाषा देश की भाषा होगी, सरकारी कामकाज, जर्मनी, फ्रांस, जापान, रूस आदि सभी देशों में उनकी भाषा में ही विधायक कार्य और शिक्षा के माध्मय के रूप में। संविधान में प्रावधान शिक्षा दी जाती है। है कि सबको शिक्षा दी जायेगी, कोई भेदभाव नहीं होगा। समानता होगी शिक्षा का उद्देश्य है कि शिक्षित युवजन चौड़ी छाती और ऊँचा किन्तु आज अमीरों, गरीबों के लिए अलग-अलग व्यवस्था है। सिर लेकर चलें। उनमें स्वाभिमान, स्वदेशी व मानवतावादी भाव वस्तुतः साधारण स्कूलों में भी अंग्रेजी का बोलबाला हो गया है। हो। आज हम जाति, धर्म में बंटे हैं। देश में मनुष्य और हिन्दुस्तानी नतीजा है कि विद्यार्थी को न अंग्रेजी आ रही है, न अपनी भाषा। नये बहुत कम हैं। विद्यार्थी और शिक्षकों में पारिभाषिक शब्द, व्याकरण और शब्द रचना राष्ट्रीय आंदोलन में देशी भाषा, भूषा, भवन चलते थे। अब मीडिया की भारी त्रुटियाँ रहती हैं। उच्च मध्यम श्रेणी के जीवन व उपभोक्तावाद का प्रचार कर रहा है। देश बुनियादी शिक्षा, हिन्दू संस्कृति की शिक्षा, मुस्लिम मदरसे, की समस्याओं के समाधान के लिए उसका उपयोग नहीं होता। कान्वेन्ट स्कूल चलते हैं। कान्वेन्ट स्कूल आम लोगों में भी रूतबे देर से सही पर शिक्ष को राजनीति से ऊपर उठकर सर्वानुमति की पहचान बन रहे हैं। जिन लोगों के माँ-बाप अंग्रेजी बोलते हैं से बिना भेदभाव के उपलब्ध कराई जानी चाहिये तभी देश का उनके बच्चों को बचपन से ही अंग्रेजी में ढाला जाना है। भविष्य उज्ज्वल होगा। बच्चा भाषा के बोझ से दबा रहता है। आज तो देश में सब तरह की पढ़ाई हिन्दी में व अन्य भाषाओं में हो सकती है किन्तु देश अधिवक्ता, पूर्व विधायक, नीमच (म० प्र०) विद्वत खण्ड/९८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य निहालचंद जैन प्रार्थना डॉ० लारी डोसे ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि उसने प्रार्थना की एक अजीब चिकित्सा पद्धति का अनुभव किया। उन्होंने अपने प्रशिक्षण समय का जीवन्त वृतांत लिखा, जब वे टेक्सास के थाईलैण्ड मेमोरियल अस्पताल में थे। उन्होंने एक कैन्सर पीड़ित मरीज को अंतिम अवस्था में देखा और उसको यही सलाह दी थी कि उपचार से विराम ले ले क्योंकि उपलब्ध चिकित्सा से कोई लाभ नहीं हो रहा था। लेकिन उन्होंने यह भी देखा कि उसके बिस्तर के पास कोई न कोई मित्र बैठा रहता था जो उसके स्वास्थ्य लाभ के लिये प्रार्थना किया करता था। एक वर्ष के पश्चात् जबकि डॉ० लारी को जो वह अस्पताल छोड़ चुके थे, एक पत्र मिला कि क्या आप अपने पुराने मरीज से मिलना चाहेंगे ? डॉ० लारी ने लिखा कि मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि वह अब भी जिंदा है और उसके एक्स-रे का निरीक्षण करने पर पाया कि उसके फेफड़े बिल्कुल ठीक थे डॉ० लारी ने जब मेडिकल कॉलेज के दो प्रोफेसरों को उक्त घटना सुनाई, तो उन्हें इस विलक्षण घटना पर विश्वास नहीं हुआ। बाद में १९८० में जब डॉ० लारी मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने, उसने यह निष्कर्ष दिये कि प्रार्थना से विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन घटित होते हैं। शिक्षा - एक यशस्वी दशक हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में डॉ० हर्बट बेनसन ऐसे अनुसंधानकर्ता थे, जिन्होंने प्रार्थना एवं ध्यान से स्वास्थ्य के संबंध में अध्ययन किया। विभिन्न धर्मों की प्रार्थना से शरीर में एक समान स्वास्थ्यवर्धक परिवर्तन होते हैं। शरीर में होने वाली 'व्याधि' का मुख्य कारण हमारी मानसिक सोच है। जो 'आधि' के नाम से जानी जाती है। हमारी सोच मनोविकारों / मनोरोगों का कारण बनती है। मनोरोग शरीर रोग के साथ वैसा ही तादात्म्य रखता है, जैसा दूध पानी के साथ। प्रार्थना-मन की बीमारी का सही इलाज है अतः प्रार्थना से शरीर बीमारी को भी लाभ पहुँचता है। प्रार्थना में मनोविकारों को दूर करने की बड़ी शक्ति निहित होती है। जब ५० वर्ष से ऊपर की आयु का व्यक्ति तनाव से गुजर रहा हो तो यह उसके शरीर के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और प्रायः डायबिटीज बढ़ने, कमर दर्द होने, भूख कम लगने, आँख की ज्योति प्रभावित होने आदि में प्रगट होता है। इन पंक्तियों के लेखक का यह वैयक्तिक अनुभव है कि तनाव का कारण दूर होते ही कमर दर्द ५० प्रतिशत ठीक हो गया। प्रार्थना से हम एक अदृश्य शक्ति से जुड़ते हैं। उस शक्ति को हम अपने चारों ओर होना महसूस करते हैं। प्रार्थना में यदि गहरे उतरने लगे तो वह सामायिक का स्वरूप लेने लगता है। 'सामायिक' का अर्थ है 'स्व' में स्थित होना । प्रार्थना एक मार्ग है- 'स्व' की ओर जाने का । प्रार्थना से हम उस लोकोत्तर व्यक्तित्व से जुड़ते हैं, जिसकी भावरचना को हमने अपनी प्रार्थना का आधार बनाया है। क्या भक्तामर स्तोत्र का उच्चारण करते हुए हम वैसी ही ध्वनि तरंगों का निष्पादन नहीं करने लगते हैं जो आचार्य मानतुंग ने सृजित की होगी। उस समय हम आचार्य मानतुंग से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। प्रार्थना का असर लेजर किरणों की भाँति, भीतर तक होता है, बहुत तीव्र घनत्व से युक्त । जैसे इन्जेक्शन की दवा, धमनियों / नसों में दौड़कर हमें कुछ ही क्षणों में अपना प्रभाव दिखाने लगती है, वही बात भावात्मक परिवर्तन के लिये प्रार्थना करती है। गहरे में उतरती प्रार्थना सामायिक है। मौन प्रार्थना, जब ज्ञानात्मक / प्रज्ञानिष्ठ बनती है तो वह सामायिक को उपलब्ध होती है। हमारी नई पीढ़ी सामायिक और ध्यान के महत्व को भूल कर इससे दूर होती जा रही है अपने में, अपने भीतर में लौटने की सामायिक एक जीवन्त प्रक्रिया है। ध्यान में जाने से पहले 'सामायिक' में हुआ जाता है। ध्यानस्थ होने की पूर्व तैयारी है सामायिक । 1 वस्तुतः ध्यान किसी मंत्र या पद पर अपने चित्त को केन्द्रित कर बाहरी उपयोग को समेटकर उसे अन्तःकरण की ओर उन्मुख करना है बाहर की ओर बहती जीवन- ऊर्जा हमारे लिये किसी काम की नहीं विद्वत खण्ड ९९ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती सामायिक और ध्यान के माध्यम से इस ऊर्जा को संकेन्द्रित करके एक बिंदु पर फोकस करते हैं। जैसे फोकस की हुई प्रकाश किरणें (उत्तम लेंस के माध्यम से) आग उत्पन्न कर देती है ऐसी ध्यान की अवस्था में हमारी शक्ति का केन्द्रीकरण होता है। ध्यान है हमारी प्रवृत्तियों का संकुचन। ध्यान है- आत्मा के उपदेशों के फैलाव का एक अभिनव प्रयोग । जैसे-जैसे कायिक/ वाचनिक/मानसिक (भावात्मक) वृत्तियों का संकुचन होने लगता है, आत्मा का विकास क्षेत्र, उसकी आभा मण्डल का परिक्षेत्र उतना ही विस्तारित होने लगता है आत्मा का विकास ही जीवन का प्रकाश है। अतः ध्यान - जीवन का प्रकाश है। ध्यान जैन दर्शन की आत्मा है। हमें मंदिर ध्यानस्थ होने के लिये जाना चाहिये प्रतिमाओं के दर्शन से एक ही सार्वत्रिक संदेश मिलता है वह है 'ध्यान का रसायन' जो जीवन को अमृत बना देता है। मुनि श्री प्रज्ञासागरजी अपनी छोटी एवं महत्वपूर्ण पुस्तक 'सुबह को किताब' में ध्यान के संदर्भ में लिखते हुए कहते हैं- "ध्यान एक अन्तर्यात्रा है। अपनी बहिर्मुखी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाने का एक सरलतम एवं सफलतम प्रयोग है अपनी सोची हुई चेतना को जागृत करने की एक विधि है अपनी आत्मशक्ति को प्राप्त करने का एक उपाय है। अस्तु!" 1 आइये हम प्रार्थना, सामायिक ध्यान के माध्यम से जीवन की हर सुबह को खुशबुओं से भरें और हर प्रभात को सुप्रभात बनायें। बौना (म०प्र०) विद्वत खण्ड / १०० बाहुबल बाहुबल अर्थात् अपनी भुजा का बल यह अर्थ यहीं नहीं करना है; क्योंकि बाहुबल नाम के महापुरुष का यह एक छोटा परंतु अद्भुत चरित्र है। ऋषभदेवजी भगवान सर्वसंग का परित्याग करके भरत और बाहुबल नाम के अपने दो पुत्रों को राज्य सौंप कर विहार करते थे । तब भरतेश्वर चक्रवर्ती हुआ । आयुधरना में चक्र की उत्पत्ति होने के बाद उसने प्रत्येक राज्य पर अपना आम्नाय स्थापित किया और छ: खंड की प्रभुता प्राप्त की मात्र बाहुबल ने ही यह प्रभुता अंगीकार नहीं की। इससे परिणाम में भरतेश्वर और बाहुबल के बीन युद्ध शुरू हुआ बहुत समय तक भरतेश्वर या बाहुबल इन दोनों से एक भी पीछे नहीं हटा, तब क्रोधावेश में आकर भरतेश्वर ने बाहुबल परचक्र छोड़ा | एक वीर्य से उत्पन्न हुए भाई पर वह चक्र प्रभाव नहीं कर सकता, इस नियम से वह चक्र फिरकर वापस भरतेश्वर के हाथ में आया। भरत के चक्र छोड़ने से बाहुबल को बहुत क्रोध आया। उसने महाबलवत्तर मुष्टि उठायी। तत्काल वहाँ उसकी भावना का स्वरूप बदला। उसने विचार किया, "मैं यह बहुत निंदनीय कर्म करता हूँ। इसका परिणाम कैसा दुःखदायक है। भले भरतेश्वर राज्य भोगे । व्यर्थ ही परस्पर का नाश किसलिए करना ? यह मुष्टि मारने योग्य नहीं है तथा उठायी है तो इसे अब पीछे हटाना भी योग्य नहीं है।" यों कहकर उसने पंचमुष्टि केशलुंचन किया; और वहाँ से मुनित्वभाव से चल निकला। उसने, भगवान आदीश्वर जहाँ अठानवें दीक्षित पुत्रों और आर्यआर्यों के साथ विहार करते थे, वहाँ जाने की इच्छा की; परंतु मन में मान आया "वह मैं जाऊँगा तो अपने से छोटे अठानवें भाइयों को वंदन करना पड़ेगा। इसलिए वहाँ तो जाना योग्य नहीं।" फिर वन में वह एकाग्र ध्यान में रहा। धीरे-धीरे बारह मास हो गये। महातप से काया हड्डियों का ढाँचा हो गयी। वह सूखे पेड़ जैसा दीखने लगा, परंतु जब तक मान का अंकुर उसके अंत:करण से हटा न था तब तक उसने सिद्धि नहीं पायी। ब्राह्मी और सुंदरी ने आकर उसे उपदेश दिया, "आर्य वीर ! अब मदोन्मुख हाथी से उतरिये, इसके कारण तो बहुत सहन किया।" उनके इन वचनों से बाहुबल विचार में पड़ा। विचार करते-करते उसे भान हुआ, "सत्य है । मैं मानरूपी मदोन्मत्त हाथी से अभी कहाँ उतरा हूँ? अब इससे उतरना ही मंगलकारक है।" ऐसा कहकर उसने वंदन करने के लिए कदम उठाया कि वह अनुपम दिव्य कैवल्यकमला को प्राप्त हुआ। शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nirupam Kedia Money leaving behind the shadows full of Darkness The power of money is not a bad thing; instead one becomes liable to state his taste. But one losing his spirituality in the thirst of money is a mess. A nation holds the ground hard when it has a sound financial position, a rich economic structure. Still, those funds accumulated are utilized for the welfare of its dwellers. Nowadays, when there is a wide replacement in the habits of these omnivorous creatures, money with its drenching thirst is compelling them to act like a puppet. A man never tries to look back at his deed. In fact, he is unable to turn his head back, when he starts comparing those shiny papers of notes with the gracious heaven. The greed of money and snakebite are mostly similar, as both make the vision blind. Medicine can protect the bite of the reptile, but no drug can save a man covered under the curtain of greed. According to the facts, one can easily point out that the splashing and firing indifference in the human life-style is being caused by money. There are many families coming in the grip of money and are entangled amidst the neverending thirst, which resulted in cries of horror. (Isolation of near and dear ones, and moreover splitting up themselves into nuclear fonts.) शिक्षा एक यशस्वी दशक Religions, Caste etc. all hovering round the axis of money. People having a sound economic set up, think themselves as a supreme authority, with an ideology to lead the team. This new shinning millennium demands warm-blooded youths who can fight with the detoriating situation. Their own parents guide them, but some of the guiders are in such an immense grip of money that they have, commenced to slide bars between, giving birth to a son and a daughter. According to their perception, giving birth to a son means adding up of more numerical figures to their account books through his entrance in the business game play. On the other hand, they think that giving birth to a daughter subtracts the numerical from their account books. They worry about the incidental expenses for their own blood. Millions of people are paralyzed by the stroke of poverty. lack of basic amenities. Instead of wasting the valuable wealth and time, in different unwanted articles. one should utilize it in the upliftment of mass poverty. If this had happened, then what a nation we would have been dwelling in! The thirst of money is acting as a scavenger, aiming at the innocent human prey. We are becoming just puppet being scrolled by the eyes of wealth. People feel no pride in their religion, in God, in religious texts or in any of those ancient scripts, instead they even jump to different religions in the greed of getting money. You must have heard the tale of magic lamp, which didn't last longer as it got tired and restless by filling in the well like belly of his master. He didn't look up at the crippled faces of his native mates lying in the nauseating corners, instead used that precious lamp for his own betterment, pleasure, comfort and lavishness. Now it's enough, but this roar is still at the peak. Until and unless man gathers a unique sense of humanity, and a strong feeling of oneness, this colourful environment would lose all the attracting colours of a spectrum. Human heart should restore as much purity as it can, it will certainly help our planet to celebrate and shine like an everblowing serenity of this landscape. विद्वत् खण्ड / १०१ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Colonel (Retd.) D.S. Baya 'Sreyas' Oswals and other Jains of Rajasthan RAJASTHAN 1. Rajasthan is the western most state of India, with two clear-cut geographical regions on either side of the Aravali range that runs across it. The western and the north-western part of the state lies in the Great Indian Desert - The Thar, while the rest of the state has more hospitable and habitable climate. However, the rigours of its inhospitable geography and climate has not deterred the hardy Indo-Aryan stock of people, that inhabit this state, from achieving hitherto unscaled heights in almost every walk of life, including religion. Jainism in Rajasthan 2. According to a stone inscription dated 443 B.C., found at Varli in Ajmer district and now housed in this Ajmer Museum, it is plain that Jainism was being practised in Rajasthan even during the life time of Lord Mahavira. Also, as the fifth head of the order of the twentythird tirthankara, Lord Parsvanatha, Sri Sayamprabh Suri, had visited the state as early as 52 Virabda (475 B.C.), there is reason enough to believe that Jainism had registered its presence even earlier than the Mahavira era. Emperor Samprati, a descendent of Asoka the great, who had embraced Jainism, had constructed many Jaina temples in and around the state. Inscriptions found in the Kankali-tila stupa (dome) at Mathura also bear testimony to the fact that Jainism, in both its denominations - Digambara and Svetambara - prevailed and prospered in Rajasthan from ancient times. Other parts of Rajasthan were also not untouched by the spread of Jainism. Madhyamika Nagari in the Mewar region in the South Eastern part of the state had followers of Jainism almost at the same time Jains of Rajasthan 3. Most of the hitherto famous castes that are followers of the Jaina faith today such as Srimals, Oswals, Khandelwals, Bagherwals, Palliwals, Porwals, Nagdas, Narsimhapuras, etc. originated in Rajasthan and spread not only all over India but over the entire world. Of these, Oswals, Srimals and Porwals are predominantly of the Svetambara pursuit while the others follow the Digambara version. The Oswals 4. The Oswal Jains, who trace their roots to as far back as nearly two thousand and five hundred years ago, are a community that is an aggregate of people from various castes - mostly princely Rajputs and creeds . as diverses as Vaisnavaites, Saivites, Saktas etc. that embraced Jainism from time to time under the influence of the most illustrious Jaina monks of their times. 5. The history of Oswals is studded with gems like dedication, faith and valour. The Oswals were rulers. even emperors - ministers, generals, treasurers, farmers, traders and what have you, and they had it in them to excel at whatever they did. The blue blood, that flowed in their veins, asserted itself to make them rise above mediocrity and become leaders of their times - in all times - from the ancient to the modern. 6. Today, the Oswals are a glob-trotting community, that is found all over the world, but they originated in an ancient and affluent desert town of Rajasthan called 'Srimal', meaning the adobe of 'Sri', the goddess of wealth. The Origin of Oswals 7. It is a historical fact that the Oswals originated from the kshatriyas, who embraced Jainism in large numbers when enlightened by Jainacharyas who preached the faith to the rulers and their subjects and changed their hearts by impressing upon their minds, the futility of their false beliefs and the utility of the Jaina faith in their lives - the present and the after. 8. Their origin is attributed to Sri Svayamprabh Suri. the fifth pattadhara (head of order) in the lineage of the twentythird tirthankara, Lord Parsvanatha, who came to the desert capital of 'Srimal and preached the faith to the king and hundreds of thousands of his kinsmen, who all embraced it and became Jainas. They are, to this day, called 'Srimals', a kin-caste of Oswals. Sri Svayamprabh Suri also ordained Sri Ratha Prabh Suri, who became the sixth pattadhara in the order of Lord Parsvanatha, an acharya in the year 52 Virabda 9. It was Sri Ratnaprabh Suri who came to Upkesapur (today - Osiya - 50Km, North-East of Jodhpur) with 500 monks of his order in the year 455 B.C., and converted the Sakta king Utpaldeva and his kins to Jainism by his miraculous prowess. Sri Ratnaprabh Suri is said to have विद्वत् खण्ड/१०२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ had a following of some 3,84,000 Jaina converts when he passed away in the year 441 B.C. The kshatriyas thus embracing Jainism came to be known as 'Upkesiyas (Letter as Oswals'), and the order of Sri Ratnaprabh Suri's sramanas (monks) was called the 'Upkesa-gaccha'. Prompted by Sri Ratnaprabh Suri, the Upkesiyas also constructed a temple dedicated to Lord Mahavira in Osiya, which has, with timely restorations, survived the ravages of time to date. The Other Jains 10. While the kshatriyas converted to Jainism from time to time were included into two branches of Mahajanas (great man), namely the Srimals and the Oswals, the people of other castes and creeds that embraced Jainism constituted the other branches of Mahajanas. They are Porwarls, Khandelwals, Palliwals, Bagherwals etc. Digambara and Svetambara Jains in Rajasthan 11. The monks who, initially in the scrutable past, brought the faith to Rajasthan - both Sri Swayamprabh Suri and Sri Ratnaprabh Suri. were of the order of the twentythird tirthankara, Lord Parsvanatha. History, as it obtains today, is inconclusive as to the status of their attire. The Svetambara sect believes that the monks of the orders of only Lord Risabhdeva and Lord Mahavira were acelakas (unclothed) while those of the orders of the second to the twentythird tirthankaras were sacelakas (clothed), while the Digambara sect believes that the monks of the orders of all the twenty four tirthankaras were acelakas. So, it is anybody's guess whether Sri Svayamprabh Suri and Sri Ratnaprabh Suri were acelakas or sacelakas. However, the Jaina monkhood divided themselves into two clearcut sects - the Digambars and the Svetambaras - in the year 82 A.D. 12. The hospitable traditions of the land of Rajputs made it equally hospitable to both the sects of Jainism -- The Digambaras and the Svetambaras. While most of Oswals, Srimals and Porwals who were converted to Jainism by the monks of the Parsvapatya order, aligned themselves to the Svetambara sect; the others, under the influence of Digambara monks, followed the latter path. Some of each category, however, were mixed in a fair measure in each of these sects. The Bardias of the Oswal community who were converted to Jainism by Acharya Nemichandra Suri of the Gommatasara fame, are Digmbara Jains to this day Changing Faith 13. As has been said earlier, the Jains in Rajasthan belonged to both the denominations of Jainism - the Digambaras as well as the Svetambaras. Their faiths kept on getting influenced by the developments, from time to time, that resulted in divisions and sub-divisions in both the sects into a large number of sub sects, samghas, gachhas, etc as they obtain today. The Svetambara Sect 14. The Svetambaras were idol worshipers from the days of yore. The monks, some of them very influential for their influence on the ruling class, slowly evolved a life style which was in sharp contrast to the samacari (the code of conduct) prescribed for the monks. 15. The Caityavasis The Samacari for the Jaina monks does not permit their staying in one place beyond a specified period, except in the rainy season when they can stay at one place for four months. But, those monks. who by laxity in their conduct, became pleasure loving and soft, started living in temples permanently. These were called Caityavasi Yatis. By 355 AD, this practice became well entrenched. The extreme laxity in the conduct of the Caityavasis gave rise to a deep seated resentment amongst the knowledgeable householders as well as those monks who wanted to practise the laid down samacari but could not do so because of the stranglehold that the vested interests of the caityavasis had on the system. This resulted into a movement, amongst the more discerning, to break away from the clutches of the Caityavasis and thereby, to practise the faith as laid down by the Lord. In the fifth century AD and Svetambara sect divided into two parts, the Caityavasis and the Suvihitamargis (the followers of the well laid down path). 16. The Vrhad Gaccha - In 937 AD, Sri Udyotan Suri ordained Sri Sarvadeva Suri, an acarya, under a big banyan tree. As a result, the Svetambara samgha that was known as the Nirgrantha gaccah till then, came to be called 'Vrhad gaccha'. 17. Khartara Gaccha - In 1017 AD, Acharya Jineswara Suri, of Suvihita Marga, defeated the Caityavasi Suracarya in a dialogue based on the scriptures and earned the epithet of 'Khartara' (better or purer). His order, from then onwards, came to be known as the Khartara Gaccha.? 18. The Ancala Gaccha - In the year 1224 AD, the Suvihita gaccha was renamed as "Ancala gaccha' because the Chalukya king Kumarapala's minister, Kapardi, paid obeisance to Acarya Hemacandra (Kalikala Sarvajana) after sweeping the ground with his 'ancala' (the end of his amga-vastra or the body-wrap). Another version has it that this gaccha was established by Acarya Aryarakshit Suri, and was known as such because the monks of this gaccha used their 'ancala' (the end of their body wrap) to cover their mouths instead of a separate piece of cloth called the 'Mukhavastrika (the cloth for covering the mouth) 19. The Tapa Gaccha - The year 1228 AD saw the birth of the Tapa gaccha. Acarya Jagaccandra Suri of the Vrhad gaccha was bestowed the title of 'Tapa' by the Maharana (the king of kings) Jaitra Singh of Mewar शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१०३ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tera Paptha is so called because they believe in thirteen principles. As a reaction to the creation of this pantha the Bhattarakas started calling themselves as Bisa panthis or followers of twenty principles. 12 Conclusion 28. The Jainas of Rajasthan have come a long way in the pursuit of a faith from the violent Saktas and Saivites to the followers of the non-violent Jainism in all its ideological splendours. Not withstanding the different sects and factions that divide the Jainas of Digambara and Svetambara denominations, apart from some minor differences in some peripheral beliefs, they are one in following the cardinal principles of Ahimsa (Nonviolence), Satya (the adherence to the truth), Ashteya (non-stealing), Brahmacarya (celebacy), and Aparigraha (non-possession), it is for this unity in the face of apparent diversity that the faith propounded by Lord Mahavira, more than two and a half millenia ago still survives more or less in its original form, as least as far as the precept goes. As our agamas say, 'the faith shall never perish. It is anadi (without a beginning) and ananta (without an end). Only, there have been, there are and there will be highs and lows, as we traverse from era to era in this descedent cycle of time (The Avasarpini kala) and the next ascedent cycle of time (The Utsarpini Kala). 29. And so, Jainam Jayati Sasanam (Glory be to the Jaina faith), it is, for now and for ever. for his lifelong penance of 'Aayambila (taking the food, devoid of all the six tastes, only once a day). His order, then became the 'Tapa gaccha'.10 20. The Sthanakavasis - In the sixteenth century AD, Lonkasha, an Oswal house-holder, who came in the know of the contents of the agamas (the Jaina canonical literature) through copying them for a Caityavasi yati, became disillusioned by the flagrant laxity practise by the Caityavasis and revolted against them. He also opposed idol worshiping. In 1531 AD, he took the vows and became a monk with 44 others who approved of his line of thought. They came to be known as Sthanakavasis because they used to stay in places other than temples, called 'sthanakas'. The monks and nuns of this order wear white clothes and tie the Mukhavastrika', with a thread. on their mouths. 21. The Tera Panthis - In the nineteenth century AD, a Sthanakvasi monk. Bhikhanji, separated from his master, Acarya Raghunathji, for his differences with the latter regarding the interpretations of dana (charity) and daya (compassion) and started the Tera-pantha. 22. Today, the Svetambara Jains, in Rajasthan, are mostly followers of the Khartara-gaccha, the Tapagaccha, the Sthanakvasi and the Tera-panth sub-sects. Other sub-sects are either extinct or do not have any worthwhile following The Digambaras 23. Like Svetambara Caityavasi Yatis the Digambara monks too, who started living in the temples permanently were called the Bhattarakas, They, too, became lax in the pursuit of their vows and gave rise to some divisions of the samgha as a reaction. The main divisions that took place are as follows. 24. The Mula Samgha - Started by Acarya KundaKunda, the Mula samgha is the oldest order in the Digambara sect. Some pattavalis (Rolls of Honour of successive acaryas of an order starting from the first acarya, Arya Sudharma) also mention Maghanadi as its founder. 25. The Kastha Samgha - According to Darasanasara, the Kastha samgha was established by Kumarsena in 696 AD. Darsanara also calls it as only a Jainabhasa (the Jaina look alike) because the rigorous of its conduct are nowhere near the ones prescribed by the Lord. 26. The Mathura Samgha - This Samgha was started by Ramasena, in Mathura, two hundred years after the Kastha samgha. The monks of Mathura samgha do not keep the Mayura-picchi (a sweep made of peacock feathers) and are, therefore. called 'Nipiccha'." 27. The Tera Panthis and The Bisa Panthis - The Tera Panthis came into being as a sharp reaction against the laxity of the Caityavasi Bhatta akas. The followers of this pantha worship the scriptures created by Sri Taranasvami, started in the seventeenth century AD. the pantha was popularised by Pt. Banarasidasa. The E-26, Bhopalpura, Udaipur-313 001 References : 1. Sastri Kailasacandra, Jaina Dharma, ed. 6, Mathura, 1985, 52. 2. Somani RV, Mewar Mein Jaina Dharma Ki Pracinata, Sri Amba Lalji Maharaj Abhinandana Grantha, Udaipur, 1976, 105. 3. Bhutoria M.L., Oswal Jatika Itihasa, ed. 2, Varanasi, 1995, 63-64 4. Ibid, 33 5. Ibid, 54 6. Ibid, 54 7. Ibid, 55 8. Ibid, 55 9. Jaina Dharma ibid, 321 10. Oswal Jati Ka Itihasa ibid, 55 11. Jaina Dharma ibid, 312 12. Ibid, 314, Oswal Jati Ka Itihasa ibid. 56 विद्वत् खण्ड/१०४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 बनेचन्द मालू फिर दोस्तों से बात करने, फोन की लाईन मिलायें। स्कूल से हीकौन सी पिक्चर जायें, फिर कौन से होटल में खायें, कहां कहां घूमने जायें, मार्केट से क्या क्या खरीद कर लायें, इन्हीं सब कामों की लिष्ट बनायें। आज का लाडला बच्चा पहले समय पर उठते थे। बड़ों को प्रणाम करते थे। मुख से राम राम कहते थे। पढते भी थे और, खेतों, खलिहानों, या घरों में खूब खट के काम करते थे। समय पर खाते थे-खेलते थे, और समय पर आराम करते थे। अब सुबह उठते हैं देर से। उठते ही शिकवे करते हैं ढेर से। प्रणाम की जगह, हॉय और गुडमोरनिंग कहते हैं। आंखें मसलते, उबासी लेते, जोर से चिल्लाकर, बिना मुंह धोये ही रामू को, चाय का आर्डर देते हैं। इतना व्यस्त हो जाता है दिनएक रोज नहींऐसा होता है हर दिन। तो फिर पढ़ने और काम करने का, समय ही कहां है। साहबजादे तो वर्षों बाद भी, जहां के तहां है। कहते हैं तो कहते हैं - बताइये, भगवान ने भी कितने जुल्म ढाये। दिन रात में केवल चौबीस घंटे ही बनाये। बारह घंटे तो ऊपर के व्यस्त प्रोग्राम में बीते, फिर बाकी टाईम, खाने और सोने में जाये। तो फिर पढ़ाई और काम का समय ही कहां बचा? जब इस तरह की दिनचर्या में, पलता है भारत का भावी कर्णधार, भारत का होनहार, आज का लाडला बच्चा, तो इस पीढ़ी की जब निकलेगी जमात, जिससे बनेगा भारत का भावी समाज, तो देश कितनी करेगा तरक्की? सोच कर सिहर जाता हूंहे भगवान, इनको कहीं पीसनी न पड़े, फिर किसी फिरंगी की चक्की। काम करना तो हीनता है। अखबार के पत्रे पलटते-पलटते, कितने घंटे बीत गये, गिनता है। इसी दर्द से कहता हूंवतन को फिर कहीं गिरवी न रख देना नादानों। शहीदों ने बड़ी मुश्किल से ये कर्ज चुकाये हैं। अपनी जिन्दगी के चिराग बुझाकर, हमारे घरों के दीप जलाये हैं। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१०५ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 डॉ० डी० के० शर्मा न करे मगर किसी प्रकार का नुकसान कभी नहीं करती सिर्फ आयुर्वेद की औषधियाँ ही हैं जो असाध्य से असाध्य रोगों को समूल (जड़) नष्ट करने की क्षमता रखती हैं। जबकि एलोपैथिक दवाईयाँ शीघ्र लाभ तो करती हैं किन्तु उनका प्रभाव स्थाई नहीं होता और वह रोग पुन: कुछ समय में उत्पन्न हो सकता है तथा ये नाना प्रकार के रोगों को भी उत्पन्न कर देती हैं। हमारा आयुर्वेद परिपूर्ण होते हुए इसका चिकित्सा विज्ञान परिपूर्ण है। आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य ही रोगी को सुखी बनाना एवं सुखी को सदा सुखी एवं निरोग रखना है। इस संसार में यह सत्य है कि मनुष्य की आयु की रक्षा दीर्घायु प्राप्त रोग निवारण से सम्भव है। संसार की जितनी चिकित्सा पद्धतियाँ हैं उनमें उपरोक्त लाभ नहीं मिलने के कारण उन चिकित्सा पद्धतियों में किसी सिद्धान्त का आधार नहीं है। उनके सिद्धान्त समय-समय पर बदलते रहते हैं किन्तु आयुर्वेद के ध्रुव सिद्धान्तों में परिवर्तन आज तक नहीं आया। कारण त्रिकालज्ञ ऋषियों ने ध्यान में जिन सिद्धान्तों को अटल देखा, उन्हीं का उल्लेख किया है। जैसे-अग्नि में उष्णत्व, जल में शीतलता, वायु में रूक्षता आदि ध्रुव सिद्धांत हैं। वैसे दीर्घ जीवन एवं आरोग्य प्राप्ति का मुख्य साधन आयुर्वेद ही आयुर्वेद का त्रिदोष सिद्धांत अनन्तकाल से अटल रूप से सफलतापूर्वक चल रहा है तथा भविष्य में भी ऐसे ही चलता ही है। आयुर्वेद केवल चिकित्सा पद्धति ही नहीं बल्कि स्वस्थ रहेगा। एवं शतायु जीवन जीने की भी पद्धति है। इसलिए आयुर्वेद को जीवन विज्ञान कहा गया है। यही कारण है कि हमारे आयुर्वेद के ग्रन्थों का जब हम स्वाध्याय करते हैं तो ऐसा पूर्वजों ने आयुर्वेद को वेदों का अंग माना है। आज सारा लगता है कि यह शास्त्र केवल औषधि शास्त्र ही नहीं यह तो विश्व आयुर्वेद की चिकित्सा एवं औषधियों पर गर्व करता मनुष्य का जीवन शास्त्र है। मनुष्य के इहलोक एवं परलोक है। अमेरिका एवं अन्य देशों ने भी आयुर्वेद के सामने घुटने दोनों जगह इस शास्त्र की उपयोगिता प्रतीत होती है। इस टेक दिये हैं और भारत से नीम, आँवला, त्रिफला, गुड़मार, आयुर्वेद शास्त्र में गरीब, अमीर एवं मध्यमवर्ग सभी मनुष्यों सूर्यमुखी एवं अन्य बहुत सी अनमोल जड़ी बुटियों को पेटेन्ट की चिकित्सा होती है। आज ऐसा समय है कि विश्व के सभी बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेजी चिकित्सा के भयंकर दुष्प्रभाव को कर व्यवसाय करने की सोच रहा है और हम भारतीय हैं। कि अंग्रेजी एलोपैथिक दवाओं की तरफ रूख किये जा रहे देखकर आयुर्वेदिक चिकित्सा कराना ज्यादा पसन्द करता है। हैं। आयुर्वेद हमारे भारत की महान कृति है। इसकी औषधि केवल भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोग सेवन करने से रोगी को लाभान्वित होने में कुछ समय तो आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए लालायित हो रहे हैं। आयुर्वेदिक औषधियों द्वारा चिकित्सा की जाय तो ऐसा कोई जरूर लगता है परन्तु कोई भी रोग समूल (जड़) नष्ट हो जाता है। आयुर्वेद की औषधियाँ विलक्षण कार्य करती हैं। इसलिए भी रोग नहीं जो साध्य होते हुए इससे शान्त न हो। अत: आज सारे विश्व को आयुर्वेद की आवश्यकता है। आयुर्वेद आयुर्वेद ही है जो रोग को जड़ से नष्ट करने की ताकत रखता औषधियों में यह विशेष गुण है कि वे धीरे-धीरे लाभ पहुँचाती है। यहाँ कुछ आयुर्वेद से प्राप्त अनुभूत प्रयोग दिये जाते हैं हैं किन्तु यह प्रभाव स्थाई होता है। यह भगवान धन्वन्तरी की जो जटिल रोगों को समूल नष्ट करने में सहायक हैंही कृपा है कि आयुर्वेदिक औषधियाँ रोगी को लाभ भले ही विद्वत् खण्ड/१०६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पुरानी से पुरानी संग्रहणी (उदर रोग) में- सिद्ध प्राणेश्वर रोगानुसार अनुपात रस आधा रत्ती, रामबाण रस आधा रत्ती, स्वर्ण प्रपटी आधा . ज्वर, कफ रोग में-मंदाग्नि रत्ती, मकरध्वज आधा रत्ती, शंखभस्मं एक रत्ती इन शरीर पुष्टी के लिए - बड़ी पीपल का चूर्ण सबको मिलाकर पुड़िया बनाना एवं सुबह शाम शहद और . रक्त पित्त में - दूर्बा (दूब) का रस लेवें भुजा जीरा से लेवें। बलवृद्धि के लिए - अश्वगन्ध का चूर्ण २. ब्लड सुगर या यूरिन सुगर में- बेल पत्र, मेथीदाना, बबूल पाण्डुरोग में - पुनर्नवा का रस छाल, गुड़मार पत्र, त्रिफला चूर्ण इन सबको बराबर मात्रा • प्रमेह में - हल्दी चूर्ण, मधु से में लेकर कूट-पीसकर चूर्ण बना लेवें और एक चम्मच . सन्निपात ज्वर में - कालीमिर्च का चूर्ण सुबह-शाम जल से सेवन करें। पित्त ज्वर - लोंग का चूर्ण, मधु से यह अनुभूत प्रयोग है और इससे ब्लड सुगर एवं यूरिन . सुगर में काफी लाभ होगा। सन्धि रोगों में – दाल चीनी, छोटी इलायची और तेजपत्र ३. बवासीर, कब्ज, आमबात में- रोजाना गुड़ के साथ सोंठ, चूर्ण मधु से। पीपल, हरड़, अनारदाना का सेवन करना चाहिए। शिवा फार्मेसी ४. रक्तपित्त में- गिलोय, नीमपत्ते, कड़वे परवल के पत्ते २, कालीकृष्ण टैगोर स्ट्रीट, कोलकाता-७०० ००७ इनको एकत्र कर पीसकर चूर्ण बना कर, एक चम्मच जल या आधा चम्मच शहद के साथ लेवें। ५. अगर नित्य भोजन के साथ आँवला के रस का सेवन किया जाय तो अम्लपित्त, वमन, अरुचि, खून के विकार एवं वीर्य के विकार नष्ट होकर मनुष्य का शरीर हृष्ट पुष्ट हो जाता है। ६. पीपल, दाख, मिश्री, हरड़, धनियां, जवासा इनका चूर्ण कर लेवें। सुबह-शाम एक चम्मच जल या शहद के साथ सेवन करने से जटिल से जटिल कफ, पित्त, गले की जलन, जी मचलाना दूर हो जाता है। ७. शारीरिक कमजोरी एवं वीर्य क्षीण होने पर- दालचीनी, छोटी एलायची, जायफल, नागकेशर, वायवडंग, चीतामूल, तेजपत्र, छोटी पीपल, बंशलोचन, तगर, कालीमिर्च, कालातिल, तालीस पत्र, सफेद चन्दन, हरण, आँवला, सोंठ, भीमसेनी कपूर, लोंग, कालाजीरा इन सबको बराबर मात्रा में ले कूट-पीसकर चूर्ण बनाकर, मिश्री या चीनी पावडर मिलाकर, सुबह-शाम एक चम्मच, गर्म दूध या गाय का घृत और शहद मिलाकर लेवें। अतएव आयुर्वेद में ऐसे-ऐसे जटिल रोगों को जड़ से मिटा देने की क्षमता है। आयुर्वेद चिकित्सा ही है जो स्थाई लाभ प्रदान करती है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१०७ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पखा शिक्षा और संस्कार केशरीचन्द सेठिया पड़ता है। कभी-कभी तो वह विद्रोही हो जाता है। कथनी, करनी में विरूपता की स्थिति भी उसकी भावना को ठेस पहुंचाती है। सहपाठियों के परस्पर सहयोग का असर भी कम नहीं पड़ता। बुरी लत वाले छात्रों की संगत उसके लिये अभिशाप बन जाती है। वह मादक द्रव्यों, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, गुटका, चोरी, असत्य भाषण आदि का अनुकरण शीघ्र कर लेता है। बालक में देखा-देखी की भावना अधिक होती है। एक बार लगी हुई लत को बदलना, सुधारना कठिन हो जाता है। घर के वातावरण, आस-पास के लोगों की आदतों की नकल भी करने की इच्छा तत्काल उत्पन्न हो जाती है। देखादेखी, चोरी-छिपे वह सब कुछ करने लगता है जो उसके लिए अहितकर है। प्राचीनकाल में उसे ऋषि मुनियों के आश्रम में, गुरुकुल में शिक्षा के लिए भेजा जाता था। स्वच्छ, शान्तिपूर्ण वातावरण में उसका सर्वांगीण विकास होता था। प्रतिदिन का कार्यक्रम नियमित रूप से पठन-पाठन आवश्यक होता था। सेवा, विनय, सदाचार, सादगी, श्रम पर विशेष ध्यान दिया जाता था। किन्तु इस का लाभ बहुत कम लोगों को प्राप्त होता था। मध्य काल में गांव, शहरों में बड़ी-बड़ी स्कूलें, उच्चशिक्षा के लिये कॉलेज खुल गये। आम लोगों को शिक्षा भवन चाहे कितने ही मंजिल का हो, भव्य हो, विशाल मिलने लगी। सरकार ने भी शिक्षा को अनिवार्य कर दिया। हो अगर उस की नींव कमजोर है तो किसी भी समय ढ़ह इसका लाभ सबसे अधिक क्रिश्चियन समाज ने लिया। हर सकता है। वृक्ष चाहे कितना भी विशाल हो, सघन हो अगर स्थान पर सेवा और शिक्षा के लिये अस्पताल, स्कूल और उसकी जड़ें मजबूत न हो तो हवा एक झोंका उसे गिरा देता कॉलेज प्रारम्भ कर दिये। स्वाभाविक ही पाश्चात्य शिक्षा है। बालक को भी अगर प्रारम्भिक शिक्षा - उच्च संस्कार अंग्रेजी के माध्यम से पनपने लगी। प्राकृत, संस्कृत आदि न मिले तो उसका भावी जीवन लड़खड़ा जायेगा। मृतभाषा की श्रेणी में आ गई। अपने ही देश में राष्ट्र भाषा बालक का मन कच्ची मिट्टी के सदृश्य कोमल होता । हिन्दी को संघर्ष करना पड़ रहा है, यही हाल अन्य प्रादेशिक है। जबतक मिट्टी गीली होती है, कुम्हार उसको जिस रूप, भाषाओं का है। आकार में ढालना चाहे ढाल सकता है। चाहे तो गोल, छोटा, बच्चों पर किताबों का इतना बोझ पड़ता है कि वे स्कूल बड़ा घड़ा बना सकता है, गमला बना सकता है। मूर्ति का बेग के भार से दब से जाते हैं। पहाड़ी कुली की तरह किसी आकार दे सकता है किन्तु मिट्टी के सूख जाने पर वह प्रकार पीठ पर लादकर स्कूल जाते हैं। होमवर्क घर के लिए लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ नहीं बना सकता। इतना दे देते हैं कि खेल कूद का उसे समय नहीं मिल पाता। नवजात शिशु की शिक्षा मां की गोद में मीठी-मीठी शारीरिक विकास की ओर बहत कम ध्यान जाता है। यही थपकी से, पालने में मधुर लोरी के साथ प्रारम्भ हो जाती है। कारण है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। पांच वर्ष का हो जाने पर उसे पाठशाला में प्रवेश करवा दिया। अत: शिक्षा की पद्धति में बदलाव/परिवर्तन आवश्यक हैजाता है। वर्तमान में तो ढाई तीन वर्ष की उम्र में ही स्कूल महावीर ने कहा – पढमं नाणं तओ दया। में भर्ती करा दिया जाता है। खेल-खेल में खिलौनों और चित्रों उसी शिक्षा का महत्व है जिसके द्वारा आत्मनिर्भरता, के द्वारा अक्षर ज्ञान करा दिया जाता है। नैतिक, धार्मिक, सुसंस्कार, विनय, सेवाभाव, परोपकार आदि गुणों की व्यावहारिक के साथ-साथ संस्कार की नींव पड़ती है। उसका अभिवृद्धि हो। विवेक के द्वारा ही, विनय के द्वारा ही वह दया, भावी जीवन बहुत कुछ इन्हीं संस्कारों पर निर्भर है। अनुकम्पा, अहिंसा का पालन सही तरह से कर सकता है। अकसर देखा गया है कि अभिभावक, गुरू के भेदभाव पूर्ण व्यवहार, आचरण का प्रभाव उसके हृदय पर विशेष रूप से चेन्नई विद्वत् खण्ड/१०८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 रत्ना ओस्तवाल अन्तर जगत की दृष्टि में महापुरुषों ने इस अवस्था को अज्ञान कहा है। और अज्ञान का फल अंधकार और पतन है, जीवन निर्माण नहीं है। __ जीवन विकास के महत्वपूर्ण अनमोल सूत्र हैं-सही समझ और सच्चा विश्वास। इसके अभाव में मनुष्य जन्म पाकर भी पंगु है। जीवन को झांकने की दो दृष्टियां हैं - १) बाह्म दृष्टि २) भीतरी (अन्दर) दृष्टि। बाह्म जगत को बाह्म दृष्टि से सजाया व संवारा जाता है। लेकिन जीवन का उद्देश्य ढूंढ़ा नहीं जा सकता। अंतर दृष्टि (अपने आप में झांकना) जीवन निर्माण की सशक्त नींव है जो बिना किसी आंडबर के बिना, सजे संवरे सही समझ और सच्चा विश्वास दे सकती है। यही सच्चा दर्शन और विश्वास सम्यक दर्शन है। हमें आवश्यकता है यह समझने की कि इस सम्यक् दर्शन की क्या सार्थकता है? अंतर जगत की साधना करने वाला अन्य विषय समझें या न समझें किन्तु सम्यक दर्शन के महत्व को समझना अति आवश्यक है। जीवन जीने की कला ला सम्यक दर्शन का अर्थ सहज शब्दों में जीवन जीने की जीवन एक अनमोल रत्न है, और इस जीवन का दर्पण कला है। याने आत्मा की अनंत शक्ति को मानव जो भूल मनुष्य जन्म है। मनुष्य जन्म में इस जीवन को कोई संवारता गया है उसकी स्मृति करना है। जैसे जीवन तो मिला, लेकिन है, कोई सजाता है, कोई उत्थान करता है तो कोई पतन कैसे जिया जाय, भूल गया है। इस विस्मृति को पुनः जीवन करता है। यह बात सर्वविदित है, हर कोई इसे जानता है, का मूल्य समझाकर उस संपदा को संवारना सही मायने में देखता है, लेकिन जीवन की संपदा का मूल्यांकन सही अर्थों सम्यक दर्शन है। में यदि कहीं होता है तो वह है आचरण, जिसे कहा जाता १) देखने की क्षमता। (दर्शन) है, जीवन जीने की कला Art of Living | २) दिखाने की क्षमता। (ज्ञान) आज के इस भौतिक युग में मनुष्य ने अपनी दृष्टि इस देखने और दिखाने में जीवन का अमूल्य समय बाह्यमुखी बना ली है। सुबह बिस्तर से उठना व बिस्तर पर । संवारने में बीता है या बिगाड़ने में, यही है चरित्र की सोने तक का लम्बा समय इस तरह व्यतीत करता है कि उसे व्याख्या। देखना, दिखाना और सहन करना इन तीनो की स्वयं को जानने की भी जरुरत महसूस नही होती। त्रिवेणी जीवन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह इस क्रियाकलाप का परिणाम तनाव की वृद्धि करता है। करती है। आज के संदर्भ में चिंतन किया जाए तो हमारे इस खींचातानी में तनाव का उत्तरोत्तर बढ़ना स्वास्थ्य की सामने भगवान महावीर के सिद्धान्त सहज ही उपयोगी सिद्ध प्रतिकूलता, पैसों का अभाव, आवश्यकता की लम्बी कतार, होते हैं। चाहे अहिंसा हो या अपरिग्रह का सिद्धान्त हो, इन - इच्छाओं का पहाड़, इस तरह स्वयं के जीवन को बिना खोजे बिना पहचाने, बिना जिज्ञासा किए जिये जाता है। और जीवन सिद्धान्तों का आचरण अणु रूप से हो या वृहद् रूप से हो, के यथार्थ से कोसों दूर हो जाता है। वास्तविकता की इस आचरण होना अनिवार्य है. स्थिति में मनुष्य को भौतिकता की चकाचौंध ने अज्ञानी बना __ आज के परिवेश में यह जाना जाता है कि उच्च शिक्षा, दिया है। सजा-संवरा, पढ़ा-लिखा बाह्य ज्ञान की सारी धन-संपदा से परिपूर्ण होना जरूरी है। ये सारे तत्व निस्संदेह डिग्रियों का भण्डार लिए हुए भी जीवन को संवारने में जीवन निर्माण में सहायक हो सकते हैं लेकिन सिद्ध नहीं हो असमर्थ साबित हो रहा है। सकते। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/१०९ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५) इण्या सच्ची श्रद्धा, आत्मविश्वास, स्वयं को बदलने की प्रकृति एवं जीवन के मूल्य आंकने की क्षमता ही सम्यक् दर्शन का दर्पण है। जीवन जीने की कला को सिद्ध करना है तो सर्वप्रथम स्वयं को सुधारना होगा। स्वयं को अपने जीवन के साथ जोड़ना होगा और स्वयं का समीक्षण करना होगा। जैसे - १) मेरे जीवन का हर क्षण जो मैं जी रहा हूँ वह मेरे लिए बोझ तो नही है? (लोक व्यवहार के विपरीत कार्य) २) सहभागिता की भावना मुझसे कितनी दूर है? ३) मैं स्वार्थ के कितने निकट हूँ? ४) वाहवाही की झूठी शान ने मुझे अहंकारी तो नहीं बनाया है? ईर्ष्या का मीठा जहर मैं कितनी बार निगल रहा हूँ? ६) मान अपमान के पीछे मैंने कितने शत्रु तैयार किए हैं? निंदा और बुराई औरों की करके मैंने कितने परिवार तोड़े है? मैंने स्वयं का मूल्यांकन अन्य के निर्णय से तो नही किया है? ९) जीवन की अमूल्य संपदा को मैंने इधर-उधर तो नहीं फेंक दिया है? १०) जीवन को सुखी बनाने के लिए औरों का सखचैन तो नहीं छीना है? चिंतन की इस सुघड़ शक्ति ने सम्यक दर्शन की सच्ची श्रद्धा, आत्म विश्वास, स्वयं को बदलने के संकल्प ने मुझे पुन: अपने अस्तित्व में स्थिर करने की अनुपात कृपा की है। रात्रिभोजन खोई संपदा को ढूंढ़ना, उसे एकत्रित करना, जीवन के अहिंसादिक पंच महाव्रत जैसा भगवान ने रात्रिभोजन उपयोग में लगाना, सम्यक दर्शन है। त्याग व्रत कहा है। रात्रि में जो चार प्रकार का आहार है वह यह सम्यक दर्शन मनुष्य को मानव, मानव से मानवेतर अभक्ष्यरूप है। जिस प्रकार का आहार का रंग होता है उस और मानवेतर से महान बनाता है। प्रकार के तमस्काय नाम के जीवन उस आहार में उत्पन्न होते जिसने जीवन में इस सिद्धांत को अपनाया है वही सही मायने हैं। रात्रिभोजन में इसके अतिरिक्त भी अनेक दोष हैं। रात्रि में जीवन जीने की कला का हकदार है। में भोजन करनेवाले को रसोई के लिए अग्नि जलानी पड़ती कामठी लाइन, राजनांद गाँव (म०प्र०) है; तब समीप की भीत पर रहे हुए निरपराधी सूक्ष्म जन्तु नष्ट होते हैं। ईंधन के लिये लाये हुए काष्ठादिक में रहे हुए जन्तु रात्रि में दीखने से नष्ट होते हैं; तथा सर्प के विष का, मकडी की लार का और मच्छरादिक सूक्ष्म जन्तुओं का भी भय रहता है। कदाचित् यह कुटुंब आदि को भयंकर रोग का . कारण भी हो जाता है। विद्वत् खण्ड/११० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम 9 महोपाध्याय विनयसागर अतिरिक्त क्षान्त्यादि सर्वगुण परिपूर्ण, समस्त लब्धियों, सिद्धियों, निधियों के धारक और प्रदाता, सत् विद्या/द्वादशांगी के निर्माता, प्रतिबोधनपटु, चिन्तामणिरत्न एवं कल्पवृक्ष के सदृश अभीष्ट फलदाता, गणाधीश और प्रातः स्मरणीय माना गया है। गुरु-भक्ति में तो इनका नाम उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है। न केवल जैन साहित्य में ही अपितु विश्व साहित्य में भी इस प्रकार का कोई उदाहरण प्राप्त नहीं है कि किसी गुरु ने अपने समग्र जीवन-काल में पद-पद/स्थान-स्थान पर अपने से अभिन्न शिष्य का सहस्राधिक बार नामोच्चारण कर, प्रश्नों के उत्तर या सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया हो। गणधर गौतम ही विश्व में उन अनन्यतम शिष्यों में से हैं कि जिनका चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर अपने श्रीमुख से प्रतिक्षण-प्रतिपल "गोयमा! गौतम!" का उच्चारण/ उल्लेख करते रहे। समग्र जैनागम साहित्य इसका साक्षी है। विश्व चेतना के धनी गुरु गौतम चिन्तन से, व्यवहार से, संघ नेतृत्व से पूर्णरूपेण अनेकान्त की जीवन्त मूर्ति हैं। इनकी ऋतम्भरा प्रज्ञा से, असीम स्नेह से, आत्मीयता परिपूर्ण अनुशासन से, विश्वजनीन कारुण्यवृत्ति से महावीर के संघोद्यान की कोई भी कली ऐसी नहीं है, जो अधखिली रह गई हो! खंतिखमं गुणकलियं सव्वलद्धिसम्पन्न । सन्त प्रवर मुनि रूपचन्द्र के शब्दों में कहा जाय तोवीरस्स पढमं सीसं गोयमसामि नमसामि ।। "प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम! चौदह पूर्वो के अतल श्रुतसागर के पारगामी गौतम! भगवान महावीर के कैवल्य हिमालय से नि:सृत अब्धिलब्धिकदम्बकस्य तिलको नि:शेषसूर्यावले वाणी-गंगा को धारण करने वाले भागीरथ गौतम! विनय और समर्पण रापीडः प्रतिबोधने गुणवतामग्रेसरो वाग्मिनाम् । के उज्ज्वल-समुन्नत शैल-शिखर गौतम! तीर्थंकर पार्श्वनाथ और इष्टान्तो गुरुभक्तिशालिमनसां मौलिस्तपः श्रीजुषां, तीर्थंकर महावीर की गंगा-यमुना-धारा के प्रयागराज गौतम! अद्भुत सर्वाश्चर्यमयो महिष्ठसमय: श्रीगौतमस्तान मुदे ।। लब्धि-चमत्कारों के क्षीर-सागर गौतम! अंगुष्ठे चामृतं यस्य यश्च सर्वगुणोदधिः । गौतम का व्यक्तित्व अनन्त है। जैन-शासन को गौतम का भण्डारः सर्वलब्धदीनां वन्दे तं गौतमप्रभुम् ।। अनुदान अनन्त है। और, अनन्त है सम्पूर्ण मानव जाति को गौतम श्रीगौतमो गणधरः प्रकटप्रभाव:, का सम्प्रदायातीत ज्योतिर्मय अवदान। गौतम के आलेख के बिना सल्लब्धि-सिद्धिनिधिरञ्चितवाक्प्रबन्धः । भगवान महावीर की धर्म-तीर्थ-प्रवर्तन की ज्योति-यात्रा का इतिहास विघ्नान्धकारहरणे तरणिप्रकाशः, अधूरा है। गौतम के उल्लेख के बिना अनन्त श्रुत-सम्पदा पर साहाय्यकृद् भवतु मे जिनवीरशिष्यः ।। भगवान महावीर के हस्ताक्षर भी अधूरे हैं।" गु + अज्ञानान्धकार के, रु + नाशक = गुरु गौतम श्रमण सर्वारिष्टप्रणाशाय सर्वाभीष्टार्थदायिने । भगवान महावीर के प्रथम शिष्य/प्रथम गणधर हैं। गण के संस्थापक सर्वलब्धिनिधानाय गौतमस्वामिने नमः ।। तीर्थंकर होते हैं और उसके संवाहक गणधर कहलाते हैं। अथवा भारतीय समाज में विघ्नोच्छेदक एवं कल्याण-मंगल-कारक के । आचार्य मलयगिरि के शब्दों में कहा जाय तो अनुत्तर ज्ञान एवं रूप में जो सर्वमान्य स्थान गणपति/गणेश का है उससे भी अधिक अनुत्तर दर्शन आदि धर्म समूह/गण के धारक कहलाते हैं। ऐसे एवं विशिष्टतम स्थान जैन समाज तथा जैन साहित्य में गणधर गौतम यथार्थरूप में गणधर पदधारक गौतम का नाम वस्तुत: इन्द्रभूति है। स्वामी का है। जैन परम्परा में तो इन्हें विघ्नहारी मंगलकारी के इनका यह नाम भी यथा नाम तथा गुण के अनुरूप ही है; क्योंकि शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१११ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये इन्द्र के समान ज्ञानादि ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं। गौतम तो इनका गोत्र कर स्वयं को भाग्यशाली समझते थे। इन्द्रभूति की कीर्ति से आकृष्ट है। किन्तु, जैन समाज की आबाल-वृद्ध जनता सहस्राब्दियों से इन्हें होकर अपार जन-समूह दूरस्थ प्रदेशों से इनकी यज्ञ-आहुति में पहुँच गौतम स्वामी के नाम से ही जानती-पहचानती/पुकारती आई है। कर अपने को धन्य समझता था। जीवन-चरित्र स्पष्ट है कि इनका विशाल शिष्य समुदाय था। इनके अप्रतिम गौतमस्वामी का व्यक्तित्व और कृतित्व अनुपमेय है। सर्वांग वैदुष्य के समक्ष बड़े-बड़े पण्डित व शास्त्र-धुरन्धर नतमस्तक हो जाते रूप से इनका जीवन-चरित्र प्राप्त नहीं है, किन्तु इनके जीवन की थे। अतिनिष्णात वेद-विद्या और उच्च यज्ञाचार्य के समकक्ष उस समय छुट-पुठ घटनाओं के उल्लेख आगम, नियुक्ति, भाष्य, टीकाओं में इन्द्रभूति की कोटि का कोई दूसरा विद्वान् मगध देश में नहीं था। बहुलता से प्राप्त होते हैं। यत्र-तत्र प्राप्त उल्लेखों/बिखरी हुई कड़ियों छात्र संख्या- विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार गौतम ५०० के आधार पर इनका जो जीवन-चरित्र बनता है, वह इस प्रकार है। शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य बने थे, निर्विवाद है। किन्तु अपने जन्म : मगध देश के अन्तर्गत नालन्दा के अनति-दूर अध्यापन काल में तो उन्होंने सहस्रों छात्रों को शिक्षित कर विशिष्ट "गुव्वर" नाम का ग्राम था, जो समृद्धि से पूर्ण था। वहाँ विप्रवंशीय विद्वान् अवश्य बनाये होंगे? इस सम्बन्ध में आचार्य श्री हस्तिमलजी गौतम गोत्रीय वसभति नामक श्रेष्ठ विद्वान निवास करते थे। उनकी ने “इन्द्रभूति गौतम" लेख में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे उपयुक्त अर्धांगिनी का नाम पृथ्वी था। पृथ्वी माता की रत्नकुक्षि से ही ईस्वी प्रतीत हात हैपूर्व ६०७ में ज्येष्ठा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था। इनका जन्म “सम्भवत: इस प्रकार ख्याति प्राप्त कर लेने के पश्चात् वे नाम इन्द्रभूति रखा गया था। इनके अनन्तर चार-चार वर्ष के वेद-वेदांग के आचार्य बने हों। उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि दूर-दूर अन्तराल में विप्र वसुभूति के दो पुत्र और हुए; जिनके नाम क्रमशः तक फैल जाने के कारण यह सहज ही विश्वास किया जा सकता अग्निभूति और वायुभूति रखे गये थे। है कि सैकड़ों की संख्या में शिक्षार्थी उनके पास अध्ययनार्थ आये अध्ययन : यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात् इन्द्रभूति ने उद्भट हों और यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते ५०० ही नहीं अपितु शिक्षा-गुरु के सान्निध्य में रहकर ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व-इन इससे कहीं अधिक बढ़ गई हो। इन्द्रभूति के अध्यापन काल का चारों वेदों; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष इन प्रारम्भ उनकी ३० वर्ष की वय से भी माना जाय तो २० वर्ष के छहों वेदांगों तथा मीमांसा, न्याय, धर्म-शास्त्र एवं पुराण- इन चार अध्यापन काल की सुदीर्घ अवधि में अध्येता बहुत बड़ी संख्या में उपांगों का अर्थात् चतुर्दश विद्याओं का सम्यक् प्रकार से तलस्पर्शी स्नातक बनकर निकल चुके होंगे और उनकी जगह नवीन छात्रों का प्रवेश भी अवश्यम्भावी रहा होगा। ऐसी स्थिति में अध्येताओं की ज्ञान प्राप्त किया था। __आचार्य : चौदह विद्याओं के पारंगत विद्वान् होने के पश्चात् पूर्ण संख्या ५०० से अधिक होनी चाहिए। ५०० की संख्या केवल इन्द्रभूति के तीन कार्य-क्षेत्र दृष्टि-पथ में आते हैं नियमित रूप से अध्ययन करने वाले छात्रों की दृष्टि से ही अधिक संगत प्रतीत होती है।" १.अध्यापन- इन्होंने ५०० छात्रों/बटुकों को समग्र विद्याओं का अध्ययन कराते हुए सुयोग्यतम वेदवित्, कर्मकाण्डीऔर वादी बनाये। ये विवाह- अध्ययनोपरान्त इन्द्रभूति का विवाह हुआ या नहीं? कहाँ हुआ? किसके साथ हुआ? इनकी वंश-परम्परा चली या ५०० छात्र शरीर-छाया के समान सर्वदा इनके साथ ही रहते थे। नहीं? इस प्रसंग में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के समस्त २. शास्त्रार्थ- दुर्धर्ष विद्वान् होने के कारण इन्द्रभूति ने छात्र शास्त्रकार मौन हैं। इन्द्रभूति ५० वर्ष की अवस्था तक गृहवास में समुदाय के साथ उत्तरी भारत में घूम-घूम कर, स्थान-स्थान पर रहे, यह सभी को मान्य है, परन्तु, उस अवस्था तक वे बाल तत्कालीन विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किये और उन्हें पराजित कर ब्रह्मचारी ही रहे या गार्हस्थ्य जीवन में रहे? कोई स्पष्ट उल्लेख प्राप्त अपनी दिग्विजय पताका फहराते रहे। किन-किन के साथ और नहीं होता। अत: यह मान सकते हैं कि इन्द्रभूति ने अपना ५० वर्ष किस-किस विषय पर शास्त्रार्थ किये? उल्लेख प्राप्त नहीं हैं। का जीवन अध्ययन, अध्यापन, वाद-विवाद और कर्मकाण्ड में रहते ३. यज्ञाचार्य- इन्द्रभूति प्रमुखत: मीमांसक होने के कारण हुए बाल-ब्रह्मचारी के रूप में ही व्यतीत किया था। कर्मकाण्डी थे। स्वयं प्रतिदिन यज्ञ करते और विशालतम याग शरीर-सौष्ठव-भगवती सूत्र में इन्द्रभूति की शारीरिक रचना यज्ञादि क्रियाओं के अनुष्ठान करवाते थे। यज्ञाचार्य के रूप में दसों के प्रसंग में कहा गया है-इन्द्रभूति का देहमान ७ हाथ का था,, दिशाओं में इनकी प्रसिद्धि थी। फलत: अनेक वैभवशाली गृहस्थ अर्थात् शरीर की ऊँचाई सात हाथ की थी। आकार समचतुरस्र बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराने के लिए इन्हें अपने यहाँ आमन्त्रित । संस्थान/लक्षण (सम चौरस शरीराकृति) युक्त था। विद्वत खण्ड/११२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रऋषभनाराच- वज्र के समान सुदृढ़ संहनन था। इनके शरीर का ५६९ में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी। दीक्षानन्तर अनेक प्रदेशों में रंग-रूप कसौटी पर रेखांकित स्वर्ण रेखा एवं कमल की केशर के विचरण करते हुए, अकथनीय उपसर्गों/परीषहों का समभाव से सहन समान पद्मवर्णी/गौरवर्णी था। विशाल एवं उन्नत ललाट था और करते हुए, उत्कट तपश्चर्या द्वारा शरीर को आतापना देते हुए, कमल-पुष्प के समान मनोहारी नयन थे। उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि पूर्वकृत कर्म-परम्परा को निर्जर/क्षय करते हुए, साढ़े बारह वर्ष के इनकी शरीर-कान्ति देदीप्यमान और नयनाभिराम थी। दीर्घकालीन समय तक जो संयम-साधना में रत रहे और अन्त में अन्तिम यज्ञ-उस समय अपापा नगरी में वैभव सम्पन्न एवं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय इन चारों घाति कर्मों राज्यमान्य सोमिल नामक द्विजराज रहते थे। उन्होंने अपनी समृद्धि के का नाश कर, केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त कर ईस्वी पूर्व अनुसार अपनी नगरी में ही विशाल यज्ञ करवाने का आयोजन किया ५५७ में वैशाख शुक्ला १० को सर्वज्ञ बन गये थे। था। सोमिल ने यज्ञ के अनुष्ठान हेतु बिहार प्रदेशस्थ राजगृह, मिथिला श्रमण वर्धमान/महावीर जृम्भिका नगर के बाहर, ऋजुवालिका आदि स्थानों के अनेक दिग्गज कर्मकाण्डी विद्वानों को आमन्त्रित किया नदी के किनारे श्यामाक गाथापति के क्षेत्र में शालवृक्ष के नीचे, था। इनमें ग्यारह उद्भट याज्ञिक प्रमुखों- इन्द्रभूति, अग्निभूति, गोदाहिका आसन से उत्कट रूप में बैठे हुए ध्यानावस्था में वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, केवलज्ञानी बने थे। मेतार्य एवं प्रभास-को तो बड़े आग्रह के साथ आमन्त्रित किया था। सर्वज्ञ बनते ही चतुर्विधनिकाय के देवों ने ज्ञान का महोत्सव किया उक्त ग्यारह आचार्य भी अपने विशाल छात्र/शिष्य समुदाय के साथ और तत्क्षण ही वहाँ समवसरण की रचना की। समवसरण में यज्ञ सम्पन्न कराने हेतु अपापा आ गये थे। विशेषावश्यक भाष्य के विराजमान होकर प्रभु ने प्रथम देशना दी, किन्तु वह निष्फल हुई। अनुसार इन यज्ञाचार्यों की शिष्य संख्या निम्न थी : इसीलिए यह "अच्छेरक" आश्चर्यकारक माना गया। तीर्थ-स्थापना इन्द्रभूति ५००, अग्निभूति ५००, वायुभूति ५००, व्यक्त का अभाव देखकर प्रभु ने वहाँ से रात्रि में ही विहार कर, वैशाख ५००, सुधर्म ५००, मंडित ३५०, मौर्यपुत्र ३५०, अकम्पित शुक्ला एकादशी को प्रातः समय में अपापा नगरी के महसेन नामक ३००, अचलभ्राता ३००, मेतार्य ३००, प्रभास ३००। इस उद्यान में पधारे। देवों ने तत्क्षण ही वहाँ विशाल, सुन्दर, मनोहारी एवं प्रकार इन ग्यारह आचार्यों की कुल शिष्य संख्या ४४०० थी। रमणीय समवसरण की एवं अष्ट प्रातिहार्यों की रचना की। महावीर __ इन्द्रभूति के अप्रतिम, वैदुष्य और प्रकृष्टतम यशोकीर्ति के कारण समवसरण के मध्य में अशोक वृक्ष के नीचे देव-निर्मित सिंहासन पर यज्ञानुष्ठान में मुख्य आचार्य के पद पर इनको अभिषिक्त किया गया बैठकर अपनी अमोघ दिव्यवाणी से स्वानुभूत धर्मदेशना देने लगे। था तथा इनके तत्त्वावधान में ही यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ था। केवलज्ञान से देदीप्यमान प्रभु के दर्शन करने और उनकी ।। यज्ञ के विशालतम आयोजन तथा इन्द्रभूति आदि उक्त दुर्धर्ष अमृतोपम देशना को सुनने के लिये अपापा नगरी का जन-समूह आचार्यों की कीर्ति से आकर्षित होकर दूर-दूर प्रदेशों से अपार लालायित हो उठा और हजारों नर-नारी समवसरण में जाने के लिये जनसमूह उस यज्ञ समारोह को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। उमड़ पड़े। गली-गली में एक ही स्वर घोष/कलरव गूंज उठा ‘सर्वज्ञ उस समय अपापा नगरी का वह यज्ञ-स्थल एक साथ सहस्रों के दर्शन के लिये त्वरा से चलो। जो पहले दर्शन करेगा वह कण्ठों से उच्चरित वेद मन्त्रों की सुमधुर ध्वनि से गगन मंडल को भाग्यशाली होगा।' फलतः प्रात:काल से अपार जनमेदिनी गुंजायमान करने वाला हो गया था। यज्ञ वेदियों में हजारों सुवाओं समवसरण में पहुँच कर, धर्म-देशना सुनकर अपने जीवन को से दी जाने वाली घृतादि की आहुतियों की सुगन्ध एवं धूम के सफल/कृतकृत्य समझने लगी। घटाटोप से धरा, नभ और समस्त वातावरण एक साथ ही गुंजरित, देवगणों में केवलज्ञान का महोत्सव करने, सर्वज्ञ के दर्शन करने सुगन्धित एवं मेघाच्छन्न-सा हो उठा था। विशालतम यज्ञ-मण्डप में और उनकी दिव्यवाणी सुनने की होड़ा-होड़ मच गई। फलत: देवता उपस्थित जन-समूह आनन्द-विभोर होकर एक अनिर्वचनीय मस्ती/ भी अपनी देवांगनाओं के साथ स्वकीय-स्वकीय विमानों में बैठकर आह्लाद में झूमने लगा था। समवसरण की ओर वेग के साथ भागने लगे। हजारों देव-विमानों के महावीर का समवसरण आगमन से विशाल गगन-मण्डल भी आच्छादित हो गया। इधर क्षत्रिय कुण्ड के राजकुमार वर्धमान जिनका ईस्वी पूर्व याज्ञिकों का भ्रम-यज्ञ मण्डप में विराजमान अध्वर्य आचार्यों ५९९ में जन्म हुआ था और जिन्होंने आत्म-साधना विचार से प्रेरित और सहस्रों यज्ञ-दर्शकों की दृष्टि सहसा नभो-मण्डल की ओर उठी। होकर, राज्य-वैभव और गृहवास का पूर्णतः परित्याग कर ईस्वी पूर्व आकाश में एक साथ हजारों विमानों को देख कर यज्ञ में उपस्थित शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११३ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगों की आँखें चौधिया गईं। आँखों को मलते हुए स्पष्टत: देखा कि नहीं सुना था। अरे! हाँ, याद आया, उस बटुक ने कहा थासहस्रों सूर्यों की तरह देदीप्यमान सहस्रों विमानों से नीलगगन "ज्ञातवंशीय महावीर अलौकिक शक्ति के भी धारक हैं।" हूँ! तो यह ज्योतिर्मय हो रहा है। देव विमानों को यज्ञ-मण्डप की ओर अग्रसर क्षत्रिय है! ब्राह्मणों से विद्या प्राप्त करने वाला और विप्रों के चरण-स्पर्श होते देख उपस्थित अपार जन-समूह यज्ञ का महात्म्य समझ कर करने वाला क्षत्रिय सर्वज्ञ बन बैठा है। धोखा है। यह सर्वज्ञ नहीं, आनन्द विभोर हो उठा। इन्द्रजाली प्रतीत होता है। इन्द्रजाल/सम्मोहिनी विद्या से इसने सब को प्रमुख यज्ञाचार्य इन्द्रभूति गौतम अत्यन्त प्रमुदित हुए और बेवकूफ बना रखा है। शेर की खाल ओढ़कर यह सियार अपनी माया घनगम्भीर गर्वोन्नत स्वर में यजमान सोमिल को सम्बोधित कर कहने जाल से सब को मूर्ख बना रहा है। मानता हूँ, मानव तो माया जाल लगे- "देखो विप्रवर! यज्ञ और वेद मन्त्रों का प्रभाव देखो! सतयुग में आकर मूर्ख बन सकता है, देवता नहीं। किन्तु, यहाँ तो सारे के सारे का दृश्य साकार हो गया है! अपना-अपना हविर्भाग पुरोडाश ग्रहण देवता भी इसके जाल में फँसकर भटक रहे हैं। चाहे कोई भी हो, मेरे. करने इन्द्रादि देव सशरीर तुम्हारे यज्ञ में उपस्थित हो रहे हैं। तुम्हारा अगाध वैदुष्य के समक्ष कोई टिक नहीं सकता। जैसे एक म्यान में दो मनोरथ सफल हो गया है।" और, स्वयं शतगुणित उत्साह से तलवारें नहीं रह सकतीं वैसे ही इस पृथ्वीतल पर मेरी विद्यमानता में प्रमुदित होकर और अधिक उच्च स्वरों से वेद मंत्रोच्चारण करते हुये दूसरे सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं रह सकता। यह कैसा भी सर्वज्ञ हो, आहुतियाँ देने लगे। सहस्रों कण्ठों से एक साथ नि:सृत मन्त्र-ध्वनि इन्द्रजाली हो, मायावी हो, मैं जाकर उसके सर्वज्ञत्व को, मायावीपन और स्वाहा के तुमुल घोष से आकाश गूंज उठा। को ध्वस्त कर दूंगा, छिन्न-भिन्न कर दूंगा। मेरे सन्मुख कोई भी कैसा परन्तु, 'यह क्या ! ये सारे देव-विमान तो यहाँ उतरने चाहिये थे, भी क्यों न हो, टिक नहीं सकता। तो, मैं चलूं उस तथाकथित सर्वज्ञ वे तो इस यज्ञ-मण्डप को लांघ कर नगर के बाहर जा रहे हैं! क्या का मान-मर्दन करने। ये देवगण मन्त्रों के आकर्षण से यहाँ नहीं आ रहे हैं! क्या यज्ञ का भ्रम-निवारण-अभिमानाभिभूत होकर इन्द्रभूति तत्क्षण ही प्रभाव इन्हें आकृष्ट नहीं कर रहा है।' सोचते-सोचते ही न केवल यज्ञवेदी से उतरे, अपनी शिखा में गाँठ बाँधी, अन्तरीय वस्त्र ठीक इन्द्रभूति का ही अपितु सभी याज्ञिकों का गर्वस्मित मुख श्यामल हो किया, खड़ाऊ पहने और मदमत्त हाथी की चाल से चल पड़े महावीर गया। नजरें नीची हो गईं। आहुति देते हाथ स्तम्भित से हो गए। मन्त्र- के समवसरण की ओर। अन्य दसों याज्ञिकाचार्य देखते ही रह गये। ध्वनि शिथिल पड़ गई। नीची गर्दन कर इन्द्रभूति मन ही मन सोचने इन्द्रभूति के पीछे-पीछे उनके ५०० छात्र शिष्य भी अपने गुरु का लगे। 'पर, ये देवगण जा किसके पास रहे हैं?' सोच ही रहे थे कि जय-जयारव करते हुए एवं वादीगजकेसरी, वादीमानमर्दक, देवों का तुमुल-घोष कर्णकुहरों में पहुँचा कि-"चलो, शीघ्र चलो, वादीघूकभास्कर, वादीभपंचानन, सरस्वतीकण्ठाभरण आदि सर्वज्ञ महावीर को वन्दन करने महसेन वन शीघ्र चलो।" इन्द्रभूति को विरुदावली का पाठ करते हुए चल पड़े। अहंकार और ईर्ष्या मिश्रित विश्वास नहीं हुआ। अपने बटुकों/शिष्यों/छात्रों को भेजकर जानकारी मुख-मुद्रा धारक आचार्य को त्वरा के साथ गमन करते देखकर, करवाई तो ज्ञात हुआ-"भगवान महावीर केवलज्ञानी/सर्वज्ञ बनकर नगरवासी स्तम्भित से रह गए। कुछ कुतूहल प्रिय नागरिक मजा अपापा नगरी के बाहर महसेन वन में आये हैं। देव-निर्मित अलौकिक देखने उनके पीछे-पीछे चल पड़े। समवसरण में बैठकर धर्मदेशना दे रहे हैं। उन्हीं को नमन करने एवं सर्वज्ञ दर्शन-अपापा नगरी से बाहर निकल कर इन्द्रभूति ज्यों उनकी देशना सुनने नगर निवासी झुण्ड के झुण्ड बनाकर वहाँ पहुँच ही महसेन वन की ओर बढ़े, तो देवनिर्मित समवसरण की अपूर्व रहे हैं। समस्त देवगण भी समवसरण में सर्वज्ञ महावीर की अनुचरों एवं नयनाभिराम रचना देखकर वे दिङ्मूढ़ से हो गये। जैसे-तैसे की भाँति सेवा कर रहे हैं।" सुनते ही आहत सर्प की तरह गर्वाहत समवसरण के प्रथम सोपान पर कदम रखा। समवसरण में स्फटिक होकर इन्द्रभूति हुंकार करते हुए गरजने लगे। क्रोधावेश के कारण रत्न के सिंहासन पर विराजित वीतराग महावीर के प्रशान्त मुखउनका मुख लाल-लाल हो गया। आँखों से मानो ज्वालाएँ निकलने मण्डल की अलौकिक एवं अनिर्वचनीय देदीप्यमान प्रभा से वे इतने लगीं। हाथ-पैर काँपने लगे। वे बुदबुदा उठे प्रभावित हुए कि कुछ भी न बोल सके। वे असमंजस में पड़ गये कौन सर्वज्ञ है? कौन ज्ञानी है? विश्व में मेरे अतिरिक्त न कोई और सोचने लगे-'क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण सर्वज्ञ है और न कोई ज्ञानी। देश के सारे ज्ञानियों/विद्वानों को तो मैने ही तो साक्षात् रूप में नहीं बैठे हैं? नहीं, शास्त्रोक्त लक्षणानुसार शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था, कोई शेष नहीं बचा था। फिर यह इनमें से यह एक भी नहीं हैं। फिर यह कौन हैं? ऐसी अनुपमेय एवं नया सर्वज्ञ कहाँ से पैदा हो गया। यह महावीर नाम भी मैंने पहले कभी असाधारण शान्त मुख मुद्रा तो वीतराग की ही हो सकती है। तो, विद्वत खण्ड/११४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या यही सर्वज्ञ हैं? ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न सर्वज्ञ की तो मैं स्वप्न में प्राण के निकल जाने पर पाँच भूत तो ज्यों के त्यों बने रहते हैं। तुम भी कल्पना नहीं कर सकता था। वस्तुत: यदि यही सर्वज्ञ हैं तो मैंने ही विचार करो कि वह कौन सी सत्ता है जिसके निकल जाने से पंच यहाँ त्वरा में आकर बहुत बड़ी गलती की है। मैं तो इनके समक्ष भूतात्मक काया निश्चेष्ट हो जाती है तथा इन्द्रियाँ सामर्थ्यहीन हो जाती तेजोहीन हो गया हूँ। मैं इसके साथ शास्त्रार्थ कैसे कर पाऊँगा। मैं हैं। इन्द्रभूति! चेतना शक्ति चित्त रूप है। वह मरणधर्मा नहीं है। शरीर वापस भी नहीं लौट सकता। लौट जाता हूँ तो आज तक की के नष्ट होने से चेतना नष्ट नहीं होती है। पुन:, विचारक के आधार पर समुपार्जित अप्रतिम निर्मल यशोकीर्ति मिट्टी में मिल जाएगी। तो मैं ही विचार की सत्ता है। यदि विचार है तो विचारक होगा ही। अपने क्या करूँ?' इन्द्रभूति इस प्रकार की उधेड़बुन में संलग्न थे। अस्तित्व के प्रति सन्देहशील होना यह भी एक विचार है और यह उसी समय अन्तर्यामी सर्वज्ञ महावीर ने अपनी योजनगामिनी वाणी विचार कोई विचारशील सत्ता ही कर सकती है, अत: आत्मा की सत्ता से सम्बोधित करते हुए कहा-“भो इन्द्रभूति गौतम! तुम आ गये?" तो स्वयं सिद्ध है। घट यह नहीं सोचता की मेरी सत्ता है या नहीं? अत: अपना नाम सुनते ही इन्द्रभूति चौंक पड़े। अरे! इन्होंने मेरा नाम कैसे तुम्हारी शंका ही आत्मा क अस्तित्व को सिद्ध करती है। फिर तुम्हारे जान लिया? मेरी तो इनके साथ कोई जान-पहचान भी नहीं है, कोई वेद-श्रुतियों के प्रमाणों से भी यह स्पष्टत: सिद्ध होता है कि जीव का पूर्व परिचय भी नहीं है। अहँ प्रताड़ित होने से पुन: संकल्प-विकल्प स्वतन्त्र अस्तित्व है। की दोला में डोलने लगे। चाहे मैं किसी को न जानूं, पर मुझे कौन नहीं दीक्षा-सर्वज्ञ महावीर के मुख से इस तर्क प्रधान और जानता? सूर्य की पहचान किसे नहीं होती? मेरे अगाध वैदुष्य की प्रामाणिक विवेचना को सुनकर इन्द्रभूति के मनः स्थित संशय शल्य धाक सारे देश में अमिट रूप से छाई हुई है, खैर। पूर्णत: नष्ट हो गया। अन्तर मानस स्फटिकवत् विशुद्ध हो गया और सन्देह-निवारण-मेरे मन में प्रारम्भ से ही यह संशय शल्य प्रभु को वास्तविक सर्वज्ञ मानकर, नतमस्तक एवं करबद्ध होकर की तरह रहा है कि 'पाँच भूतों का समूह ही जीव है अथवा चेतना कहा - 'स्वामिन् ! मैं इसी क्षण से आपका हो गया हूँ। अब आप शक्ति सम्पन्न जीव तत्व कोई अन्य है।' मैं अनेक शास्त्रों का मुझे पांच सौ शिष्यों के परिवार के साथ अपना शिष्य बनाकर हमारे अध्येता हूँ, फिर भी इस विषय में प्रामाणिक निर्णय पर नहीं पहुँच जीवन को सफल बनावें।' प्रभु ने उसी समय ईस्वी पूर्व ५५७ में पाया हूँ। यदि मेरे इस संशय का ये निवारण कर दें तो मैं इन्हें सर्वज्ञ वैशाख सुदि ११के दिन पचास वर्षीय इन्द्रभूति को अपने छात्रमान लूँगा और सर्वदा के लिए इनको अपना लूँगा। परिवार के साथ प्रव्रज्या प्रदान कर अपना प्रथम शिष्य घोषित किया। अतिशय ज्ञानी महावीर ने इन्द्रभूति के मनोगत भावों को अन्य १० यज्ञाचार्यों की दीक्षासमझकर तत्काल ही कहा "इन्द्रभूति छात्र-परिवार सहित सर्वज्ञ महावीर का शिष्यत्व हे गौतम! तुम्हें यह संदेह है कि जीव है या नहीं? यह तुम्हारा अंगीकार कर निर्ग्रन्थ/श्रमण बन गये हैं।" संवाद बिजली की तरह संशय वेद/बृहदारण्य उपनिषद् की श्रुति-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो यज्ञ मण्डप में पहुँचे तो शेष दसों याज्ञिक आचार्य किंकर्तव्य-विमूढ़ भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न च प्रेत्य संज्ञास्ति-" पर से हो गये। सहसा उनको इस संवाद पर विश्वास ही नहीं हुआ। वे आधारित है। अर्थात् इन भूतों से विज्ञानघन समुत्थित होता है और कल्पना भी नहीं कर पाते थे कि देश का इन्द्रभूति जैसा अप्रतिम भूतों के नष्ट हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है। परलोक जैसी दुर्धर्ष दिग्गज विद्वान जो सर्वदा अपराजेय रहा वह किसी निर्ग्रन्थ से कोई चीज नहीं है। पराजित ोकर उसका शिष्य बन सकता है। सब हतप्रभ से हो गये। महावीर ने पुन: स्पष्ट करते हुए कहा-इस श्रुतिपद का वास्तविक किन्तु, अग्निभूति चुप न रह सका और वह आग-बबूला होकर, अर्थ न समझने के कारण ही तुम्हें यह भ्रान्ति हुई है। इसका वस्तुतः अपने अग्रज को बन्धन से छुड़ाने के लिए अपने छात्र-समुदाय के अर्थ यह है कि आत्मा में प्रति समय नई-नई ज्ञान-पर्यायों की उत्पत्ति साथ महावीर से शास्त्रार्थ करने के लिये गर्व के साथ समवसरण की होती है और पूर्व की पर्यायें विलीन हो जाती हैं। जैसे घट का चिन्तन ओर चल पड़ा। महावीर के समक्ष पहुँचते ही उसने भी अपनी शंका करने पर चेतना में घट रूप पर्याय का आविर्भाव होता है और दूसरे का समाधान हृदयंगम कर छात्र परिवार सहित उनका शिष्यत्व क्षण पट का ध्यान करने पर घट रूप पर्याय नष्ट हो जाती है और पट स्वीकार कर लिया। इस प्रकार क्रमश: वायुभूति आदि नवों रूप पर्याय उत्पन्न हो जाती है। आखिर ये ज्ञान रूप चेतन पर्यायें किसी कर्मकाण्डी उद्भट विद्वान् महावीर के पास पहुँचे और उनसे अपनीसत्ता की ही होंगी? यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी, अप, तेजस् आदि अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर अपने छात्र-परिवार सहित पाँच भूतों से न होकर जड़-चेतन रूप समस्त ज्ञेय पदार्थों से है। जैसे प्रभु के शिष्य बन गये। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११५ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर-पद-आवश्यक चूर्णि और महावीर चरित्र के अनुसार इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् आचार्य प्रभु का शिष्यत्व अंगीकार करने के पश्चात् क्रमश: भगवान महावीर के समक्ष कुछ दूर पर अंजलिबद्ध नत-मस्तक होकर खड़े हो गए। उस समय कुछ क्षणों के लिये देवों ने वाद्य निनाद बन्द किये ओर जगद्वन्द्य महावीर ने अपने कर-कमलों से उनके शिरों पर सौगन्धिक रत्न चूर्ण डाला और इन्द्रभूति आदि सब को सम्बोन्धित करेत हुए कहा-“मैं तुम सब को तीर्थ की अनुज्ञा देता हूँ, गणधर पद प्रदान करता हूँ।' इस प्रकार भगवान् ने अपने तीर्थ/ संघ की स्थापना कर ग्यारह गणधर घोषित किये। इनमें प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम थे। ग्यारह आचार्यों का विशाल शिष्य समुदाय उन्हीं का रहा, जिनकी कुल संख्या ४४०० थी। द्वादशांगी की रचना शिष्यत्व अंगीकार करने के पश्चात् गणधर इन्द्रभूति श्रमण भगवान महावीर के समीप आये और सविनय वन्दना नमस्कार के पश्चात् जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न किया -- "भंते किं तत्त्वम्। भगवन्! तत्त्व क्या है?" महावीर ने कहा - "उप्पन्नेइ वा'' उत्पाद/उत्पन्न होता है। इस उत्तर से इन्द्रभूति की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। वे सोचने लगे कि यदि उत्पन्न ही उत्पन्न होता रहा तो सीमित पृथ्वी में उसका समावेश कैसे होगा? अत: पुन: प्रश्न किया - "भंते! किं तत्त्वम्' भगवन्! तत्त्व क्या है? महावीर ने कहा - "बिगयेइ वा' विगय नष्ट होता है। इन्द्रभूति का मानस पुन: संशयशील हो उठा। सोचने लगे - यदि विगय ही विगय होगा, तो एक दिन सब नष्ट हो जाएगा, संसार पूर्णत: रिक्त हो जाएगा। अत: संशय-निवारण हेतु पुनः प्रश्न किया "भंते! किं तत्त्वम्।' भगवन् ! तत्त्व क्या है? पुन: महावीर ने उत्तर दिया - "धुएत्ति वा" ध्रुव /शाश्वत रहता है। यह उत्तर सुनते ही इन्द्रभूति को समाधान मिल गया, उनका संशय दूर हो गया। इस त्रिपदी का निष्कर्ष यह है कि पयाय दृष्टि में प्रत्येक वस्तु में उत्पाद और व्यय/नाश होता है, किन्तु द्रव्य दृष्टि से जो कुछ है वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। यह त्रिपदी प्रत्येक पदार्थ/वस्तु पर घटित होती है। विश्व में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है कि जिस पर यह घटित न हो। प्रत्येक सत् वस्तु द्रव्य रूप से सदैव नित्य है, शाश्वत है। द्रव्य यदि द्रव्य रूपता का परित्याग कर दे, तो जीव जीव नहीं रह सकता और अजीव अजीव नहीं रह सकता। यदि सत् असत् रूप में परिणत हो जाए तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। चेतन हो अथवा जड़, किन्तु इस सीमा रेखा का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। जैसे देखिये - एक घड़ा है, वह फूट गया। घट का रूप नष्ट हो गया, ठीकरियों के रूप में उत्पत्ति हो गई, पर उसकी मिट्टी ध्रुव है। मिट्टी पहले भी थी और अब भी है। पुन: देखिये - दूध का रूप विनष्ट होने पर दधि रूप की उत्पत्ति है, तदपि गोरस कायम रहता है, शाश्वत रहता है। इस त्रिपदी को हृदयंगम कर, चिन्तन-मनन पूर्वक अवगाहन कर, इन्द्रभूति ने इसी त्रिपदी को माध्यम बनाया और भगवान् ने जोजो अर्थ प्रकट किये उन सब को सूत्र-बद्ध कर द्वादशांगी गणिपिटक की रचना की। इसीलिए शास्त्रों में गणधरों को द्वादशांगी निर्माता कहा जाता है। गणधर-पद - जिस प्रकार प्रत्येक प्राणी तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध नहीं कर पाता, विरले व्यक्ति हो बीस स्थानक के पदों की विशिष्टतम एवं उत्कट साधना कर तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन करते हैं वैसे ही सामान्य प्राणी गणधर नाम-कर्म का बन्ध नहीं कर पाता, अपितु इने-गिने उत्कृष्टतम साधक ही बीस स्थानक पदों की उत्कट आराधना/अनुष्ठान कर गणधर नाम-कर्म का उपार्जन करते हैं। इस पद की प्राप्ति अनेक भवों से समुपार्जित महापुण्य के उदय में आने पर ही होती है। जिस प्रकार तीर्थंकर पद विशिष्ट अतिशयों का बोधक है उसी प्रकार गणधर पद भी विशिष्ट अतिशयों/ लब्धिसिद्धियों का द्योतक है। इन्द्रभूति की अनेक जन्मों की उत्कृष्ट साधना थी कि इस भव में उस प्रकृष्ट पुण्यराशि के उदय में आने के कारण दीक्षा ग्रहण करते ही तीर्थंकर महावीर के प्रथम गणधर और द्वादशांगी निर्माता बनने का अविचल सौभाग्य प्राप्त कर सके। इन्द्रभूति का व्यक्तित्व- दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् गौतम ने प्रतिज्ञा की कि यावज्जीवन मैं षष्ठ भक्त तप करूंगा, अर्थात् बिना चूक/अन्तराल के दो दिन का उपवास, एक दिन एकासन में पारणा (एक समय भोजन) और पुन: दो दिन का उपवास करता रहूंगा। और, वे अप्रमत्त होकर उत्कट संयम पथ/साधना मार्ग पर चलने लगे। वे प्रतिदिन भगवान महावीर की एक प्रहर धर्मदशना के पश्चात् समवसरण में सिंहासन के पाद-पीठ पर बैठ कर एक प्रहर तक देशना देते। गौतम की विशिष्ट जीवनचर्या, दुष्कर साधना और बहुमुखी व्यक्तित्व का वर्णन भगवतीसूत्र और उपासकदशांग सूत्र में इस प्रकार प्राप्त होता है : विद्वत खण्ड/११६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गौत्रीय निर्लोभता के धारक थे। विद्या-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं एवं मन्त्रों के इन्द्रभूति नामक अनगार उग्र तपस्वी थे। दीप्त तपस्वी कर्मों को धारक थे। प्रशस्त ब्रह्मचर्य के पालक थे। वेद और नय शास्त्र के भस्मसात करने में अग्नि के समान प्रदीप्ततप करने वाले थे। तप्त निष्णात थे। भांति-भांति के अभिग्रह करने में कुशल थे। उत्कृष्टतम तपस्वी थे अर्थात् जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन और चारित्र के धारक/पालक थे। घोर थी। जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे। जो उराल-प्रबल साधना । परीषहों को सहन करने वाले थे। घार तपस्वी/साधक थे। उत्कृष्ट में सशक्त थे। धारगुण-परम उत्तम जिनकी धारण करने में अद्भुत ब्रह्मचर्य के पालक थे। शरीर-संस्कार के त्यागी थे। विपुल तेजालेश्या शक्ति चाहिए - ऐसे गुणों के धारक थे। प्रबल तपस्वी थे। कठोर को अपने शरीर में समाविष्ट करके रखने वाले थे। चौदह पूर्वो के ज्ञाता ब्रह्मचर्य के पालक थे। दैहिक सार-सम्भाल या सजावट से रहित थे। थे और चार ज्ञान के धारक थे।" विशाल तेजोलेश्या को अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे। ज्ञान की प्रश्नोत्तर अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधारी और चार ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि और गौतम जब "ऊर्ध्वजानु अध: शिर:" आसन से ध्यान कोष्टक/ मनपर्यव ज्ञान के धारक थे। सर्वाक्षर सन्निपात जैसी विविध (२८) ध्यान में बैठ जाते थे अर्थात् बहिर्मुखी द्वारों/विचारों को बन्द कर लब्धियों के धारक थे। महान् तेजस्वी थे। वे भगवान् महावीर से न अन्तर में चिन्तनशील हो जाते थे, उस समय धर्मध्यान और अतिदूर और न अति समीप ऊर्ध्वजानु और अधो सिर होकर बैठते शुक्लध्यान की स्थिति में उनके मानस में जो भी प्रश्न उत्पन्न होते थे। ध्यान कोष्टक अर्थात सब और से मानसिक क्रियाओं का अवरोध । थे, जो कुछ भी जिज्ञासाएं उभरती थीं, कौतुहल जागृत होता था, तो कर अपने ध्यान को एक मात्र प्रभु के चरणारविन्द में केन्द्रित कर वे अपने स्थान से उठकर भगवान के निकट जाते. वन्दन-नमस्कार बैठते थे। बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए संयमाराधना करते और विनयावनत होकर शान्त स्वर में पूछते - भगवन्! तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित/ इनका रहस्य क्या है? इस प्रसंग का सुन्दरतम वर्णन भगवती सूत्र संस्कारित करते हुए विचरण करते थे। में प्राप्त होता हैं। देखिये - ___ प्रथण प्रहर में स्वाध्याय करते थे। दूसरे प्रहर में देशना देते थे; "तत्पश्चात् जातश्राद्ध (प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले), जात संशय, ध्यान करते थे। तीसरे प्रहर में पारणे के दिन अत्वरित, स्थिरता पूर्वक, जात कौतूहल, समुत्पन्न श्रद्धा वाले, समुत्पन्न संशय वाले, समुत्पन्न अनाकुल भाव से मुखवस्त्रिका, वस्त्रपात्र का प्रतिलेखन/प्रमार्जन कर, कुतूहल वाले गौतम अपने स्थान से उठकर खड़े होते हैं। उत्थित प्रभु की अनुमति प्राप्त कर, नगर या ग्राम में धनवान, निर्धन और होकर जिस ओर श्रमण भगवान महावीर हैं उस ओर आते हैं। उनके मध्यम कुलों में क्रमागत - किसी भी घर को छोड़े बिना भिक्षाचर्या निकट आकर प्रभु की उनकी दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके तीन के लिए जाते थे। अपेक्षित भिक्षा लेकर, स्वस्थान पर आकर, प्रभु को बार प्रदक्षिणा करते हैं। फिर वन्दन-नमस्कार करते हैं। नमन कर प्राप्त भिक्षा दिखाकर और अनुमति प्राप्त कर गोचरी/भोजन करते थे। वे न तो बहुत पास और न बहुत दूर भगवान् के समक्ष विनय से इस प्रकार हम देखते हैं कि इन्द्रभूति अतिशय ज्ञानी होकर भी ललाट पर हाथ जोड़े हुए. भगवान् के वचन श्रमण करने की इच्छा परम गुरु-भक्त और आदर्श शिष्य थे। से उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले।" __ज्ञाताधर्मकथा में आर्य सुधर्म के नामोल्लेख के साथ जो गणधरों __ और, महावीर "हे गौतम!" कह कर उनकी जिज्ञासाओं - के विशिष्ट गुणों का वर्णन किया गया है उनमें गणधर इन्द्रभूति का संशयों, शंकाओं का समाधान करते हैं। गौतम भी अपनी जिज्ञासा भी समावेश हो जाता है। वर्णन इस प्रकार है :"वे जाति सम्पन्न (उत्तम मातृपक्ष वाले) थे। कुल सम्पन्न (उत्तम का समाधान प्राप्त कर, कृत-कत्य होकर भगवान के चरणों में पुन: विनयपूर्वक कह उठते हैं - "सेवं भंते! सेवं भंते! तहमेयं भंते!'' पितृपक्ष वाले) थे। बलवान, रूपवान, विनयवान, ज्ञानवान, क्षायिक, . सम्यक्त्व, सम्पन्न, साधन सम्पन्न थे। ओजस्वी थे। तेजस्वी थे। अर्थात् प्रभो! आपने जैसा कहा है वह ठीक है, वह सत्य है। मैं उस वर्चस्वी थे। यशस्वी थे। क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त कर पर श्रद्धा एवं विश्वास करता हूँ। प्रभु के उत्तर पर श्रद्धा की यह चुके थे। इन्द्रियों का दमन कर चुके थे। निद्रा और परीषहों को जीतने अनुगूज वस्तुत: प्रश्नात्तर का एक आदश पद्धात है। वाले थे। जीवित रहने की कामना और भृत्यु के भय से रहित थे। स्वयं चार ज्ञान के धारक और अनेक विद्याओं के पारंगत होने उत्कट तप करने वाले थे। उत्कृष्ट संयम के धारक थे। करण सत्तरी । पर भी गौतम अपनी जिज्ञासा को शान्त करने, नई-नई बातें जानने और और चरण सत्तरी का पालन करने में और इन्द्रियों का निग्रह करने.. अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिये स्वयं के पाण्डित्य/ज्ञान का वालों में प्रधान थे। आर्जव, मार्दव, लाघव/कौशल, क्षमा, गुप्ति और में उपयोग करने के स्थान पर प्रभु महावीर से ही प्रश्न पूछते थे। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११७ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न छोटा हो या मोटा, सरल हो या कठिन, इस लोक सम्बन्धी उत्तर - हाँ, गौतम! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता श्रमण निर्गन्थों हो या परलोक सम्बन्धी, वर्तमान-कालीन हो या भूत-भविष्यकाल से के लिये प्रशस्त/श्रेयस्कर है। सम्बन्धित, दूसरे से सम्बन्धित हो या स्वयं से सम्बन्धित, एक-एक प्रश्न - क्या कांक्षा प्रदोष क्षीण होने पर श्रमण- निर्गन्थ अन्तकर के सम्बन्ध में भगवान् के श्रीमुख से समाधान प्राप्त करने में ही अथवा चरम शरीरी होता है? अथवा पूर्वावस्था में अधिक मोहग्रस्त गौतम आनन्द का अनुभव करते थे। होकर विहरण करे और फिर संवृत्त होकर मृत्यु प्राप्त करे तो वस्तुत: इन प्रश्नों के पीछे एक रहस्य भी छिपा हुआ है। ज्ञानी तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का गौतम को प्रश्न करने या समाधान प्राप्त करने की तनिक भी अन्त करता हैं? आवश्यकता नहीं थी। वे तो प्रश्न इसलिये करते थे कि इस प्रकार की उत्तर - हाँ, गौतम! कांक्षा-प्रदोष नष्ट हो जाने पर श्रमण-निर्ग्रन्थ जिज्ञासाएँ अनेकों मानस में होती हैं किन्तु प्रत्येक श्रोता प्रश्न पूछ भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। (भगवती सूत्र १ शतक, ९ । नहीं पाता या प्रश्न करने का उसमें सामर्थ्य नहीं होता। इसीलिए गौतम उद्देशक, सूत्र - १७, १९) अपने माध्यम से श्रोतागणों के मन:स्थित शंकाओं का समाधान करने आगमों में गौतम से सम्बन्धित अंश के लिए ही प्रश्नोत्तरों की परिपाटी चलाते थे, ऐसी मेरी मान्यता है। आगम-साहित्य में गणधर गौतम से सम्बन्धित प्रसंग भी बहुलता विद्यमान आगमों में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से प्राप्त होते हैं, उनमें से कतिपय संस्मरणीय प्रसंग यहां प्रस्तुत हैं। आदि की रचना तो गौतम के प्रश्नों पर ही आधारित है। विशालकाय आनन्द श्रावक : पंचम अंग व्याख्या-प्रज्ञप्ति (प्रसिद्ध नाम भगवती सूत्र) जिसमें प्रभु महावीर के तीर्थ के गणाधिपति एवं सहस्राधिक शिष्यों के ३६००० प्रश्न संकलित हैं उनमें से कुछ प्रश्नों को छोड़कर शेष गुरू होते हुए भी गणधर गौतम गोचरी/भिक्षा के लिये स्वयं जाते थे। सारे प्रश्न गौतम-कृत ही हैं। एक समय का प्रसंग है :गौतम के प्रश्न, चर्चा एवं संवादों का विवरण इतना विस्तृत है प्रभु वाणिज्य ग्राम पधारे। तीसरे प्रहर में भगवान् की आज्ञा लेकर कि उसका वर्गीकरण करना भी सरल नहीं है। भगवती, औपपातिक, गौतम भिक्षा के लिये निकले और गवेषणा करते हुए गाथापति आनन्द विपाक, राज-प्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि में विविध विषयक इतने प्रश्न श्रावक के घर पहुँचे। आनन्द श्रावक भगवान् महावीर का प्रथम श्रावक हैं कि इनके वर्गीकरण के साथ विस्तृत सूची बनाई जाय तो कई था। उपासक के बारह व्रतों का पालन करते हुए ग्यारह प्रतिमाएँ भी भागों में कई शोध-प्रबन्ध तैयार हो सकते है। वहन की थीं। जीवन के अन्तिम समय में उसने आजीवन अनशन सामान्यतया गौतम-कृत प्रश्नों को चार विभागों में बांट सकते हैं:- ग्रहण कर रखा था। उस स्थिति में गौतम उनसे मिलने गए। आनन्द १. अध्यात्म, २. कर्मफल, ३. लोक और ४. स्फुट। ने श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नमन किया और पूछा - प्रभो! क्या गृहवास में प्रथम अध्यात्म-विभाग में इन प्रश्नों को ले सकते हैं - आत्मा, रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है? स्थिति, शाश्वत-अशाश्वत, जीव, कर्म, कषाय, लेश्या, ज्ञान, गौतम - हो सकता है। ज्ञानफल, संसार, मोक्ष, सिद्ध आदि। इनमें केशी श्रमण और उदक- आनन्द - भगवन्! मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है। मैं पूर्व, पश्चिम, पेढ़ाल के संवाद भी सम्मिलित कर सकते हैं। दक्षिण दिशाओं में पांच सौ-पांच सौ योजन तक लवण समुद्र का । दूसरे विभाग में किसी को सुखी, किसी को दु:खी, किसी को क्षेत्र, उत्तर में हिमवान पर्वत, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प और अधो समृद्धि-सम्पन्न और किसी निपट निर्धन को देखकर उसके शुभाशुभ दिशा में प्रथम नरक भूमि तक का क्षेत्र देखता हूँ। कर्मों को जानकारी आदि ग्रहण कर सकते हैं। गौतम - गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, किन्तु तीसरे विभाग में लोकस्थिति, परमाणु, देव, नारक, षट्काय, इतना विशाल नहीं। तुम्हारा कथन भ्रान्तियुक्त एवं असत्य है। अतः जीव, अजीव, भाषा, शरीर आदि और सौरमण्डल के गति विषयक असत्भाषण प्रवृत्ति की आलोचना/प्रायश्चित्त करो। आदि ले सकते हैं। आनन्द-भगवन्! क्या सत्य कथन करने पर प्रायश्चित्त ग्रहण चौथे विभाग में स्फुट प्रश्नों का समावेश कर सकते हैं। करना पड़ता है? उदाहरण के तौर पर सामान्य से दो प्रश्नोत्तर प्रस्तुत हैं :- गौतम - नहीं। प्रश्न - भगवन्! क्या लाघव, अल्प इच्छा, अमूर्छा, आनन्द - तो, भगवन! सत्य-भाषण पर आलोचना का निर्देश ' अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण-निर्गन्थों के लिये प्रशस्त हैं? करने वाले आप ही प्रायश्चित करें। विद्वत खण्ड/११८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आनन्द का उक्त कथन सुनकर गौतम असमंजस में पड़ गये। के पास पहुँचे। ज्योहि शाल महाशाल और पांचों मुनिगण केवलिये स्वयं के ज्ञान का उपयोग किये बिना ही त्वरा से प्रभु के पास आये की परिषद में जाने लगे तो गौतम ने उन सबको रोकते/सम्बोंधित और सारा घटनाक्रम उसके सन्मुख प्रस्तुत कर पूछा - करते हुए कहा – “पहले त्रिलोकीनाथ भगवान की वन्दना करें।" भगवन्! उक्त आचरण के लिये श्रमणोपासक आनन्द को उसी क्षण भगवान ने कहा - गौतम! ये सब केवली हो चुके आलोचना करनी चाहिए या मुझे? हैं, अत: इनकी आशातना मत करो। महावीर ने कहा – गौतम! गाथापति आनन्द ने सत्य कहा है, शंकाकुल मानस - अत: तुम ही आलोचना करो और श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा गौतम ने उनसे क्षमायाचना की; किन्तु उनका मन अधीरता याचना भी। वश आकुल-व्याकुल हो उठा और सन्देहों से भर गया वे सोचने गौतम 'तथास्तु' कह कर, लाई हुई गोचरी किये बिना ही उलटे लगे- "मेरे द्वारा दीक्षित अधिकांशत: शिष्य केवलज्ञानी हो चुके हैं, पैरों से लौटे और आनन्द श्रावक से अपने कथन पर खेद प्रकट करते परन्तु मुझे अभी तक केवलज्ञान नहीं हुआ। क्या मैं सिद्ध पद प्राप्त हुए क्षमा याचना की। -- उपासकदशा अ० १सू. ८० से ८७ नही कर पाऊँगा?" "मोक्षे भवे च सर्वत्र नि:स्पृहो मुनिसत्तमः" इस घटना से एक तथ्य उभरता है कि गुरू गौतम कितने मोक्ष और संसार दोनों के प्रति पूर्ण रूपेण नि:स्पृह/अनासक्त रहने निश्छल, निर्मल, निर्मद, निरभिमानी थे। उन्हें तनिक भी संकोच का वाले गौतम भी मैं चरम शरीरी (इसी देह से मोक्ष जाने वाला) हूँ अनुभव नहीं हुआ कि मैं प्रभु का प्रथम गणधर होकर एक उपासक या नहीं", सन्देह-दोला में झूलने लगे। के समक्ष अपनी भूल कैसे स्वीकार करूँ एवं श्रावक से कैसे क्षमा एकदिन गौतम स्वामी कहीं बाहर/अन्यत्र गये हुए थे, उस मांगू। यह उनके साधना की, निरभिमानता की कसौटी/अग्नि परीक्षा समय भगवान महावीर ने अपनी धर्मदेशना में अष्टापद तीर्थ की थी, जिसमें वे खरे उतरे। महिमा का वर्णन करते हुए कहा- 'जो साधक स्वयं की अष्टापद तीर्थ यात्रा की पृष्ठ-भूमि आत्मलब्धि के बल पर अष्टापद पर्वत पर जाकर चैत्यस्थ जिनशाल, महाशाल, गागलि - बिम्बों की वन्दना कर, एक रात्रि वहीं निवास करे, तो वह उत्तराध्ययन सूत्र के द्रुमपत्रक नामक दशवें अध्ययन की टीका निश्चयत: मोक्ष का अधिकारी बनता है और इसी भव में मोक्ष को करते हुए टीकाकारों ने लिखा है : प्राप्त करता है।' पृष्ठचम्पा नगरी के राजा थे शाल और युवराज थे महाशाल। बाहर से लौटने पर देवों के मुख से जब उन्होंने उक्त महावीर दोनों भाई थे। इनकी बहन का यशस्वती, बहनोई का पिठर और वाणी को सुना तो उनके चित्त को किंचित सन्तुष्टि का अनुभव हुआ। भानजे का नाम गागलि था। 'चरम शरीरी हूँ या नही" परीक्षण का मार्ग तो मिला, क्यों न भगवान महावीर की देशना सुनकर दोनों भाइयों - शाल परीक्षण करूँ? सर्वज्ञ की वाणी शत-प्रतिशत विशुद्ध स्वर्ण होती है, महाशाल ने दीक्षा ग्रहण करली थी और कांपिल्यपुर से अपने भानजे इसमें शंका को स्थान ही कहाँ ?" गागलि को बुलवाकर राजपाट सौंप दिया था। राजा गागली ने अपने अष्टापद तीर्थ की यात्रा - माता-पिता को भी पृष्ठचम्पा बुलवा लिया था। __ तत्पश्चात् गौतम भगवान के पास आये और अष्टापद तीर्थ यात्रा एकदा भगवान चम्पानगरी जा रहे थे। तभी शाल और महाशाल करने की अनुमति चाही। भगवान ने भी गौतम के मन में स्थित ने स्वजनों को प्रतिबोधित करने के लिये पृष्ठचम्पा जाने की इच्छा मोक्ष-कामना जानकर और विशेष लाभ का कारण जानकर यात्रा की व्यक्त की। प्रभु की आज्ञा प्राप्त कर गौतम स्वामी के नेतृत्व में अनुमति प्रदान की। गौतम हर्षोत्फल होकर अष्टापद की यात्रा के अनुमात प्रदान श्रमण शाल और महाशाल पृष्ठचम्पा गये। वहाँ के राजा गागलि और लय चला उसके माता-पिता (यशस्वती, पिठर) को प्रतिबोधित कर दीक्षा शीलांकाचार्य (१०वीं शताब्दी) ने चउप्पन्नमहापुरुष चरियं (पृष्ठ प्रदान की। पश्चात वे सब प्रभु की सेवा में चल पड़े। मार्ग में ___३२३) के अनुसार भगवान महावीर ने १५०० तापसों को प्रतिबोध चलते-चलते शाल और महाशाल गौतम स्वामी के गुणों का चिन्तन देने के लिये गौतम को अष्टापद तीर्थ की यात्रा करने का निर्देश दिया और गागलि तथा उसके माता-पिता शाल एवं महाशाल मुनियों की । और गौतम जिन-बिम्बों के दर्शनों की उमंग लेकर चल पड़े। परोपकारिता का चिन्तन करने लगे। अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ने गुरु गौतम आत्मा-साधना से प्राप्त चारण लब्धि आदि अनेक लगी और पांचों निर्ग्रन्थों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। सभी भगवान लब्धियों के धारक थे, आकस्मिक बल एवं चारणलब्धि (आकाश शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११९ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में गमन करने की शक्ति) से वे वायुवेग की गति से कुछ ही क्षणों इधर, गौतम स्वामी ने "मन के मनोरथ फलें हो' ऐसे उलास में अष्टापद की उपत्यका में पहुँच गये। से अष्टापद पर्वत पर चक्रवर्ती भरत द्वारा निर्मापित एवं तोरणों से इधर कौडिन्य, दिन (दत्त) और शैवाल नाम के तीन तापस भी सुशोभित तथा इन्द्रादि देवताओं से पूजित-अर्चित नयनाभिराम 'इसी भव में मोक्ष-प्राप्ति होगी या नहीं' का निश्चय करने हेतु अपने- चतुर्मुखी प्रासाद/मन्दिर में प्रवेश किया। निज-निज काय / देहमान अपने पांच सौ-पांच सौ तापस शिष्यों के साथ अष्टापद पर्वत पर के अनुसार चारों दिशाओं में ४, ८, १०, २ की संख्या में चढ़ने के लिये क्लिष्ट तप कर रहे थे। विराजमान चौबीस तीर्थंकरों के रत्नमय बिम्बों को देखकर उनकी । इनमें से कौडिन्य उपवास के अनन्तर पारणा कर फिर उपवास रोम-राजि विकसित हो गई और हर्षोत्फुल्ल नयनों से दर्शन किये। करता था। पारणा में मूल, कन्द आदि का आहार करता था। वह श्रद्धा-भक्ति पूर्वक वन्दन-नमन, भावार्चन किया। मधुर एवं गम्भीर अष्टापद पर्वत पर चढ़ा अवश्य, किन्तु एक मेखला/सोपना से आगे स्वरों में तीर्थंकरों की स्तवना की। दर्शन-वन्दन के पश्चात् सन्ध्या . न जा सका था। हो जाने के कारण तीर्थ-मन्दिर के निकट ही एक सघन वृक्ष के नीचे दिन (दत्त) तापस दो-दो उपवास का तप करता था और पारणा शिला पर ध्यानस्थ होकर धर्म जागरण करने लगे। में नीचे पड़े हुए पीले पत्ते खा कर रहता था। वह अष्टापद की दुसरी वज्रस्वामी के जीव को प्रतिबोध - मेखला तक ही पहुँच पाया था। धर्म-जागरण करते समय अनेक देव, असुर और विद्याधर वहाँ शैवाल तापस तीन-तीन उपवास की तपस्या करता था। पारणा आये, उनकी वन्दना की और गौतम के मुख से धर्मदेशना भी में सूखी शैवाल (सेवार) खा कर रहता था। वह अष्टापद की तीसरी सुनकर कृतकृत्य हुए। मेखला ही चढ़ पाया था। इसी समय शक्र का दिशापालक वैश्रमण देव, (शीलांकाचार्य के तीन सोपान (पगोथियों) से ऊपर चढ़ने की उनमें शक्ति नहीं अनुसार गन्धर्वरति नामक विद्याधर) जिसका जीव भविष्य में थी। पर्वत की आठ मेखलायें थी। अन्तिम/अग्रिम मेखला तक कैसे दशपूर्वधर वज्र स्वामी बनेगा, तीर्थ की वन्दना करने आया। पुलकित पहुँचा जाए? इसी उधेड़बुन में वे सभी तापस चिन्तित थे। भाव से देव-दर्शन कर गौतम स्वामी के पास आया और भक्ति पूर्वक इतने में उन तपस्वी जनों ने गौतम स्वामी को उधर आते देखा। वन्दन किया। गुरु गौतम के सुगठित, सुदृढ, सबल एवं हृष्टपुष्ट शरीर इनकी कान्ति सूर्य के समान तेजोदीप्त थी और शरीर सप्रमाण एवं को देखकर विचार करने लगा- "कहाँ तो शास्त्र-वर्णित कठोर भरावदार था। मदमस्त हाथी की चाल से चलते हुए आ रहे थे। उन्हें तपधारी श्रमणों के दुर्बल, कृशकाय ही नहीं, अपितु अस्थि-पंजर का देखकर तापसगण ऊहापोह करने लगे "हम महातपस्वी और दुबले- उलेख और कहाँ यह हृष्टपुष्ट एवं तेजोधारी श्रमण! ऐसा सुकुमार पतले शरीर वाले भी ऊपर न जा सके, तो यह स्थूल शरीर वाला शरीर तो देवों का भी नहीं होता! तो, क्या यह शास्त्रोक्त मुनिधर्म का श्रमण कैसे चढ़ पाएगा?" पालन करता होगा? या केवल परोपदेशक ही होगा?" वे तपस्वी शंका-कुशंका के घेरे में पड़े हुए सोच ही रहे थे कि गुरु गौतम उस देव के मन में उत्पन्न भावों/विचारों को जान गए इतने में ही गरू गौतम करोलिया के जाल के समान चारों तरफ और उसकी शंका को निर्मूल करने के लिये पुण्डरीक कण्डरीक का फैली हुई आत्मिक-बल रूपी सूर्य किरणों का आधार लेकर जीवन-चरित्र (ज्ञाता धर्म कथा १६ वां अध्ययन) सुनाया और उसके जंघाचारण लब्धि से वेग के साथ क्षण मात्र में अष्टापद पर्वत की माध्यम से बतलाया - महानुभाव! न तो दुर्बल, अशक्त और अन्तिम मेखला पर पहुँच गए। तापसों के देखते-देखते ही अदृश्य निस्तेज शरीर ही मुनित्व का लक्षण बन सकता है और न स्वस्थ, हो गए। सुदृढ़, हृष्टपुष्ट एवं तेजस्वी शरीर मुनित्व का विरोधी बन सकता है। यह दृश्य देखकर तापसगण आश्चर्य चकित होकर विचारने वास्तविक मुनित्व तो शुभध्यान द्वारा साधना करते हुए संयम यात्रा लगे - "हमारी इतनी विकट तपस्या और परिश्रम भी सफल नहीं में ही समाहित/विद्यमान है। हुआ, जबकि यह महापुरुष तो खेल-खेल में ही ऊपर पहुंच गया। वैश्रमण देव की शंका-निर्मूल हो गई और वह बोध पाकर निश्चय ही इस महर्षि महायोगी के पास कोई महाशक्ति अवश्य होनी श्रद्धाशील बन गया। चाहिए।'' उन्होंने निश्चय किया "ज्योंही ये महर्षि नीचे उतरेंगे हम तापसों की दीक्षा : केवलज्ञान - ता उनके शिष्य बन जायेंगे। इनकी शरण अंगीकार करने से हमारी मोक्ष प्रात:काल जब गौतम स्वामी पर्वत से नीचे उतरे तो सभी की आकांक्षा अवश्य ही सफलीभूत होगी।' तापसों ने उनका रास्ता रोक कर कहा – “पूज्यवर! आप हमारे गुरू हैं और हम सभी आपके शिष्य है।" विद्वत खण्ड/१२० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम बोले - तुम्हारे और हमारे सब के गुरू तो तीर्थंकर गौतम को आश्वासनमहावीर हैं। भगवान अन्तर्यामी थे। वे गौतम के विषाद को एवं अधैर्य युक्त - यह सुनकर वे सभी आश्चर्य से बोले- क्या आप जैसे मन को जान गए। उनकी खिन्नता को दूर करने के लिये भगवान सामर्थ्यवान के भी गुरू हैं? ने उनको सम्बोधित करते हुए कहा - __ गौतम ने कहा – हाँ, सुरासुरों एवं मानवों के पूजनीय, राग- हे गौतम! चिरकाल के परिचय के कारण तुम्हारा मेरे प्रति द्वेषरहित सर्वज्ञ महावीर स्वामी जगद्गुरू हैं, वे ही मेरे गुरू हैं। ऊर्णाकट (धान के छिलके के समान) जैसा स्नेह है। इसीलिए तुम्हें तापसगण - भगवन्! हमें तो इसी स्थान पर और अभी ही केवलज्ञान नहीं होता। देव, गुरू, धर्म के प्रति प्रशस्त राग होने पर सर्वज्ञ-शासन की प्रर्वज्या प्रदान करने की कृपा करावें। भी वह यथाख्यात चारित्र का प्रतिबन्धक है। जैसे सूर्य के अभाव गौतम स्वामी ने अनुग्रह पूर्वक कौडिन्य, दिन और शैवाल को में दिन नहीं होता, वैसे ही यथाख्यात चारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं पन्द्रह सौ तापसों के साथ दीक्षा दी और यूथाधिपति के समान सब होता। अत: स्पष्ट है कि जब मेरे प्रति तुम्हारा उत्कट राग/स्नेह नष्ट को साथ लेकर भगवान की सेवा में पहुँचने के लिये चल पड़े। मार्ग होगा, तब तुम्हें अवश्यमेव केवलज्ञान प्राप्त होगा। में भोजन का समय देखकर गौतम स्वामी ने सभी तापसों से पुन: भगवान ने कहा - "गौतम! तुम खेद-खिन मत बनो, पूछा-तपस्वीजनों! आज आप सब लोग किस आहार से तप का अवसाद मत करो। इस भव में मृत्यु के पश्चात, इस शरीर से छूट पारणा करना चाहते हैं? बतलाओ। जाने पर; इस मनुष्य भव से चित्त होकर, हम दोनों तुल्य (एक तापसगण - भगवन्! आप जैसे गुरु को प्राप्त कर हम सभी समान) और एकार्थ (एक ही प्रयोजन वाले अथवा एक ही लक्ष्य का अन्त:करण परमानन्द को प्राप्त हुआ है अत: परमान/खीर से - सिद्धि क्षेत्र में रहने वाले) तथा विशेषता रहित एवं किसी भी ही पारणा करावें। प्रकार के भेदभाव से रहित हो जायेंगे।" उसी क्षण गौतम भिक्षा के लिये गये और भिक्षा पात्र में खीर अतः तुम अधीर मत बनो, चिन्ता मत करो। और, "जिस लेकर आये। सभी को पंक्ति में बिठाकर,पात्र में दाहिना अंगूठा प्रकार शरत्कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू रखकर अक्षीणमहानसी लब्धि के प्रभाव से सभी तपस्वीजनों को पेट भी अपने स्नेह को विच्छिन्न (दूर) कर। तू सभी प्रकार के स्नेह का भर कर खीर से पारणा करवाया। त्याग कर। हे गौतम! समय-मात्र का भी प्रमाद मत कर।" शैवाल आदि ५०० मुनि जन तो गौतम स्वामी के अतिशय एवं प्रभु की उक्त अमृतरस से परिपूर्ण वाणी से गौतम पूर्णत: लब्धियों पर विचार करते हुए ऐसे शुभध्यानारूढ़ हुए कि खीर आश्वस्त हो गए। "मैं चरम शरीरी हूँ" इस परम सन्तुष्टि से गौतम खाते-खाते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। का रोम-रोम आनन्द सरोवर में निमग्न हो गया। भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् गौतम सभी श्रमणों के साथ पुनः भगवान् का मोक्षगमन आगे बढ़े। प्रभु के समवसरण की शोभा और अष्ट महाप्रातिहार्य ईस्वी पूर्व ५२७ का वर्ष था। श्रमण भगवान् महावीर का देखकर दिन आदि ५०० अनगारों को तथा दूर से ही प्रभु के दर्शन, ___अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में था। चातुर्मास के साढ़े तीन माह पूर्ण प्रभु की वीतराग मुद्रा देखकर कौडिन्य आदि साधुओं को शुक्लध्यान होने वाले थे। भगवान् जीवन के अन्तिम समय के चिह्नों को पहचान के निमित्त से केवलज्ञान प्राप्त हो गया। गये। उन्हें गौतम के सिद्धि-मार्ग में बाधक अबरोध को भी दूर करना समवसरण में पहुँच कर, तीर्थंकर भगवान की प्रदक्षिणा कर था, अत: उन्होंने गौतम को निर्देश दिया - गौतम! निकटस्थ ग्राम सभी नवदीक्षित केवलियों की ओर बढ़ने लगे। गौतम ने उन्हें रोकते में जाकर देवशर्मा को प्रतिबोधित करो। हुए कहा - भगवान को वन्दन करो। उसी समय भगवान ने कहा- गौतम निश्छल बालक के समान प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य गौतम! केवलज्ञानियों की आशातना मत करो! कर देवशर्मा को प्रतिबोध देने के लिये चल पड़े। । भगवान का वाक्य सुनते ही गौतम स्तब्ध से हो गये। भगवद् आज्ञा इधर, लोकहितकारी श्रमण भगवान् महावीर ने छठ्ठ तप/दो स्वीकार कर, गौतम ने मिथ्यादुष्कृत पूर्वक उन सब से क्षमा याचना दिन का उपवास तप कर, भाषा-वर्गणा के शेष पुद्गलों को पूर्ण की। तत्पश्चात् वे चिन्तन-दोला में हिचकोले खाने लगे। "क्या मेरी करने के लिये अखण्ड धारा से देशना देनी प्रारम्भ की। इस देशना अष्टापद यात्रा निष्फल जाएगी? क्या मैं गुरु-कर्मा हूँ? क्या मैं इस भव में प्रभु ने पुण्य के फल, पाप के फल और अन्य अनेक उपकारी में मुक्ति में नहीं जा पाऊँगा?'' यही चिन्ता उन्हें पुन: सताने लगी। प्रश्नों का प्रतिपादन किया। बारह पर्षदा भगवान् की इस वाणी को शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२१ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाग्रचित होकर हृदय के कटोरे में भाव-भक्ति पूर्वक झेल/ग्रहण परन्तु, परन्तु, लाखों देवता पावापुरी की ओर भागे जा रहे हैं, कर रही थी। भगवान् की अन्तिम धर्मपर्षदा में अनेक विशिष्ट एवं शब्द लहरी अवरुद्ध कण्ठों से निकल रही है, पर क्यों?......?, सम्मान्य व्यक्ति, काशी-कौशल देश के नौ लिच्छवी और नौ प्रभु की वाणी थी-“देवगण असत्य नहीं बोलते" ध्यान में आते ही मल्लकी-अठारह राजा भी उपस्थित थे। गौतम का रोम-रोम विचलित/कम्पित हो उठा। वे निस्तब्ध से हो इस प्रकार सोलह प्रहर पर्यन्त अखण्ड देशना देते-देते कार्तिक गये। “निर्वाण' जैसे प्रलयकारी शब्द पर विश्वास होते ही असीम वदी अमावस्या की मध्य रात्रि के बाद स्वाति नक्षत्र के समय वह अन्तर्वेदना के कारण मुख कान्तिहीन/श्यामल हो गया, आँखों से विषम क्षण आ पहुँचा। समय का परिपाक पूर्ण हुआ और त्रिभुवन अजस्र अश्रुधारा बहने लगी, आँखों के सामने अंधेरा छा गया, शरीर स्वामी श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष के आयुष्य का बन्धन पूर्ण और हाथ-पैर काँपने लगे, चेतना-शक्ति विलुप्त होने लगी और वे कर, महानिर्वाण को प्राप्त कर, सिद्ध, बुद्ध, पारंगत, निराकार, कटे वृक्ष की भाँति धड़ाम से पृथ्वी पर बैठ गये। बेसुध से, निश्चेष्ट निरंजन बन गये। भगवान् इस दिन सर्वदा के लिये मर्त्य न रहकर से बैठे रहे। कछ क्षणों के पश्चात् सोचने समझने की स्थिति में आने समस्त शुभ-शुद्ध भावना के पुंज रूप में अमर्त्य/अमर बन गए। पर समवसरण में विराजमान प्रभु महावीर और उनके श्रीमुख से ज्ञान सूर्य विलुप्त हो गया। निःसृत हे गौतम! का दृश्य चलचित्र की भाँति उनकी आँखों के पर्षदा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त भगवान् को दीन/अनाथ भाव से सामने घुमने लगा और वे सहसा निराधार, निरीह, असहाय बालक अश्रुसिक्त अंजलि अर्पण कर अन्तिम नमन करती रही। पावापुरी की भाँति सिसकियाँ भरते हए विलाप करने लगेकी भूमि पवित्र हो गई। अमावस्या की रात्रि धर्मपर्व बन गई। उस "मैं कैसा भाग्यहीन हैं, भगवान् के ग्यारह गणधरों में से नव रात्रि में जन समूह ने दीपक जलाकर निर्वाण कल्याणक का बहुमान गणधर तो मोक्ष चले गये, अन्य भी अनेक आत्माएँ सिद्ध बन गईं, किया। यही दीपक पंक्ति दीपावली त्यौहार के रूप में प्रसिद्ध हो गई। स्वयं भगवान् भी मुक्तिधाम में पधार गये, और मैं प्रभु का प्रथम गौतम का विलाप और केवलज्ञान-प्राप्ति शिष्य होकर भी अभी तक संसार में ही रह रहा हूँ। प्रभु तो पधार गणधर गौतम देवशर्मा को प्रतिबोध देने के बाद वापस पावापुरी की गये अब मेरा कौन है?" ओर आ रहे थे। प्रभु की आज्ञा पालन करने से इनका रोम-रोम उल्लास अन्तर की गहरी वेदना उभरने लगी। दिशाएँ अन्धकारमय और से विकसित हो रहा था। जब भी परमात्मा की आज्ञा पालन करने का बहरी बन गई। चित्त में पनः शन्यता व्याप्त होने लगी। तनिक से एवं अबूझ जीव को प्रतिबोध देकर उद्धार करने का अवसर मिलता तो जागत होते ही पन. पाला के स्वरों में बोल उते. वह दिन उनके लिये आनन्दोल्लास से परिपूर्ण बन जाता था। ___"हे महावीर! मुझ रंक पर यह असहनीय वज्रपात आपने कैसे प्रभु के चरणों में वापस पहुँचने की प्रबल उत्कण्ठा के कारण ___ कर डाला? मुझे मझधार में छोड़कर कैसे चल दिये? अब मेरा हाथ गौतम तेजी से कदम बढ़ा रहे थे। कौन पकड़ेगा? मेरा क्या होगा? मेरी नौका को कौन पार लगायेगा?" इधर प्रभु का निर्वाण महोत्सव मनाने एवं अन्तिम संस्कार के हे प्रभो। हे प्रभो।। आपने यह क्या गजब ढा दिया? मेरे साथ लिये विमानों में बैठकर देवगण ताबड़तोड़ पावापुरी की ओर भागे जा कैसा अन्याय कर डाला? विश्वास देकर विश्वास भंग क्यों किया? रहे थे। आकाश में कोलाहाल-सा मच गया था। भागते हुए देवताओं अब मेरे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा? मेरी शंकाओं का समाधान कौन के सहस्रों मुखों से, अवरुद्ध कण्ठों से एक ही शब्द निकल रहा करेगा? मैं किसे महावीर, महावीर कहूँगा? अब मुझे हे गौतम! था- "आज ज्ञान सूर्य अस्त हो गया है, प्रभु महावीर निर्वाण को कहकर प्रेम से कौन बुलाएगा? करुणासिन्धु भगवन् मेरे किस प्राप्त हो गए हैं। अन्तिम दर्शन करने शीघ्र चलो।" अपराध के बदले आपने ऐसी नृशंस कठोरता बरत कर अन्त समय देव-मुखों से नि:सृत उक्त प्रलयकारी शब्द गौतम के कानों में में मुझे दूर कर दिया? अब मेरा कौन शरणदाता बनेगा? वास्तव पहुँचे। तुमुल कोलाहल के कारण अस्पष्ट ध्वनि को समझ नहीं में मैं तो आज विश्व में दीन-अनाथ बन गया? पाये। कान लगाकर ध्यानपूर्वक सुनने पर समझ में आया कि “प्रभु प्रभो! आप तो सर्वज्ञ थे न! लोक-व्यवहार के ज्ञाता भी थे न! का निर्वाण हो गया है।'' किन्तु, गौतम को इन शब्दों पर तनिक भी ऐसे समय में तो सामान्य लोग भी स्वजन सम्बन्धियों को दूर से विश्वास नहीं हुआ। वे सोचने लगे-“असम्भव है, कल ही तो प्रभु अपने पास बला लेते हैं. सीख देते हैं। प्रभो! आपने तो लोकने मुझे आज्ञा देकर यहाँ भेजा था। अत: ऐसा तो कभी हो ही नहीं व्यवहार को भी तिलांजलि दे दी और मुझे दूर भगा दिया। सकता। यह तो पागलों का प्रलाप-सा प्रतीत होता है।" विद्वत खण्ड/१२२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभो! आपको जाना था तो चले जाते, पर इस बालक को पास कैवल्य प्राप्त नहीं हुआ तो इसमें भगवान् का क्या दोष है! इसमें में तो रखते। मैं अबोध बालक की तरह आपका अंचल/चरण भूल या कमी तो मेरी ही होनी चाहिए।" पकड़ कर आपके मार्ग में बाधक नहीं बनता! मैं आपसे केवलज्ञान गौतम का अन्तर्-चिन्तन बढ़ने से प्रशस्त विचारों का प्रवाह बहने की भिक्षा-याचना भी नहीं करता। लगा। वे वीर! महावीर!! का स्मरण करते-करते प्रभु के वीतरागपन . ओ महावीर! क्या आप भूल गये? मैं तो आपके प्रति असीम पर विचार-मन्थन करने लगे "ओ! भगवान् तो निर्मम, नीरागी और अनुराग के कारण "केवल्य" को भी तुच्छ समझता था! फिर भी वीतराग थे। राग-द्वेष के दोष तो उनका स्पर्श भी नहीं कर पाते थे। आपने स्नेह भंग कर मेरे हृदय को टूक-टूक कर डाला! क्या यही ऐसे जगत् के हितकारी वीतराग प्रभु क्या मेरा अहित करने के लिये आपकी प्रभुता थी? अन्त समय में मुझे अपने से दूर कर सकते थे? नहीं, नहीं! प्रभु ने इस प्रकार गौतम के अणु-अणु में से प्रभु के विरह की वेदना जो कुछ किया मेरे कल्याण के लिये ही किया होगा।" का क्रन्दन उठ रहा था। वे स्वयं को भूलकर, प्रभु के नाम पर ही गौतम को स्पष्ट आभास होने लगा-"मेरी यह धारणा ही नि:श्वास भरते हुए अन्तर् वेदना को व्यक्त कर रहे थे। भ्रमपूर्ण थी कि प्रभु की मेरे ऊपर अपार ममता है। प्रभु के ऊपर ऐसी दयनीय एवं करुणस्थिति में भी उनके आँसुओं को पोंछने ममता, आसक्ति, अनुराग दृष्टि तो मैं ही रखता था। मेरा यह प्रेम वाला, भग्न हृदय को आश्वासन देनेवाला और गहन शोक के एकपक्षीय था। यह राग दृष्टि ही मेरे केवली बनने में बाधक बन रही सन्ताप को दूर करनेवाला इस पृथ्वीतल पर आज कोई न था। थी। द्वेष-बुद्धि या राग-दृष्टि के पूर्ण अभाव में ही आत्म-सिद्धि का अनेक आत्माओं का आशा स्तम्भ, अनेक जीवों का उद्धारक और अमृततत्त्व प्रकट होता है, विद्यमानता में कदापि नहीं। मैं स्वयं ही निपुण खिवैया भी आज विषम हताशा के गहन वात्याचक्र में फंस अपनी सिद्धि को रोक रहा था, इसमें भगवान् का क्या दोष है? मेरी गया था। इस राग दृष्टि को दूर करने के लिये ही प्रभु ने अन्त समय में मुझे विचार-परिवर्तन और केवलज्ञान दूर कर, प्रकाश का मार्ग दिखाकर मुझ पर अनुग्रह किया है। किन्तु, भगवान महावीर के प्रति गौतम का अगाध/असीम अनुराग ही मैं अबूझ इस रहस्य को नहीं समझ सका और प्रभु को ही दोष देने उनके केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक बन रहा था। किन्तु, उनकी __ लगा। हे क्षमाश्रमण भगवन्! मेरे इस अपराध/दोष को क्षमा करें।' इस भूल को बतलाने वाला वहाँ न कोई तीर्थंकर था और न कोई पश्चाताप, आत्मनिरीक्षण तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों की श्रमण या श्रमणी ही इस समय उनके पास उपस्थित थे। इस समय अग्नि में गौतम के मोह, माया, ममता के शेष बन्धन क्षणमात्र में गौतम एकाकी, केवल एकाकी थे। भस्मीभूत हो गये। उनकी आत्मा पूर्ण निर्मल बन गई और उनके वेदनानुभूति जनित विलाप और उपालम्भात्मक आक्रोश उद्गारों का जीवन में केवलज्ञान का दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया। के द्वारा प्रकट हो जाने पर गौतम का मन कुछ शान्त/हलका हुआ। भगवान् महावीर का निर्वाण गौतम स्वामी के केवलज्ञान का अन्तर कुछ स्थिर और स्वस्थ हुआ। सोचने-विचारने और वस्तुस्थिति निमित्त बन गया। समझने की शक्ति प्रकट हुई। सोचने की विचारधारा में परिवर्तन ईस्वी पूर्व ५२७ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा का उषाकाल गौतम आया। अन्तर्मुखी होकर गौतम विचार करने लगे स्वामी के केवलज्ञान से प्रकाशमान हो गया। इसी दिन गौतम स्वामी ___ "अरे! चार ज्ञान और चौदह पूर्वो का धारक तथा महावीर-तीर्थ सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गये थे। का संवाहक होकर मैं क्या करने लगा! मैं अनगार हूँ, क्या मुझे प्रभु के निर्वाण से जन-समाज अथाह दु:ख सागर में डूब गया था। विलाप करना शोभा देता है? करुणासिन्धु, जगदुद्धारक प्रभु को गौतम के सर्वज्ञ बनने से उसमें अन्तर आया। चतुर्विध संघ अत्यन्त उपालम्भ दूं; क्या मेरे लिये उचित है? अरे! जगदवन्द्य प्रभ की प्रसन्न हुआ और गौतम स्वामी की जय-जयकार करने लगा। कैसी अनिर्वचनीय ममता थी! अरे! प्रभु तो असीम स्नेह के सागर महावीर का निर्वाण और गौतम के ज्ञान का प्रसंग एकरूप थे. क्या वे कभी कठोर बनकर विश्वास भंग कर छोह दे सकते बनकर पवित्र स्मरण के रूप में सर्वदा स्मरणीय बन गया। हैं? कदापि नहीं। अरे! भगवान् ने तो बारम्बार समझाया था-गौतम! , गौतम का निर्वाण प्रत्येक आत्मा स्वयं की साधना के बल पर सिद्धि प्राप्त कर सकती श्रमण भगवान महावीर देहमुक्त सिद्ध हुए और गौतम स्वामी है। दूसरे के बल पर कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता और न कोई देहधारी मुक्तात्मा केवली हुए। महावीर तीर्थ-संस्थापक तीर्थकर थे किसी जीव की साधना के फल को रोक सकता है। मझे अभी तक और गौतम सामान्य जिन बने। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान की दिव्यप्रभा में गौतम स्वामी ने सर्वत्र विचरण किया। अनुभूति पूर्ण धर्मदेशना के माध्यम से सहस्रों आत्माओं को प्रतिबोध देकर सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करते रहे। महावीर - शासन को उद्योतित करते हुए तीर्थ को सुदृढ़ और सबल बनाया। गौतम स्वामी भगवान् महावीर के १४००० साधुओं, ३६००० साध्वियों, १५९००० श्रावकों और ३१८००० श्राविकाओं के एवं स्वयं तथा अन्य गणधरों की शिष्य परम्पराओं के एकमात्र गणाधिपति, संवाहक और सफल संचालक होते हुए भी सर्वदा निःस्पृही निरभिमानी एवं लाघव सम्पन्न हो रहे अन्त में, भगवान् के शासन की एवं स्वयं के शिष्य परिवार की बागडोर अपने ही लघुभ्राता आर्य सुधर्म को सौंप दी। यही कारण है कि भगवान् के प्रथम पट्टधर शिष्य एवं प्रथम गणधर होते हुए भी महावीर की परम्परा गौतम स्वामी से प्रारम्भ न होकर सुधर्म स्वामी के नाम से आज भी अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। केवली होने के पश्चात् वे १२ बारह वर्ष तक महावीर वाणी को जन-जन के हृदय की गहराइयों तक पहुँचाते रहे। महावीर की यशोगाथा को गाते रहे और शासन की ध्वजा को अबाधित रूप से फहराते रहे। गौतम स्वामी अपनी देह का विश्व के समस्त जीवों के कल्याण के लिये निरन्तर उपयोग करते रहे। बाणवें वर्ष की परिपक्व अवस्था में उन्होंने देखा कि देह - विलय का समय निकट आ गया है, तो वे राजगृह नगर के वैभारगिरि पर आये और एक मास का पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। अनशन के अन्त में देह त्याग कर गौतम स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया। गौतम की आत्म ज्योति, भगवान् महावीर और अनन्त मुक्तात्माओं की ज्योति में सदा के लिये मिल गई। महावीर के तुल्य, एकार्थ और विशेषता रहित बनकर प्रभु की वाणी को चरितार्थ कर दिया । इस प्रकार गौतम स्वामी ५० वर्ष गृहवास में, ३० वर्ष संयम पर्याय में और १२ वर्ष केवली पर्याय में कुल ९२ वर्ष की आयु पूर्ण कर ईस्वी पूर्व ५१५ में अक्षय सुख के भोक्ता बनकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। गौतम स्वामी के नाम की महिमा गौतम गणधर जीवन-साधना, योग-साधना और मोक्ष-साधना कर विश्व के कल्याणकारी साधक बन गये। उनकी अनुपम साधना महावीर शासन की परम्परा के लिये अनुकरणीय एवं आदर्श बन गई। उनकी प्रशस्त साधना और गुणों को देखकर जहाँ श्रमण केशीकुमार जैसे आचार्य "संशयातीत सर्वश्रुतमहोदधि" कह कर विद्वत खण्ड / १२४ अभिवन्दन करते हैं वहीं शास्त्रकार " क्षमाश्रमण महामुनि गौतम " एवं "सिद्ध, बुद्ध, अक्षीण महानस भगवान् गौतम" कहकर नमन करते हैं। परवर्ती आचार्यगण तो इन्हें "समग्र अरिष्ट / अनिष्टों के प्रनाशक, समस्त अभीष्ट अर्थ / मनोकामनाओं के पूरक, सकल लब्धि-सिद्धियों के भण्डार, योगीन्द्र, विघ्नहारी एवं प्रातः स्मरणीय मानकर गौतम नाम का जप करने का विधान करते हुए उल्ल हृदय से गुणगान करते हैं।" महिमा मंडित गौतम शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं- "गौ ” अर्थात् कामधेनुः ‘“त’” अर्थात् तरु / कल्पवृक्ष और "म" अर्थात् चिन्तामणि रत्न इसी अर्थ / भावना को प्रकट करते हुए विनयप्रभोपाध्याय गौतम रास में स्पष्टत: कहते हैं "चिन्तामणी कर चढ़ीयउ आज, सुरतरु सारइ बछिय काज, कामकुम्भ सहु वशि हुअए । कामगवी पूरइ मन- कामी, अष्ट महासिद्धि आवह धामि, सामि गोयम अनुसरउ ए ।।४२।। " विनयप्रभोपाध्याय यह भी विधान करते हैं- "ॐ हीं श्रीं अर्ह श्रीगौतमस्वामिने नमः” मन्त्र का अहर्निश जप करना चाहिए, इससे सभी मनोवांछित कार्य पूर्ण होते हैं। गौतम के नाम की ही महिमा है कि आज भी प्रातः काल में अहर्निश नाम स्मरण करने से सभी कार्य सफल होते दिखाई देते हैं। जैन समाज आज भी लक्ष्मी पूजन के पश्चात् नवीन बही-खाता में प्रथम पृष्ठ पर ही "श्रीगौतमस्वामीजी महाराज तणी लब्धि हो जो" लिखकर नाम महिमा के साथ अपनी भावि समृद्धि एवं सफलता की कामना उजाकर करते हैं। वास्तविकता यह है कि आज भी गौतम स्वामी का पवित्र एवं मंगल नाम जन-जन के हृदय को आह्लादित करता है। प्रतिदिन लाखों आत्माएँ आज भी प्रभात की मंगल बेला में भक्तिपूर्वक भाव-विभोर होकर नाम स्मरण करते हुए बोलती हैअंगूठे अमृत बसे, लब्धितणा भण्डार । श्री गुरु गौतम सुमरिये, वांछित फल दातार । नाम स्मरण के साथ जैन परम्परा में गौतम के नाम से कई तप भी प्रचलित है, जैसे १. वीर गणधर तप, २. गौतम पड़धी तप ३. गौतम कमल तप ४. निर्वाण दीपक तप इन तपों की आराधना कर भक्त जन गौतम के नाम का स्मरण-जप करते हुए साधना करते हैं। ऐसे महिमा मण्डित महामानव ज्योतिपुंज क्षमाश्रमण गणधर गौतम स्वामी को कोटिशः नमन । शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतिका बोथरा मजबूत नींव की आवश्यकता है, वैसे धार्मिक विकास क्रम के लिए मार्गानुसारी जीवन पूर्व-भूमिका है। अत: यहाँ देश विरति-धर्म की चर्चा करने से पहिले मार्गानुसारी जीवन के बारे में बताया जाता है। शास्त्र में मार्गानुसारी जीवन के ३५ गुण बताये हैं। इन ३५ गुणों को चार भागों में विभक्त किया जाता है। (१) ११ कर्त्तव्य (२) ८ दोष (३) ८ गुण (४) ८ साधना ११ कर्त्तव्य : (१)न्याय-सम्पन्न-विभव-गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने के लिये धन कमाना आवश्यक है। किन्तु न्याय-नीति से धन का उपार्जन करना यह मार्गानुसारी-जीवन का प्रथम कर्तव्य है। (२) आयोचित-व्यय-आय के अनुसार ही खर्च करना। तथा धर्म को भूलकर अनुचित खर्च न करना यह 'उचित खर्च' नामक दूसरा कर्तव्य है। सम्यक् चारित्र (३) उचित-वेश-अपनीमानमर्यादा के अनुरूपउचितवेशभूषा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार यथार्थरूप से अहिंसा, रखना। अत्यधिक तड़कीले-भड़कीले, अंगों का प्रदर्शन हो तथा सत्य आदि सदाचारों का पालन करना ही सम्यक्चारित्र है। इसके देखनेवालों को मोहवक्षोभ पैदा हो ऐसे वस्त्रों को कभी भी नहीं पहिनना। दो भेद हैं। (१) देशविरति और (२) सर्वविरति। (४) उचित-मकान-जोमकान बहुत द्वारवालान हो,ज्यादाऊँचा १. देशविरति-देश-अंश, विरति त्याग अर्थात् हिंसादि पापों नहो तथा एकदमखुला भी न हो ऐसे मकान उचित मकान हैं। चोर डाकुओं का आंशिक त्याग करना तथा व्रतों का मर्यादित पालन करना का भय न हो। पड़ोसी अच्छे हों, ऐसे मकान में रहना चाहिए। देशविरति चारित्र धर्म कहलाता है। (५) उचित-विवाह-गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिये यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद जीव को संसार आरंभ शादी करना पड़े तो भिन्न गोत्रीय किन्तु कुछ और शील में समान परिग्रह, विषय-विचार इत्यादि जहर जैसे लगते हैं। वह जीव प्रतिदिन तथा समान आचारवाल क साथ कर। इसस जावन म सुख-शान्ति विचार करता है कि "कब वह इस पाप भरे संसार का त्याग कर, रहता है। पति-पत्ना क बाच मतभद नहा हाता। मुनि बनकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना करेगा? यद्यपि वह (६) अजीणे-भोजन त्याग-जबतक पहिले खाया हुआ एकदम संसार का परित्याग करदे, यह सम्भव नहीं होता तथापि भोजन न पचे तबतक भोजन करें। विचार ही चलता रहता है। और जबतक सर्वत: पापों का त्यागकर (७) उचित-भोजन—निश्चित समय पर भोजन करें। प्रकृति साधु-जीवन न अपना ले तबतक वह जीव शक्य पाप त्याग रूप के अनुकूल ही खायें। निश्चित समय पर भोजन करने से भोजन देशविरति-श्रावक धर्म का अवश्य पालन करता है। इसमें अच्ची तरह पचता है, प्रकृति से विपरीत भोजन करने से तबियत सम्यक्त्वव्रत पूर्वक स्थूलरूप से हिंसादि का त्याग तथा सामायिकादि बिगड़ जाती है। भोजन में भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक करें। धर्म-साधना करने की प्रतिज्ञा की जाती है।" तामसी, विकारोत्पादक एवं उत्तेजक पदार्थों का सर्वथा त्याग करें। मार्गानुसारी जीवन-जैसे 'देशविरति' इत्यादि आचारधर्मों की (८) माता-पिता की पूजा-माता-पिता की सेवा-भक्ति करें। प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक है, वैसे सम्यग्दर्शन उनके खाने के बाद खायें, सोने के बाद सोयें। उनकी आज्ञा का से पूर्व 'मार्गानुसारी जीवन' आवश्यक है। सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र, प्रेमपूर्वक पालन करें। मोक्ष मार्ग है। उसके प्रति अनुसरण कराने वाला उसके लिए (९) पोष्य-पालक-पोषण करने योग्य स्वजन-परिजन, दासीयोग्य बनाने वाला जीवन मार्गानुसारी जीवन है। जैसे महल के लिए दास इत्यादि का यथाशक्ति पालन करें। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अतिथि-पूजक-गुरुजन, स्वधर्मी, दीन एवं दुखियों की (२) लज्जा-अकार्य करते हुए लज्जा का अनुभव हो। यथायोग्य सेवा करना। इससे अकार्य करते हुए व्यक्ति रुक जाते हैं। भविष्य में सर्वथा (११) ज्ञानी-चारित्री की सेवा-जो ज्ञानवान, चारित्री, अकार्य का परित्याग हो जाता है। तपस्वी, शीलवान् एवं सदाचारी हों, उसकी सेवा भक्ति करे। (३) सौम्यता-आकृति सौम्य-शान्त हो, वाणी मधुर एवं ८ दोषों का त्याग : शीतल हो, हृदय पवित्र हो। जो व्यक्ति ऐसा होता है, वह सबका (१) निन्दा त्याग—किसी की भी निन्दा न करें। निन्दा महान् स्नेह, सद्भाव एवं सहानुभूति पाता है। दोष है। इससे हृदय में द्वेष-ईर्ष्या बढ़ती है। प्रेमभंग होता है। नीच (४) लोकप्रियता-अपने शील, सदाचार आदि गुणों के द्वारा गोत्र कर्म बंधता है। लोकों का प्रेम संपादन करना चाहिये। क्योंकि लोकप्रिय धर्मात्मा (२) निन्द्य प्रवृत्ति का त्याग-मन, वचन या काया से ऐसी दूसरों को धर्म के प्रति निष्ठावान और आस्थावाला बना सकता है। दूसरा का कोई प्रवृत्ति न करें जो धर्म-विरुद्ध हो। अन्यथा निन्दा होती है, (५) दीर्घदर्शी-किसी भी कार्य को करने से पहिले, उसके पापबंध होता है। परिणाम पर अच्छी तरह विचार करनेवाला हो, जिससे बाद में दुखी (३) इन्द्रिय-निग्रह-अयोग्य विषय की ओर दौडती हुई न होना पड़े। इन्द्रियों को काबू में रखना। इन्द्रियों की गुलामी में न पड़ना। (६) बलाबल की विचारणा–कार्य चाहे कितना भी अच्छा हो (४) आन्तर-शत्रु पर विजय--काम, क्रोध, मद, लोभ, मान किन्तु उसके करने से पूर्व सोचें कि उस कार्य को पूर्ण करने की एवं उन्माद ये छ: आन्तर शत्रु हैं। इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त मेरे में क्षमता है या नहीं। अपनी क्षमता का विचार किये बगैर कार्य प्रारम्भ कर देने में नुकसान है। एक तो कार्य को बीच में छोड़ देना करना चाहिए। अन्यथा व्यावहारिक-जीवन में नुकसान होता है और आध्यात्मिक जीवन में पापबंध होता है। पड़ता है, दूसरा लोकों में हँसी होती है। (५) अभिनिवेश त्याग-मन में किसी भी बात का कदाग्रह (७) विशेषज्ञता-सार-असार, कार्य-अकार्य, वाच्य-अवाच्य, लाभ-हानि आदि का विवेक करना, तथा नये-नये आत्महितकारी ज्ञान नहीं रखना चाहिये, अन्यथा अपकीर्ति होती है। सत्य से वंचित रहना प्राप्त करना। सब दृष्टियों से भली प्रकार जान लेना विशेषज्ञता है। पड़ता है। (८) गुणपक्षपात-हमेशा गुण का ही पक्षपाती होना। चाहे (६) त्रिवर्ग में बाधा का त्याग-धर्म, अर्थ, काम में परस्पर फिर वे गुण स्वयं में हों या दूसरों में हों। बाधा पहुँचे, ऐसा कुछ भी नहीं करें। उचित रीति से तीनों पुरुषार्थों ८. साधना :को अबाधित साधना करनेवाला ही सुख शान्ति प्राप्त कर सकता है। (१) कृतज्ञता—किसी का जरा भी उपकार हो तो उसे कदापि (७) उपद्रवयुक्त स्थान का त्याग—जिस स्थान में विद्रोह पैदा नहीं भूलना चाहिये। उसके उपकारों का स्मरण करते हुए यथाशक्ति हुआ हो अथवा महामारी, प्लेग इत्यादि उपद्रव हो गया हो, ऐसे स्थान उसका बदला चुकाने को तत्पर रहना चाहिये। का त्याग कर देना। (२) परोपकार-यथाशक्य दूसरों का उपकार करें। (८) अयोग्य-देश-काल चर्या त्याग-जैसे धर्म विरुद्ध प्रवृत्ति (३) दया-हृदय को कोमल रखते हुए, जहाँ तक हो सके, का त्याग आवश्यक है, वैसे ही व्यवहार शुद्धि एवं भविष्य में पाप तन-मन-धन से दूसरों पर दया करते रहना चाहिये। से बचने के लिये देश, काल तथा समाज से विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग (४) सत्संग-संगमात्र दुख को बढ़ानेवाला है। कहा है भी आवश्यक है। जैसे एक सज्जन व्यक्ति का वेश्या या बदमाशों "संयोगमूला जीवेण पत्ता दुक्ख परंपरा"। किन्तु सज्जन पुरुषों का, के मुहल्ले से बार-बार आना जाना। आधी रात तक घूमना-फिरना सन्तों का संग भवदुख को दूर करने वाला एवं सन्मार्ग प्रेरक होता स्वयं बदमाश न होते हुए भी बदमाशों की संगति करना इत्यादि देश है, अत: हमेशा सत्पुरुषों का सत्संग करना चाहिये। काल एवं समाज के विरुद्ध है, अत: ऐसा नहीं करना चाहिये। (५) धर्मश्रवण-नियमित रूप से धर्मश्रवण करना चाहिये। अन्यथा कलंक इत्यादि की सम्भावना है। जिससे जीवन में प्रकाश और प्रेरणा मिलती रहे। इससे जीवन ८. गुणों का आदर : सुधारने का अवसर मिलता है। (१) पाप भय-"मेरे से पाप न हो जाय" हमेशा यह भय (६) बुद्धि के आठ गुण-धर्म श्रवण करने में, व्यवहार में बना रहे। पाप का प्रसंग उपस्थित हो तो-"हाय, मेरा क्या होगा?" तथा किसी के इंगित. आकार एवं चेष्टाओं को समझने में बुद्धि के यह विचार आये। ऐसी पापभीरूता आत्मोत्थान का प्रथम पाया है। आठ गण होना अति आवश्यक है। विद्वत खण्ड/१२६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहोऽर्थविज्ञान, तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ।। (क) शुश्रूषा – श्रवण करने की इच्छा होना शुश्रूषा है। इच्छा के बिना सुनने में कोई रस नहीं आता। (ख) श्रवण — शुश्रूषापूर्वक श्रवण करना । इससे सुनते समय - मन इधर-उधर नहीं दौड़ता है। एकाग्रता आती है। 1 (ग) ग्रहण सुनते हुए उसके अर्थ को बराबर समझते जाना। (घ) धारण-समझे हुए को मन में बराबर याद रखना। (ङ) ऊह — सुनी हुई बात पर अनुकूल तर्क दृष्टांत द्वारा विचार करना । - (च) अपोह सुनी हुई बात का प्रतिकूल तर्कों द्वारा परीक्षण करना कि यह बात कहाँ तक सत्य है ? (छ) अर्थविज्ञान - अनुकूल प्रतिकूल तर्कों से जब यह निश्चय हो जाय कि बात सत्य है या असत्य है? यह अर्थ विज्ञान है। (ज) तत्त्वज्ञान- -जब पदार्थ का निर्णय हो जाय तब उसके आधार पर सिद्धान्त निर्णय, तात्पर्य निर्णय, तत्त्व निर्णय इत्यादि करना तत्त्वज्ञान है। (७) प्रसिद्ध देशाचार का पालन जिस देश में रहते हो, वहाँ के (धर्म से अविरुद्ध) प्रसिद्ध आचारों का अवश्य पालन करें। (८) शिष्टाचार - प्रशंसा - हमेशा शिष्टपुरुषों के आचार का प्रशंसक रहें। शिष्टपुरुषों का आचार १- लोक में निन्दा हो, ऐसा कार्य कभी न करना। २दीन दुखियों की सहायता करना। ३ जहाँ तक हो सके किसी की उचित प्रार्थना भंग न करना। ४- निन्दात्याग । ५- गुण प्रशंसा ६- आपत्ति में धैर्य ७ - संपत्ति में नम्रता। ८ - अवसरोचित्त कार्य । ९-हित-मित वचन । १०- सत्यप्रतिज्ञ । ११ आयोचित व्यय १२ सत्कार्य का आग्रह १३-अकार्य का त्याग १४ बहुनिया, विषय कषाय, विकथादि प्रमादों का त्याग। १५ औचित्य आदि शिष्टों के आचार हैं हमेशा इनकी प्रशंसा करना, ताकि हमारे जीवन में भी ये आ जायें । 1 इस प्रकार धार्मिक जीवन के प्रारम्भ में मार्गानुसारिता के ३५ गुणों से जीवन ओतप्रोत होना आवश्यक है क्योंकि हमारा लक्ष्य श्रावकधर्म का पालन करते हुए संसार त्याग कर साधु जीवन जीने का है, वह इन गुणों के अभाव में प्राप्त नहीं हो सकता। इन गुणों के अभाव में यदि व्यक्ति किसी तरह उस ओर बढ़ भी जाय तो भी वहाँ से पुनः उसके पतन की संभावना रहती है मार्गानुसारी गुणों का इतना महत्व होते हुये भी कोई जरुरी नहीं है कि इन गुणों वाले व्यक्ति में सम्यग्दर्शन हो ही किन्तु इन गुणों की विद्यमानता में व्यक्ति सम्यग्दर्शन को पाने योग्य भूमिका पर अवश्य आ जाता है। इन गुणों से धार्मिक जीवन शोभनीय हो उठता है। १६, बोनफिल्ड लेन, कोलकाता- १ शिक्षा एक यशस्वी दशक सोचने की बात अब इन दो मेंढकों की भी सुन लीजिए जो किसी दुग्धशाला में क्रीम की नांद में जा पड़े। बहुत देर तक बाहर निकलने के लिए व्यर्थ ही हाथ पैर मारने के बाद उनमें से एक टर्राया, "अच्छा हो, हाथ पाँव मारना भी छोड़ दें। अब तो हम गए ही समझो। " दूसरे ने कहा, "पाँव चलाते रहो, हम किसी न किसी तरह इस झंझट से निकल ही जाएँगे ।" "कोई फायदा नहीं," पहला बोला। "यह इतना गाढ़ा है कि हम तैर नहीं सकते। इतना पतला भी है कि हम इस पर से छलांग नहीं लगा सकते इतना चिकना है कि रेंग कर निकल नहीं सकते। हमें देर सबेर हर सूरत में मरना ही है, तो क्यों न आज की ही रात सही।" और वह नांद की पेंदी में डूब कर मर गया । रहा लेकिन उसका दोस्त पाँव चलाता रहा, चलाता रहा, चलाता और सुबह होते न होते वह मक्खन के एक लोदे पर बैठा हुआ था जिसे उसने अपने आप मथ कर निकाला था। अब वह शान से बैठा चारों तरफ से टूट कर पड़ रही मक्खियों को खा रहा था। वास्तव में उस नन्हें मेंढक ने वह बात जान ली थी जिसे अधिकांश लोग नजरअंदाज कर जाते हैं अगर आप किसी काम में निरंतर जुटे रहें, तो विजयश्री आपके हाथ अवश्य लगेगी। विद्वत खण्ड / १२७ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्रीमद् राजचन्द्र को भूल जायेंगे; अन्याय को जन्म देंगे; जैसे लूट सकेंगे वैसे प्रजा को लूटेंगे। स्वयं पापिष्ठ आचरणों का सेवन करके प्रजा से उनका पालन करायेंगे। राजबीज के नाम पर शून्यता आती जायेगी। नीच मंत्रियों की महत्ता बढ़ती जायेगी। वे दीन प्रजा को चूसकर भंडार भरने का राजा को उपदेश देंगे। शील भंग करने का धर्म राजा को अंगीकार करायेंगे। शौर्य आदि सद्गुणों का नाश करायेंगे। मृगया आदि पापों में अंध बनायेंगे। राज्याधिकारी अपने अधिकार से हजारगुना अहंकार रखेंगे। विप्र लालची और लोभी हो जायेंगे। वे सद्विद्या को दबा देंगे, संसारी साधनों को धर्म ठहरायेंगे। वैश्य मायावी, केवल स्वार्थी और कठोर हृदय के होते जायेंगे। समग्र मनुष्यवर्ग की सद्वृत्तियाँ घटती जायेंगी। अकृत्य और भयंकर कृत्य करते हुए उनकी वृत्ति नहीं रुकेगी। विवेक, विनय, सरलता इत्यादि सद्गुण घटते जायेंगे। अनुकंपा के नाम पर हीनता होगी। माता की अपेक्षा पत्नी में प्रेम बढ़ेगा; पिता की अपेक्षा पुत्र में प्रेम बढ़ेगा; नियमपूर्वक पतिव्रत पालनेवाली सुन्दरियाँ घट जायेंगी। स्नान से पवित्रता मानी जायेगी; धन से उत्तम कुल माना जायेगा। शिष्य गुरु से उलटे चलेंगे। भूमि का रस घट जायेगा। संक्षेप में कहने का भावार्थ यह है कि उत्तम वस्तुओं की क्षीणता होगी और निकृष्ट वस्तुओं का उदय होगा। पंचमकाल का स्वरूप इनका प्रत्यक्ष सूचन भी कितना अधिक करता है? मनुष्य सद्धर्मतत्त्व में परिपूर्ण श्रद्धावान नहीं हो सकेगा; संपूर्ण तत्त्वज्ञान नहीं पा सकेगा; जम्बुस्वामी के निर्वाण के बाद दस निर्वाणी वस्तुओं का इस भरतक्षेत्र से व्यवच्छेद हो गया। पंचमकाल का ऐसा स्वरूप जानकर विवेकी पुरुष तत्त्व को ग्रहण करेंगे; कालानुसार धर्मतत्त्वश्रद्धा को पाकर उच्चगति को साधकर परिणाम में मोक्ष को साधेगे। निग्रंथ प्रवचन निग्रंथ गरु इत्यादि धर्मतत्त्व की प्राप्ति के साधन हैं। इनकी आराधना से कर्म की विराधना है। पंचमकाल कालचक्र के विचार अवश्य जानने योग्य हैं। जिनेश्वर ने इस कालचक्र के दो भेद कहे हैं- १. उत्सर्पिणी, २. अवसर्पिणी। एक-एक भेद के छ: छः आरे हैं। आधुनिक प्रवर्तमान आरा पंचमकाल कहलाता है और वह अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ आरा है। अवसर्पिणी अर्थात् उतरता हुआ काल। इस उतरते हुए काल के पाँचवें आरे में इस भरतक्षेत्र में कैसा वर्तन होना चाहिये इसके बारे में सत्पुरुषों ने कुछ विचार बताये हैं, वे अवश्य जानने योग्य हैं। वे पंचमकाल के स्वरूप को मुख्यत: इस आशय में कहते हैं। निग्रंथ प्रवचन में मनुष्यों की श्रद्धा क्षीण होती जायेगी। धर्म के मूल तत्त्वों में मतमतांतर बढ़ेंगे। पाखंडी और प्रपंची मतों का मंडन होगा। जनसमूह की रुचि अधर्म की ओर जायेगी। सत्य, दया धीरे-धीरे पराभव को प्राप्त होंगे। मोहादिक दोषों की वृद्धि होती जायेगी। दंभी और पापिष्ठ गुरु पूज्य होंगे। दुष्टवृत्ति के मनुष्य अपने प्रपंच में सफल होंगे। मीठे परंतु धूर्त वक्ता पवित्र माने जायेंगे। शुद्ध ब्रह्मचर्य आदि शील से युक्त पुरुष मलिन कहलायेंगे। आत्मिकज्ञान के भेद नष्ट होते जायेंगे। हेतुहीन क्रियाएँ बढ़ती जायेंगी। अज्ञान क्रिया का बहुधा सेवन किया जायेगा। व्याकुल करनेवाले विषयों के साधन बढ़ते जायेंगे। एकांतिक पक्ष सत्ताधीश होंगे। शृंगार में धर्म माना जायेगा। सच्चे क्षत्रियों के बिना भूमि शोकग्रस्त होगी। निस्सत्त्व राजवंशी वेश्या के विलास में मोहित होंगे। धर्म, कर्म और सच्ची राजनीति विद्वत खण्ड/१२८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्रीमद् राजचन्द्र पर उस ब्राह्मण के देखने में आये। इससे उसका मन किसी स्थान में नहीं माना; जहाँ देखे वहाँ दु:ख तो था ही। किसी भी स्थान में संपूर्ण सुख उसके देखने में नहीं आया। अब फिर क्या माँगें? यों विचार करते-करते एक महाधनाढ्य की प्रशंसा सुनकर वह द्वारिका में आया। द्वारिका महाऋद्धिसंपन्न, वैभवयुक्त, बागबगीचों से सुशोभित और बस्ती से भरपूर शहर उसे लगा। सुन्दर एवं भव्य आवासों को देखता हुआ और पूछता-पूछता वह उस महाधनाढ्य के घर गया। श्रीमान दीवानखाने में बैठा हुआ था। उसने अतिथि जान कर ब्राह्मण का सन्मान किया; कुशलता पूछी और उसके लिए भोजन की व्यवस्था करवाई। थोड़ी देर के बाद सेठ ने धीरज से ब्राह्मण से पूछा, "आपके आगमन का कारण यदि मुझे कहने योग्य हो तो कहिये।" ब्राह्मण ने कहा, "अभी आप क्षमा कीजिये। पहले आपको अपने सभी प्रकार के वैभव, धाम, बाग-बगीचे इत्यादि मुझे दिखाने पड़ेंगे; उन्हें देखने के बाद मैं अपने आगमन का कारण कहूँगा।" सेठ ने इसका कुछ मर्मरूप कारण जानकर कहा, "भले, आनंदपूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार करिये।' भोजन के बाद ब्राह्मण ने सेठ को स्वयं साथ चलकर धामादिक बताने के लिए विनती की। धनाढ्य ने उसे मान्य रखा; और स्वयं साथ जाकर बाग-बगीचा, धाम, वैभव यह सब दिखाया। सेठ की स्त्री, पुत्र भी वहाँ ब्राह्मण के देखने में आये। उन्होंने योग्यतापूर्वक उस ब्राह्मण का सत्कार किया। उनके रूप, विनय, स्वच्छता तथा मधुरवाणी से ब्राह्मण प्रसन्न हुआ। फिर उसकी दुकान का कारोबार देखा। सौ एक कारिंदे वहाँ बैठे हुए देखे। वे भी मायालु, विनयी और नम्र उस ब्राह्मण के देखने में आये। इससे वह बहुत संतुष्ट हुआ। उसके मन को यहाँ कछ संतोष हआ। सुखी तो जगत में यही मालूम होता है ऐसा उसे लगा। सुखसंबंधी विचार एक ब्राह्मण दरिद्रावस्था से बहुत पीड़ित था। उसने तंग आकर आखिर देव की उपासना करके लक्ष्मी प्राप्त करने का निश्चय किया। स्वयं विद्वान होने से उसने उपासना करने से पहले विचार किया कि कदाचित् कोई देव तो संतुष्ट होगा, परन्तु फिर उससे कौन-सा सुख माँगना? तप करने के बाद माँगने में कुछ सूझे नहीं, अथवा न्यूनाधिक सूझे तो किया हुआ तप भी निरर्थक हो जाये; इसलिए एक बार सारे देश में प्रवास करूँ। संसार के महापुरुषों के धाम, वैभव और सुख देखें। ऐसा निश्चय करके वह प्रवास में निकल पड़ा। भारत के जो जो रमणीय और ऋद्धिमान शहर थे, वे देखे। युक्तिप्रयुक्ति से राजाधिराजों के अन्तःपुर, सुख और वैभव देखे। श्रीमानों के आवास, कारोबार, बाग-बगीचे और कुटुम्ब परिवार देखे, परन्तु इससे उसका मन किसी तरह माना नहीं। किसी को स्त्री का दुःख, किसी को पति का दुःख, किसी को अज्ञान से दुःख, किसी को प्रियजनों के वियोग का दु:ख, किसी को निर्धनता का दुःख, किसी को लक्ष्मी की उपाधि का दुःख, किसी को शरीरसंबंधी दु:ख, किसी को पुत्र का दु:ख, किसी को शत्रु का दु:ख, किसी को जड़ता का दु:ख, किसी को माँ-बाप का दु:ख, किसी को वैधव्यदुःख, किसी को कुटुम्ब का दु:ख, किसी को अपने नीच कुल का दु:ख, किसी को प्रीति का दुःख, किसी को ईर्ष्या का दुःख, किसी को हानि का दु:ख, इस प्रकार एक, दो, अधिक अथवा सभी दु:ख स्थान-स्थान शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२९ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " श्रीमद् राजचन्द्र सलाई मात्र भी अदत्त न लेते हों, सर्वप्रकार के रात्रिभोजन के त्यागी हों, समभावी हों और नीरागता से सत्योपदेशक हों। संक्षेप में उन्हें काष्ठस्वरूप सद्गुरु जानना। पुत्र! गुरु के आचार एवं ज्ञान के संबंध में आगम में बहुत विवेकपूर्वक वर्णन किया है। ज्यों-ज्यों तू आगे विचार करना सीखता जायेगा, त्यों-त्यों फिर मैं तुझे उन विशेष तत्त्वों का उपदेश करता जाऊँगा। पुत्र-पिताजी! आपने मुझे संक्षेप में भी बहुत उपयोगी और कल्याणमय पथ बताया है। मैं निरन्तर इसका मनन करता रहूँगा। उत्तम गृहस्थ संसार में रहते हुए भी उत्तम श्रावक गृहाश्रम से आत्मसाधन को . साध्य करते हैं; उनका गृहाश्रम भी सराहा जाता है। ये उत्तम पुरुष सामायिक, क्षमापना, चौविहार-प्रत्याख्यान इत्यादि यम-नियमों का सेवन करते हैं। परपत्नी की ओर माँ-बहन की दृष्टि रखते हैं। यथाशक्ति सत्पात्र दान देते हैं। शांत, मधुर और कोमल भाषा बोलते हैं। सत्शास्त्र का मनन करते हैं। यथासंभव उपजीविका में भी माया, कपट इत्यादि नहीं करते। स्त्री, पुत्र, माता, पिता, मुनि और गुरु इन सबका यथायोग्य सन्मान करते हैं। माँ-बाप को धर्म का बोध देते हैं। यत्ना से घर की स्वच्छता, रांधना, शयन इत्यादि को कराते हैं। स्वयं विचक्षणता से आचरण करके स्त्री-पुत्र को विनयी और धर्मी बनाते हैं। सारे कुटुंब में ऐक्य की वृद्धि करते हैं। आये हुए अतिथि का यथायोग्य सन्मान करते हैं। याचक को क्षुधातुर नहीं रखते। सत्पुरुषों का समागम और उनका बोध धारण करते हैं। निरंतर मर्यादासहित और संतोषयुक्त रहते हैं। यथाशक्ति घर में शास्त्रसंचय रखते हैं। अल्प आरंभ से व्यवहार चलाते हैं। ऐसा गृहस्थाश्रम उत्तम गति का कारण होता है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। । हा सद्गुरुतत्त्व पिता, पुत्र और गुरु तीन प्रकार के कहे जाते हैं-१. काष्ठस्वरूप, २. कागजस्वरूप, ३. पत्थरस्वरूप। १. काष्ठस्वरूप गुरु सर्वोत्तम है; क्योंकि संसाररूपी समुद्र को काष्ठस्वरूप गुरु ही तरते हैं; और तार सकते हैं। २. कागजस्वरूप गुरु मध्यम हैं। ये संसारसमुद्र को स्वयं तर नहीं सकते, परंतु कुछ पुण्य उपार्जन कर सकते हैं। ये दूसरे को तार नहीं सकते। ३. पत्थरस्वरूप गुरु स्वयं डूबते हैं और पर को भी डुबाते हैं। काष्ठस्वरूप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवान के शासन में है। बाकी दो प्रकार के जो गुरु हैं वे कर्मावरण की वृद्धि करनेवाले हैं। हम सब उत्तम वस्तु को चाहते हैं; और उत्तम से उत्तम वस्तु मिल सकती है। गुरु यदि उत्तम हों तो वे भवसमुद्र में नाविकरूप होकर सद्धर्मनाव में बैठाकर पार पहुँचा देते हैं। तत्त्वज्ञान के भेद, स्व-स्वरूपभेद, लोकालोक विचार, संसार स्वरूप यह राब उत्तम गुरु के बिना मिल नहीं सकते। अब तुझे प्रश्न करने की इच्छा होगी कि ऐसे गुरु के लक्षण कौन-कौन से हैं? उन्हें मैं कहता हूँ। जो जिनेश्वर भगवान की कही हुई आज्ञा को जानते हों, जानते ही, उसे यथातथ्य पालते हों और दूसरे को उसका उपदेश करते हों, कंचनकामिनी के सर्वभाव से त्यागी हों, विशुद्ध आहार-जल लेते हों, बाईस प्रकार के परिषह सहन करते हों, क्षांत, दाँत, निरारंभी और जितेन्द्रिय हों, सैद्धान्तिक ज्ञान में निमग्न रहते हों, मात्र धर्म के लिए शरीरं का निर्वाह करते हों, निग्रंथ पंथ पालते हुए कायर न हों, विद्वत खण्ड/१३० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O B. B. Das Morning Walk Professor William Fitzgibbon of Physiological Department of Norway University published a paper under the heading of condensed family health stating that striding the most natural exercise of all. Our ancestors were firm believers in value of walking. Yet they didn't know the precise physical effects of walking modern medicine does and today doctors make assertions about the benefits of basic walking that have a sound basis in medical fact. Noted heart specialist Paul Dudley White said, 'It is the easiest exercise for most individuals, one that can be done without equipment except good shoes, in most terrains and weather and into very old age'. It is not merely walking that they are talking about it is brisk walking, which brings the human stride into play. Each of us has his own stride - and hitting it, for one long distance or several short distances in the course of a day. bring to us the boons of this time saving, untiring, pleasurable motion that is so natural to the human species. . No other creature plants down a heel, rolls on a side to a spring big toe in a movement in which both are on the ground together only 25 percent of the time, keens articulating, muscles flexing easily, pelvic saddie, swiveling in marvel of simple engineering. Now a days, for good reason man has applied the term 'hit your stride' to describe times when he has been in override and operating smoothly, doing more work with less effort and fewer mistakes. 'I have two doctors' goes the old say. 'my left leg and my right.' Dr. White backed this up, saying. 'A vigorous five: mile will do more good for an unhappy but otherwise healthy adult that all the medicine and psychology in the world' Here's why striding improves the blood circulation, All of the benefits from daily striding are closely keyed to the increased oxygen intake, greater heart exercise and better blood circulation that this manual exercise provides. The human muscular system acts as auxiliary blood pump returning blood to the heart. Since the leg muscles are the largest and most powerful muscles in the body, their work is enormously important. But if they are not being used with any vigor, then they are not squeezing the blood back toward the heart with any force. Brisk walking is also important as it affects the human capillary system. There are 60.000 miles of blood vessels in the body, mostly capillaries - those minute vessels responsible for irrigating the flesh. Only a few capillaries will open when a muscle is at rest. perhaps 50 times as many will open when the muscle is being exercised. In 1965, physiologist K. Large Anerson of the University of Bergen, Norway, reported that a sturdy daily activity such as striding will not only awaken dormant capillaries but apparently increase the number of these vessels that nourish the muscles. Striding clears the mind and improves the disposition. Fifth-century Greek believed that walking made their minds lucid and helped them crack problems of logic and philosophy. It is talkdore knowledge that knowledge also helps dispel a temper, and when we go off down the block to 'cool off' we strode- Dr. White emphasized striding's tranquilizing effects. 'A brisk long walk in the evening', he said 'may be more helpful as a hypnotic than any medicine, highball of TV show' Striding cuts fatigue. Once striding has been entrenched as a daily habit, you get bonuces from being shape, Few constant brisk walkers need laxatives. Lower back muscles, which benefit from striding, are likely to resist ache, even in Old age and to permit angler bending movement. Above at the in-shape body is not easily fatigued. Even when pushed hard, it is able to call on special reserves and keep from being overwhelmed by weariness. A prime point in favour of brisk walking is that you don't have to schedule it you can just incorporate it in your daily life-style. If you have a few blocks to go on an errand, walk them briskly. The short distance between transportation point and office. the same hit your stride down corridors. don't amble. Since a short walk is worth two miles of ambling, you can easily get in minimal amount of good exercise everyday. And, as striding becomes a habit, you will soon get more exercise, willingly. शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१३१ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You will become aware that your mind is clearer, that your eyes are brighter and that you are adding to your body's resources. Not bad benefits and they are all within walking distance. So far, the scientists have discovered that morning walk is the easiest exercise to deliver the maximum benefit. Metabolically walking helps in controlling weight, blood sugar and cholesterol levels. The common benefits available are as follows: 1) Reduces cholesterol 2) Improves heart rate 3) Enables better blood circulation 4) Acts as a tranquilizer It has also been established that brisk walk can burn upto 100 cal/mile or 300 cal/hr. In otherwords, it is the perfect complement to a sensible diet to lose weight and keep it off. The heart also works faster to transport oxygen rich blood from lungs to its muscles reducing pressure and resting heart rate. Better circulation is also affected to the arms and legs and it increases the size and improves the efficiency of the tiny muscles that require blood for cellular respiration. Psychologically too, walking generates an overall feeling of well being and brings relief from depression, anxiety and stress by producing endorphins, the body's natural tranquilizer. The research group consisting of eminent scientist of the department of Calcutta University carried out necessary experiments by selecting two groups of healthy and nonsmoking persons between 25-35 and 33-34 age group while presenting the results of their studies in the third congress of the federation of Indian physiological societies held in Calcutta they revealed that the assigned exercises of various intensities are as follows: The first group worked out to an extent, which increased their heart rate by about 50-60 percent. In the second group the peak increase in the heart rate was 5070 percent. These two groups also performed exercises for 15, 30 and 45 days at the rate of three days per week. Then the lipid profiles of the persons before and after the exercise were carefully analyzed. The analysis revealed a really new insight into the change in the lipid profiles. The beneficial change occurred when the intensity of exercise was medium or 60 percent of the peak heart rate that is after having an exercise of 30 minutes a day. Curiously the low and medium intensity of exercise for a short duration, a good amount of reduction in small atherogenic lipids like low-density lipoprotein was observed. At the same time, the level of blood cholesterol also increased in the blood. In almost all the persons anti-atheroganic lipids were increased following the exercised. Fat reduction was also noticed considerably. विद्वत खण्ड/ १३२ Further experiments also revealed that working in gymnasiums and clubs are not only procedure but specified walking condition can produce these benefits. Further regular workouts may not be possible for everyone because of the constraints of time, nature of occupation, economic status and so on. Further experiments revealed that walking 13km/week is enough to burn all fats. Summing up of the above facts it is now established that a human body can be divided in three major parts i.e. 1) The brain from which the blood vessels of about 60,000 miles originates extending to other parts. 2) The heart (life line) which maintains the life line. 3) Leg muscles which produces requisite vibration to enable the blood flow to the heart by capillary action. Considering the details the following actions of the walkers is a must: a) Proper size boots should be used to enable the walker to maintain constant heel pressure. b) A walker while performing walk should do it without any conversation which anybody because the blood vessels of the heart might be distributed causing hindrance to the blood flow in the system. Scientists believe that walkers should be served with the following warnings: 'Dear walker if you want to achieve benefits the above two methods are must for you. Accept it and get benefits, because there is no compromising formula. शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jatanlal Rampuria Honour the time The bounties of nature are immense. They are really immeasurable. The life, the life-like earth, the life-like sky & the wonderful contrasts occupying all these - contrasts of the corpulent & the sublime of the moving & the static of the mystic & the manifest. All so fascinating and so beautifully laid in perfect harmony with no chaos, confusion or conflict in between. There is however one thing the nature has been miser in blessing the man with and that is time. The scarcest thing at man's disposal is time. Yet he spends it most prodigally & most wastefully. What is still more unfortunate is that most of us do not even realise how unwisely and unknowingly we allow it to slip out of our hands unutilised. Kay Lyons has said, "Yesterday is a cancelled cheque, tomorrow is a promissory note, today is the only cash you have". The only day of any importance in one's life is today. Tomorrow is a tricky illusion. The promises of tomorrow are seldom whole-hearted. Let us therefore sit today. Today itself to make ourselves available to learn from the experiences & expressions of the wise who thought of time as a priceless possession & who saw it passing fast & based on their this realisation who learned to command it. Time is something whole. Management of time is, therefore, management of the whole. Time management is, in fact, self-management, is career-management and, in one word, is life management. It simply means installing a regulator in life to strike a blance in all its manifestaiotns - शिक्षा एक यशस्वी दशक - emotional, behavioural and functional. One cannot develop his faculties and make use of his potentialities without effectively managing time. Cure is possible only after diagnosing the disease. "I am horribly busy" or "I did not get time" - such claims are often an unconscious admission of inability and lack of competence. It is basic, therefore, to first realise where we lack and where we fitter away the time. The problem starts when we become unconsious of the fact that a day consists of twenty four hours and not of eight-hours which he spend on our prime job. What happens to the other sixteen hours daily? Assuming that one requires eight hours sleep and another 4 hours for eating, dressing moving to and form etc. we have still four hours in hand left daily. To this may be added another 8 hours each of Sunday and other holidays. Just a little calculation and we will be surprised to know that hours of spare time in a week is just equal or sometimes more than the time we spend on our job proper. A very valid argument obstructs our way here. One needs rest & relaxation. Recreational pastimes, reading newspapers & magazines and accommodating social calls also demand their dues. Remaining indifferent to the obligations of hospitality is also not easy. When to do all this if there is no spare time? This is perfectly right. But we have only to pause and think whether we are rightly using our time in these pursuits. Relaxation should not be confused with idleness. It means relieving tension. We can make the work itself a source of relieving tension, if we develop a fondness for the job in hand and do it with full interest. In recreational pastimes playing badmintion or tennis for an hour should be preferred to watching the day long cricket match. Likewise, playing a musical instrument for an hour is better than viewing a 3 hour film and so also is walking half-an hour in the garden or the on the beach than just sitting one hour there. Light material magazines & newspapers are produced with rapidity and should be read with rapidity. Newspapers can be glanced through in lunch interludes or while waiting for something or in other blank periods. It is unfruitful to remain gluded to them for hours at a stretch. At social functions we should try to meet with experienced and learned persons. Discoursing and exchanging views with such persons is quite a gainful employment of time. Hospitability also does not mean observing long formalities and allowing the visitor to steal our time as he wishes. It is not just wise to always stand on ceremonies. Six, seven or eight spare hours a day is an enormous time. But it is melted away commonly in excessive sleep, engaging in petty works which could well be delegated to others, waiting for the tea to arrive offered unnecessarily to a visitor dropping in jsut for nothing, gossiping on no-sense subjects, playing cards, flirting with a magazine or sometimes विद्वत खण्ड १३३ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ simply idling. At the work place too, time is wasted in rewriting letters first dictated without full facts, in waiting alongwith others for a file which should have been on the table before the conference started, in the staff interrupting too often for seeking clarification on issues which should have been elaborately explained at the start or in stretching 10 minutes coffee break to half an hour gossip or in just searching out files, papers, equipments and appliances not kept carefully. The most painful waste of time is however on a different count and that is indecisiveness. Moving the thoughts just forth & back without settling down either on 'yes' or on 'no' is not playing a fair game with time. The art of learning to quickly choose between the alternatives is the art of all arts. To decide fast about what to do, when to do and to get into the appropriate frame of mind of productive work can only ensure proper use of time. The examples cited above are just illustrative. A close observation of one's own habits and his own surroundings will reveal the spots responsible for waste of time affecting him. We shall now concentrate on factors fundamental in timeplanning. The basic points are counted under: 1. Puncuality is the starting point. It means moving in harmony with the steps of time. Time does not remain in good company of those who cannot keep appointments or too often fail to maintain schedules. 2. Budgeting the daily time and allocating it to the day's work with an intention to stick to it is the second step. This done, it should be given the force of law which should not be disobeyed. 3. Planning an over-crowded day causes tension and results in early fatigue. There should be some breathing space in switching over from one job to other. This also facilitates accommodating unexpected calls & emergencies. 4. Regular daily work instils a sense of competence and confidence. This eventually results in more output and saves time. 5. One thing at a time' is the golden rule. Diversion to other matters, leaving the work in hand half-done, is the wrong way of handling the things. 6. Priorities should be determined and urgent matters should be given the first attention. To ensure better concentration on serious matters, it however becomes advisable at times to finish easy and low-time deamding things at the start. 7. Keeping a broad general picture of the month's work and, if possible, of the year's agenda in view and long range objectives in memory eanbles unconscious mind विद्वत खण्ड १३४ to detect flaws & eliminate errors. It ensures time performance too. 8. Temptations towards too many outside interest is wrong. It is vital to eliminate the unessentials & unimportant. 9. Estangling in too much details or undue enquiries into trifles and involvement in wrong type of works or at wrong stage take heavy toll of time with little gains in return. 10. The best way to spending spare time is to devote it to certain works of art or beauty or usefulness so that one satisfies not only one's creative urge but also produces something of value to the society. Four Five hours a week taken from frivolous pursuits and profitably employed would enable any man of ordinary capacity to master a complete science. 11. Reading self-development-course books enhances knowledge and experience which can act as a true guide in all spheres through out life. Acquiring diversified knowledge in spare moments and learning from the wisdom of others is like putting money in bank. Some day it yields a rich harvest. 12. Terminating overlong conversations, lengthy interviews and unnecessary interruptions without this being felt by the person involved is a skill to be perfected. Not allowing others to steal our time is important and so also is to cut down self-inflicted interruptions. 13. Effective time-management requires a certain amount of knowledge about the work one is engaged in. Also knowing one's own limitations in terms of resources, time & energy helps not going stray and awry. The work should be planned within these limitations. It is no use making grandiose plans which can never be put into effect. 14. Ensuring right infrastructure and proper arrangements that permit uninterrupted concentration during the period of actual work immensely saves time, labour and cost. Time honours those who honour the time. शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHANWARLAL NAHATA Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरक व्यक्तित्व आपके व श्री अगरचंदजी नाहटा के जीवनभर के श्रम से ६०००० हस्तलिखित ग्रन्थों, लाखों मुद्रित पुस्तकों व अद्वितीय प्राचीन कलाकृतियों आदि से सुसज्जित व सुशोभित है। ८५ वर्ष तक की उम्र तक आपने निरन्तर भ्रमण किया। भ्रमण का मुख्य उद्देश्य शोध ही रहा, चाहे वो पुरातत्व शिलालेखों का हो, साहित्य का हो, मूर्तियों का हो, खुदाई में प्राप्त पुरावशेषों का हो, तीर्थों का हो या इतिहास का हो। श्री नाहटा द्वारा लिखित, संपादित एवं अनूदित कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का परिचय निम्नलिखित है। जो समय की शिला पर लिखे गये अमिट लेख हैं एवं उनके कालजयी व्यक्तित्व का प्रामाणिक दस्तावेज भी। १. द्रव्यपरीक्षा और धातूत्पति-इसके मूल लेखक ठक्कुर फेरु धांधिया हैं (रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह का दूसरा व तीसरा भाग) श्री भंवरलाल नाहटा ने लगभग ५५वर्ष पूर्व अपनी शोधपिपाषा की तृप्ति हेतु कलकत्ता के एक ज्ञानभण्डार को खंगालते हुए छ: सौ वर्ष पुरानी पाण्डुलिपि खोज निकाली और उसकी प्रेसकापियाँ कालजयी श्री भंवरलाल नाहटा कर पुरातत्वाचार्य मुनि जिनविजयजी के पास प्रकाशनार्थ भेजी। वे मूल ग्रंथ सन् १९६१ में रत्नपरीक्षादि सप्रग्रन्थ संग्रह नाम से जैन संघ के वयोवृद्ध अग्रणी, लब्धि प्रतिष्ठित इतिहासकार, जैन । राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, द्वारा प्रकाशित हुए। धर्म दर्शन एवं साहित्य के मर्मज्ञ, साहित्य तपस्वी, साधक, निष्काम २. मातृकापद शृंगार रसकलित गाथा कोश-यशोभद्र के कर्मयोगी, पुरातत्ववेत्ता, बहुभाषाविद, आशुकवि, साहित्यवाचस्पति शिष्य वीरभद्र कृत यह कृति विशुद्ध रूप से एक शृंगारपरक रचना श्रावक श्रेष्ठ श्री भंवरलालजी नाहटा का दिव्य शान्तिपूर्ण देहावसान। है। इस गाथाकोश की विशेषता यह है कि इसमें मातृका पदों अर्थात् सोमवार, माघ कृष्णा चतुर्दशी सं० २०५८ दिनांक ११ फरवरी स्वर और व्यंजनों में से क्रमश: एक-एक को गाथा का आद्यअक्षर २००२ को कोलकाता में हो गया। बनाकर श्रृंगारपरक गाथाओं की रचना की गयी है। इसमें कुल ४० __आपने अपने जीवनकाल में हजारों शोधपूर्ण लेखों, सैकड़ों गाथाएँ हैं। गाथाएँ शृंगारिक हैं, फिर भी वे मर्यादाओं का अतिक्रमण ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन किया। आपने अनेक नहीं करती। जहाँ मर्यादा से बाहर कोई संकेत करना होता है कवि शोधार्थियों को मार्गदर्शन देकर विभिन्न विषयों पर शोध करवाकर । उसे अपने मौन से ही इंगित कर देता है जैसे इस गाथाकोश के अन्त पी-एच.डी आदि उपाधियों से गौरवान्वित करवाया। में कवि कहता हैब्राह्मी, खरोष्टी, देवनागरी आदि प्राचीन लिपियाँ, संस्कृत, पच्छा जं तं उ वित्तं अकहकहा कहिज्जन्ति अर्थात् उसके प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्टी, राजस्थानी, गुजराती, बंगाली आदि पश्चात् जो कुछ घटित हुआ वह अकथनीय है कैसे कहा जाय? भाषाओं में लेखन व उपरोक्त भाषाओं के साथ मराठी आदि भाषा इस प्रकार मूक भाव से भी कथ्य को अभिव्यक्ति दे देना. यह कवि का आपने अनुवाद किया। पूर्ण सतर्कता हेतु लेखन, सम्पादन आदि की सम्प्रेषणशीलता का स्पष्ट प्रमाण है। के कार्यों की प्रूफरीडिंग भी स्वयं ही करते थे। आप द्वारा लिखित ३. सिरी सहजाणंदघन चरियं-कलकत्ता विश्व विद्यालय के शोधपूर्ण लेख व ग्रन्थ अनेक न्यायालयों में साक्षी के रूप में स्वीकार भाषा विभाग के प्रोफेसर एस.एन. बनर्जी ने इस ग्रन्थ की भूमिका किये गये। भारत के अलावा विश्व के कई विश्वविद्यालयों के में पाठ्यक्रम में आपके शोधपूर्ण लेखों को सम्मिलित किया व संदर्भ श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा रचित श्री सहजाणंदघनं चरियं के रूप में उल्लेखित किया। आपके चाचा श्री अभयराजजी नाहटा । वर्तमानकाल में रचित एक अपभ्रंश काव्य है। मूलत: यह काव्य की स्मृति में संस्थापित बीकानेर का विश्वप्रसिद्ध अभय जैन ग्रन्थालय । अपभ्रंश की अंतिम स्तर की भाषा अवहट्ट (अपभ्रंश) में रचित है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१३५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यापति की कीर्तिलता व पिंगलाचार्य की प्राकृत पिंगल इसी भाषा ७. आनन्दघन चौबीसी-परम अवधूत योगिराज में रचित है। श्री नाहटाजी इस काल के विद्यापति या पिंगलाचार्य थे। आनन्दघनजी रचित चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन एवं पदों का न यह महाकाव्य २४४ श्लोकों में हिन्दी अनुवाद सहित रचित है। केवल जैन अपितु भारतीय समाज में आज तक एक विशिष्ट स्थान पूर्वकालीन कवियों की रचनाओं की तुलना में श्री नाहटाजी का रहा है। ये स्तवन मुमुक्षु एवं साधकों के हृदय को झंकृत करनेवाले सहजाणंदघन चरियं काव्य का मान किसी अंश में कम नहीं है। और आत्मानुभूति को और बढ़ाने वाले होने से मानस को भक्ति रस कवित्व की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अतुलनीय है। से आप्लावित कर देते हैं। काव्य ग्रन्थ के शब्द अत्यन्त सहज व सरल हैं। जिससे भाषा आनन्दघनजी के स्तवनों और पदों की भाषा को देखते हुए यह का सामान्य ज्ञान रखने वाले भी इसका रसास्वादन कर सकेंगे। उपमादि स्पष्टत: सिद्ध है कि ये राजस्थान प्रदेश के ही थे। अलंकारों का भी कोई अभाव नहीं है। छन्द सरल व त्रुटिहीन है। ८. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि-यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ श्री ४. अलंकार दप्पन-यह प्राकृत भाषा में रचित एक अभय जैन ग्रन्थालय के सप्तम पुष्प के रूप में प्रस्फुटित हुआ है। अलंकार ग्रन्थ है। जिसका हिन्दी अनुवाद संस्कृतच्छाया सहित श्री । इसका प्रकाशन वर्ष सं० १९९२ है। यह ग्रन्थ श्री भंवरलालजी नाहटाजी ने किया है। नाहटा ने अपने काका श्री अगरचन्दजी नाहटा के साथ लिखा है। इस ग्रन्थ में अलंकार सम्बन्धी जो विवरण दिया गया है इससे । लेखकद्वय ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में बहुमूल्य शोधसामग्री इसका निर्माणकाल ८वी, ११वीं शताब्दी का माना जा सकता है। प्रस्तुत की है। उन्होंने प्रश्न उठाये हैं और उनका विद्वतापूर्ण रचना से कर्ता का पता नहीं चलता। प्राकृत भाषा की अलंकार । समाधान-उत्तर भी दिया है। इसकी प्रस्तावना श्री मोहनलाल दलीचंद संबंधी यह एक ही रचना जैसलमेर के बड़े ज्ञान भण्डार में ताड़पत्रीय देसाई ने लिखी है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ संस्कृत, प्रति में प्राप्त हुई है। प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, बंगला, अंग्रेजी, प्राचीन भाषाओं और ५. विविध तीर्थ कल्प-प्राकृत व संस्कृत भाषा में जिन- सैकड़ों हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियों, प्रशस्तियों, पट्टावलियों, प्रभसूरि विरचित कल्प प्रदीप के इस ग्रन्थ का अनुवाद श्री नाहटाजी । विकीर्ण पत्रों, रिपोर्टों आदि के गहन अध्ययन, चिन्तन और मनन के ने सन् १९७८ में कर श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ आधार पर लिखा गया है। अत: इसकी प्रामाणिकता निस्सन्देह है। मेवानगर राजस्थान से प्रकाशित करवाया। ९. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह- श्री भंवरलालजी नाहटा कल्पप्रदीप अथवा विशेषतया प्रसिद्ध विविध तीर्थ कल्प नामक एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा के सहसम्पादन में सं० १९९४ में श्री यह ग्रन्थ जैन साहित्य की एक विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक और अभय जैन ग्रन्थालय के अष्टमपुष्प के रूप में इस ग्रन्थ रत्न का भौगोलिक दोनों प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं प्रगटन हुआ है। पुस्तक का समर्पण श्री दानमलजी नाहटा की हुआ। यह ग्रन्थ विक्रम १४वीं शताब्दी में जैन धर्म के जितने स्वर्गस्थ आत्मा को उनके अनुज और उक्त ग्रन्थ के प्रकाशक श्री पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध-२ तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्ध की शंकरदानजी नाहटा ने किया है। प्राय: एक प्रकार की गाईड बुक है। यह ग्रन्थ तीन दृष्टियों से अत्यन्त उपयोगी है। पहला दृष्टिकोण ६. बानगी-नाहटाजी की बानगी-राजस्थानी भाषा में रचित ऐतिहासिकता का है, द्वितीय भाषिकता का और तृतीय साहित्यिकता संस्मरणों, रेखाचित्रों एवं लघुकथाओं का सरलतम संकलन है का। इसके कतिपय साधारण कार्यों के अतिरिक्त प्राय: सभी काव्य जिसमें इन्होंने अपनी मातृभाषा की विविध विधाओं में कलात्मकता ऐतिहासिक दृष्टि से संग्रह किये गये हैं। अद्यावधि प्रकाशित संग्रहों को उकेरा है। राजस्थान साहित्य के श्रेष्ठ साहित्य प्रकाशन भण्डार से भाषा साहित्य की दृष्टि से यह संग्रह सर्वाधिक उपयोगी है। श्री में यह एक महत्वपूर्ण अभिवृद्धि है। हीरालाल जैन ने इसकी विद्वतापूर्ण प्रस्तावना लिखी है। ग्रन्थ में उन यह संकलन वस्तुतः लोक जीवन एवं लोक साहित्य से पाण्डुलिपियों का परिचय दिया गया है जिनका उपयोग इस ग्रंथ में सशक्त अनेक जीवन्त, सरस और सहज चित्रों की बानगी प्रस्तुत किया गया है। प्रकाशक, पाण्डुलिपि, ताड़पत्र, हस्तलिपि आदि से करती है और इस प्रकार मरुधरा की धरती के स्वर को अधिक सम्बद्ध एकादश चित्रों से यह ग्रन्थ सुसज्जित है। प्राणवान बनाती है। १०. समय सुन्दर कृत कुसुमांजलि-श्री भंवरलालजी प्रस्तुत कृति शांतिलाल भारद्वाज राकेश द्वारा (राजस्थान साहित्य नाहटा एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा के संग्रहत्व एवं सम्पादकत्व में अकादमी संगम) उदयपुर से १९६५ में प्रकाशित करवाई गई। श्री अभय जैन ग्रन्थालय के पंचदशम पुष्प के रूप में प्रस्फुटित यह विद्वत खण्ड/१३६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति अपना विशेष महत्व रखती है। इसमें कविवर समयसुन्दरजी चित्रफलक पर उनका कठिन श्रम झलकता है और उनकी अगाध की ५६३ लघु रचनाओं का संग्रह है। डॉ० हजारीप्रसादजी द्विवेदी विद्वता ग्रंथ के आद्यान्त भाग में । इस उत्कृष्ट कोटि के ग्रन्थ प्रणयन ने इसकी भूमिका लिखकर इस ग्रन्थ के महत्व का प्रतिपादन किया के लिए नाहटा द्वय की जितनी भी प्रशंसा की जाय, वह थोड़ी है। है। इसमें सन् १६८७ के अकाल का बड़ा ही जीवन्त वर्णन है। उसमें करीब १०० चित्र भी दिये गये हैं। वह बड़ा हृदयद्रावक और प्रभावक है। वस्तुत: नाहटाजी ने इस ग्रन्थ १४. सीताराम चौपाई-इस ग्रन्थ का सम्पादन भंवरलालजी का सम्पादन-प्रकाशन करके हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के सामने नाहटा एवं अगरचंदजी नाहटा ने किया है। इसका प्रकाशन सादूल बहुत अच्छी सामग्री प्रस्तुत की है। राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट से संवत् २०१९ में हुआ है। ११. युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि-श्री भंवरलालजी नाहटा महोपाध्याय कविवर समयसुन्दरजी १७वीं सदी के महान् एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा द्वय ने यह ग्रन्थ लिखा है। इसका विद्वान् संत थे। आपका साहित्य बहुत विशाल है। आपने गद्य और प्रकाशन श्री अभय जैन ग्रन्थमाला के बारहवें पुष्प के रूप में हुआ पद्य दोनों ही विधाओं में साहित्य सर्जना की थी। आपकी पद्य है। इसे लेखकों ने अपने स्व० पिता एवं पितामह श्री शंकरदानजी रचनाओं में सीताराम चौपाई सबसे बड़ी रचना है। इसका परिमाण नाहटा को समर्पित किया है। इसका प्रकाशन संवत् २००३ में ३७०० श्लोक परिमित है। जैन परम्परा की राम कथा को इस हुआ है। महाकाव्य में गुंफित किया गया है। इस ग्रन्थ को लिखने के लिए लेखकद्वय को पर्याप्त श्रम करना १५. रत्न परीक्षा-यह ग्रन्थ ठक्कुरफेरु विरचित लगभग पड़ा, तदर्थ जैसलमेर की यात्रा कर प्राचीन ज्ञान भण्डारों से चरित्र आठ सौ वर्ष प्राचीन है। मूल प्राकृत भाषा में रचित है। इसका हिन्दी नायक से सम्बन्धित महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की। इस पुस्तक की अनुवाद श्री अगरचन्द भँवरलाल नाहटा ने किया है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सूरिजी से सम्बन्धित पूर्ण प्रमाणित रत्नपरीक्षा सम्बन्धी इने गिने ग्रन्थों में इस ग्रन्थ का महत्वपूर्ण यह प्रथम शोधपूर्ण ग्रन्थ है। स्थान है। पुस्तक की भूमिका में विद्वान् सम्पादकों ने रत्न परीक्षा १२. क्यामखां रासो-इस ग्रन्थ के मूल रचयिता मुस्लिम कवि सम्बन्धी हिन्दी साहित्य के ग्रन्थों का सविवरण उल्लेख किया है। जान हैं। इसका सम्पादन श्री भँवरलालजी नाहटा ने श्री अगरचन्दजी इसमें चोटी के विद्वानों के लेख भी संग्रहित हैं। परिशिष्ट में नाहटा तथा श्री दशरथ शर्मा के साथ किया है। इसका प्रकाशन नवरत्नपरीक्षा, मोहरांरी परीक्षा इत्यादि देकर पुस्तक को और भी राजस्थान पुरातत्व मंदिर जयपुर की राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला से उपयोगी बनाया गया है। प्रसिद्ध जौहरी श्री राजरूपजी टाँक ने रत्नों संवत् २०१० में हुआ। यह रासो अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। आदि पर प्रकाश डालते हुए इस ग्रन्थ को विश्व साहित्य में अजोड़ इसकी साहित्यिक महत्ता उच्चकोटि की है। इसकी शैली में प्रवाह है। ग्रन्थ बतलाया है। कवि से यथाशक्ति मितभाषिता और सत्य का आश्रय लिया। इसकी १६. मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि-द्वितीय दादा साहब पर एकमात्र प्रति झुंझनू के जैन भण्डार से प्राप्त हुई। शोधपूर्ण प्रस्तुत पुस्तक ६२ वर्ष पूर्व सम्वत् १९९६ में प्रकाशित १३. बीकानेर जैन लेख संग्रह-श्री नाहटाद्वय की कल । अगरचन्द भंवरलाल नाहटा की एक अनुपम कृति है। इसकी कीर्ति को चतुर्दिक् प्रसारित करने वाले ग्रंथरत्नों में से उक्त ग्रन्थ प्रस्तावना दशरथ शर्मा ने लिखी है। श्री अभय जैन ग्रन्थमाला द्वारा भी एक है। ग्रन्थ के प्राक्कथन लेखक श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ने प्रकाशित ७६ पृष्ठ की पुस्तक न्यू राजस्थान प्रेस ७३-ए, श्री नाहटाजी के प्रकाण्ड पाण्डित्य, श्रमनिष्ठा और शोधरुचि की चासाधोबापाड़ा स्ट्रीट, कलकत्ता द्वारा मुद्रित है।। भूरि-२ प्रशंसा की है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन श्री अभय जैन १७. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि चरितम्-चतुर्थ दादासाहब ग्रन्थालय के पंचदश पुष्प के रूप में सन् १९५६ में हुआ। इसमें पर प्रस्तुत पुस्तक उपाध्याय श्री लब्धिमुनि विरचित भंवरलाल नाहटा बीकानेर राज्य के २६१७ तथा जैसलमेर के १७१ अप्रकाशित द्वारा सम्पादित संवत् २०२७ में अभयचंद सेठ द्वारा प्रकाशित ६ लेखों का संग्रह है। प्रारम्भ में शोधपूर्ण-विद्वतापरिपूर्ण विस्तृत भूमिका सर्गों में विभक्त कुल १२१२ पद्य और कुछ गद्य भी हैं। १३८ पृष्ठ। दी गई है। परिशिष्ट में वृहद् ज्ञान भण्डार की वसीयत, श्री १८. दादा श्री जिनकुशलसूरि-तृतीय दादासाहब पर प्रस्तुत जिनकृपाचन्द्रसूरि उपाश्रय का व्यवस्थापक और पर्युषणों में पुस्तक अगरचन्द भँवरलाल नाहटा द्वारा लिखित नाहटा ब्रदर्स द्वारा कसाईवाड़ा बन्दी के मुचलके की नकल है। श्री नाहटाजी ने लेख प्रकाशित श्री अभय जैन ग्रन्थमाला का २०वाँ ग्रंथाक सेठ ब्रदर्स संग्रह के क्षेत्र में यह बहुत बड़ा काम किया है। ग्रन्थ के प्रत्येक द्वारा मुद्रित १३२ पृष्ठ की कृति है। प्रस्तावना श्री जिनविजयजी ने शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१३७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखी है जिसमें उक्त कृति का सारांश सहित अन्य प्रकाशित/ वैजनाथ (सरावगी) से प्रकाशित व मिश्रा एण्ड कम्पनी कलकत्ता से अप्रकाशित ज्ञान भण्डार की जानकारी दी है। मुद्रित करायी। पृष्ठ-६ इसका प्रकाशन १९५७ में हुआ। १९. हम्मीरायण-प्रस्तुत पुस्तक जयतिगदे चौहान के पुत्र २५. नगरकोट-कांगड़ा महातीर्थ- हिमाचल प्रदेश के जैन रणथंभोर के राजा हम्मीरदे की कथा भाण्डाजी व्यास द्वारा रचित, तीर्थ जिसे उत्तरी भारत का शत्रुजय तीर्थ कहा जाता है पर श्री सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर द्वारा प्रकाशित भँवरलाल नाहटा की शोध पुस्तक के १३८ पृष्ठ पूज्य बंसीलालजी (राजस्थान भारती प्रकाशन) रेफिल आर्ट प्रेस, कलकत्ता द्वारा मुद्रित कोचर शतवार्षिकी अभिनन्दन समिति द्वारा प्रकाशित व राज प्रोसेस संवत् २०१७ में श्री भंवरलालजी नाहटा द्वारा सम्पादित है। प्रिन्टर्स द्वारा मुद्रित है। प्रकाशकीय श्री लालचन्द कोठारी, दो शब्द भंवरलाल नाहटा व २६. श्री स्वर्ण गिरि-जालोर-राजस्थान के प्राचीन जैन भूमिका डॉ० दशरथ शर्मा ने लिखी है। तीर्थ श्री स्वर्ण गिरि जालोर, यह कृति १०८ पृष्ठों में लिखकर श्री . २०. समयसुन्दर रास पंचक-युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि से भंवरलाल नाहटा ने, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर और बी.जे. नाहटा दीक्षित, सकलचंदगणि के शिष्य महोपाध्याय समयसुन्दरजी (महान फाउण्डेशन, कलकत्ता से प्रकाशित व राज प्रोसेस प्रिन्टर्स/अन्टार्टिका कवि, संत, साहित्यकार) की जीवनी के साथ उनकी रचनाओं को ग्राफिक्स कलकत्ता से मुद्रित करायी ३० अगस्त १९९५ ई० को। श्री भंवरलाल नाहटा ने सम्पादित किया है। सादुल राजस्थानी रिसर्च २७. भगवान महावीर का जन्म स्थान "क्षत्रियकुण्ड''इन्स्टीच्यूट बीकानेर द्वारा प्रकाशित रेफिल आर्ट प्रेस कलकत्ता द्वारा तीर्थ की प्रमाणिकता पर शोधपरक पुस्तक श्री अगरचन्द के साथ श्री मुद्रित १५१ पृष्ठीय, २०१७ संवत् की २५वीं कृति। इसकी भँवरलाल नाहटा ने लिखी व महेन्द्र सिंघी द्वारा प्रकाशित १८ पृष्ठ/ महत्ता पर दो शब्द श्री कन्हैयालाल सहल प्रिंसिपल बिडला आर्ट्स सचित्र, वीर निर्वाण सम्वत् २५००। कॉलेज, पिलानी (३०-४-६१) ने लिखे हैं। २८. श्री गौतम स्वामी का जन्म स्थान कुण्डलपुर २१. पद्मिनी चरित्र चौपाई-प्रस्तुत शोधपूर्ण ग्रन्थ सौन्दर्य, (नालन्दा)- जैन पुरातत्व/साहित्य व प्रमाण पुरस्सर तीर्थ भूमि बुद्धियुक्त धैर्य, अदम्य साहसी, पातिव्रत्य व सतीत्व की प्रतीक रानी नालन्दा सचित्र पुस्तक के १८ पृष्ठ का लेखन श्री भंवरलाल नाहटा पद्मावती पर रचित, संग्रहित व शोधसिद्ध रचना है। श्री भंवरलाल ने किया व प्रकाशन महेन्द्र सिंघी ने वीर निर्वाण संवत् २५०१ में। नाहटा द्वारा सम्पादित, सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर २९. वाराणसी : जैन तीर्थ- उत्तर प्रदेश की धर्मभूमि (राजस्थान भारती प्रकाशन) से प्रकाशित (२०१८ सं०, २१५ वाराणसी पर प्रस्तुत पुस्तक श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा लिखित व पृष्ठीय) कृति दशरथ शर्मा के विवेचन सहित कवि लब्धोदय की महेन्द्र सिंघी द्वारा प्रकाशित २५०२ वीर निर्वाण संवत् की १७ प्रथम रचना है। पृष्ठीय कृति है। २२. सती मृगावती- कविवर समयसुन्दर कृत सार का सार ३०. काम्पिल्यपुर तीर्थ- १३वें तीर्थंकर विमल नाथ श्री भंवरलाल नाहटा की प्रथम कृति १७ वर्ष की आयु में (सन् भगवान की कल्याणक भूमि कम्पिला पांचाल देश की राजधानी पर १९२८) लिखी पुस्तक के अप्राप्य होने से पुनः श्री जिनदत्तसूरि सेवा जैन शोधार्थी की एक नजर की प्रतिबिम्ब रूपी यह पुस्तक उस संघ द्वारा प्रकाशित, सुराना प्रिंटींग वर्क्स द्वारा मुद्रित (वीर निर्वाण संवत् भारतवर्ष के प्राचीनतम नगर में धर्म/पुरातत्व, जैन विभूतियों की २५०४ आश्विन कृष्ण २) १७ पृष्ठों की पुस्तक है। तपोभूमि व विचरण भूमि पर विस्तृत प्रकाश लेखक भँवरलाल २३. तरंगवती- आचार्य श्री पादालिप्तसूरि की प्राकृत कृति नाहटा ने डाला है। १४ पृष्ठ की कृति श्री जैन श्वेताम्बर महासभा का संक्षिप्त रूप 'तरंगवती' शतावधानी पं० धीरजलाल शाह की (हस्तिनापुर) उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकासित व सुराणा प्रिन्टिंग वर्क्स गुजराती में प्रकाशित (श्रेणी ५ भाग १-२) 'बाल ग्रन्थावली' का कलकत्ता द्वारा मुद्रित है। हिन्दी अनुवाद है। यह कृति श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ द्वारा प्रकाशित ३१. महातीर्थ श्रावस्ती- तीर्थंकर भगवान संभवनाथ की व सुराणा श्री नवरतनमल एवम् माता झणकार देवी की पुण्य स्मृति चार कल्याणक भूमि और गौतम बुद्ध की तपस्या स्थली सावत्थी में उनके पुत्रों (श्री प्रेमचंद, भागचन्द, धनकुमार) द्वारा मुद्रित है। (बहराईच-बलरामपुर से १५ किलोमीटर दूर) जैन तीर्थ पर ४० २४. कलकत्ते की जैन कार्तिक रथयात्रा महोत्सव- विश्व पृष्ठों में श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा लिखित व पंचाल शोध संस्थान की अतुलनीय जैन रथयात्रा का उद्देश्य, महत्ता, ऐतिहासिक-तथ्य द्वारा प्रकाशित है। सुराना प्रिन्टिंग वर्क्स द्वारा मुद्रित है। १९८७ सप्रमाण लिखकर श्री भंवरलाल नाहटा ने नाहटा ब्रदर्स व जोगीराम ई०, विक्रम संवत् २०४४ में। विद्वत खण्ड/१३८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. विचार-रत्न-सार- प्रस्तुत ग्रन्थ उपाध्याय देवचन्द्र की ३८. मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति लेखनी की देन है। गणिदेवधि आचार्य हरिभद्र अपने युग के मूर्धन्य ग्रन्थ- श्री अगरचंद भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित, मणिधारी श्री जैन साहित्यकार हुए। उनके परवर्तीकाल में हुए जैन साहित्यकारों जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी समारोह समिति ५३, रामनगर, नई की त्रिमूर्ति जैन/जैनेतर साहित्य एवम् समाज में भी सुप्रतिष्ठित हैं- दिल्ली-५५ द्वारा प्रकाशित (सन् १९७१ वीर सं० २४९७) ग्रन्थ आनन्दघन, यशोविजय के साथ उपाध्याय देवचन्द्र। उनका साहित्य की सारगर्भित प्रस्तावना "नाहटा बन्धु'" ने ही लिखी है। दो खण्डों आध्यात्मिक, आस्थाप्लावित, व्यवस्थामूलक और नैतिक पृष्ठभूमि में विभक्त ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में ४३ लेख हैं, द्वितीय खण्ड में से प्रतिष्ठित है। गद्य एवम् पद्य- दोनों ही रूपों में निबद्ध कृतियाँ खरतर साहित्य सूची इन्हीं की संकलित व महोपाध्याय विनयसागर गृह्यतम सत्यों को उद्घाटित करने का उद्देश्य लिए लक्षित होती हैं। द्वारा सम्पादित है। इसको राष्ट्र भाषा हिन्दी में सर्वसाधारण के लिए लाभदायक ३९. महातीर्थ अहिच्छत्रा- भगवान पार्श्वनाथ पर कमठ के बनाने के उद्देश्य से श्री भंवरलाल नाहटा ने अनुदित किया है। जीव मेघमाली द्वारा किये गये उपसर्ग तथा धरणेन्द्र पद्मावती द्वारा ३३. श्री सहजानन्दघन पत्रावलि- योगीन्द्र युगप्रधान गुरुदेव सहस्रफण धारण कर भगवान की भक्ति कर उपसर्ग से बचाया वही श्री सहजानन्दधनजी म.सा० द्वारा पूज्य साधु साध्वीजी तथा भक्तों स्थान अहि अर्थात् सर्प तथा च्छत्र अर्थात् फण फैलाकर छत्र करना को दिये गये हजारों पत्रों में से कुल पृष्ठ ५०० में ७०६ महत्वपूर्ण अर्थात् अहिच्छत्रा। उस स्थान का इतिहास श्री भंवरलालजी नाहटा पत्र संकलित कर श्री भंवरलालजी नाहटा ने सम्पादित की है। श्रीमद् ने लिखा तथा प्रकाशन पांचाल शोध संस्थान ५२/१६, शक्कर राजचन्द्र आश्रम, रत्नकुट, हम्पी (कर्नाटक) द्वारा प्रकाशित है। . पट्टी, कानपुर से हुआ। इसका प्रकाशन सन् १९८५ में हुआ था। ४०. खरतरगच्छ के प्रतिबोधित गोत्र और जातियाँ३४. क्षणिकाएँ-१५० गद्य क्षणिकाओं की आकृति में छोटी खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोध देकर समय-समय पर अनेक पुस्तक १९८४ ई० की हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कृति से पुरस्कृत, भारतवर्ष जातियों को सम्यक् मार्ग पर आरुढ़ किया इसी का सम्पादन श्री की सबसे बड़ी संख्या में उपलब्ध गद्य गीत जिनमें मात्र कल्पना की अगरचन्दजी नाहटा व श्री भंवरलालजी नाहटा ने किया। इसका उड़ान नहीं, शाश्वत सत्य और तथ्य का समायोजन है। श्री भंवरलाल प्रकाशन श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ, ४ मीर बोहार घाट स्ट्रीट, नाहटा की एकमात्र क्षणिका कृति अनुज पुत्र अशोक नाहटा के अल्पायु कोलकाता-७ से हुआ, सं० २०३० की कृति है। में स्वर्गस्थ होने पर उसे समर्पित श्री छगनलाल शास्त्री द्वारा समीक्षित, नाहटा ग्रुप ऑफ ट्रेडर्स लिमिटेड द्वारा प्रकाशित है। ३५. बम्बई चिन्तामणि पार्श्वनाथादि : स्तवन पद संग्रह- खरतरगच्छीय वाचक श्री अमरसिन्धुरजी द्वारा रचित १२ पाठों में संकलित भजनों की मंजुषा श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित सं० २०१४ में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ मंदिर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित १६२ पृष्ठों में समाहित है। प्रस्तावना में जैन/जैनेतर दर्शनों में मोक्षमार्ग के साधनों पर प्रकाश डाला गया है। ३६. श्रीमद् देवचन्द्र स्तवनावली- अध्यात्मतत्त्ववेता श्रीमद् देवचन्द्रजी रचित स्तवनों का संकलन श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित श्रीमद् देवचन्द्र ग्रन्थमाला, ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कोलकाता द्वारा सं० २०१२ में प्रकाशित है। ३७. श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर कलकत्ता सार्द्ध शताब्दी महोत्सव स्मृति ग्रन्थ (सं० १८७१ से २०२१ वि०) इस ग्रन्थ में बड़े जैन श्वेताम्बर मन्दिर व दादाबाड़ी के साथ कलकत्ते के अन्य मन्दिरों का भी सचित्र इतिहास है और १२ ऐतिहासिक लेख भी हैं। इसका सम्पादन श्री भंवरलाल नाहटा ने किया। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१३९ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधेश्याम मिश्र वाराणसी में संत कबीर साधना में लगे थे। वह बाहर से वस्त्रों का ताना-ताना बुन रहे थे। किन्तु, अन्दर में साधना का ताना-बाना बुनने में 1. संलग्न थे। एक ब्राह्मण का पुत्र अनेक विद्याओं का अध्ययन करके पच्चीस वर्ष की अवस्था में जब जीवन के नये मोड़ पर आया, तो उसने विचार किया कि वह कौन से जीवन में प्रवेश करे, साधु बने या गृहस्थाश्रम में जाए? अपनी इस उलझन को उसने कबीर के समक्ष रखा। कबीर उस समय ताना पूर रहे थे। प्रश्न सुनकर भी उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। युवक ने कुछ देर तक चुप रहकर प्रतीक्षा की, किन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। उसने फिर अपना प्रश्न दुहराया, लेकिन कबीर ने फिर भी जवाब नहीं दिया। तभी कबीर ने पत्नी को पुकारा-"जरा देखो तो ताना साफ करने का झब्बा कहाँ है ?" इतना कहना था कि कबीर की पत्नी उसे खोजने लगी। दिन के सफेद उजाले में भी कबीर ने बिगड़ते हुए कहा- "देखती नहीं हो, कितना अंधकार है? चिराग लाकर देखो', पत्नी दौड़ती हुई चिराग लेकर आई, और लगी खोजने । झब्बा तो कबीर के कन्धे पर रखा था किन्तु फिर भी कबीर की पत्नी पति की इतनी आज्ञाकारिणी थी कि जैसा उसने कहा वैसा ही करने लग गई। युवक को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोच ही रहा था कि आखिर यह क्या माजरा है? इतने में कबीर ने अपने लड़के और लड़की को आवाज दी। जब वे आए, तो उन्हें भी वही झब्बा खोजने का आदेश दिया। और वे भी चुपचाप खोजने लग गए। कुछ देर तक खोजने के बाद कबीर ने कहा- "अरे! यह तो मेरे कंधे पर रहा। अच्छा विद्वत खण्ड / १४० जाओ, अपना-अपना काम करो।" सभी लौट गए युवक बड़ा परेशान था कि "यह कैसा मूर्ख है? कैसी विचित्र बातें करता है? मेरे प्रश्न का क्या खाक उत्तर देगा ? " तभी कबीर ने उसकी ओर देखा, युवक ने फिर अपना प्रश्न दुहराया। कबीर ने कहा, मैं तो उत्तर दे चुका हूँ, तुम अभी समझे नहीं । अभी जो दृश्य तुमने देखा था, उससे सबक लेना चाहिए। यदि गृहस्थ बनना चाहते हो तो, ऐसे बनो कि तुम्हारे प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित घर वाले दिन को रात और रात को दिन मानने को भी तैयार हो जाएँ। तुम्हारे विवेकपूर्ण कोमल व्यवहार में इतना आकर्षण हो कि परिवार का प्रत्येक सदस्य तुम्हारे प्रति अपने आप खिंचा रहे, तब तो गृहस्थ जीवन ठीक है। अन्यथा यदि घर कुरुक्षेत्र का मैदान बना रहे, आये दिन टकराहट होती रहे, तो इस गृहस्थ जीवन से कोई लाभ नहीं और, यदि साधु बनना हो, तो चलो एक साधु के पास तुम्हारा मार्ग-दर्शन करा दूँ । कबीर युवक को लेकर एक साधु के पास पहुँचे, जो गंगा तट पर एक बहुत ऊँचे टीले पर रहता था कबीर ने उन्हें पुकारा तो वह वृद्ध साधु लड़खड़ाता हुआ धीरे-धीरे नीचे उतरा। कबीर ने कहा- "बस, आपके दर्शनों के लिए आया था, दर्शन हो गए।" दो आदर्श साधु फिर धीरे-धीरे ऊपर चढ़ा, तो कबीर ने फिर पुकारा और साधु फिर नीचे आया और पूछा - "क्या कहना है ?" कबीर ने कहा अभी समय नहीं है, फिर कभी आऊंगा, तब कहूँगा।" साधु फिर टीले पर चढ़ गया कबीर ने तीसरी बार फिर पुकारा और साधु फिर नीचे आया। कबीर ने कहा- "ऐसे ही पुकार लिया, कोई खास बात नहीं है।" साधु उसी भाव से, उसी प्रसन्न मुद्रा से फिर वापिस लौट गया। उसके चेहरे पर कोई शिकन तक न आई। कबीर ने युवक की ओर प्रश्न भरी दृष्टि डाली और बोले"कुछ देखा ? साधु बनना हो तो ऐसा बनो इतना अशक्त वृद्ध शरीर, आँखों की रोशनी कमजोर, ठीक तरह चला भी नहीं जाता। इतना सब कुछ होने पर भी तुमने देखा, मैंने तीन बार पुकारा और तीनों बार उसी शान्त मुद्रा से नीचे आए और वैसे ही लौट गए। मुझ पर जरा भी क्रोध की झलक नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं। साधु बनना चाहते हो, तो ऐसे बनो कि तुममें इतनी सहिष्णुता रहे. इतनी क्षमा रहे। जीवन में प्रसन्नता के साथ कष्टों का सामना करने की क्षमता हो, तो साधु की ऊँची भूमिका पर जा सकते हो।" इसी घटना के प्रकाश में हम भगवान् महावीर की वाणी का रहस्य समझ सकते हैं कि साधु जीवन हो या गृहस्थ जीवन, जब तक जीवन में आन्तरिक तेज नहीं जग पाए, प्रामाणिकता और सच्ची निष्ठा का भाव न हो, तो दोनों ही जीवन बदतर हैं और यदि इन सद्गुणों का समावेश जीवन में हो गया है, तो दोनों ही जीवन अच्छे हैं, श्रेष्ठ हैं, और उनसे आत्म-कल्याण का मार्ग सुगमता से प्रशस्त हो सकता है। श्री जैन विद्यालय, कोलकाता शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरक व्यक्तित्व जैन दर्शन में पुण्य के सम्बन्ध में कहा गया है कि जो कर्म आत्मा को शुभ की ओर ले जाए, पवित्र करे और सुख प्राप्ति का सहायक हो, वही पुण्यात्मा कहलाता है शुभ योग से की पुण्य प्राप्ति होती है। पुण्य बन्ध अत्यन्त कठिन है क्योंकि आत्मा की अगणित वृतियाँ हैं अतः पुण्य-पाप के कारण भी अनेक हैं। पुण्य कर्म का बन्ध नौ प्रकार से होता है एवं ४२ प्रकार से उसे भोगा जाता है । १ - अन्न पुण्य, २- पान पुण्य, ३-लयन पुण्य, ४- शयन पुण्य, ५ - वस्त्र पुण्य, ६-मन पुण्य, ७ वचन पुण्य, ८काय पुण्य, ९ - नमस्कार पुण्य । पुण्य के इन नौ प्रकारों की कसौटी पर जब हम स्मृति शेष तारा देवी कांकरिया का मूल्यांकन करते हैं तो उनके समग्र जीवन को पुण्य कर्मों के एक ऐसे आलोकस्तम्भ के रूप में पाते हैं जो आनेवाले वर्षों में सतत प्रकाश विकीर्ण करता रहेगा एवं उसके अनुकरण से पुण्य कर्म का बंध कर कोई भी जीव पुण्यात्मा बनकर सिद्ध, बुद्ध, परमात्म स्वरूप बन सकेगा। श्रीमती तारादेवी कांकरिया का जन्म बीकानेर के सुप्रसिद्ध धर्म परायण बैद परिवार में हुआ एवं गोगोलाव के कांकरिया परिवार के श्री हरखचंद कांकरिया से इनका विवाह हुआ। बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में पले होने के कारण उनका सम्पूर्ण जीवन धर्ममय रहा। शिक्षा - एक यशस्वी दशक गणधर गौतम ने महावीर से पूछा कि भगवन! आपकी पूजा अर्चना, उपासना करनेवाला व्यक्ति महान् है अथवा गरीबों, दीनों, अनाथों, असहायों, पीड़ितों एवं रोगियों की सहायता तथा सेवा शुश्रुषा करनेवाला व्यक्ति महान् है । प्रभु महावीर ने कहा कि 'जे गिल्लाणं पsिहरई से धन्ने' जो दीन दुखियों, अनाश्रितों, अपाहिजों, पीड़ितों की सहायता करता है। उसके अंधकार से परिपूर्ण जीवन को प्रकाश की किरणों से आलोकित करता है, उसका जीवन धन्य है एवं वह महान् है, पुण्यात्मा है। श्रीमती तारादेवी ने अपने जीवनकाल में अनेक तीर्थों में जिनालयों का निर्माण करवाकर तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा करवाई जिनमें पालीताणा, मेहसाणा, हस्तगिरि, अहमदाबाद, कलिकुण्ड पार्श्वनाथ, लिलुआ, बाली आदि प्रमुख हैं। इन सभी स्थानों पर श्रीमती कांकरिया ने स्वयं भूमिपूजन किया एवं प्रतिष्ठा करवाई । अक्षय पुण्यात्मा : पालीताणा में उनकी ओर से स्थायी भोजनालय का संचालन श्रीमती तारादेवी कांकरिया होता है जहाँ से साधु-साध्वी, श्रावक, श्राविका, वैरागी, वैरागिन शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। विगत चालीस वर्ष से यह भोजनालय चल रहा है भगवान महावीर के इस मार्ग का मृत्यु पर्यन्त अक्षरशः अनुकरण किया श्रीमती तारादेवी ने । वे सेवामूर्ति मदर टेरेसा की पर्याय थीं। महान् आचार्य रामचन्द्र सूरिश्वरजी म० इन्हें 'अनुपमा देवी' कहकर सम्बोधित करते थे । पालिताणा में रोगी यात्रियों की सुविधा के लिए एक हॉस्पीटल का निर्माण भी आपने करवाया। स्वधर्मी भक्ति, सेवा एवं गरीब छात्रों एवं छात्राओं की शिक्षा का खर्च वहन करने में भी वे सदैव अग्रणी रही हैं। हंस पोकरिया में भोजनालय में भी आपने उल्लेखनीय सहयोग किया है। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में छरी पालित संघ की यात्रा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । छरी पालित संघ यात्रा में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका सभी पैदल यात्रा करते हैं। गन्तव्य स्थान तक। इनका बहुत बड़ा महात्म्य माना जाता | ऐसे तीन छरी पालित संघ श्रीमती कांकरियाजी ने आयोजित किये १. सन् १९६२ में राणकपुर से पालीताणा २. सन् १९६९ में जामनगर से जूनागढ़ ३. सन् १९७१ में पाटण से शंखेश्वर पार्श्वनाथ इनका सम्पूर्ण व्यय भार श्रीमती कांकरियाजी ने वहन किया। श्रीमती कांकरिया अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह की साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं । विगत चालीस वर्षों से वे किसी पद- त्राण (चप्पल, जूता आदि का प्रयोग नहीं करती थीं। वर्ष भर में चार साड़ी से अधिक का वे व्यवहार नहीं करती थीं। साड़ियाँ भी सूती एवं विद्वत खण्ड / १४१ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारण। ८ वर्ष की आयु से ही रात्रि भोजन का एवं कच्चे पानी लगातार डेढ़ माह तक जाकर उनकी सार संभाल करती थीं। उनकी का त्याग किया था। कम से कम पानी का व्यवहार वे स्नान के उदारता, करुणा एवं सेवा भावना महनीय थी फलस्वरूप उनकी लिए करती थीं। जाति-पांति एवं भेदभाव से रहित उनका जीवन संपत्ति में भी अपार वृद्धि हुई। उनका जीवन इतना सरल, सीधा-सादा समता से परिपूर्ण था। श्रीमती कांकरिया का समग्र जीवन तप: पूत एवं सदाचार से युक्त था कि उन्होंने कभी कोई पुरस्कार स्वीकार था। तपस्या उनके जीवन का एक प्रधान अंग थी। उन्होंने अनेक नहीं किया। वे अभिनन्दनों एवं सम्मानों से सदा निर्लिप्त रहीं। बार उपधान तप किया। वर्धमान तप बारह बार किया। नवपद ओली अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह की इस देवी ने दिनांक २० की तपस्या भी अनेक बार की। वर्षीतप भी कई बार किये। जुलाई, १९९९ मंगलवार आषाढ़ वदी अष्टमी को ब्राह्म वेला उपवास, आयंबिल, बेला, तेला से लेकर ८ एवं दस की उन्होंने ७.४५ पर इस असार संसार को छोड़कर महाप्रयाण किया। इस तपस्याएँ कीं। उनका यह तपः पूत जीवन प्रणम्य और नमनीय है। दिन भगवान नेमीनाथ का जन्म कल्याणक भी था। मृत्यु से पाँच दिन अस्पतालों में जाकर रोगियों में फल वितरण, औषधि वितरण पूर्व उन्हें अपनी मृत्यु का आभास हो गया था। ६ माह पूर्व ही उन्होंने तो उनकी दैनिक जीवनचर्या थी। सड़क पर किसी भी रोगी एवं अपने सभी गहने भी उतार कर गरीबों में वितरित कर दिये थे। अपाहिज को देखकर अपना वाहन रुकवा देना उनका सहज स्वभाव चौविहार संथारा पूर्वक अपनी नश्वर देह को त्याग कर वे अमरत्व था। उसे अपने वाहन में लेकर अस्पताल पहुँचाना एवं उसकी को प्राप्त कर गईं। अपने पीछे वे अपनी पति, पुत्र-पुत्रियों, पोतेशुश्रुषा की सम्पूर्ण व्यवस्था कर ही वे वहाँ से हटती थीं। पोतियों आदि का भरापूरा परिवार छोड़कर गईं। उनके पति श्री गो के प्रति उनकी श्रद्धा अपरिमित थी। उन्होंने अपने हरखचंद कांकरिया उनके प्रत्येक धर्म कार्य में दिल खोलकर जीवनकाल में हजारों गायों को अभयदान दिलवाया। पालीताणा में सहयोग करते रहे हैं। उनके अप्रतिम सहयोग से ही वे सेवा का उन्होंने गोशाला का निर्माण करवाया। वहाँ अशक्त, वृद्ध गायों को पर्याय बनीं। उनकी स्मृति को हमारे अशेष प्रणाम। वस्तुत: वे एक रखकर उनकी परिचर्या की जाती है। शलाका पुण्यात्मा थीं। आचार्य अमितगति का निम्न श्लोक उनका इनका एक सम्बन्धी बड़ा बाजार के एक मकान में रहता था आदर्श थाजहाँ शुद्ध वायु का प्रवेश नहीं था। सीढ़ियाँ पानी से भीगी हुई, सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदम् अंधकार पूर्ण फिर भी वे पर्युषण एवं दिवाली पर्व पर वहाँ पहुँचकर क्लेष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वं, उनकी खबर लेती थीं एवं उनके सुख-दुःख में सहभागी बनती थीं माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्ती, जबकि उनका कोई सम्बन्धी वहाँ नहीं पहुँचता था। इसी सम्बन्धी के सदा ममात्मा विदधातु देवा । जब प्रोस्ट्रेट ग्रन्थि का ऑपरेशन एक नर्सिंग होम में हुआ तब ये विद्वत खण्ड/१४२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TARA DEVI KANKARIA Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREE JAIN VIDYALAYA 25/1, BON BEHARI BOSE ROAD,HOWRAH - 711101