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कहीं मन्दिर, कहीं मठ और कहीं आश्रम खड़े हो गए। फिर घर कहाँ छूटा है?
सन्यासी ने कहा - हमने इन सब का मोह छोड़ रखा है।
मैंने कहा - हाँ, यह बात कहिए। असली बात मोह छोड़ने की है। घर में रहकर भी यदि कोई मोह छोड़ सकता है, तो बेड़ा पार है। घर बन्धन नहीं है, घर का मोह बन्धन है। कभी-कभी घर छोड़ने पर भी घर का मोह नहीं छूटता है और कभी घर नहीं छोड़ने पर भी, घर में रहते हुए भी, घर का मोह छूट जाता है।
बात यह है कि जब मोह और आसक्ति छूट जाती है, तो फिर कर्म में ममत्व नहीं रहता। अहंकार नहीं रहता। उसके प्रतिफल की वासना नहीं रहती। जो भी कर्म, कर्तव्य करना है, वह सिर्फ निष्काम और निरपेक्ष भाव से करना चाहिए। उसमें त्याग और समर्पण का उच्च आदर्श रहना चाहिए। सच्चा निर्मल, निष्काम कर्मयोगी जल में कमल की तरह संसार से निर्लिप्त रहता है। वह अपने मुक्त जीवन का सुख और आनन्द स्वयं भी उठाता है और संसार को भी बाँटता जाता है। मनुष्यता का यह जो दिव्य रूप है, वही वास्तव में नर से नारायण का रूप है। इसी भूमिका पर जन में जिनत्व का दिव्य भाव प्रकट होता है। इन्सान के सच्चे रूप का दर्शन इसी भूमिका पर होता है। इस माँसपिण्ड के भीतर जो सुप्त ईश्वर और परमात्म तत्त्व है, वह यहीं आकर जागृत होता है।
बनेचन्द माल
आदमी नहीं था किसी बेचारे का एक्सीडेंट हो गया। कार तो भाग गई पर लोगों को भी नहीं आई दया।
खून से लथपथ पड़ा था सड़क पर। कोई पास के अस्पताल नहीं ले जा रहा था,
क्योंकि पुलिस का था डर।
सवालों का जवाब देना होगा। __ कैसे हुआ, किसने देखा, कहना होगा। बाद में थाना भी जाना होगा, कोर्ट में देनी होगी गवाही। इस तरह घसीटा जाना पड़ेगा, क्यों लें ऐसी वाह वाही।
समय बीत गया, बेचारा ढेर हो गया। किसी नवयुवती का सिंदूर, नन्हें बच्चों की आशा,
चिर निद्रा में सो गया। घर में कोहराम मच गया, मातम छा गया। हंसी-खुशी भरे जीवन को काल-चक्र खा गया।
आने जाने वाले सान्त्वना दे रहे थे। पूछ-पूछ कर घटना का जायजा ले रहे थे।
एक औरत अफसोस जता रही थी, कह रही थी व्यस्त सड़क थी भीड़ तो बहुत थी। फिर पड़ा क्यों रहा, अस्पताल भी पास में वहीं था।
मैंने कहा भीड़ तो बहुत थी, अस्पताल भी पास में वहीं था, पर भीड़ में कोई आदमी नहीं था।
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत् खण्ड/१७
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