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________________ ५। अनाश्रित एवं असहायजनों को आश्रय एवं सहयोग दें। दर्शन सृष्टि के प्रत्येक जीव में गुणग्राहकता, तथा ६। अशिक्षितों को शिक्षित करने में सचेष्ट हों। संवेदनशीलता और परस्पर सुरक्षा के भाव को जगाता है। ७। प्रसन्न भाव से रोगी की सेवा में प्रस्तुत हों। विश्व में व्याप्त जीव शोषण, जीवक्रूरता एवं जीव हिंसा के ८। आपस में मतभेदं, कलह एवं विग्रह का पारस्परिक विरोध में संरक्षण, संवेदन और अहिंसा के विस्तार द्वारा एक सद्भावना से समाधान करें। स्थानाङ्ग सूत्र की इस सार्वभौम जीवन-दृष्टि के प्रसार तथा स्वयं की आत्मा को अष्टपदी में सभी दर्शनों के अध्यात्म का नवनीत है पहचानने की अन्तर्दृष्टि के विकास में यह शोध पत्र प्रभावी 'पुरिसा! बंध प्पमोक्खो तुज्झत्थमेव' हे पुरुष! बन्धन होगा। अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों में सभी चेतन स्वधर्मी जीवों मुक्ति तेरे पुरुषार्थ पर अवलम्बित है। के प्रति वात्सल्य का आलम्बन भारतीय दर्शनों में आत्मवाद बन्धन चाहे अज्ञान और अशिक्षा का हो, अभाव का हो, का प्राण है :रोग और शोक का हो, कुसंस्कारों का हो, स्वार्थान्धता का अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मी निबन्धने धर्मे। हो, या दुष्टाचरण का हो, इनसे मुक्ति का साधन पुरुषार्थ, सर्वेष्वपि च सर्मिष परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ।। सत्पुरुषार्थ है। आत्मा के शुभ और शुद्ध भावों का 'प्रकटीकरण मिट्टी से सोना बनाने के समान श्रमसाध्य तो है निदेशक : किन्तु संभव है तथा अमूल्य है। क्षेत्रीय केन्द्र कोटा खुला विश्वविद्यालय, उदयपुर उपनिषदों का अध्यात्म, शंकराचार्य का अद्वैत, पतंजलि का योग, कपिल का प्रकृतिपुरुषविवेकज्ञान, न्याय दर्शन के प्रमाणादि १६ तत्वों का ज्ञान और वैशेषिक दर्शन का सप्ततत्व-ज्ञान, यह सम्पूर्ण आत्मवाद तभी सार्थक है जब आत्मा/ जीव/पुरुष/चैतन्य/चित् की स्वभाव की स्थिति में हो। यही आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग है। इस स्वभाव के प्रकटीकरण का एक सूत्र स्थानाङ्ग सूत्र की अष्टपदी में निहित है और यह सामाजिक, सार्वजनिक और समायनुकूल उपाय है जिसका क्रियान्वयन भगवान् महावीर के २६००वें जन्म कल्याणक महोत्सव के अवसर पर अत्यन्त उपयोगी है। हमारी आत्मा का चैतन्य इस अष्टपदी की क्रियान्विति में लग जाये तो आत्मौपम्य-भाव की जागृति से संसार अवश्य निरापद होगा। । जब दर्शन और धर्म आत्मपरक हो जाते है तो वहां हिंसा का स्थान नहीं रहता, वहां करुणा प्रवाहित होने लगती है, वायुमण्डल अमृतमय हो जाता है। भारतीय संस्कृति के देवी-देवताओं का पश-पक्षियों के साथ अनन्य सम्बन्ध आत्मौपम्य भाव को दर्शाता है तभी तो भगवान विष्णु का वाहन गरूड़, शिव का वाहन नन्दी वृषभ, गणेश का वाहन मूषक, कार्तिकेय का मोर, लक्ष्मी का उल्लू, सरस्वती का हंस, दुर्गा का सिंह, तथा चौबीस तीर्थंकरों में से १७ तीर्थंकरों के चिन्ह पशु-पक्षी जिनमें वृषभ, हाथी, घोड़ा, बन्दर, हिरण, बकरा, सर्प आदि सम्मिलित हैं। जीव सभी समान हैं। चेतना और आत्मा के स्तर पर समानता का यह विद्वत् खण्ड/५८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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