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________________ विभिन्न संज्ञाए : भगवतीसूत्र में वनस्पतिकाय में दस आहार संज्ञा इत्यादि भी बतलाई गई हैं। इन संज्ञाओं के अस्तित्व के कारण वनस्पति में अस्पष्ट रूप से वे सब व्यवहार होते हैं जो मनुष्य या विकसित प्राणी स्पष्ट रूप से करते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस आदि ने इसी बात को वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध भी किया है। अंकुरण क्षमता का समय : भगवतीसूत्र में विभिन्न प्रकार के कृषि उत्पादनों के अन्तर्गत अनेक प्रकार के पेड़-पौधों और बीजों का विवरण प्राप्त होता है। वहां यह बतलाया गया है कि किस प्रकार विभिन्न प्रकार के बीज पौधों के रूप में विकसित होते हैं । ग्रन्थ के छठवें शतक के सातवें साली नामक उद्देशक में कहा गया है कि यदि कमल आदि जाति सम्पन्न चावल (शाली), सामान्य चावल (ब्रीहि), गेंहू (गोधूम), जौ (यव), इत्यादि धान्य कोठे में सुरक्षित रखे हों, बांस के पटले में, मंच पर, बर्तन में डालकर विशेष प्रकार से लीपकर छंदित किये हुये, लांछित करके रखे हुये हों तो उनकी अंकुरोप्ति में हेतु भूत शक्ति योनि कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिक से अधिक तीन वर्ष तक कायम रहती है। " इस प्रकार कलाय, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, बाल, कलथ, आलिसन्दक, तुअर, काला चना इत्यादि को उपर्युक्त तरीके से रखा गया हो तो उनकी उत्पादन क्षमता कम से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट योनि पांच वर्ष तक होती है। इसी प्रकार अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव, कांगणी, बरट, राल, सण, सरसों मूलक बीज आदि धान्यों की उत्पादन क्षमता कम से कम अन्तमुहूर्त एवं उत्कृष्ट योनि के कायम रहने का काल सात वर्ष है। इस निर्धारित अवधि के बाद इन सभी प्रकार के धान्यों की अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है और बीज अबीजक हो जाते हैं।" आहार संग्रहण : भगवतीसूत्र में वनस्पति विज्ञान के सम्बन्ध में जो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं उनमें से जो प्रमुख .हैं यहां उन पर विचार करना आवश्यक है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि वनस्पति कायक जीवन विभिन्न ऋतुओं में भिन्न प्रकार से अपना आहार ग्रहण करते हैं। पावस (वर्षा) ऋतु में वनस्पतियां सबसे अधिक आहार करने वाली होती है। इसके बाद शरद ऋतु व हेमन्त ऋतु में उससे कम आहार करती हैं तथा बसन्त व ग्रीष्म ऋतु में क्रमश: अल्पाहारी हो जाती हैं।" ग्रन्थ के इस कथन का अर्थ है कि वनस्पतियां जल की शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International उपलब्धता, अधिकता और कमी को ध्यान में रखते हुये ऋतुओं के अनुसार अपना आहार (पोषण) ग्रहण करती हैं। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि पौधे संकट काल के लिये भी अपने अंगों में आहार संचित कर रख लेते हैं। इसी ग्रन्थ में गौतम गणधर ने यह जिज्ञासा प्रकट की है कि यदि प्रीष्म ऋतु में पौधे कम आहार लेते हैं तो उस समय अनेक पौधे हरेभरे एवं पुष्प एवं फलों से युक्त कैसे होते हैं? तब भगवान महावीर ने समाधान करते हुये कहा कि ग्रीष्म ऋतु में उष्ण योनि वाले कुछ ऐसे वनस्पतिकाय जीव होते हैं जो उष्णता के वातावरण में भी विशेष रूप में उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त करते हैं व हरे-भरे रहते हैं। वनस्पति के विकास का यह क्रम और नियम आधुनिक वनस्पति विज्ञान से भी प्रमाणित है। परासरण की क्रिया : भगवतीसूत्र में यह भी कहा गया है कि वनस्पतिकाय में जो मूल वनस्पति हैं और कन्द वनस्पति हैं, इन सबके जीव अपनी-अपनी जाति के जीवों से जुड़े होते हैं व व्याप्त होते है किन्तु वे पृथ्वी के साथ जुड़े होने से अपना आहार ग्रहण करते हैं और उस आहार को विशेष प्रक्रिया द्वारा वृक्ष के सभी अंगों को वे पहुंचाते रहते हैं । " वनस्पति की इस प्रक्रिया को आधुनिक वनस्पति विज्ञान में ला आफ आसमोसिस (परासरण की क्रिया) कहते हैं। इस क्रिया के अन्तर्गत पौधे की जकड़ा जड़ें आक्सीलरी रूट्स मूलीय दाब के द्वारा पृथ्वी से विभिन्न प्रकार के लवणों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि का जलीय रूप में अवशोषण करके पत्तियों तक पहुंचाती हैं जहां सूर्य के प्रकाश व हरितलवक की उपस्थिति में वे भोजन का निर्माण करके पौधे के प्रत्येक भाग में पहुँचा जाती हैं, जिससे पौधा विकसित होता है। वनस्पति वर्गीकरण : इसी ग्रन्थ में एक जिज्ञासा का और समाधान किया गया है कि आलू, मूला, अदरक, हल्दी इत्यादि के अन्तर्गत आने वाली विभिन्न वनस्पतियां अनन्त जीब वाली हैं और भिन्नभिन्न जीव वाली हैं। इससे कन्द मूल के अन्तर्गत आने वाली २३ वनस्पतियों का नामकरण भी यहां दिया गया है 1 १) आलू २) मूला ३) श्रृंगवेर अदरख ४ ) हिरिली ५) सिरिली ६) सिसिरिली ७) किट्टिका ८) छिरिया ९) छीर विदारिका १०) वज्रकन्द ११) सूरणक १२) खिलूड़ा १३) भद्रमोथा १४) पिंडहरिद्रा १५) हल्दी १६) रोहिणी १७) हूथीहू १८) थिरुगा १९) मृदूकर्णी २०) अश्वकर्णी २१) सिंहकर्णी २२) सिण्डी २३) मुसुण्डी । For Private & Personal Use Only विद्वत् खण्ड / ७५ www.jainelibrary.org
SR No.012030
Book TitleJain Vidyalay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year2002
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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