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________________ आर्यारल हेमप्रभा श्रीजी नवतत्त्व · जैन दर्शन में पदार्थ या वस्तु को तत्त्व कहा गया है। लाक्षणिक अर्थ में वस्तु स्वरूप (तत्व) होने का साथ 'सत् से युक्त तत्त्व के तीन लक्षण हैं- उत्पाद, व्यय, धौव्य' अर्थात् उत्पत्ति नाश एवं ध्रुव गुण धारण करने वाला तत्व है। यह तत्व (सत् सहित) अनादि एवं अनन्त है जो सर्वथा असत् है वह तत्व नहीं हो सकता। सार, भाव या रहस्य को भी तत्व का पर्यायवाची कह सकते हैं परन्तु वास्तव में सद्भूत वस्तु को ही तत्व कहते हैं। तत्व नवीन पर्यायों की उत्पत्ति एवं पुरानी अवस्था का विनाश होने पर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता । | आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा से मुख्य तत्व है जो पूर्ण एवं शुद्ध अवस्था में परमतत्व से विभूषित हो परमात्मा है और कर्मयुक्त होकर संसारी रूप में विविध योनियां धारण करता है। तत्व को कई रूपों में वर्गीकृत एवं विभाजित किया जा सकता है- प्रथम शैली (१) जीव (२) अजीव द्वितीय शैली - (१) जीव (२) अजीव (३) आश्रव (४) संवर (५) बंध (६) निर्जरा (७) मोक्ष। इसमें पुण्य और पाप इन दोनों को और जोड़ देने से नव तत्व बन जाता है। तृतीय शैली - (१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य (४) पाप (५) आश्रव (६) संवर (७) निर्जरा (८) बंध (९) मोक्ष उपरोक्त वर्गीकरण में भी जीव एवं अजीव मुख्य तत्व हैं जो अन्य तत्वों के आधार हैं। जीव पुद्गल (अजीव) के संयोग-वियोग से विविध विद्वत खण्ड / १८ Jain Education International जन्म धारण करते हुए निरन्तर आत्मनिष्ठ होकर विकास की ओर बढ़ता जाय तो परम और चरम तत्व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। प्रथम शैली के विभाजन से यह संसार षटद्रव्यात्मक कहा जा सकता है : -- जीव अजीव (१) (२) धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय काल द्वितीय शैली में पुण्य एवं पाप को स्वतन्त्र तत्व न मान कर आत्मा अर्थात् जीव के आश्रित माना है अतः तत्वों की संख्या सात ही रह जाती है। तृतीय शैली में तत्व नव माने गये हैं। इसमें से जीव एवं अजीव ये दो तत्व धर्मी है अर्थात् आश्रव आदि तत्वों के आधार हैं और शेष उनके धर्म हैं। इनको पुनः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। : ज्ञेय = जानने योग्य-जीव, अजीव । उपादेय = ग्रहण करने योग्य-संवर, निर्जरा, मोक्ष हेय त्याग करने योग्य आश्रय, बंध, पुण्य पाप उक्त तत्वों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है :-- = - १. जीव जीव का लक्षण उपयोग अर्थात् चेतना है। उपयोग के दो भेद हैं: (१) साकारोपयोग (ज्ञान) और (२) निराकारोपयोग (दर्शन) अतः जिसमें ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग पाया जाय, वह जीव है। जीव सुख-दुःख और अनुकूलता प्रतिकूलता की अनुभूति करने में सक्षम है। इसीलिए इसे चेतन कहा गया है। स्व पर का ज्ञान, विवेक आदि गुण अन्य पदार्थों में नहीं पाये जाते हैं। जीव को सत्व, प्राणी, भूत, आत्मा आदि शब्दों से भी जानते हैं। स्थावर जीव एकेन्द्रिय होते हैं अतः उनके चर्म अर्थात् त्वचा रूप इन्द्रिय के अतिरिक्त इन्द्रियाँ नहीं होतीं जो हमारी आँखों से दिखाई नहीं देते, वे सूक्ष्म हैं और जो हमें दृष्टिगोचर होते हैं, वे बादर हैं। जिनको आहार शरीर, भाषा आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण प्राप्त हों वे पर्याप्त और जिन्हें प्राप्त न हो सके वे अपर्याप्त कहलाते हैं वनस्पतिकाय का विभाजन इस प्रकार है > : सूक्ष्म बादर अपर्याप्त पर्याप्त प्रत्येक प्रत्येक - एक शरीर में एक जीव हो । साधारण - एक औदारिक शरीर में अनन्त जीव एक साथ जन्म लें, आहार लें और श्वासोच्छ्वास करें इनके अनेक प्रकार हैं- जैसे प्याज, आलू, रतालू, गाजर, अदरख आदि । शिक्षा-एक यशस्वी दशक For Private & Personal Use Only साधारण www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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